22 जुलाई, 2015

व्यंग्य : शरद जोशी

हम सब अद्भुत व्यंगकार शरद जोशी जी को जानते ही हैं। शरद जोशी सात वर्षो तक रोज एक नया विषय, एक नयी भाषा शैली, एक नयी व्यंग दृष्टि से नवभारत टाइम्स में आखिरी पन्ने पर व्यंग का एक कोना लिखते रहे। 10-15 पंक्तियो से लेकर 25-30 पंक्तियों तक का वह व्यंग्य काॅलम इतना प्रसिद्ध हुआ कि मानो उसने अखबार पढ़ने के तरीके बदल दिए। तमाम लोग पिछले पन्ने से अखबार को पढ़ने लगे। लोगो को इतनी उत्सुकता होती थी कि आज का विषय क्या होगा ? किस पर होगा? किस कोण से होगा? और जोशी जी रोज एक नया विषय उठाते।
कथ्य में भीना भीना व्यंग्य करते हुए एक चुटीला सा कटाक्ष करते थे कि पाठक सोचता ही रह जाता था एक दम पारदर्शी व्यंग्य।
ऐसा ही एक धारदार व्यंग्य आज पढ़ते हैं-

॥एक भूतपूर्व मंत्री से मुलाकात॥

शरद जोशी

मंत्री थे तब उनके दरवाजे कार बँधी रहती थी। आजकल क्वार्टर में रहते हैं और दरवाजे भैंस बँधी रहती है। मैं जब उनके यहाँ पहुँचा वे अपने लड़के को दूध दुहना सिखा रहे थे और अफसोस कर रहे थे कि कैसी नई पीढ़ी आ गई है जिसे भैंसें दुहना भी नहीं आता।

मुझे देखा तो बोले - 'जले पर नमक छिड़कने आए हो!'

'नमक इतना सस्ता नहीं है कि नष्ट किया जाए। कांग्रेस राज में नमक भी सस्ता नहीं रहा।'

'कांग्रेस को क्यों दोष देते हो! हमने तो नमक-आंदोलन चलाया।' - फिर बड़बड़ाने लगे, 'जो आता है कांग्रेस को दोष देता है। आप भी क्या विरोधी दल के हैं?'

'आजकल तो कांग्रेस ही विरोधी दल है।'

वे चुप रहे। फिर बोले, 'कांग्रेस विरोधी दल हो ही नहीं सकती। वह तो राज करेगी। अंग्रेज हमें राज सौंप गए हैं। बीस साल से चला रहे हैं और सारे गुर जानते हैं। विरोधियों को क्या आता है, फाइलें भी तो नहीं जमा सकते ठीक से। हम थे तो अफसरों को डाँट लगाते थे, जैसा चाहते थे करवा लेते थे। हिम्मत से काम लेते थे। रिश्तेदारों को नौकरियाँ दिलवाईं और अपनेवालों को ठेके दिलवाए। अफसरों की एक नहीं चलने दी। करके दिखाए विरोधी दल! एक जमाना था अफसर खुद रिश्वत लेते थे और खा जाते थे। हमने सवाल खड़ा किया कि हमारा क्या होगा, पार्टी का क्या होगा?'

'हमने अफसरों को रिश्वत लेने से रोका और खुद ली। कांग्रेस को चंदा दिलवाया, हमारी बराबरी ये क्या करेंगे?'

'पर आपकी नीतियाँ गलत थीं और इसलिए जनता आपके खिलाफ हो गई!'

'कांग्रेस से यह शिकायत कर ही नहीं सकते आप। हमने जो भी नीतियाँ बनाईं उनके खिलाफ काम किया है। फिर किस बात की शिकायत? जो उस नीति को पसंद करते थे, वे हमारे समर्थक थे, और जो उस नीति के खिलाफ थे वे भी हमारे समर्थक थे, क्यों कि हम उस नीति पर चलते ही नहीं थे।'

मैं निरुत्तर हो गया।

'आपको उम्मीद है कि कांग्रेस फिर इस राज्य में विजयी होगी?'

