08 जुलाई, 2015

आलेख : भाषायी साम्प्रदायिकता : आलोक वाजपेयी

प्रस्तुत है आलोक वाजपेयी का आलेख। आलोक जी ने एक बहुत ही महत्वपूर्ण मुद्दा इस आलेख के माध्यम से उठाया है , इसे अवश्य पढ़ा जाना चाहिए.

भाषायी साम्प्रदायिकताः कुछ विचार बिन्दु

साम्प्रदायिकता यूं तो मूलतः एक राजनीतिक विचारधारा है और आधुनिक राजनीति (जिसे जन समावेशी राजनीति भी कह सकते हैं) की एक नकारात्मक प्रवृत्ति है। फिर भी हमें याद रखना चाहिए कि कोई भी विचारधारा, चाहे वो बुरी से बुरी या अच्छे से अच्छी हो, किसी सामाजिक सांस्कृतिक शून्य में  स्वतः उत्पन्न या प्रभावशाली नहीं हो जाती। उसे समाज के भीतर अपनी पैठ बनाने के लिए जनता का समर्थन, सहयोग व संवेदना पाने के लिए तमाम सांस्कृतिक, सामाजिक-आर्थिक अवस्थितियों का उपयोग (या दुरूपयोग) करना ही होता है। भारत में भाषायी साम्प्रदायिकता भी इसी प्रक्रिया का एक परिणाम है। इस संक्षिप्त वक्तव्य में हिन्दी-उर्दू विवाद के परिपे्रक्ष्य में भाषायी साम्प्रदायिकता पर कुछ विचार बिन्दु रखना चाहूंगा।
1. औपनिवेशिक काल में इतिहास की साम्प्रदायिक व्याख्या औपनिवेशिक शासकों द्वारा खूब प्रचारित प्रसारित की गयी और इतिहास शिक्षा का आधार बनी। प्राचीन भारत को हिन्दू काल और मध्यकालीन भारत को मुस्लिम काल लोगों के जेहन में इतना भीतर तक घुसाया गया कि आज भी लोग इस साम्प्रदायिक व अवैज्ञानिक सोच से मुक्ति न पा सके है।
2. चूँकि  हिन्दी की लिपि देवनागरी थी और संस्कृत की लिपि भी वही थी, इसलिए हिन्दी हिन्दुओं की भाषा हो गयी। चूंकि उर्दू की लिपि फारसी थी तो उसे मुसलमानों की भाषा होना ही था। यह भाषायी साम्प्रदायिकता का सबसे बुनियाद सवाल बना, जो आज भी सुलझ न सका है।
3. औपनिवेशिक काल की शुरूआत से ही ’प्राच्यवाद’ (Orientalism) भी एक मुख्य वैचारिक उपागम बन कर उभरा। एक आत्मविश्वासहीन, पराधीन औपनिवेशिक समाज के लिए सुदूर अतीत में आत्मविश्वास खोजना सभी औपनिवेशिक समाजों की विशेषता रही है और भारत की सांस्कृतिक मनःस्थिति इससे अछूती न रही। उर्दू अपने को उत्कृष्ट भाषा बनाने के फेर में अरबी, फारसी के शरण में जाने लगी और हिन्दी प्राचीन काल की गौरव भाषा संस्कृत से प्राणवायु लेने लगी।
4. ध्यान देने की बात है कि भारत लोक भाषाओं, क्षेत्रीय भाषाओं और बोलियों  के मामले में  अत्यन्त विविध और समृद्ध रहा है। होना यह चाहिए था कि ये दोनों भाषाएं अपने प्राचीनतम जड़ों में जाकर पुनरूत्थान की मरीचिका में फंसने के बजाय जीवित उपलब्ध विभिन्न जन समुदाय की संस्कृतियों से जुड़ती और अपनी अभिव्यक्ति क्षमता, शब्द सम्पदा को बढ़ाती और वास्तव में जनता की भावनाओं, आकांक्षाओं व संवेदनाओं की वाहक बनतीं। परन्तु इसके बजाय इन्होंने मृत/विस्मृत/सन्दर्भहीन/निष्प्रयोज्य शब्द चयन (जो संस्कृत, अरबी, फारसी से थे) को ही भाषायी उत्कृष्टता समझ लिया।
5. भाषा का यह साम्प्रदायिक विभाजन बीसवीं सदी की शुरूआत तक जड़ पकड़ चुका था। उर्दू में इसका असर एक प्रकार के भाषायी अलगाववाद के रूप में सामने आया, क्योंकि मुसलमान संख्या में कम थे और साम्प्रदायिकता के अलगाववादी चेहरे की तरफ जा रहे थे। हिन्दुओं में इसका असर एक बहुसंख्यकवादी विस्तारवाद के रूप में सामने आया, क्योंकि वो साम्प्रदायिकता के वर्चस्ववादी चेहरे की ओर बढ़ रहे थे।
6. इस प्रकार भाषायी फिरकापरस्ती हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिकता का मुख्य वैचारिक उपकरण बन गयी और इसने इसे दीर्घकालिक आॅक्सीजन प्रदान की। लेकिन यदि थोड़ा और गहरायी में देखें तो इसके भाषायी और सांस्कृतिक स्तर पर और भी परिणाम हुए, जिनसे उबरने का उपाय कोई भागीरथ प्रयत्न की मांग करता है।
7. इस लेखक का मानना है कि भाषायी साम्प्रदायिकता से मुक्ति के लिए हिन्दी की भूमिका अधिक जिम्मेदारी की होनी चाहिए थी। निश्चित ही, आजादी के पूर्व भाषायी साम्प्रदायिकता से निपटने के लिए स्थितियां अत्यधिक विषम थी, परन्तु आजादी के बाद हिन्दुस्तान में हिन्दी को जो भूमिका निभानी चाहिए थी, उसमें वह सफल नहीं हुयी है।
8. अन्त में, भाषायी साम्प्रदायिकता कई सूक्ष्म स्तरों पर कार्य करती है। जैसे लेखन के क्षेत्र में भाषायी साम्प्रदायिकता क्लिष्ठ, असंप्रेश्य शब्दावली, शब्दाडम्बर, विषय की वस्तुपरक, क्रमबद्ध प्रस्तुतीकरण कर सकने का अभाव, भाषिक चमत्कार ही विद्वता समझना, व्यापक जीवित जन संवेदनाओं की सतत् अनुपस्थिति और प्रामाणिकता का अभाव के रूप में  की काफी सूक्ष्म ढ़ंग से सामने आती है।
9. यदि भाषायी साम्प्रदायिकता का अधिक प्रत्यक्ष रूप देखना हो तो कस्बों, शहरों में होने वाली मंचीय कवि सम्मेलनों पर जरूर निगाह डालनी चाहिए। भाषायी साम्प्रदायिकता प्रायः वहां रौद्र नाच करती है और जो कि साम्प्रदायिक देश बखान, घृणा, नफरत, तंगदिली व बुद्धिहीनता का खुला प्रदर्शन वहां होता है।

