08 जुलाई, 2015

कहानी : तुम्हारी बिरादरी नहीं सुधरेगी : शालिनी वाजपेयी

॥ तुम्हारी बिरादरी नही  सुधरेगी'॥

प्रोफेसर साहब के कॉलेज में बाह्मन देव चतुर्थ श्रेणी के पद पर कार्यरत हैं। काम तो उनका पानी पिलाना, फाइलें उठाना आदि आदि है। लेकिन,  बाह्मन देव हैं कि बस 'अपने' काम से मतलब रखते हैं, ड्यूटी से नहीं। पानी वे किसी को पिलाते नहीं, हां कभी-कभार घोर आवश्यकता पड़े तो फाइलें ज़रूर इधर से उधर सरका देते हैं। 'पंडित जी' पुकारा जाना उन्हें भाता है। जब भी कोई टेर लगाता है.....पंडित जीssss....तो बाह्मन देव के अंतर में कुछ घट जाता है। उनका ललाट दमक उठता है, चेहरा खिल जाता है। फिर वे कहे गए काम को ऐसे करते मानो अहसान कर रहे हों। ...और बाकी जो 'आदि-आदि' कार्य हैं उन्हें पंडित जी बहुत श्रद्धा से करते हैं। जैसे 50 से 100 रुपए ले कर छात्रों को मार्कशीट बांटना.....आदि-आदि।

प्रोफेसर साहब को कॉलेज ज्वाइन करे अभी कुछ ही महीने हुए थे कि परीक्षा कराने की जिम्मेदारी उन्हें सौंप दी गई। नए-नए थे सो सज-संवर के नियत समय पर कॉलेज पहुंच गए। उन्हें कहा गया था कि गेट खोलने की ड्यूटी पंडित जी की है और पंडित जी टाइम के बहुत पक्के हैं।

...लेकिन ये क्या, टाइम तो हो गया, लेकिन गेट बंद और पंडित जी नदारद। प्रोफेसर साहब नए थे, थोड़ा घबरा गए। तुरंत प्रिंसिपल को फोन लगाया। स्थिति बताई। कॉलेज टाइम पर नहीं खुलेगा तो परीक्षा टाइम पर कैसे होगी। प्रिंसिपल तुरंत हरकत में आए। इधर फोन रखा और उधर पंडित जी बड़बड़ाते हुए कॉलेज गेट पर प्रकट हुए। लेकिन, आज पंडित जी के ललाट पर चमक नहीं थी, उनके कर्ण पल्लवों पर उगे बालों की फड़फड़ाहट बता रही थी कि पंडित जी किसी बात से बहुत.... बहुत खिन्न हैं।

प्रोफेसर साहब स्मार्ट आदमी हैं। पढ़ाई-लिखाई में अव्वल, वाकपटु, जेआरएफ क्वालीफाइड, थीसेस भी जमा कर दी है, मतलब कि सब कुछ वाह-वाह। बस प्रोफेसर साहब में एक ही जन्मजात कमी है, वो...अंत्यज.... मेरा मतलब दलित हैं। जैसा कि होता है कि उनके ज्वाइन करने से पहले उनकी जाति की ज्वाइनिंग कॉलेज में हो चुकी थी।

अब पंडित जी की दिक्कत ये थी कि वो एक दलित के लिए गेट कैसे खोलें। तौबा! तौबा! लेकिन काम तो काम, सरकारी ड्यूटी करनी थी सो करनी पड़ी। पंडित जी के जातिगत अहम को शायद पहली बार इतनी बड़ी ठेस पहुंची थी। गेट खोल के सीधे लाइब्रेरी के एकान्त में गए, जहां वो छात्रों से पैसे उगाहते थे और धारा प्रवाह प्रोफेसर साहब को, उनकी जन्मजात कमी को लगे गरियायने। इतने में नन्हे वहां झाड़ू लगाने पहुंचा तो उसने पंडित जी का स्वभाषण सुन लिया। बोला, प्रोफेसर साहब को गाली दे रहे हो अभीSS......अब पंडित जी सकपका गए। लगे खींसे नपोरने, नन्हे को समझाने। लेकिन, बात लीक हो ही गई।

प्रोफेसर साहब आन्दोलनकारी छात्र रहे हैं, सो ऐसी बातों से निपटना उन्हें भली-भांति आता है। उसी शाम उनका फोन आया। दीन दुनिया की सारी बातें करने के बाद अपनी टीस निकाली, बोले......यार दुनिया बदल गई पर तुम्हारी बिरादरी सुधरेगी नहीं। तुम्हारी बिरादरी को हर जगह priviledge चाहिए.....सारी priviledge आप ही ले लेंगे, दूसरों के लिए कुछ नहीं छोड़ेंगे.....क्या इसीलिए किसी को मान दिया जाए कि वह जन्मना बाह्मन है.......अरे भाई, भीतर पांडित्य भी तो हो.......स्कूल हो, कॉलेज हो, बैंक हो, कोई भी कार्यालय हो......वहां आप अपने पद के अनुसार काम करेंगे या जाति के अनुसार........

