17 अगस्त, 2015

कविता : मिथिलेश कुमार राय

॥ आदमी बनने के क्रम में ॥

पिता मुझे रोज पीटते थे
गरियाते थे
कहते थे कि साले
राधेश्याम का बेटा दिपवा
पढ़ लिखकर बाबू बन गया
और चंदनमा अफसर
और तू ढोर हाँकने चल देता है
हँसिया लेकर गेहूँ काटने बैठ जाता है
कान खोलकर सुन ले
आदमी बन जा
नहीं तो खाल खींचकर भूसा भर दूँगा
ओर बाँस की फूनगी पर टाँग दूँगा...

हालाँकि पिता की खुशी
मेरे लिए सबसे बड़ी बात थी
लेकिन मैं बच्चा था और सोचता था
कि पिता मुझे अपना सा करते देखकर
गर्व से फूल जाते होंगे
लेकिन वे मुझे दीपक और चंदन की तरह का आदमी बनाना चाहते थे

आदमियों की तरह सारी हरकतें करते पिता
क्या अपने आप को आदमी नहीं समझते थे
आदमी बनने के क्रम में
मैं यह सोच कर उलझ जाता हूँ

॥जैसे फूलकुमारी हँसती थी॥

मैं यह नहीं कहूँगा साहब
कि मैं एक गरीब आदमी हूँ इसलिए
वो-वो नहीं कर पाता जो-जो
करने की मेरी इच्छा होती है

यह सच है साहब कि मैं एक फैक्ट्री में
सत्ताइस सौ रुपए माहवारी पर काम करता हूँ
और सवेरे आठ बजे का कमरे से निकला
रात के आठ बजे कमरे पर लौटता हूँ
पर इससे क्या
मैं शायद अकर्मण्य आदमी हूँ साहब
अब कल ही की बात को लीजिए
रात में कमरे पर लौटा तो
बिजली थी
दिन में बारिश हुई थी इसलिए
हवा नहीं भी आ रही थी कमरे में तो नमी थी
खाट पर लेटा तो हाथ में
अखबार का एक टुकड़ा आ गया

लालपुर में पाँचवी तक की पढ़ाई कर चुका हूँ साहब
अखबार के टुकड़े में एक अच्छी सी कहानी थी
पढ़ने लगा तो बचपन में पढ़े
फूलकुमारी के किस्से याद आ गए
कि जब वह खुश होती थी तो
जोर-जोर से हँसने लगती थी
कहानी पढ़ने लगा
पढ़कर खुश होने लगा साहब
लेकिन तभी बिजली चली गई
देह ने साथ नहीं दिया साहब
कि उठकर ढिबरी जलाता और
इस तरह खुशी को जाने से रोक लेता
और हँसता जोर-जोर से
जैसे फूलकुमारी हँसती थी

॥ निर्जन वन में ॥

यहाँ की लड़कियाँ फूल तोड़कर
भगवती को अर्पित कर देती हैं
वे कभी किसी गुलाब को प्यार से नहीं सहलातीं
कभी नहीं गुनगुनातीं मंद-मंद मुसकुरातीं
भँवरे का मंडराना वे नहीं समझती हैं

किस्से की कोई किताब नहीं है इनके पास
ये अपनी माँ के भजन संग्रह से गीत रटती हैं
सोमवार को व्रत रखती हैं
और देवताओं की शक्तियों की कथा सुनती हैं

इनकी दृष्टि पृथ्वी से कभी नहीं हटती
ये नहीं जानतीं कि उड़ती हुई चिड़ियाँ कैसी दिखती हैं
और आकाश का रंग क्या है

सिद्दकी चौक पर शुक्रवार को जो हाट लगती है वहाँ तक
यहाँ से कौन सी पगडंडी जाती है
ये नहीं बता पाएँगी किसी राहगीर को
सपने तो खैर एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया हैं
ये बिस्तर पर गिरते ही सो जाती हैं
सवेरे इन्हें कुछ भी याद नहीं रहता

॥मालिक ॥

मालिक यह कभी नहीं पूछता
कि कहो भैया क्या हाल है
तुम कहाँ रहते हो
क्या खाते हो
क्या घर भेजते हो
अपने परिजनों से दूर
इतने दिनों तक कैसे रह जाते हो

मालिक हमेशा यहीं पूछता है
कि कितना काम हुआ
और अब तक
इतना काम ही क्यों हुआ

000 मिथिलेश कुमार राय
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टिप्पणियाँ:-