यह आलेख चूंकि मात्र भाषिक साम्प्रदायिकता को ध्यान में रखकर लिखा गया है। इसलिए इसे समग्र हिन्दी या उर्दू पर टिप्पणी न समझा जाए।
- अलोक बाजपेई
-----------------------------
टिप्पणियाँ:-

संध्या:-
अलोक ने बहूत अच्छा मुद्दा उठाया है सच में ।
होना तो ये चाहिए था क़ि हम अपने इतिहस से पाई गयी साझा विरासत को अपनी भाषा का हिस्सा बनाते ।लेकिन अपने अपने भाषाई दम्भ में भाषा का चाहे हिंदी हो या उर्दू एक क्लिष्ट रूप विकसित करते गए ।जो सामान्य जन से कोसो दूर था ।
बोल चाल की भाषा में मुझे लगता है एक मिली जुली भाषा का इस्तेमाल ही अधिक होता है जो स्थान बिशेष की  बोली के रूप में उपस्थित होता है ।
कवि सम्मेलनों में व्याप्त तंगदिली घृणा और बुद्धिहीनता भी बरसों बरस से सिखाई जा रही इतिहास से उपजी मानसिकता का ही एक हिस्सा है।
साहित्य को अब इस विभाजित खांचे से मुक्त करने का बीड़ा उठाना चाहिए ।
अपनी कहूँ तो मिली जुली भाषा का इस्तेमाल मुझे अच्छा लगता है ।अभी मृदुला गर्ग जी की 'मिल जुल मन'पढ़ने में आई जिसने मुज्ज बिशेष प्रभावित किया ।इसकी मिली जुली भाषा मुझे बहुत अच्ची लगी ।लीक को तोड़ती हुई ।

