22 अगस्त, 2015

बीज लेख : संजना अभिषेक तिवारी

बिजूका समूह के एक साथी का लिखा बीज वक्तव्य प्रस्तुत है। हमेशा की तरह आपसे इस विषय पर अपने विचार और टिप्पणी साझा करने का आग्रह है। बीज वक्तव्य लिखने वाले साथी का नाम शाम को उजागर किया जायेगा।

बेटी क्यों नहीं?
भारत को यदि एक वाक्य में समेटा जाये तो उसे परम्पराओं का सम्राट कहना अनुचित नहीं होगा। विभिन्न धर्मों, मौसमो, संस्कृतियों और परम्पराओं से सुसज्जित भारतीय जीवन शैली अपने आप में अनोखी और वंदनीय है। भारत की यह बहुलतावादी, समावेशी संस्कृति, उदात्त ईश्वर में आस्था और प्रेम की पराकाष्ठा संसार से विभिन्न जातियों के लोगों को भारतीय संस्कृति में रम जाने को प्रेरित करती है। 
परन्तु क्या भारतीय परम्पराएँ उतनी ही खूबसूरत और सम्पूर्ण हैं, जितना की हम बखान करते हैं? यदि धर्म , जात - पात की बात छोड़ भी दें तो क्या ये परम्पराएँ स्त्री और पुरुष को समान अधिकार और सम्मान प्रदान करती हैं? और क्या ये परम्पराएँ अपनी छाती पर रूढ़ियों और एकाधिकार के वृक्षों को हरा भरा नहीं कर रही हैं?

सदियों से नारी को भोग और मनोरंजन की सामाग्री मानने वाले पुरुष आज भी स्त्री को प्रत्येक क्षेत्र में समान अधिकार देने को तैयार नही है। हद तो इस दर्जे तक भी है की धन, जमीन, और जायदाद की बात तो छोड़िए स्त्री के पास जन्म का अधिकार भी नहीं है। भारतीय समाज में आज भी आए दिन कन्या भ्रूण हत्या या नन्ही – नन्ही मासूम बच्चियों की हत्या के मामले सामने आ रहे हैं। चाँद और मंगल पर जाने वाला भारतीय समाज आज भी लिंग भेद के गुण गाता नज़र आता है। बेटियों को कच्ची उम्र से ही कमतर होने का पाठ पढ़ाया जाता है। अबोध बालिकाओं के अविकसित देह को दुपट्टे और पर्दे में जकड़ लिया जाता है । स्त्री कहाँ जाएगी , क्या पहनेगी, क्या पढ़ेगी, किसके साथ जीवन यापन करेगी – इन सब प्रश्नों का उत्तर केवल पुरुष सत्ता तय करेगी। भारतीय सामज में लड़कियां प्राचीन काल से ही समाज द्वारा थोपी गयी रूढ़ियों में जल रही हैं। केवल नाम और रिश्ते बादल जाते हैं , व्यवहार वही रहता है अभद्र और अमानुष। आखिर क्यों स्त्री को इस व्यवहार और अपमान के लायक समझा गया है?

यदि आंकलन करें तो भारतीय समाज का बहुत ही वीभत्स रूप नग्न हो जाता है। प्रकृति की बनावट के नाम पर स्त्री को केवल माँस के लोथड़े में आँकने वाला भयानक और क्रूर समाज, जिसने इहलोक तो क्या परलोक तक के लिए केवल पुत्र को ही श्रेष्ठ माना है । अपने गर्भ में नौ महीने सींचने वाली स्त्री जो यदि न हो तो संसार समाप्त हो जाए , अपने ही अस्तित्व के लिए छटपटाती रहती है।जीवन को ही सम्पूर्ण रूप से ना जान पाने वाले व्यक्ति आखिर मृत्यु के पश्चात प्राप्त होने वाले मोक्ष का परिचय किस आधार पर देते है ?

