19 अगस्त, 2015

कहानी : काकदृष्टि : रजनी गुप्त

काकदृष्टि

वक्‍त अपनी गति से सूरज के साथ कदमताल करता हुआ हर दिन थककर सुस्‍ताने रात की खोह में दुबक जाता और फिर से अगली सुबह अपनी नयी नकोर सज धज के साथ आ धमकता। यूं ही साल दर साल गुजरते रहे मगर हर बार की तरह फिर वही दृश्‍य। इन पुरूषों की फितरत नही बदलती बल्कि नए नए रूप धरकर वे अपनी काकदृष्टि से अपने शिकार की टोह लेते रहते और मौका मिलते ही फिर उन्‍हें घेरने की जुगत बिठाते हुए गिद्धनुमा नजर से झटपट शिकारी को धर दबोचने की फिराक में लगे रहते । सालों से ये कैसी बेहयाई देखती आ रही है वह जहां शिकारी को न तो अपनी कम उम्र की शर्मोहया , न ही साठ पार वाली पकी उम्र का लिहाज। जब देखो तब उनकी हवस की लौ आज भी लपलपाती नजर आती , भले ही अब इसमें लपट बनने की कूबत नही रही मगर इस धीमी आंच में बुझती राख में से बची खुची अलक्षित चिंगारी पर गलती से भी किसी कोमलांगी का पैर पड़ जाए तो उसके जल जाने का खतरा तो है ही, . सोच की सुई कुछ समय पहले की तरफ मुड़ गयी।

लगभग सौ उच्‍चाधिकारियों से भरे सभागार में में बैठी अनुमिता की आंखें एक एक करके सभी वयस के पुरूषों की स्‍कैनिंग करते हुए अनायास एक जगह थम गयीं। तभी माइक पर आज की बैठक की अध्यक्षता कर रहे संयुक्‍त निदेशक की आवाज कानों में पड़ी – अरे , ये तो सालों पुरानी जानी पहचानी आवाज है , सोचते हुए नजरें तेजी से अध्‍यक्ष जी के चेहरे पर गड़ी रह गईं और वे सोच के भंवर में चक्रवात की तरह तेजी से गोल गोल घूमने लगीं । हां , यही अशोक कुमार शुक्‍ला तो था , आज से ठीक 15 साल पहले जिसने भरे सभागार में उसकी खुलकर तारीफ करते हुए महाप्रबंधक के सामने कहा था – ‘ आपको पता , आपके संस्‍थान में कितनी बड़ी चिंतक और विदुषी अधिकारी भी हैं , अरे , ऐसे अचकचाकर मत देखिए , यही है मैडम अनुमिता जी , जिनकी जितनी तारीफ की जाए , कम है। कितनी तेजस्‍वी महिला हैं ये , इनका शानदार भाषण सुना है मैंने कि बस पूछिए मत . . ‘ . . .

ऐन मौके पर उसके बॉस भी उसकी तरफ ध्‍यान से चौंकते हुए देखने लगे तो उसे बहुत अटपटा सा लगा तभी शुक्‍ला जी की आवाज ने फिर से उनका ध्‍यान खींचा – ‘ अरे मैडम , शर्माइए नही , आज आपकी मेधा को सामने आना ही चाहिए। आइए न यहां मंच पर और इस पितृसत्‍तात्मक व्यवस्‍था के सामंती स्‍वरूप पर बुनियादी सवाल उठाइए जैसाकि आपने पिछले सेमिनार में परिवार में स्‍त्री को लेकर बरती जा रही दुहरी मनोवृत्ति पर कितने तीखे शब्‍दों में प्रहार किया था। सबके सामने स्‍त्री सशक्‍तीकरण पर चंद लाइनें बोलिए न . सकुचाने की बात नही है . कहते हुए उसके हाथों में जबरन माइक थमा दिया गया । भौंचक खड़ी अनुमिता अचानक समझ नही पायी कि वह यहां इन अलग अलग संस्‍थान के उच्‍चाधिकारियों के बीच भला ऐसा क्‍या बोल दे . . तभी शुक्‍ला जी ने उसके कान के पास आकर फुसफुसाते हुए कहा – ‘ कुछ भी बोल दीजिए , आपका बॉस खुश हो जाएगा । ‘