संजना तिवारी:-
अच्छी कविताएं हैं , आदमियत का कद छूती हुई ।
आदमी बनने के क्रम में बव्हद संवेदनशील कविता है । कम उम्र बच्चा समझ नहीं पाता की माँ पिता किन आकांक्षाओं की रस्सी से उसे बांधना चाहते हैं , क्योंकर दूसरों से कंपैरिजन होता है जबकि वो तो अपने नायक ( पिता)की भांति हर काम करने की कोशिश करता है । ये बाल मन की उलझन बेहद प्यारी है ।
जैसे फूल कुमारी हंसती है और मालिक कविता निम्न वर्ग के संघर्ष को दिखाती सुंदर कविताएं हैं और निर्जन वन में सभ्य समाज की सभ्य लड़कियां बनने वाली कोमल ह्रदय लडकियां प्रकृति की कोमलता से सदैव अनभिज्ञ जान पड़ती हैं ।वे आजाद तो हैं लेकिन आजादी जीना नहीं जानती । वे उन्मुक्त उड़ान और खूबसूरती क्व अहसास को नहीं समझतीं । खूबसूरत वर्णन
बस थोड़ा सा भाषा पर काम किया जा सकता है ।
बधाई कवी को

नीलम:-
मैंने 'अहसास' कहानी अभी पढ़ी। समयाभाव के चलते सेव करके रख ली थी।
मुझे कहानी अच्छी लगी। फ़्लैशबैक से रोचक हो गई। कथाकार को बधाई।

मनीषा जैन :-
आज के कवि मिथिलेश कुमार राय का परिचय इस प्रकार है-
जन्म : 24 अक्टूबर 1982 लालपुर, सुपौल (बिहार)

भाषा : हिंदी, मैथिली

विधाएँ : कविता, कहानी, बाल साहित्य

मुख्य कृतियाँ
वागर्थ, परिकथा, नया ज्ञानोदय, कथादेश, कादंबिनी, बया, जनपथ, विपाशा आदि पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रमुखता से प्रकाशित

संपर्क
द्वारा, श्री गोपीकांत मिश्र, जिला स्कूल, सहरसा-852201 (बिहार)

रूपा सिंह :-
बहुत अच्छी कविताएं।शिल्प और विस्तार की गहन गुंजाईश लिए
लेकिन इनकी सादगी में व्यंजनिक दंश कमाल का है जो बताता है कि बड़े सधे कवि हैं और समझ अद्भुत है।तीर की तरह नुकीली  जो सीधे निशाने पे पहुँचती है।दीगर है घाव नहीं करती।बधाई।

फ़रहत अली खान:-
पहली कविता का भाव अच्छा है, लेकिन ये कविता के बजाए लघुकथा के रूप में ज़्यादा जँचती।
दूसरी कविता में कवि भाव को अच्छी तरह स्पष्ट नहीं कर पाए हैं और ये भी कविता के रूप में नहीं जँची।
तीसरी कविता में भाव अच्छे लगे।
और सबसे अच्छी लगी चौथी कविता; साफ़-साफ़ स्पष्ट बात, कोई लाग न लपेट। बस थोड़ी सी और लिखी जाती तो बेहतर ह।

वसंत सकरगे:-
वाकई अच्छी कविताएं हैं।कथ्य सहज व सरल और कहीं भी बेतुकापन नहीं है।जीवन के प्रत्यक्ष लेकिन अदृश्य बंधनों की गांठ खोलती इन कविताओं में विवशताओं का  स्वर अलग किस्म का है।कवि को बहुत बधाई।

राजेश्वर वशिष्ट:-
बहुत अच्छी, सरल और साधारण सी दिखने वाली परन्तु तेजस्वी कविताएँ जो बस जीवन का भाष्य लिखती हैं।

प्रज्ञा:-
कविताएँ पसंद आयी। मालिक के बतौर खुद को सवाल करने पर मज़बूर करती कविताएँ। इनका सरल होना इनकी ताकत है।

देवेन्द्र रिनावा:-
ग्रामीण परिवेश को उकेरती सरल भाषा में प्रभावोत्पादक कवितायेँ।पिता क्या अपने को आदमी नहीं समझते थे? बहुत बढ़िया।

राजेन्द्र श्रीवास्तव:-
बात याद आ गई कि -
बहुत आसान है हर बात को मुश्किल बना देना
बहुत मुश्किल मगर इक बात आसानी से कहना है
आज सरलता सबसे कठिन है और ऐसे में इतनी सरलता से दिलोदिमाग पर असर छोड़ती कविताएं
कवि मंजा हुआ है और विशिष्ट अंदाज है कहन का
पवन करण की कविताओं की तरह छोटे छोटे वाक्यों में बात रखी गई है
कवि को बधाइयाँ और अशेष शुभकामनाएं
डॉ राजेन्द्र श्रीवास्तव,  पुणे

राजेन्द्र श्रीवास्तव:-
कई दिनों से शहर से बाहर था और कई शानदार प्रस्तुतियों पर भी विचार नहीं रख सका। मित्रगण बड़े मन से क्षमा करेंगे

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