 भारतीय समाज ने पुत्रेष्टि यज्ञ के अलावा और भी कई कर्मकांडों में पुत्र की उपस्थिति को अनिवार्य माना है । पुत्र के वर्चस्व को अनेक अनुष्ठानों और धार्मिक कर्मों द्वारा सर्वोपरि माना गया है । पुत्र नहीं होगा तो माता-पिता का जीवन अधूरा कहा जाएगा , वह परिवार का कर्ता-धर्ता और वंश पालक होगा।  व्यक्तिगत सम्पत्ति का स्वामी होने से लेकर मुखाग्नि तथा पिंडदान का अधिकारी भी वही होगा अर्थात मरने के बाद माता-पिता के मोक्ष की गारंटी भी केवल पुत्र ही होगा। क्या बेटियों के मुखाग्नि देने पर मोक्ष की प्राप्ति नहीं होगी ?  आखिर क्यों?

आइये मिल कर भारतीय समाज की एक अतिमहत्वपूर्ण मान्यता – बेटियों को मुखाग्नि के अधिकार से वंचित रखने पर  विचार करें। 

000 संजना अभिषेक तिवारी
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टिप्पणियाँ:-

प्रज्ञा :-
स्त्रियों की पराधीनता और जकड़बंदी पर लिखी टिप्पणी सहज है। पर सत्ताओं की जकड़बन्दियां इतनी सहज और एकहरी नहीं वे चौतरफा प्रहार करतीहैं । धर्म समाज अर्थ राजनीति और न्याय भी स्त्री की पराधीनता को बनाये रखने के सशक्त औज़ार।

सत्यनारायण:-
आज का बीज वक्तव्य बिजूका समूह - ? की साथी  संजना अभिषेक तिवारी ने लिखा था। इस विषय पर उनका लेखकीय वक्तव्य भी हाज़िर है। संजना आपकी प्रतिक्रियाओं पर भी अपनी बात रखेंगी। पर उनके लेखकीय वक्तव्य पर भी आप अपनी बात रखें तो बेहतर हो।

यदि बेटियों को  मुखाग्नि के अधिकार के सम्बन्ध में विद्वान पंडितों द्वारा  दी जाने वाली दलीलों और समाज में बद्धमूल पारंपरिक सोच पर ध्यान केन्द्रित करें तो निम्न तथ्य सामने आते है जिनके आधार पर वे बेटियों को मुखाग्नि के अधिकार के लिए अयोग्य ठहराते है – 

पहला कारण – भारतीय संस्कृति ने बेटियों को पराया धन मानते हुए न घर का छोड़ा है न घाट का। जिस माँ की कोख से कन्या जन्म लेती है और जिस पिता की मजबूत बाहों को वह अपना सुरक्षा कवच समझती है , वही माँ –पिता उसे कुछ वर्षों पश्चात पराया धन की संज्ञा देकर घर आँगन से वंचित कर देते है और सौंप देते है दूसरे परिवार को। जिस कन्या को वह परिवार का अंग ही नहीं मानते उसको मुखाग्नि का अधिकार देना तो दूर की बात है। 
दूसरा कारण – जीती जागती बेटियों को भारतीय समाज ना केवल वस्तु बल्कि दान की वस्तु समझता है। बेटियों को भेड़ –बकरी समझ कर विवाह अनुष्ठान करके दूसरे परिवार को दान कर दिया जाता है अर्थात स्वामी बदल जाते है परन्तु बेटी वहीं की वहीं रह जाती है "वस्तु " और जिसके पास अपने ही अस्तित्व का अधिकार नहीं वह मुखाग्नि के अधिकार के लिए कैसे योग्य समझी जाएगी। 

तीसरा कारण – यदि पुत्र मुखाग्नि न दे तो माता –पिता को प्रेत योनि की प्राप्ति होती है। इस बहुत ही बचकाना दलील पर यह प्रश्न उठता है की आखिर किसने देखा है पुत्र द्वारा मुखाग्नि प्राप्त करके माता –पिता को देव योनि में जाते हुए। क्या पंडितों के पास स्वर्ग के अस्तित्व का कोई प्रमाण है या पुत्र द्वारा मोक्ष प्राप्त होने का कोई प्रमाण पत्र? 

चौथा कारण – पुत्र वंश चलाता है। ये दलील सबसे अधिक हास्यास्पद है। गर्भ सींचने वाली , आकार देने वाली , भरण – पोषण करने वाली तो नारी है पर वंश चलाने वाला पुरुष। जनन प्रक्रिया द्वारा संसार को जीवन देने वाली स्त्री स्वयम प्रमाण है वंश संचालिका होने का। किस वंश की बात करता है भारतीय समाज? जबकि विज्ञान यह साबित कर चुका है की प्रत्येक भ्रूण को जीवन देने में स्त्री पुरुष बराबर के सहभागी है, फिर कर्मकांडों में क्यों नहीं? 