अनुमिता ने महज पांच मिनट में ही अपना सारगर्भित वक्‍तव्‍य प्रस्‍तुत किया जिसे सुनते ही सभागार में करतल ध्‍वनियां गूंज उठीं। उसके बाद तो यह शुक्‍ला उनके पीछे ही पड़ गया था। आए दिन फोन पर फोन करता व विभागीय बैठकें आयेाजित करवाता और येन केन प्रकारेण उसकी तारीफों के पुल बांधते हुए नजदीकियां हासिल करने की जुगत में लगा रहता। बेशक तब वे स्‍मार्ट थी , जहीन थी और हाजिरजवाब भी। एक खास किस्‍म के आत्‍मविश्‍वास से भरे उनके खुशनुमा व्‍यक्तित्‍व में इतनी सहजता व सरलता थी कि जब वे खुलकर ठहाका लगाकर हंसती तो सामने वाला उन्‍हें देखता रहा जाता । अनायास अनुमिता को उस दौर के तमाम पुराने सहकर्मी याद आने लगे जो प्रेम के नाम पर विकल अधीरता दर्शाते हुए उनका साथ लपकने के लिए आसपास मंडराते रहते थे । ऐसे लोगों को याद करने बैठी तो अपने कॉलेज के सहपाठी नवल की बातें दिमाग में बजने लगीं जो उससे एक बार चेन्‍नई में आयेाजित संस्‍थान के प्रशिक्षण कार्यक्रम में टकरा गया था। मिलते ही जोशीली आवाज में दूर से ही चिल्‍लाने लगा – ‘ अरे अनुमिता यार , तुम तो जरा भी नही बदली , बिल्‍कुल पहले जैसी ही लग रही हो, सो स्‍मार्ट. । वह थैंक्‍स कहकर जाने लगी तो अचानक से हाथ पकड़कर रोक लिया – ‘ अरे , पूरे 10 साल बाद मिली हो दुबारा सो कम से कम आज का खाना तो हम साथ खाएंगे ही , ऐ , मना नही करोगी , इतना तो हक बनता है यार , सालों पुरानी दोस्‍ती के नाम . ‘ . उस चहकती आवाज में घुली थी कुछ ऐसी आत्‍मीयता व ललक कि वह मना नही कर पाई - ‘ हूं , अच्‍छा ठीक है , मिलते हैं इसी कैंटीन में , . ठीक रात 8 बजे। ‘ अरसे बाद वे आमने सामने बैठे खा पी रहे थे और अपनी अपनी कंपनी के हानि लाभ , आंकड़ेवाजी , प्रमोशन , बच्चे और परिवार आदि पर बातें करते करते अचानक नवल की बातों का रूख पलट गया - ‘ अनुमिता यार , कुछ भी कर लो , रूपयों का कितना ही भंडार जमा कर लो, कितनी भी ऊंची तरक्‍की की उड़ान भर लो मगर कहीं से भी पूरी संतुष्टि नही मिलती।एक अजीब किस्‍म का खालीपन सा पसरा रहता , अजीब किस्‍म का अधूरापन यानी असंतोष सा हावी रहता . ‘

‘ अरे , ये तो अंतहीन दौड़ है नवल । सच तो ये है कि असंतोष से ही पनपती है रूग्‍णता जिसे किसी भी थर्मामीटर से नही नापा जा सकता और फिर इसी रूग्‍णता से जन्‍मती हैं तमाम मानसिक बीमारियां भी सो अपनी सोच को पॉजीटिव दिशा में क्‍यों नही ले जाते जहां कुछ लीक से हटकर करते हुए अपनी निजी पहचान बना सको . .एक जमाने में तुम्‍हारा तो स्‍पोर्ट्स में खासा दखल था न ? ‘ उसने पुलक भरी आवाज में विगत समय के चंद टुकड़े उसकी तरफ फेंके ।

‘ हां , ठीक कह रही हो । अनु , आज मैं सारी सचाइयां तुमसे शेयर करना चाहता हूं। कई बार रातों की नीदं उड़ जाती सो इंटरनैट पर भटकता रहता । फेसबुक पर पनपती दोस्तियों पर भरोसा करके कई बार धोखे भी खाए है। एक बार तो ऐसा विचित्र वाकया घटा कि जिसे मैं लड़की समझकर चैट कर रहा था , वो तो लड़का निकला ., हा , हा , हंसते हुए बोलने लगा ‘

- अनुमिता , मैंने जीवन में सुख संतोष या प्‍यार पाने के लिए ढेरों जतन किए हैं मगर चैन कहीं नही मिला बल्कि आभासी दुनियां के रास्‍ते चलते हुए ऐसे ऐसे अजीब अनुभव मिले जिन्‍हें शायद मैं पूरी तरह खोलकर बता भी नही सकता। इस दुनियां में मन बहलाने लायक मनोरंजन तो भरपूर हैं मगर पूरी तरह छद्म भरी निष्‍प्राण दुनियां है। सो मन में संतोष पाने की खातिर तमाम वर्जित चीजों को चखने से भी कतई परहेज नही किया मैंने । क्‍या क्‍या ऊंटपटांग करके खुद को भरमाता भटकता रहा ? वाइन , औरत और मनमर्जी से जीने के उस सुरूर में पल भर के लिए ऐसा जरूर लगता था जैसे मैंने तृप्ति में डूबकर सब कुछ पा लिया है या जी भरकर जीवन जी लिया । उस पल सारे रंजोगम भूलकर किसी नयी दुनियां में पहुंचने का अलौकिक सुख भी महसूसता मगर उसके बाद , होश आने पर . . फिर वही खालीपन , वही अतृप्त्‍िा , वही अधूरापन सालने लगती । सच बताऊं , जीने का सालों पुराना जोश या जज्‍बा ही चुक गया । इस बारे में तुम्‍ही कुछ हैल्‍प करो न ? आई फील टू लोनली . . ‘ कंपकंपाती आवाज में बोलते हुए उसके बर्ताव में एक अजीब तरह की लड़खड़ाहट शुमार होती गई ।