'क्यों नहीं? उम्मीद पर तो हर पार्टी कायम है। जब विरोधी दल असफल होंगे और बेकार साबित होंगे, जब दो गलत और असफल दलों में से ही चुनाव करना होगा, तो कांग्रेस क्या बुरी? बस तब हम फिर 'पावर' में आ जाएँगे। ये विरोधी दल उसी रास्ते पर जा रहे हैं जिस पर हम चले थे और इनका निश्चित पतन होगा।'

'जैसे आपका हुआ।'

'बिलकुल।'

'जब से मंत्री पद छोड़ा आपके क्या हाल हैं?'

'उसी तरह मस्त हैं, जैसे पहले थे। हम पर कोई फर्क नहीं पड़ा। हमने पहले से ही सिलसिला जमा लिया था। मकान, जमीन, बंगला सब कर लिया। किराया आता है। लड़के को भैस दुहना आ जाए, तो डेरी खोलेंगे और दूध बेचेंगे, राजनीति में भी रहेंगे और बिजनेस भी करेंगे। हम तो नेहरू-गांधी के चेले हैं।'

'नेहरू जी की तरह ठाठ से भी रह सकते हैं और गांधी जी की तरह झोंपड़ी में भी रह सकते हैं। खैर, झोंपड़ी का तो सवाल ही नहीं उठता। देश के भविष्य की सोचते थे, तो क्या अपने भविष्य की नहीं सोचते! छोटे भाई को ट्रक दिलवा दिया था। ट्रक का नाम रखा है देश-सेवक। परिवहन की समस्या हल करेगा।'

'कृषि-मंत्री था, तब जो खुद का फार्म बनाया था, अब अच्छी फसल देता है। जब तक मंत्री रहा, एक मिनट खाली नहीं बैठा, परिश्रम किया, इसी कारण आज सुखी और संतुष्ट हूँ। हम तो कर्म में विश्वास करते हैं। धंधा कभी नहीं छोड़ा, मंत्री थे तब भी किया।'

'आप अगला चुनाव लड़ेंगे?'

'क्यों नहीं लड़ेंगे। हमेशा लड़ते हैं, अब भी लड़ेंगे। कांग्रेस टिकट नहीं देगी तो स्वतंत्र लड़ेंगे।'

'पर यह तो कांग्रेस के खिलाफ होगा।'

'हम कांग्रेस के हैं और कांग्रेस हमारी है। कांग्रेस ने हमें मंत्री बनने को कहा तो बने। सेवा की है। हमें टिकट देना पड़ेगा। नहीं देंगे तो इसका मतलब है कांग्रेस हमें अपना नहीं मानती। न माने। पहले प्रेम, अहिंसा से काम लेंगे, नहीं चला तो असहयोग आंदोलन चलाएँगे। दूसरी पार्टी से खड़े हो जाएँगे।'

'जब आप मंत्री थे, जाति-रिश्ते वालों को बड़ा फायदा पहुँचाया आपने।'

'उसका भी भैया इतिहास है। जब हम कांग्रेस में आए और हमारे बारे में उड़ गई कि हम हरिजनों के साथ उठते-बैठते और थाली में खाना खाते हैं, जातिवालों ने हमें अलग कर दिया और हमसे संबंध नहीं रखे। हम भी जातिवाद के खिलाफ रहे और जब मंत्री बने, तो शुरू-शुरू में हमने जातिवाद को कसकर गालियाँ दीं।'

'दरअसल हमने अपने पहलेवाले मंत्रिमंडल को जातिवाद के नाम से उखाड़ा था। सो शुरू में तो हम जातिवाद के खिलाफ रहे। पर बाद में जब जातिवालों को अपनी गलती पता लगी तो वे हमारे बंगले के चक्कर काटने लगे। जाति की सभा हुई और हमको मानपत्र दिया गया और हमको जाति-कुलभूषण की उपाधि दी। हमने सोचा कि चलो सुबह का भूला शाम को घर आया। जब जाति के लोग हमसे प्रेम करते हैं, तो कुछ हमारा भी फर्ज हो जाता है। हम भी जाति के लड़कों को नौकरियाँ दिलवाने, तबादले रुकवाने, लोन दिलवाने में मदद करते और इस तरह जाति की उन्नति और विकास में योग देते। आज हमारी जाति के लोग बड़े-बड़े पदों पर बैठे हैं और हमारे आभारी हैं कि हमने उन्हें देश की सेवा का अवसर दिया। मैंने लड़कों से कह दिया कि एम.ए. करके आओ चाहे थर्ड डिवीजन में सही, सबको लैक्चरर बना दूँगा। अपनी जाति बुद्धिमान व्यक्तियों की जाति होनी चाहिए। और भैया अपने चुनाव-क्षेत्र में जाति के घर सबसे ज्यादा हैं। सब सॉलिड वोट हैं। सो उसका ध्यान रखना पड़ता है। यों दुनिया जानती है, हम जातिवाद के खिलाफ हैं। जब तक हम रहे हमेशा मंत्रिमंडल में राजपूत और हरिजनों की संख्या नहीं बढ़ने दी। हम जातिवाद से संघर्ष करते रहे और इसी कारण अपनी जाति की हमेशा मेजॉरिटी रही।'