पांचवा कारण – मान्यता है की पुत्र माता –पिता की सेवा करके अपना कर्ज उतारता है। उनके बुढ़ापे की लाठी होता है और वृद्धावस्था में उनका भरण –पोषण कर अपना फर्ज निभाता है परन्तु आज तो बेटियाँ प्रत्येक क्षेत्र में पुरुष के कंधे से कंधा मिलाकर खड़ी है। शिक्षा हो या रोजगार, बेटियाँ अपना सम्पूर्ण दायित्व निभा रही है। जब बेटियाँ अपने माता –पिता की देखरेख कर रही है तो उनको मुखाग्नि के अधिकार से क्यों वंचित रखा जाए। इसी प्रकार की कई दक़ियानूसी मान्यताएँ पुत्र एकाधिकार को सुरक्षा कवच प्रदान करती है।

परन्तु अब समय बदल रहा है। बेटियाँ ना केवल अपने अधिकारों के प्रति सजग हो रही है बल्कि भारतीय रूढ़ियों को धत्ता बताकर अपना स्थान व सम्मान छीन रही है। बेटियों ने सामाजिक दायरों के बाढ़े को तोड़कर स्वावलंबी बगिया में पुष्पों की भांति महकना शुरू कर दिया है। कुछ बेटियों ने समाज और हिन्दू धर्म के ठेकेदारों को अंगूठा दिखाकर अपने माता –पिता को मुखाग्नि दी है। इन प्रतिकूल परिस्थितियों में मध्यप्रदेश के देवास शहर की सोनाली, मोनाली और नैनो ने परम्पराओं को चुनौती देते हुए अपने पिता का दाह संस्कार किया। उसी प्रकार देवास की ही अंकिता, ऋचा, आकांक्षा ने अपने पिता को और सुधा, शारदा, तारा, प्रेमकुंवर ने अपनी 97 वर्षीय माँ को मुखाग्नि दी। नागपुर की ममता ने अपनी माँ को और लखनऊ उन्नाव की रूबी ने अपने पिता के होते हुए भी अपनी माँ को मुखाग्नि दी। रूबी के पिता उसकी माँ को 18 वर्ष पहले ही छोड़ चुके थे इसलिए उनके होते हुए भी रुबी ने कठोरता से उन्हे माँ का संस्कार करने से रोक दिया और स्वयं मुखाग्नि की और प्रत्येक प्रक्रिया को सम्पूर्ण किया। इसी प्रकार की और भी कई  घटनाए प्रकाश में आ रही है, जिनमे बेटियों ने बेटो से बढ़कर माँ –बाप के प्रति अपने कर्तव्यों को निभाया है और उन्हे मुखाग्नि भी दी है। आज की बेटियों के संघर्ष को देखते हुए वो दिन दूर नहीं जब भारत की नई परम्पराओं और मान्यताओ का इतिहास लिखा जाएगा, जिसमे पुत्र और पुत्री को प्रत्येक क्षेत्र में समान स्थान और सम्मान दिया जाएगा। 