‘ मैं ? मैं इसमें भला क्‍या कर सकती हूं ? देखो नवल , अब हम बहुत आगे निकल आए हैं , उम्र के तूफानी वेग को पीछे छोड़ते हुए , सो उस उम्र के जोश या तूफानी जज्‍बात या जीने के उस पुराने जज्‍बे की तलाश ही फिजूल बात है । ‘ उसने एक एक शब्‍द को चबाते हुए पूरी सावधानी बरतते हुए कहा ।

‘ अरे , ऐसे कैसे तुम इसे फिजूल बात कह सकती हो । गलत नजरिया। बेशक हमारी उम्र पचास पार कर रही है मगर हमारी रगों में अभी भी सारे रस रंगों का संगम प्रवाहित हो रहा है। अरे , तुम इस अहसास को यूं ही मिटाने पर क्‍यों आमादा हो ? आखिर क्‍यों ? जीवन से विरक्‍त तपस्‍वी की तरह सूखी सूखी सी बातें भला क्‍यों कर रही हो ? जब कि मैं देख रहा हूं कि तुम्‍हारे अंदर अभी भी हमारी पुरानी दोस्‍ती को लेकर वही पुराना लगाव जिंदा है , फिर इसे क्‍यों नकार रही हो ? बोलो न ? तुम ऐसा नही कर सकती , अनुमिता , मैं अभी भी तुम्‍हारा साथ चाहता हूं । कुछ अपने सुख पाने की खातिर कुछ नये सच गढ़े जा सकते हैं न ? लिसन , अपनी अपनी निजी जिंदगी जीते हुए भी हम एक और जिंदगी की शुरूआत करें क्‍या ? मैं अभी भी आधी अधूरी जिंदगी जीने के लिए अभिशप्‍त हूं। अनुमिता तुम्‍ही मुझे थाम कर मेरी इस अतृप्त्‍िा व ऊब भरी नीरस जिदंगी से छुटकारा दिला सकती हो , प्‍लीज मना मत करो , ‘ . . मन में सालों से जमा गुबार को एक साथ उड़ेलते हुए नवल ने उसकी हथेलियेां पर जैसे ही अपनी हथेली रखी कि उसने पूरी ताकत से उसे परे झटकते हुए तेज आवाज में प्रतिवाद किया -

‘ अरे , आखिर किस जिंदगी की बात कर रहे हो नवल ? कालेज में दीपक , तुम और हम तीनों की दोस्‍ती थी मगर दीपक ने मुझे प्रपोज कर दिया और अब हम दोनों सुखी वैवाहिक जीवन जी रहे हैं , बस , इससे ज्‍यादा या इससे आगे की सचाई कुछ भी नही । और हां , उस समय तो तुम महत्‍वाकांक्षा के पंखों पर सवार आईएएस बनने की धुन में मग्‍न थे। वैसे उस दौर में भी तुम्‍हारी एक मॉडर्न टाइप गर्लफ्रेंड हुआ करती थी , नाम याद नही आ रहा इस समय .. ‘ अनुमिता ने उसके अतीत के आउटडेटेड चेक को निरपेक्ष भाव से उसकी तरफ फेंका ।

‘ हां , नवनीता नाम था उसका जिसने असम कैडर के एक आईएएस से शादी कर ली , मेरा चयन नही हो पाया था न ? शायद इसलिए मैं हाशिए पर . . .’

कहते हुए उसके चेहरे पर हार या हताशा की गाढ़ी स्‍याही पुतने लगी। अनायास अनुमिता को याद आया कि यही वो बंदा था जो अक्‍सर लड़कियों से बढ़चढ़कर दोस्‍ती करने को उतावला रहता था मगर बाद में अपने दोस्‍तों से यही कहता घूमता था – ‘ जस्‍ट फॉर फन , आईम नॉट सीरियस . .’ एक बार प्रसंगवश खुद दीपक के मुंह से ही ये राज उजागर हो गया था।

‘ ओके नवल , मिलते हैं फिर कभी , इस समय दीपक का फोन आ रहा है . . कहते हुए उसने फोन पर बतियाना शुरू कर दिया। उसके बाद भी कुछ दिन उसके फोन आते रहे और हर बार वही मनुहार जिसे वह बेरहमी से काट देती ।

ऐसे वाकयात याद करते ही उसे अजीब सी वितृष्‍णा होने लगी और वे धीरे धीरे सबसे कन्‍नी काटने लगीं।

अनुमिता दफ्तर के गुजरे समय को फिर से याद करने लगीं जब उसे दफ्तर के काम से बाहर निकलना पड़ता तो बेवजह मदद करने की पेशकश करने वाले यूं ही प्रकट हो जाते । अक्‍सर वे अपनी कार लेकर ऐन मौके पर आ धमकते । शुरू शुरू में तो वह संकोचवश सीधे मना नही कर पाईं मगर उसे जल्‍द ही अहसास हो गया कि इनकी मंशा येन केन प्रकारेण उसकी निकटता हासिल करना है तभी तो जैसे ही वह कार में पीछे बैठने लगती कि वे मनुहार करने लगते – ‘ मैडम, हम ड्राईवर तो है नही कि आप पीछे बैठ जाएं। अरे , यहां हमारे पास बैठिए न , चलिए , इसी बहाने आज आपको ड्राइविंग सिखा देते हैं.। ‘