लड़का भैंस दुह चुका था और अंदर जा रहा था। भूतपूर्व मंत्री महोदय ने उसके हाथ से दूध की बाल्टी ले ली।

'अभी दो किलो दूध और होगा जनाब। पूरी दुही नहीं है तुमने। लाओ हम दुहें।' - फिर मेरी ओर देखकर बोले, एक तरफ तो देश के बच्चों को दूध नहीं मिल रहा, दूसरी ओर भैंसें पूरी दुही नहीं जा रहीं। और जब तक आप अपने स्रोतों का पूरी तरह दोहन नहीं करते, देश का विकास असंभव हैं।'

वे अपने स्रोत का दोहन करने लगे। लड़का अंदर जाकर रिकार्ड बजाने लगा और 'चा चा चा' का संगीत इस आदर्शवादी वातावरण में गूँजने लगा। मैंने नमस्कार किया और चला आया।

��परिचय
जन्म : 21 मई 1931, उज्जैन (मध्य प्रदेश) को हुआ।

भाषा - हिन्दी

विधाएँ : व्यंग्य, फिल्म, धारावाहिक, नाटक

मुख्य कृतियाँ

व्यंग्य  संग्रह : परिक्रमा, किसी बहाने, तिलिस्म, रहा किनारे बैठ, मेरी श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएँ, दूसरी सतह, हम भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे, यथासंभव, जीप पर सवार इल्लियाँ

फिल्म लेखन : क्षितिज, छोटी-सी बात, सांच को आंच नही, गोधूलि, उत्सव
 
धारावाहिक लेखन : ये जो है जिन्दगी, विक्रम बेताल, सिंहासन बत्तीसी, वाह जनाब, देवी जी, प्याले में तूफान, दाने अनार के, ये दुनिया गजब की 

सम्मान
पद्मश्री, चकल्लस पुरस्कार, काका हाथरसी पुरस्कार

निधन
5 सितंबर 1991, मुंबई

⭕प्रस्तुति- मनीषा जैन
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टिप्पणियाँ:-

फ़रहत अली खान:-
बढ़िया व्यंग्य है। शरद जी का नाम बहुत सुना था, लेकिन उनका लिखा व्यंग्य आज पहली बार पढ़ा। आसान ज़बान में बग़ैर ज़्यादा लाग-लपेट के अच्छा तंज़ कसा सियासत पर।
ख़ास-तौर पर 'नीति' वाली और 'स्रोतों का दोहन' वाली बात बहुत गहराई लिए हुए है, सो पढ़कर हँसी आ गयी। नेता-लोग जनता के पैसों का ख़ूब दोहन करते हैं और अपने बच्चों को भी उसी राह पर डालने की कोशिश करते हैं।

धनश्री :-
शरद जी के व्यंगशैली को पढ़ने का अवसर मिलता रहा है उनके व्यंग गहराई तक ले जाते है उनसे मिलने का सौभाग्य तो नहीं मिला किन्तु उनकी बेटी बानी दीदी के साथ delhi में काम करते दौरान उनके बारे में बहोत सुनने को मिला।

ब्रजेश कानूनगो:-
शरद जोशी के लेखन में एक अलग कलात्मकता होती थी .उनकी रचनाओं की भाषा में एक ऐसी लय होती थी जैसी किसी श्रेष्ठ फ़ुटबाल या हॉकी खिलाड़ी के खेल में होती है. शब्दों की 'ड्रिबलिंग' करते हुए वे सीधे गोल के अंदर पहुँच जाते थे. शब्दों की यही 'ड्रिबलिंग' उनकी अनेक रचनाओं में कई जगह मौजूद है, सच तो यह है कि जिन रचनाओं में वे शब्दों के साथ इस प्रकार खेलें हैं,वे बड़ी ही प्रभावशाली बन पडी हैं।