प्रोफेसर साहब नॉन-स्टॉप चालू थे..... मैंने कहा, अब बस भी कीजिए.....क्या बिरादरी का बदला हमीं से लेंगे.....प्रोफेसर साहब हंसे और बातचीत दूसरी दिशा में मुड़ गई।

अभी कुछ दिन पहले देहरादून से लौट रही थी कि ट्रेन में प्रोफेसर साहब से मुलाकात हो गई। बात करते-करते पता ही नहीं चला कब हरिद्वार आ गया। ट्रेन अभी स्टेशन पर ही रुकी हुई थी। अचानक 'मस्क' डिओडरेंन्ट की तेज गंध ने हमारा ध्यान भंग किया। तेज कदमों से एक नर काया बोगी में प्रविष्ट हुई। आधुनिक भूषा। पैंट- शर्ट, जूते, दायीं कलाई पर कलावा, माथे पर चौड़ा तिलक, करीने से कढ़े बाल......बस एक ही चीज़ थी जो उन्हें आम आदमी से अलग करती थी। वो थी उनकी स्वस्थ, सुडौल 'शिखा'। मैं अपनी चोटी पर हाथ फेरते हुए सोचने लगी, हाय! मेरी चोटी कितनी पतली बनती है। प्रोफेसर साहब ने मेरा ध्यान भंग किया, बोले, गुरुकुल कांगड़ी के लगते हैं..

बोगी में चढ़ते ही उनकी गर्दन और आंखें हरकत में आयीं। दो मिनट भी नहीं बीते थे कि वे हमारे नीचे वाली बर्थ में धंस गए। उनकी गर्दन और आंखें अभी भी चलायमान थीं। अचानक उनके चेहरे पर प्रसन्नता लहरा गई। उनकी गर्दन और आंखें एक लड़की पर स्थिर हो गईं। लड़की ने भी उन्हे देखा, उनके पास आई, उनकी बातचीत से साफ हो गया कि वो उनकी छात्रा थी। प्रोफेसर साहब बोले, मैंने कहा था न.... मैंने बात काटते हुए कहा, ये नहीं कहा था कि टीचर हैं....ठीक है, ठीक है- प्रोफेसर साहब बोले, और हम अपनी बात करने लगे। ट्रेन भी सरकने लगी थी।

...लेकिन बोगी में तो बस एक ही आवाज़ सुनाई दे रही थी। उन्ही टीचर जी की। उनकी छात्रा का रिज़र्वेशन शायद कंफर्म नहीं था। वे उसे बता रहे थे कि चिंता न करे ....और फिर पूरी बोगी को जानकारी हो गई कि उनके एक रिश्तेदार रेलवे में AGM हैं। गुरू की शरण में आकर छात्रा अब निश्चिंत थी। फिर टीचर जी ने अपनी छात्रा को उसी के मोबाइल पर रिज़र्वेशन कराना सिखाया। pnr नंबर देखना भी सिखाया। छात्रा ज्यादा देर तक मोबाइल टीचर जी के हाथों में देना नहीं  चाहती थी। टच स्क्रीन था। टीचर जी की चलायमान उंगलियां किसी अन्य आईकन पर भी तो टच हो सकतीं थी।

लेकिन टीचर जी आज अपनी छात्रा के कंधे पर बंदूक रख पूरी बोगी में अपना ज्ञान बांट देना चाहते थे। उनका स्वर और तेज़ हो गया। छात्रा आज जान रही थी कि उसके गुरु हर साल पेपर सेट करने कहां-कहां जाते हैं, यूनिवर्सिटी की कॉपियां कहां-कहां जाती हैं......वे थमने का नाम नहीं ले रहे थे, सो हमने ही अपना ध्यान उनकी ओर से हटा लिया।

इससे पहले कि मैं कुछ और कहती, प्रोफेसर साहब बोल पड़े, यार हद है.......तुम्हारी बिरादरी सुधरेगी नहीं।

000 शालिनी वाजपेयी
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टिप्पणियाँ:-

फ़रहत अली खान:-
वाह। मज़ा आ गया आज की कहानी पढ़कर। एक सामाजिक बुराई पर अच्छा कटाक्ष भी किया और कहीं कुछ बुरा भी नहीं लगा। अच्छा कहानीकार होने के लिए ये बंदिश नहीं है कि लेखन में किसी क्लासिकल क़लमकार की शबाहत आए। अंदाज़-ए-बयाँ मुझे बहुत पसंद आया। आज पूरे नंबर।

मीना शाह :-
बहुत ही बढ़िया और साफसुथरी कहानी...वाकई आज भी किसी को सिर्फ नाम बताओ तो वो सरनेम जब तक नहीं पूछ ले चैन नहीं मिलता...जाति व्यवस्था पर तीखा प्रहार..

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