‘ नही , नही , मुझे नही सीखनी . . अचानक उसने ऊंची आवाज में मना करते हुए कहा – ‘ जब से हमारे यहां एक्‍सीडेंट मौतें हुईं है तब से कार में बैठने से ही डर लगने लगता, सीखना तो दूर की बात है । ‘

‘ओके , बैठिए प्‍लीज। ‘ वह सकुचाई सी बैठ गयी कार में मद्धिम्‍ गति से संगीत गूंजता रहता और बतकहियां चलती रहतीं कि किसी बात पर उसे जोर से हंसी आ गई और वह ठठाकर हंसने लगीं कि अचानक उन्‍होंने उसके कंधे पर हाथ रख दिया और अनुमिता ने उन्‍हें बे‍लिहाज तरीके से डपट दिया। गाहे व गाहे ऐसे लंपट लोलुप लोग उसे कहीं न कहीं टकरा ही जाते मगर उम्र की चालीसवीं सीढ़ी तक आते आते उनसे एक निश्चित दूरी बनाकर बात करना बखूबी सीखती गई वह ।

एक बार अनुमिता को शहर से दूरस्‍थ पहाड़ी शाखा दौरे पर जाना था। उत्‍तरांचल की सुरम्‍य वादियों के बीच बसी शाखा पहाड़ों के बीच बहती नदी के उस पार स्थित थी जहां पनीली हवाओं से आती खुशबू सूंघकर वह आपा बिसार कुर्सी की टेक लगाकर आंखें मूंदे अपने कल्‍पना संसार में खोई थी कि पीछे से बड़े साब ने चुपके से उनकी खुली पीठ पर अपना हाथ फेरने लगे और पलक झपकते पलटवार करने से कतई नही चूकी थी वह – ‘ सर , व्‍हाट इज दिस ? उम्र में कितने बड़े हैं आप , मेरे पिता समान और ऐसी घटिया हरकतें ? लानत है आप पर . . गुस्‍से से न जाने क्‍या क्‍या अनर्गल बड़बड़ाती जा रही थी वह- ‘,ननसेंस , टोटली रांग एट्टीट्युड टॉवर्ड लेडी ऑफिसर . . आई कांट वियर दिस , मैं शिकायत करूंगी आपके खिलाफ , ऊपर तक , उच्‍चधिकारियों तक . . .कहते हुए वे हैड आफिस फोन मिलाने लगी कि वे पाला पलट उनके पैर पकड़ गिड़गिड़ाने लगे – ‘ मैडम , गलती हो गयी , अरे , आप तो खामहखां नाराज होने लगीं। आपने बिल्‍कुल ठीक कहा , सचमुच मेरी बेटी जैसी ही तो हो तुम . . बेध्‍यानी में यूं ही हाथ चला गया होगा , सॉरी अगेन मैडम ‘ . . कहते हुए वे उससे माफी पर माफी मांगने लगे – ‘ बिटिया , ओ बिटिया , अपने चाचा को माफ नही करेगी क्‍या ? मेरी इज्‍जत अब मेरी बेटी के हाथों . . .

ऐसी बेहूदी बातें पचास तक आते आते धीरे धीरे कम होती जा रहीं थीं । तब के जमाने में न तो मोबाइल , व्‍हाटसअप , फेस बुक वगैरा थे और न ही मीडिया का इतना दखल कि वह अंदरूनी मसलों को किसी बाहरी मंच पर लाकर पूरी ताकत से अपना प्रतिरोध दर्ज करा पातीं। सो अपनी तीखी जुबान से ही वह विरोध जताना कभी नही भूली मगर पुरूष किसी भी उम्र के क्‍येां न हों , अपनी लंपटता से बाज क्‍यूंकर नही आते ? आखिर कब सीखेंगे वे स्‍त्री को अपने समकक्ष मनुष्‍य समझना ? ऐसे सवाल उसे बेचैन कर देते।

शिकारी की तरह भेदती आंखें देखते ही अनुमिता के सीने में आज भी सवाल बेचैन करने लगते। दफ्तर का कलीग था मनीष जो गाहे व गाहे उसकी तरफ मित्रवत नजरों से देखा करता। बातचीत की शुरूआत हुई थी किताबों के लेन देन से और फिर वे धीरे धीरे बौद्धिक , सामाजिक या राजनैतिक मुद्दों पर बहस करने लगते । कंपनी की कल्‍चरल कमेटी की कन्‍वेनर थी अनु‍मिता सो इस नाते कंपनी की पत्रिका निकालने की जिम्‍मेदारी उसी की थी। ऐसे में मनीष ने कईयों बार कुछ लेख वगैरह भी लिखे मगर पचास पार के मनीष के अंदर भी न जाने कब और कैसे मनचलों वाले वायरस शुमार हो गए , सोचकर हैरत होने लगी । उस दिन दफ्तर में निरीक्षण कमेटी की तैयारी के दौरान देर तक रूकना पड़ा। लौटते वक्‍त 8 बज रहे थे कि अचानक चैम्‍बर में आकर बोलने लगे - ‘ अरे ,कितनी मल्‍टीटास्किंग पर्सनैल्‍टी है आपकी , मैं तो हैरान हूं आपकी काबिलियत देखकर , आपके हौसले और काम करने का जुनून देखते ही बनता है। सच बताएं , इतनी कम उम्र में इतना सब हासिल करने का आपका ये जज्‍बा . . काबिलेतारीफ है ‘ । उसने गर्दन उठाकार उनकी तरफ देखा मगर बोली कुछ नही । आम तौर पर अपनी तारीफ सुनते ही अनुमिता को तेज गुस्‍सा आने लगता । जरूर कोई गड़बड़ है वरना बेवजह कुछ भी बोलने वाला है नही ये बंदा . . सोचते हुए प्रकट रूप से इतना भर बोली – ‘ थैंक्‍स . . कहकर वह बाहर जाने के लिए उठने लगीं तो वह साथ साथ चलते हुए बोलने लगा - ‘ मैम , कैन वी हैव डिनर टुगैदर . . कैंडल लाइट डिनर . . ‘ सुनते ही वह तैश में आ गई और चीख पड़ी - ‘ क्‍या कहा ? आपको पता है न, मेरा परिवार है सो आई कांट . कहकर वह तेजी से लिफ्ट के अंदर घुसी कि अचानक उसे लिफ्ट में अकेले पाकर उसने अपने से जकड़ने की असफल कोशिश की , फिर तो उसके सीने में आग भड़क उठीं – ‘ विहेव योरसैल्‍फ मिस्‍टर , स्‍टॉप इट . . अब वह जोर से चीखते हुए भड़क पड़ी।