 फ़रहत अली खान:-
'समानता' और 'बराबरी' दो अलग-अलग पहलू हैं। अगर ठंडे दिमाग़ से सोचा जाए तो वाक़ई ये दोनों पहलू अलग-अलग नज़र आएंगे। लेकिन हमारे समाज और मानव-निर्मित रीति-रिवाजों ने ऐसी स्थिति पैदा कर दी है कि जब पानी सिर से ऊपर पाकर स्त्री-पुरुष में से कोई एक पक्ष ख़ुद को दबा-कुचला सा महसूस करता है और आक्रोशित होकर अपना विरोध दर्ज कराता है तो 'समानता' और 'बराबरी' को एक ही पहलू मान लेता है; और अमूमन वो स्त्री ही होती है जो ख़ुद को दबा-कुचला महसूस करती है; पुरुष आमतौर पर मानसिक और शारीरिक रूप से स्त्री की तुलना में अधिक मज़बूत होने के कारण ख़ुद को उस पर हावी रखने की कोशिश करता है। यक़ीनन इसमें हमारे समाज और मानव-निर्मित झूठे रीति-रिवाजों का दोष सबसे ज़्यादा है।
अब फिर से उसी सच्चाई पर आते हैं कि 'समानता' और 'बराबरी' दो अलग-अलग पहलू हैं।
कहने की ज़रूरत नहीं है कि प्रकृति ने स्त्री और पुरुष को समान नहीं बनाया और ऐसा क्यूँ है-कैसे है, ये बहस का विषय नहीं है। जैसे कि अभी बात आयी कि अमूमन पुरुष मानसिक और शारीरिक रूप से स्त्रियों की तुलना में ज़्यादा मज़बूत होते हैं(कुछ अपवादों को छोड़कर); और ऐसी दीगर बहुत सी असमानताएँ हैं जो प्रकृति ने स्त्री और पुरुष में रखी हैं।
अब जब असमानताएँ प्राकृतिक हैं तो असमान अधिकार/कर्तव्य होना भी स्वभाविक ही है।
सो स्त्री और पुरुष के लिए ये कौन-कौन से अलग-अलग अधिकार और कर्तव्य हैं जिनके आधार पर कहा जा सके कि दोनों समान न होते हुए भी बराबर हैं, ये चर्चा का विषय है।

संजना तिवारी:-
फरहत जी आपकी इस बात से मैं पूर्णतयः सहमत हूँ की प्रकृति ने पुरुष और स्त्री को शारीरिक तौर पर अलग अलग रचा है । स्त्री देह की अपनी विशेषतायें और कमजोरियां हैं तो वहीँ पुरुष देह की अपनी लेकिन इससे कहीं से भी ये साबित नही होता की दोनों में से कौन अधिक शारीरिक और मानसिक मजबूत है । ये सारा खेल परवरिश और परिवेश का है । क्रूर परिवेश में पली स्त्रियां क्रूरता देखकर और करके जरा भी विचलित नही होती ।वही कोमल परिवेश में जन्मे लड़के एक कतरा खून भी बर्दाश्त नही कर पाते । कहने का तातपर्य हमें अलग अलग जगह अलग अलग तरह के उदाहरण मिल सकते हैं जिनमें स्त्री- पुरुषों की मानसिक और शारीरिक कमजोरियों का और मजबूतियों का उदाहरण मिलेगा ।
अब हम लेख पर आते हैं जहाँ आज का विषय स्त्री पुरुष के अधिकार की है और वो भी एक विशेष अधिकार जो लगभग सभी धर्मों में स्त्रियों के लिये एक जैसा है यानी - मुखाग्नि का अधिकार ।
अगर हम हिन्दू धर्म के इतर भी देखें तो अन्य धर्मों में भी स्त्री इस अधिकार से वंचित है । कई जगह स्त्रियों को श्मशान या कब्रिस्तान तक जाने की आजादी है लेकिन बाकि दफनाने या जलाने या पानी में बहाने की रीतियों में हाथ लगाने की नहीं ।
ऐसा क्यों ?
जिसके पास पुत्र नही उसकी पुत्री को ये अधिकार क्यों नही ?
जब एक बेटी आज हर जगह अपनी मौजूदगी दर्ज करवा रही है तो हमें आगे बढ़कर इस ढकोसले से भरी परम्परा को भी तोड़ने के लिए कदम बढ़ाना चाहिए ।ऐसी कोई भी परम्परा जो स्त्री पुरुष को समान अधिकार ना देती हो या एक को शोषित बनाती हो - तोड़नी चाहिए ।
मोक्ष किसने देखा है ? किसके पास प्रमाण है ?
मित्रों शायद आप मेरी बात को समझ पाएं की मैं क्या कहना चाहती हूँ । ये स्त्री अधिकार का अलाप नहीं , गुहार नही - ये उसकी शक्ति और कमजोरियों की भी बात नही - ये बात है एक दकियानूसी परम्परा के खण्डन की ।

मनीषा जैन :-
प्रश्न यह है कि क्या मुखाग्नि देने का हक़ बेटी को नहीं है ? क्यों नही दे सकती ? कई बार घर में बेटे के न होने पर किसी  मेल रिश्तेदार या भाई के लड़के से यह कराया जाता है। बेटे के अभाव में यदि यह क्रिया बेटी करती है तो क्या हर्ज है ? आज शायद बहस के विषय को ठीक से पढ़ा नही गया। इसमें कहीं भी मोक्ष को कर्मकांडीय नही बताया गया है।
सादर