प्रज्ञा :-
भाषाई साम्प्रदायिकता को सबसे पहले शुद्धतावाद के खुनी जबड़े से निकलना होगा। एक जड़ और रूढ़ यथास्थितिवादी नज़रिये से बाहर। और दूसरे उस भाषाई विरासत पर अभिमान करना सीखना होगा जहां हिंदी उर्दू मजहबो से नहीं गंगा जमुनी संस्कृति में पगकर एक मंच पर आती हैं।
एक दूसरी बड़ी समस्या साम्राज्यवाद और भाषा और भाषाई हेजेमनी की भी है उसे भी समझना चाहिए। थ्योंगो और फ्रेरे के विचारों को भी समझना जानना ज़रूरी होगा कि भाषा अभिव्यक्ति के साथ उत्पीड़न का औज़ार भी बनती है। चाहे मसला साम्प्रदायिकता का हो या साम्राज्यवाद दोनों का प्रबल हथियार भाषा भी है।

मुकेश माली :-
इस लेख में भाषाई साम्प्रदायिकता
पर बात कही गई.. ..पर इन सबसे उबरने के लिए वर्तमान
में क्या तार्किक हल हो सकते हैं
यह संकेत नहीं मिलता.. ..

ब्रजेश कानूनगो:-
यह बिलकुल ठीक बात है कि भोजन भूषा और भाषा जैसी सामुदायिक चीजों को साम्प्रदायिक उपकरण बनाये जाने के प्रयास हमेशा होते रहे हैं।इस समस्या का निदान मात्र अच्छी शिक्षा ही हो सकती हो सकती है लेकिन उसे भी ऐसे ही उपकरण में बदल डालने के प्रयास होने लगते हैं।यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है।

अशोक जैन:-
ऐतिहासिक कारण जो भी रहे हों, भाषाई साम्प्रदायिकता को राजनैतिक दलों ने भरपूर हवा दी है और दे रहे हैं। इसका एकमात्र हल अच्छी शिक्षा के प्रति जागरूकता ही हो सकता है। सही बात है वहाँ भी साम्प्रदायिकता हावी है प्रज्ञाजी। कभी कभी ऐसा लगता है कि अंधेरी सुरंग के अंदर हैं और रोशनी की कहीं कोई किरण नजर नहीं आ रही है। फिर भी वह सुबह कभी तो आयेगी।

अलकनंदा साने:-
आलोक जी ने गहन जांच पडताल के साथ, एक लगभग अछूता विषय विचार मंथन के लिए प्रस्तुत किया है । सतही तौर पर हमें मात्र धार्मिक आधार पर  सांप्रदायिकता दिखाई देती है , लेकिन उसकी जडें जीवन के अनेक पहलुओं में गहरे तक धंसी हैं । पहले औपनिवेशिक शासन ने और बाद में हमारी चुनी हुई सरकारों ने इस भेदभाव को स्वहित में खूब भुनाया और आज भी वह क्रम जारी है । हिंदी की दुर्दशा को लेकर प्राय: मकराश्रु बहाए जाते हैं पर उसकी तह तक कोई जाना नहीं चाहता और उसकी वजह भी साफ है, साहित्य और भाषा के भी अपने अपने मठ बने हुए हैं तथा उनके मठाधीश भी स्वार्थ के चलते सरकारों की हां में हां मिलाते हैं ।