उसे अभी भी वे प्रसंग याद हैं कि इस घटना के बाद मनीष उससे बदला लेने पर उतारू हो गया और उस पर तमाम तरह की कानूनी बंदिशें या नियमों के मकड़जाल में फंसाने की चालें चलने लगा। मसलन - कभी उच्‍च्‍चाधिकारियों के कान भरने लगता

‘ – अनुमिता आज दुपहर दो घंटे के लिए न जाने कहां चली गई थीं ? इसी तरह कल सुबह भी 11 बजे आयी थी । क्‍यों न इनके खिलाफ अनुशासनिक कार्रवाई शुरू की जाए ? पिछले महीने एक सप्‍ताह तक अनधिकृत अवकाश पर रहीं। हां , शनिवार के दिन भी ये ठीक 4 बजे निकल गयी थीं। ‘ ऐसी तमाम बातें नमक मिर्च लगाकर न जाने कितनों से शिकायतें करता रहा। कई बार उसे कटघरे में खड़ा करके जवाब तलब भी किया गया मगर चाहकर भी कोई उसके काम में नुक्‍स न निकाल सका और ऐसे कुंठित लोग उसका कुछ नही बिगाड़ पाए । जिंदगी आगे बढ़ती रहीं और ऐसे लोग उसकी छवि खराब करने की चालें कुचालें चलते रहे मगर जब अनुमिता लिखित रूप में सब शिकायतों का सिलसिलेवार ढंग से सटीक जवाब देती और उनका हर दांव हर बार उल्‍टा पड़ जाता। इसी दरम्‍यान उसका तबादला हो गया । नया शहर , नए लोग , नया परिवेश और काम भी नया नया मगर लोग तो अभी भी वही थे न ? उनका तंग नजरिया अभी भी जस का तस , स्‍त्री के प्रति लोलुपता व जबरदस्‍त पूर्वाग्रह से भरा . .

अनुमिता का व्‍यक्तित्‍व अब जोश , उत्‍साह , जुनून व उमंग के हरहराते समुंदर को पीछे छोड़कर उम्र के पचासवें पायदान पर अविरल बहती नदी की शांत धारा में तब्‍दील होने लगा। सो वे दुनियां को अब नये नजरिए से देखना चीन्‍हना सीखने लगीं । बेशक दफ्तर में कुछ लोग अभी भी उससे सहानुभूति दर्शाने का मौका लपक टोह लेने लगते - ‘ आपके लिए यहां कैसा घर तलाशूं मैडम ? कितने जन हैं आपके घर पर ? ‘ तो कुछ उसकी सीट के सामने बैठकर उच्‍चप्रबंधन तंत्र को गरियाने लगते – ‘ क्‍या जरूरत थी भला मैडम को परेशान करने की ? ये गलत बात है कि इन बेचारी को इनके परिवार से यहां इतनी दूर पटक दिया। वैसे हमारे लायक कोई सेवा हो तो निसंकोच बताएं , आप हमारी यूनियन ज्‍वाइन कर लें तो आपका एक महीने के अंदर वापस आपके शहर तबादला करवा दूंगा , हां , लीजए , ये रहा मेरा कार्ड . . कहते हुए आंखें मिचमिचाते हुए यूनियन नेता राजन ने उसकी पीठ पर धैाल जमाई तो उसने पूरी गंभीरता से ठहरी आवाज में जवाब दिया – ‘ सर , मैं आपकी इज्‍जत करतीं हूं । वैसे भी अब मैं बच्‍ची तो रही नहीं जो अपना भला बुरा न समझ सकूं , एंड नथिंग मोर टु से . . –