ब्रजेश कानूनगो:-
शब्दों से खिलवाड करने की यही प्रकृति 'नेतृत्व की ताकत ' शीर्षक रचना में भी बहुत अर्थपूर्ण रूप से सामने आती है. 'नेता' शब्द का विश्लेषण करते हुए वे कहते हैं-  नेता शब्द दो अक्षरों से मिलकर बना है- 'ने' तथा ' ता'....एक दिन ये हुआ कि नेता का 'ता' खो गया. सिर्फ 'ने' रह गया....इतने बड़े नेता और 'ता' गायब...नेता का मतलब होता है नेतृत्व करने की ताकत . ताकत चली गयी सिर्फ नेतृत्व रहा गया. 'ता' के साथ ताकत चली गई.तालियाँ खत्म हो गईं जो 'ता' के कारण बजतीं थीं. जिसका 'ता' चला गया उसकी सुनता कौन है--  नेता ने सेठजी से कहा—यार हमारा 'ता' गायब है ,अपने 'ताले' में से 'ता' हमें दे दो . सेठ ने कहा कि –यह सच है कि 'ले' की मुझे जरूरत रहती है ,क्योंकि 'दे' का तो काम नहीं पडता ,मगर 'ताले' का 'ता' चला गया तो 'लेकर' रखेंगे कहाँ ..?सब इनकमटैक्स वाले ले जाएँगे... तू नेता रहे कि न रहे ,मै ताले का 'ता' नहीं दूंगा .'ता' मेरे लिए जरूरी है कभी ' तालेबंदी'  करना पडी तो.  एकदिन उसने अजीब काम किया .कमरा बंद कर 'जूता' में से 'ता' निकाला और 'ने ' से चिपका दिया...फिर 'नेता' बन गया. ..जब भी संकट आएगा ,नेता का 'ता' नहीं रहेगा,लोग निश्चित ही 'जूता' हाथ में लेकर प्रजातंत्र की प्रगति में अपना योगदान देंगे. कितना सही कहा था शरद जोशी ने, जूते द्वारा प्रजातंत्र के योगदान पर आज की कहानियाँ क्या सचमुच उल्लेख करने की यहाँ  जरूरत रह गई  है .
आज हमारे बीच शरद जी नहीं हैं इसीलिए हमें भ्रष्टाचार के कारण मंत्रियों के जेल जाने की प्रक्रिया तथा जेल जाने पर अचानक ह्रदय रोग होने की बीमारी के लिए उचित शब्द नहीं मिल पा रहे हैं. शरद जी के बाद  व्यंग्य में भी नए  शब्दों के निर्माण पर मंदी की छाया स्पष्ट दिखाई दे रही है. शरदजी ने ऐसे अनेक विषयों को अपनी रचनाओं का विषय बनाया जो व्यंग्य के परम्परागत विषयों से बिलकुल अलग रहे. निसंदेह इसके पीछे उनकी तीखी नजर,चुटीली भाषा और शब्दों की बाजीगरी रही है,जिसके कारण वे ऐसा कर सके.
व्यंग्य लेखन का यह योद्धा भाषा के मैदान में शब्दों का सार्थक खेल प्रतिदिन खेलता रहा . साहित्य के अखाड़े में भले ही कुछ आयोजकों ने परहेज किया हो लेकिन  उस एकलव्य ने कभी किसी प्रतियोगिता में उतरने की चाह नहीं रखी. जहाँ भी विसंगति का कुत्ता भोंकता नजर आया उसने अपना तरकश खाली कर दिया.

प्रज्ञा:-
ज़ोरदार । तीखा व्यंग। इसे कहते जिसकी जूती उसके ही सर पर दे मारना। अफ़सोस इस देश में सब को गाय भैंस बकरी और ऊंट को पूरा दोहना नहीं आ पाया अब इस में हम भी शामिल है। एक भी गाय भैस बकरी और ऊंट न रख पाएं! अब पहले ऐसा घर बनाएंगे जहां इनको और इनके चारे को रख पाएं।

राज बोहरे:-
आसपास की चीजो पर आसपास की भाषा में लिखना शरद जी की विशेषता थी और कमाल भी।ताज्जुब कि इस व्यंग्य में वे बातें लाते है जो आज भी मौजू है।

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