आर्ची:-
कई बार ये देखा गया है कि बीमार माँ या पिता की अंतिम समय तक देखभाल उपचार और खर्च पुत्रियाँ करती हैं और तब समाज कुछ नहीं कहता/करता पर मृत्यु के बाद क्रियाविधि के अधिकार समाज उनसे छीन कर किसी चचेरे भाई को दे देता है जो उनके जीते जी हाल पूछने तक न आया हो कभी... ये गलत ही है

फ़रहत अली खान:-
धर्म पर जब बात हो तो उसके लिए हमें बहुत बारीकी पर जाना पड़ता है, और तब बिल्कुल बुनियादी सवाल भी उठते हैं जिनका स्त्री-पुरुष वाले मसले से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है और उसके लिए बहुत वक़्त और इल्म चाहिए। और लिखकर उसपर चर्चा करना बहुत मुश्किल है।

निधि जैन :-
आप कहते हैं पितृ सत्ता

जब महिलायें नौ महीने कामान नही जा सकती उसके बाद शिशु पालन के लिए भी उन्हें लीव लेनी पड़ती है तब घर कैसे चलेगा

ये तो रही नौकरी वालो की बात

पर जो रोज कुआँ खोदते रोज पानी पीते उनके लिए

फ़रहत अली खान:-
मैं कोई पितृ या मातृ सत्ता की बात नहीं कर रहा हूँ।
ये तो हमारा समाज है जो 'जिसकी लाठी, उसकी भैंस' के सिद्धांत पर चलकर नौबत यहाँ तक ले आया और इसमें पुरुषों के साथ साथ स्त्रियाँ भी कहीं न कहीं ज़िम्मेदार हैं।

प्रज्ञा :-
जी फरहत मानसिकता लिंग से तय नही होती सामन्ती मानसिकता स्त्री पुरुष दोनों को अनुकूलित करती है बराबर।

फ़रहत अली खान:-
मगर बुनियादी सवाल अभी भी खड़ा है जिस पर ठंडे दिमाग़ से सोचने की ज़रूरत है।
कि क्या प्राकृतिक असमानताओं यानी स्वाभाविक अधिकारों और कर्तव्यों की असमानताओं के साथ साथ हम बराबरी की बात नहीं कर सकते?
क्या बराबरी का एकमात्र अर्थ 'समान अधिकार और कर्तव्यों' का होना है?

किसलय पांचोली:-
बायोलॉजी में भिन्नता होने से स्त्रियां पुरषों से  मानसिक या शारीरिक रूप से कमजोर होती हैं यह तर्क  विज्ञानं सम्मत नहीं है। और इसे आधार बना कर स्त्रियों को सामाजिक वंचना देना सरासर गलत है। लेकिन बहुत से रीती रिवाजों में तरह तरह की धार्मिक परम्पराओं की आड़ ले कर ऐसा किया जाता रहा है। शिक्षा के प्रचार प्रसार और महिलाओं के घर से बाहर निकलने के कारण स्थितियां कुछ हद तक बदली हैं। यह सुखद है। पर पूरी तरह से समतामूलक समाज अभी भी दूर की कोडी ही है। ऐसा होने के लिए आचरण से अधिक विचार संहिता में परिवर्तन सभी को लाना होगा। महिला सशक्तिकरण के बरक्स पुरुष मानवीयकरण की भी मुहीम चलानी होगी।तभी मुखग्नि देने जैसे मुद्दों पर तर्क सम्मत और वैज्ञानिक सोच वाली आम सहमति बनेगी।

फ़रहत अली खान:-
किसलय जी,
अगर शारीरिक और मानसिक असमानता वाली बात को छोड़ भी दिया जाए तो भी बाक़ी असमानताएँ अपनी जगह क़ायम हैं।
तो वो बुनियादी सवाल तो अभी भी उतने ही प्रासंगिक हैं न।

कि क्या प्राकृतिक असमानताओं यानी स्वाभाविक अधिकारों और कर्तव्यों की असमानताओं के साथ साथ हम बराबरी की बात नहीं कर सकते?
क्या बराबरी का एकमात्र अर्थ 'समान अधिकार और कर्तव्यों' का होना है?

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