‘ हूं . . कहकर वे चलते बने । उसे याद आया , एक बार दफ्तर के भवन में आग लगने की अफवाह उड़ी तो वे लगभग दौड़ते हांफते हुए उसके चैम्‍बर में आए और हड़बड़ाते हुए बोले – ‘ अरे , मैडम , कहां हो ? बाहर निकलिए न ? यहां क्‍या कर रहीं हैं , पता है ? आग तेजी से चारों तरफ फैलने लगी हैं, चलिए पकडि़ए मेरा हाथ और कूद जाइए इस खिड़की से बाहर बालकनी की तरफ। ‘ उनकी हमदर्द आवाज सुनकर लगा कि वह खामहखां इन पर शक कर रही थी जबकि ये तो इंसानियत के नाते मुझे बचाने आए हैं। भले इंसान है ये तो . . सोचते हुए जैसे ही उसने उनका हाथ थामा कि उन्‍होंने उसे समूचा उठा लिया और मौका मिलते ही यहां वहां , सब जगह छूने लगे . . इतने सालों बाद भी ये सब किस्‍से क्‍यूंकर याद है उसे ? किस किसकी बदतमीजी याद करती रहे वह और कब तक ? आखिर क्‍यूंकर स्‍त्री को वस्‍तु की तरह बरतने के आदी हैं ये पुरूष वर्ग ? आज जब वे सालों बाद पलटकर अपने जीए जीवन को देखती हैं तो रह रहकर तमाम चमकते चेहरों पर चढ़ी नकली परतें याद आने लगीं। पुरूष का नजरिया औरत के प्रति इतना एकतरफा क्‍यूंकर है कि सालों वाद भी वही आवाजें पिछियाती हुई सुनाई पडतीं जिनमें शुमार थी देह के प्रति वही लोलुपता – ‘ मैं रोमांस की हर इंतिहा से गुजरना चाहता हूं , मैं आज भी तुम्‍हारा साथ चाहता हूं , आदि आदि । आखिर क्‍यों इन पुरूषों को ऐसा लगता जैसे हर महिला सहकर्मी के जीवन में स्‍थायी रूप से रिक्‍त स्‍थान होगा ही जिसकी पूर्ति के लिए केवल वे ही किसी सुपात्र की तरह जगह भरने के लिए लपकते रहते, असमय कुसमय लपकते बंदर की तरह उन्‍हें नोंचने खसोटने के लिए लालायित । सवाल आज भी बेचैन करने लगते , क्‍यूंकर इन्‍हें किसी काली , मोटी या औसत स्‍त्री रास नही आतीं ? सुंदर , कमसिन या नाजुक लड़कियों का शिकार करने की टोह में बौराए घूमते इन बहेलियों का आखिर इलाज क्‍या है ? क्‍यूंकर इन्‍हें मेधावी , सशक्‍त और मजबूत कद काठी की आत्‍मविश्‍वासी स्त्रियां नही सुहातीं ?

सवाल ही सवाल औंधे मुंह लटकते बर्रेयों की छत्‍तों के आसपास मंडराते भनभना रहे थे । तभी उनकी नजर फिर से सहायक निदेशक से उपनिदेशक फिर उपनिदेशक से निदेशक बने आत्‍ममुग्‍धता के नशे में चूर अशेाक कुमार की तरफ अटक गयीं जिन्‍होंने उसी सभागार में फिर से अपने इर्द गिर्द वैसी ही दो तीन स्‍मार्ट , सुंदर व कमसिन नवयुवतियेां वनाम मछलियों को बिठा रखा था जिनकी लिखी छुटपुट कवितानुमा पंक्तियों को वे सबके सामने उन्हीं के मुखारविंद से पढ़वाकर करवाकर हॉल में वाह वाह की तालियां पिटवा रहे थे। मुदितमना बालाएं उनकी कही हर बात को वेद वाक्‍य मानकर – ‘ जी सर , यस सर , वैलकम सर , कहते हुए उनके आगे पीछे चमकते प्रभामंडल के वृत्‍त में कैमरों की चकाचौंध के बीच ढेर सारी तस्‍वीरें अपने अपने स्‍मार्ट फोन में कैद करते हुए उनकी महानता की विरूदावलियां गाए जा रहीं थीं । मोबाइल कैमरों से क्लिक की लगातार आती आवाजों के बीच तमाम कंठों से चहकती स्‍वरलहरियां सभागार में साफ साफ सुनी जा सके।

000 राजनी गुप्त
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टिप्पणियाँ:-

कविता वर्मा:-
अच्छी कहानी है पुरुष मानसिकता को दर्शाती लेकिन कुछ बातें खटकती हैं । नौकरी करने वाली महिला जिसका एक दो बार इस मानसिकता से सामना हो चुका है अगली बार अपनी छटी इंद्री से ऐसे लोगों को पहचान लेती है लेकिन यहॉं कहानी की नायिका बार बार इन कुत्सित चालों में आकर कभी डिनर कभी ड्राइव पर चली जाती है वह भी अकेले । यह बात नायिका के चरित्र को कमजोर करती है । कहानी में दोहराव बहुत है । शब्द संयौजन भाषा बहुत अच्छी है पर इसे थोड़ा छोटा किया जा सकता है ।बहरहाल एक अच्छी कहानी के लिये रचनाकार को बधाई।