एक बहुत अच्छे और जरूरी विषय के लिए आलोक जी बधाई । वागीश जी धन्यवाद ।

निरंजन श्रोत्रिय:-
भाषायी साम्प्रदायिकता के जरिये आलोक जी ने साम्प्रदायिकता के नए कोणों को देखा है। दरअसल संवाद के सेतु भाषा का उपयोग बहुत सोची-समझी रणनीति के तहत साम्प्रदायिकता के उभार के लिए किया जाता रहा है। हिंदी बनाम उर्दू तो एक पुराना विवाद है। भाषा को साम्प्रदायिकता का संवाहक बनाने के पीछे वे राजनीतिक शक्तियां रहीं जो इसके जरिये समाज में एक अलगाववादी फांक पैदा करना चाहती थीं। भाषा चूँकि एक संवेदनशील मसला है इसलिए हुक्मरानों के लिए यह आसान भी हुआ। इन दिनों दक्षिणपंथियों द्वारा संस्कृत एवं योग का महिमामंडन इसी साज़िश की एक कड़ी है। यहाँ हिंदी की दशा-दिशा कोई विषय ही नहीं है। दरअसल राजनीतिक स्वार्थ के चलते एक भाषा को दूसरी भाषा के खिलाफ खड़ा कर उसका सांप्रदायिक लाभ लेना ही इन ताकतों का निहितार्थ है। क्या कारण है कि कॉलेज/ यूनिवर्सिटी में हिंदी विभाग में कोई मुस्लिम प्राध्यापक नहीं होता (अपवाद छोड़ दें) और उर्दू विभाग में केवल मुस्लिम प्राध्यापक एवं छात्र होते हैं ? मध्य प्रदेश फ़िल्म डेवलपमेंट कारपोरेशन ने श्रीराम तिवारी के निर्देशन में एक डाक्यूमेंट्री बनाई थी -"उर्दू है जिसका नाम"। यह एक अद्भुत फ़िल्म थी जिसमें उर्दू के उद्भव, विकास एवं भ्रांतियों का मार्मिक खुलासा था। हिंदी और उर्दू के ऐतिहासिक नैकट्य को कभी भी रेखांकित करने की कोशिश नहीं की गई। हमारी गंगो-जमनी संस्कृति में ये दोनों भाषाएँ दो बहनों की तरह रहीं लेकिन यह जुगलबंदी बनी रहे ऐसे प्रयास बहुत कम हुए। दरअसल किसी भाषा को श्रेष्ठतम साबित कर देने से इतिहास में छेड़छाड़ करना अधिक आसान हो जाता है क्योंकि तब आपके पास दूसरी भाषा जो कि एक पक्ष हो सकता है, के लिए कोई स्पेस ही नहीं बचता। इन दिनों संस्कृत का आग्रह भी दिलचस्प है। यूँ यह कोई बुरी बात नहीं, संस्कृत बहुत अच्छी भाषा है और उसका प्रचलन बढ़ना चाहिए लेकिन एक सवाल भी है कि इसके पीछे वाकई आपका परंपरा और संस्कृति के प्रति अनुराग है या केवल सांप्रदायिक उत्साह!

सत्यनारायण:-
आलोक वाजपेयी जी ने जिस गंभीरता से भाषायी साम्प्रदायिकता की पड़ता अपने लेख में की है...उसी गंभीरता को बरकरार रखते हुए निरंजन श्रोत्रिय जी ने भी विषय के अन्य पहलू पर रोशनी डाली है.....यह एक ऐसा विषय है...जिससे जाने-अनजाने में समाज हर तबका प्रभावित होता है...

आशीष मेहता:-
हुक्मरानों, सरकारों एवं अन्य मठों की कारगुजारियां निस्संदेह अनवरत रहीं हैं। पर क्या सामाजिक तौर (हमारा) धर्म निरपेक्ष न होना 'समस्या' के जड़ में नहीं है  ? क्या यही असहिष्णुता "जात-पात" पर आकर और विकराल रूप में नहीं दिखती (न सिर्फ सरकारी दफ्तरों में बल्कि निजी संस्थानों में भी) ?? क्या "साम्प्रदायिकता (भाषाई साम्प्रदायिकता समेत)" की  "नकारात्मकता" का ठीकरा सिर्फ राजनीतिक / सरकारी / मठाधीशों पर छोड़ा जाना चाहिए?? यदि हाँ, तो आजादी कैसे मिली  / सती प्रथा क्यों कर छूट गई???

आशीष मेहता:-
आलोकजी के बिन्दु क्रमांक ७ में हिन्दी की भूमिका की "गैर जिम्मेदारी" किन कान्धों पर है  ? जिम्मेदारी से इस भूमिका के विस्तार के क्या उपाय हैं  ?? (कम जानकारी की वजह से मेरे पास सवाल ज्यादा हैं । तारतम्य टूटा हो, तो क्षमा करें।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें