16 अगस्त, 2015

ग़ज़ल : खलील-उर-रहमान आज़मी

प्रस्तुत है उर्दू अदब के प्रमुख आलोचक और शायर ख़लील-उर-रहमान आज़मी(1927-1978) साहब की ग़ज़लें(पूर्ण/आंशिक) और खुलकर चर्चा करें:

1.
अपना ही शिकवा अपना गिला है
अहले-वफ़ा को क्या हो गया है
(शिकवा/गिला - शिकायत; अहल-ए-वफ़ा - वफ़ा करने वाले लोग)

हम जैसे सरकश भी रो दिए हैं
अबके कुछ ऐसा ग़म आ पड़ा है
(सरकश - मज़बूत)

दिल का चमन है, मुरझा न जाए
ये आँसुओं से सींचा गया है

ये दर्द यूँ भी था जान-लेवा
कुछ और भी अबके बढ़ता चला है

बस एक वादा, कम-बख़्त वो भी
मर-मर के जीना सिखला गया है

जुर्म-ए-मुहब्बत मुझ तक ही रहता
उन का भी दामन उलझा हुआ है

इक उम्र गुज़री है राह तकते
जीने की शायद ये भी सज़ा है

दिल सर्द होकर ही रह न जाए
अबके कुछ ऐसी ठंडी हवा है

2.
जलता नहीं और जल रहा हूँ
किस आग में मैं पिघल रहा हूँ

मफ़्लूज हैं हाथ पाँव मेरे
फिर ज़ेह्न में क्यों ये चल रहा हूँ
(मफ़्लूज - लकवाग्रस्त)

इक बूँद नहीं लहू की बाक़ी
किस बात पर मैं मचल रहा हूँ

तुम झूठ ये कह रहे हो मुझसे
मैं भी कभी बे-बदल रहा हूँ
(बे-बदल - नायाब)

राई का बना के एक पर्बत
अब उस पे यूँ ही फिसल रहा हूँ

किस हाथ से हाथ मैं मिलाऊँ
अब अपने ही हाथ मल रहा हूँ

अब कौन सा दर रहा है बाक़ी
इस दर से मैं क्यों निकल रहा हूँ
(दर - दरवाज़ा)

क़दमों के तले तो कुछ नहीं है
किस चीज़ को मैं कुचल रहा हूँ

अब कोई नहीं रहा सहारा
मैं आज फिर से सँभल रहा हूँ

मैं क्यों करूँ आसमाँ की ख़्वाहिश
अब तक तो ज़मीं पे चल रहा हूँ

ये बर्फ़ हटाओ मेरे सिर से
मैं आज कुछ और जल रहा हूँ

मुझ को न पिलाओ कोई पानी
प्यासों के मैं साथ चल रहा हूँ

खाने की नहीं रही तलब कुछ
अब भूख के बल पे चल रहा हूँ
(तलब - इच्छा/ज़रुरत)

3.
कहाँ खो गयी रूह की रौशनी
बता मेरी रातों की आवारगी

मैं जब लम्हे-लम्हे का रस पी चुका
तो कुछ और जागी मेरी तिश्नगी
(तिश्नगी - प्यास)

अगर घर से निकलूँ तो फिर तेज़ धूप
मगर घर में डसती हुई तीरगी
(तीरगी - अंधेरा)

ग़मों पे तबस्सुम की डाली नक़ाब
तो होने लगी और बे-पर्दगी
(तबस्सुम - मुस्कराहट)

मगर जागना अपनी क़िस्मत में था
बुलाती रही नींद की जल-परी

कोई वक़्त बतला कि तुझसे मिलूँ
मेरी दौड़ती-भागती ज़िन्दगी

जिन्हें साथ चलना हो चलते रहें
घड़ी वक़्त की किसकी ख़ातिर रुकी

मैं जीता तो पाई किसी से न दाद
मैं हारा तो घर पर बड़ी भीड़ थी
(दाद - तारीफ़)

हुआ हम पे अब जिनका साया हराम
थी उन बादलों से कभी दोस्ती
(हराम - प्रतिबंधित)

मुझे ये अँधेरे निगल जाएँगे
कहाँ है तू ऐ मेरे सूरज-मुखी

निकाले गए इसके मअनी हज़ार
अजब चीज़ थी इक मेरी खामोशी
(मअनी - मायने/अर्थ)

��प्रस्तुति- फरहत खान
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टिप्पणियाँ:-

प्रज्ञा :-
वाह फरहत जी हम तो आपके इंतखाब के कायल हैं आज और हुए। रहमान आज़मी साहब की तीनों ग़ज़लें ज़िन्दगी की बेचैनी पीढ़ा और तनाव का बयां हैं। रास्ते हैं पर दीखते हुए राहें धुंधला जाती हैं। रौशनी है पर अँधेरा काबिज हो जाता है दोस्त सब सामने है पर अचानक बादल में तब्दील हो जाते हैं बस सच है तो समय के साथ चलना। बधाई। मनीषा जी का शुक्रिया।

मनीषा जैन :-
वाह फरहत जी, बहुत बेहतरीन शायरी पेश की। कैसे किसी एक दो शेरों का नाम लूँ , ज्यूँ ज्यूँ ग़ज़ल पढ़ती गयी हर शेर पर वाह वाह करती गयी। शायर ने जिन्दगी का दुख, मजबूरी, तनाव के वाकये पेश किए हैं जिनसे हम सब भी कभी न कभी बावस्ता रहते हैं तो यह दिल की बैचेनी को बयाँ करते शायर हैं। शुक्रिया, फरहत साहब पढ़वाने के लिए।

सुरेन्द्र कुमार :-
फ़रहत भाई शानदार शायरी से लुत्फन्दोज़ कराने का बेहद शुक्रिया । रंज,तंज़ और हिदायत यानि उपदेश जैसी नकारात्मकता के अलावा उसकी कायनात क़ुदरत की नेमतों घर परिवार रिश्ते दानाई फूल पेड़ पहाड़ नदियां और आस-पास जाने क्या-क्या बिखरी हुई ख़ूबसूरती पर भी नज़रेसानी हो तो चार चाँद लग जाएं । ऐसी सकारात्मक रचनाओं की तवक़्क़ो है

वसुंधरा काशीकर:-
तीसरी ग़ज़ल बहुत बेहतरीन है। मैं जीता तो पाई किसी से न दाद, हुआ हम पे अब जिनका साया हराम और निकाले गए इसके मअनी हज़ार। तीनों शेर हासिलें ग़ज़ल शेर। पर पेहली दो ग़ज़लों में शायर उतना अच्छा paradox नहीं ला पाये।

फ़रहत अली खान:-
निधि जी, अर्चना जी;
ग़ज़लों को दो वर्गों में बाँटा जा सकता है:
1. 'मुरद्दफ़ ग़ज़ल' - वो ग़ज़ल जिसमें क़ाफ़िया के साथ-साथ रदीफ़ भी होता है। ज़्यादातर ग़ज़लें मुरद्दफ़ ही होती हैं।
2. 'ग़ैर-मुरद्दफ़ ग़ज़ल' - वो ग़ज़ल जिसमें क़ाफ़िया तो होता है लेकिन रदीफ़ नहीं होता। आज पोस्ट की गयी तीसरी ग़ज़ल ग़ैर-मुरद्दफ़ है।
इसमें रदीफ़ नहीं है और क़ाफ़िया इस प्रकार है- रौशनी, आवारगी, तिश्नगी, तीरगी, बे-पर्दगी, जलपरी, ज़िन्दगी, रुकी, थी; यानी अंत में 'ई' का स्वर है।

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