प्रज्ञा :-
स्त्री चाहे उम्र के किसी भी दौर में हो पुरुषवर्चवाद की निगाह में मात्र उपभोग की वस्तु। कहानी इस मुद्दे को उठाती है। पर पूरी कहानी के अनेक वाकयों में एक भी पुरुष ऐसा क्यों नही जो महिला हितों का रक्षक है। स्त्री विमर्श का यह पहलू एकांगी है कि हर पुरुष स्त्री का शोषक है । जबकि हमारे आस पास कार्य क्षेत्र में भी ऐसे साथी होते हैं जो सच में साथी शब्द की गरिमा निभाते हैं। दूसरे एक जैसी घटना के बार बार घटने और  फिर ब्यौरे की तरफ जाने से कहानी विकास की और जाती नही लग रही। कविता जी ने भी ज़िक्र किया। ज़िन्दगी की एक सच्चाई को कहानी ने बयां किया पर कहानी की दिशा कुछ भटक सी गयी ।

आर्ची:-
कब समझ पाएँगे लोग और ये पुरूष प्रधान समाज कि स्त्री एक शरीर के अलावा भी कुछ होती है.. कुछ पुरूष स्त्री का दिल जीतने की कोशिश जरूर करते हैं पर किसलिए? अंततोगत्वा शरीर... ऐसी परिस्थिति में प्रत्येक प्रतिभाशाली स्त्री सोचती है  मैं सिर्फ देह नहीं हूँ.. मैं कुछ कर दिखाना चाहती हूँ आगे बढना चाहती हूँ बेशक अपनी प्रतिभा के दम पर ही पर मुझे बहुतों के सहयोग की आवश्कता है वैसे ही जैसे किसी पुरूष को भी हो सकती है फिर जब मैं अपने स्त्रीत्व को कभी भी साधन की तरह इस्तेमाल नहीं करती तो क्यों  मेरे आसपास के लोग मुझे लिंग निरपेक्ष होकर दोस्त की तरह नहीं देख सकते?? जिनकी कोई औकात भी नहीं है प्रतिभा के मामले में वो जोड जुगाड के बल पर खुद की जयजयकार करवा लेते हैं और सहयोग के बदले मुझसे न जाने क्या क्या उम्मीदें लगा लेते हैं झूठा प्यार (?) जता सकते हैं फ्लर्टिंग की कोशिश कर सकते हैं पर एक स्वस्थ मित्रता नहीं निभा सकते? जब तक आप उनको बेचारी असहाय दया मांगती हुई सी दिखती हो तब तक वो आगे बढ बढ कर मदद करेंगे  वो भी अपेक्षा रहित होकर नहीं अपना पराक्रम जता कर और जहाँ उन्हें महसूस हुआ कि अगली प्रतिभा में तो उससे बीस ही है और बदले में कुछ नहीं मिलने वाला तो पूरा जोर लगा देंगे स्त्री को पीछे ढकेलने में हो सके तो चरित्र हनन का भी सहारा ले लेंगे वही तो सबसे आसान तरीका होता है किसी स्त्री को पछाडने का..
कई बार स्त्री को लगता है कि मैं पुरूष ही होती तो शायद अच्छा होता तब देह की ओर किसी का ध्यान नहीं जाता बस मेरे काम की ओर ही रहता..  जैसे कोई गुनहगार हो तो वो पैसे खिला कर छूट जाता है पर कई बार पैसे वाले से पैसे खाने के लिए उसे जानबूझकर बेगुनाह होते हुए भी फँसाया जाता है वैसा कुछ हो जाता है  कुछ चंट लडकियाँ तो पुरूषों की प्रवृत्ति का और लडकीपन का फायदा भी उठा लेती और सामने वाले को बाबाजी का ठेंगा दिखाकर आगे बढ जाती हैं प्रतिभा गौण हो जाती है पर  चालाकी नहीं सच्चाई के साथ आगे बढना चाहने वाली स्त्रियों के मार्ग में अक्सर स्वार्थी तत्व अडचनें पैदा करना चाहते हैं और मदद के नाम पर स्वामित्व स्थापित करना चाहते हैं जब वो उन्हें हाथ नहीं धरने देती तो बदनामी के दाग लगाने की कोशिश करने से भी नहीं चूकते .... कई बार स्त्री के दोस्ताना व्यव्हार का पुरूष गलत मतलब निकाल लेते हैं और कुछ पाने की उम्मीद लगा बैठते हैं  स्त्री चाहती है कि अगर वो कोई सहायता करें तो दोस्त बनकर पुरूष बनकर नहीं
मगर कुछ पुरूष सचमुच संकीर्ण सोच से परे संस्कारी और निःस्वार्थ सहायक भी होते हैं भले ही उनका प्रतिशत कम हो... वो कोण भी लाया जा सकता था कहानी में! बाकी कहानी बहुत ही अच्छी लगी यथार्थ का हूबहू  वर्णन करती हुई सी

स्वाति श्रोत्रि:-
पुरुषो की संकीर्ण मानसिकता को दर्शाती ये कहानी बहुत अच्छी लगी। आज बाहर कही भी जाओ तो बस इसी बात का भय रहता है अच्छे बुरे का अनुमान लगाना बड़ा कठिन होता जारहा है।लिखने वाले/वाली लेखक को साधुवाद

अर्जन राठौर:-
कहानी में पुरुषों को जी भरकर कोसा गया हे । ऐसा लगता हे की इस कहानी के पुरुषों के पास महिलाओं को बरगलाने के और कोई काम नही हे । जबकि वास्त विकता कुछ और हे । अच्छे पुरुष और हेल्दी सम्बन्ध कभी भी कहानी के पात्र नही बनते । कहानी के लिए क्या जरूरी हे की कोसने वाले पात्र ही सामने लाये जाये । बहरहाल कहानी अच्छी हे ।

प्रज्ञा :-
मुझे भी 19 साल हुए और अच्छे सहयोगी पुरुष मिले। सम्वेदना के धरातल पर कई बार महिलाओं से आगे। कॉलेज में जेंडर सेन्स्टाइजेशन कमिटी की अध्यक्ष थी और उस दौरान एक साक्षात्कार में पूछा गया कि आप कैसे काम करती हैं इसके तहत अचानक पुछा कभी कार्यस्थल पर आपके साथ अभद्र घटा
याद है मुझे मैंने गर्व से कहा था लम्बी नौकरी का एक अनुभव ऐसा नहीं। पर हां हर जगह स्थितियां इतनी सुखद नही पर हर पुरुष दुष्ट नहीं

आर्ची:-
हर व्यक्ति का अपना अनुभव होता है... पर मैंने ये महसूस किया है है कि पुरूषों की काम लोलुपता प्रकृति प्रदत्त होती है जो संस्कारों के अनुपात में कम ज्यादा और संयमित होती है परिवार और आसपास के लोगों की सोच और व्यव्हार के अनुसार भी मानसिकता की गढन संकीर्ण या विस्तीर्ण होती है.. हर पुरूष  स्त्री का शिकार करने नहीं बैठा है पर यौनाकर्षण से बचना उनके लिए थोडा सा मुश्किल होता है जिसका खामियाजा स्त्री को भुगतना पड जाता है कई बार

नयना (आरती) :-
यह सिर्फ़ एक अनुमिता की कहानी नहीं हैं,यह एक गाँव के स्त्री की भी है और राज घराने की भी. ये रधिया भी हो सकती है और सैरंध्री भी या आज की अनुमिता भी.इस समाज मे अमृत भी है और विष भी सवाल यह है कि हमारे संपर्क मे क्या आता है.कई बार एक ही फल जीवन मे कभी खट्टा भी होता है तो कही मीठा भी
यह एक त्रासदी है कि हम हर किसी को एक ही तराजु मे तौलते है फिर वह चाहे "पुरुष" हो या "स्त्री".आज स्त्री ने भी स्वतंत्रता के मायने स्वच्छंदता से लगा लिये है.यदि उसके आचार-विचार ,रहन-सहन और बोली-भाषा संतुलित और संयमित हो तो क्या मजाल की उसकी अस्मिता का हनन हो.
मिलने वाला प्रत्येक व्यक्ति,जीवंत होने वाली सारी परिस्थितियाँ और साथ मे गुजरने वाले घटनाक्रम के दृश्य साहित्यकार की लेखनी से नि:सृत होने को अकुलाते रहते है.लेखक के मानस स्थित कथानको और लेखनी मे द्वंद चलता रहता है.कभी छल-छल बहती नदी भी होती है तो कही उफनता समुद्र भी.हम इसकी तुलना स्त्री-पुरुष से कर सकते है,लेकिन किनारा दोनो को है.नदी की तरंगे कई बार तटबंध तोड देती है किंतु सागर की लहरे तटबंधो को तोडकर लौट भी आती है.
    प्रस्तुत कहानी लेखकिय दृष्टि से उत्तम कही जा सकती है.उपमाए एवं शब्द चयन अच्छा है,बेबाकी कहानी को चर्चा का विषय बना गई.सार्थक कथानक के लिये लेखक/लेखिका बधाई का पात्र है.

किसलय पांचोली:-
कहानी में सच्चाई की बेबाक बयानी है इसमें कोई दो राय नहीं। अच्छी कहानी है लेकिन कुछ एक तरफा झुकाव लिए हुए। मुझे लगा इस कहानी में प्रारम्भ मेँ कथानक से सम्बंधित जो अभिमत नरेट किया गया है वह  कहानी पढ़ने की जिज्ञासा को कम करता है। रजनी जी को बधाई।

रूपा सिंह :-
कहानी से ज्यादा आलेख के अधिक निकट।स्त्री जब तक बेचारी और असहाय,निर्बल दिखती रहेगी ऐसा होगा।दिखने में भी तेजोमय,बोल्ड और मुखर स्त्रियों के साथ ऐसा कम होगा और सही सम्मान भी हासिल होगा।पुरुष में बदलाव की आकांक्षा है तो अपने में भी जरुरी है।शिकार दिखेंगी तो शिकारी ही मिलेंगे।बाक़ी बहुत अच्छे पुरुष साथियों से भी दुनिया भरी पड़ी है।

राजनी गुप्त:-
आप सबने इतने सार्थक सुझाव दिए कि सभी का तहेदिल से आभार , सचमब, इतनी बेबाक टिप्पणियों से मन खुशी से भर उठा  इस पर दुबगकाम करने का मन हो,उठा , अभी कहीं छपी नही है , एक बार फिर से आप सबको धन्यवाद

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