07 अगस्त, 2015

ग़ज़ल : शेख़ मुहम्मद इब्राहिम 'ज़ौक़'

शेख़ मुहम्मद इब्राहीम 'ज़ौक़'(1790-1854) की गिनती उर्दू के सर्वश्रेष्ठ शायरों में होती है। केवल 19 वर्ष की ही आयु में इन्हें मुग़ल दरबार के शाही शायर के तौर पर चुना गया था। शायरी में ये मुहावरों और शब्दों के बेहतरीन इस्तेमाल के लिए जाने जाते हैं। अपने समकालीन शायर मिर्ज़ा ग़ालिब से उस्ताद ज़ौक़ की प्रतिद्वंदिता मशहूर है। उस समय ज़ौक़ की शोहरत ग़ालिब से ज़्यादा थी। शायरी में ज़ौक़ महान शायर और आख़िरी मुग़ल बादशाह बहादुर शाह 'ज़फ़र' के उस्ताद भी रहे।

पेश हैं उस्ताद 'ज़ौक़' की तीन ग़ज़लें(पूर्ण/आंशिक)। साथी इन्हें ध्यान से पढ़कर, इन पर टिप्पणियाँ दें:

1.
लाई हयात, आए, क़ज़ा ले चली, चले
अपनी ख़ुशी न आए, न अपनी ख़ुशी चले
(हयात - ज़िन्दगी; क़ज़ा - मौत; ख़ुशी से - इच्छा से)

हो उम्र-ए-ख़िज़्र भी तो हो मालूम वक़्त-ए-मर्ग
हम क्या रहे यहाँ, अभी आए, अभी चले
(उम्र-ए-ख़िज़्र - बेहद लंबी आयु; वक़्त-ए-मर्ग - मरते वक़्त)

बेहतर तो है यही कि न दुनिया से दिल लगे
पर क्या करें जो काम न बे-दिल-लगी चले
(बे-दिल-लगी - बग़ैर दिल लगाए)

दुनिया ने किस का राह-ए-फ़ना में दिया है साथ
तुम भी चले चलो यूँ ही जब तक चली चले
(राह-ए-फ़ना - मौत का सफ़र)

जाते हवा-ए-शौक़ में हैं इस चमन से 'ज़ौक़'
अपनी बला से बाद-ए-सबा अब कभी चले
(हवा-ए-शौक़ - मुहब्बत की फ़िज़ा/ख़ुशी-ख़ुशी; चमन - बाग़; बाद-ए-सबा - सुबह की ठंडी हवा)

2.
बीमार-ए-मुहब्बत ने लिया तेरे संभाला
लेकिन वो संभाले से संभल जाए तो अच्छा
(बीमार-ए-मुहब्बत - प्रेम में बीमार; संभाला - स्थिरता)

हो तुझ से अयादत जो न बीमार की अपने
लेने को ख़बर उसकी अजल जाए तो अच्छा
(अयादत - हाल-चाल पूछना/ख़बर लेना; अजल - मौत)

तासीर-ए-मुहब्बत अजब इक हब का अमल है
लेकिन ये अमल यार पे चल जाए तो अच्छा
(तासीर-ए-मुहब्बत - प्रेम का प्रभाव; हब - ढंग; अमल - काम/युक्ति)

दिल गिर के नज़र से तेरी उठने का नहीं फिर
ये गिरने से पहले ही सँभल जाए तो अच्छा

वो सुबह को आए तो करूँ बातों में दो-पहर
और चाहूँ कि दिन थोड़ा सा ढल जाए तो अच्छा

ढल जाए जो दिन भी तो उसी तरह करूँ शाम
और चाहूँ कि गर आज से कल जाए तो अच्छा

जब कल हो तो फिर वो ही करूँ कल की तरह से
गर आज का दिन भी यूँ ही टल जाए तो अच्छा

अल-क़िस्सा, नहीं चाहता मैं जाए वो याँ से
दिल उसका यहीं गरचे बहल जाए तो अच्छा
(अल-क़िस्सा - संक्षेप में/सारांश; याँ - यहाँ; गरचे - यद्यपि)

3.
क्या आए तुम जो आए घड़ी दो घड़ी के बाद
सीने में होगी साँस अड़ी दो घड़ी के बाद

क्या रोका अपने गिर्ये को हम ने कि लग गयी
फिर वो ही आँसुओं की झड़ी दो घड़ी के बाद
(गिर्या - विलाप)

कोई घड़ी अगर वो मुलायम हुए तो क्या
कह बैठेंगे फिर एक कड़ी दो घड़ी के बाद

कल उससे हमने तर्क-ए-मुलाक़ात की तो क्या
फिर उस बग़ैर कल न पड़ी दो घड़ी के बाद
(तर्क-ए-मुलाक़ात - मुलाक़ात रद्द करना)

थे दो घड़ी से शेख़ जी शेख़ी बघारते
सारी वो शेख़ी उन की झड़ी दो घड़ी के बाद

परवाना गिर्द शमा के शब दो घड़ी रहा
फिर देखी उसकी ख़ाक पड़ी दो घड़ी के बाद
(परवाना - कीट/पतंगा; शमा - चिराग़ की लौ; शब - रात; ख़ाक - राख़)

तू दो घड़ी का वादा न कर, देख जल्द आ
आने में होगी देर बड़ी दो घड़ी के बाद

गो दो घड़ी तक उस ने न देखा इधर तो क्या
आख़िर हमीं से आँख लड़ी दो घड़ी के बाद
(गो - यद्यपि)

क्या जाने दो घड़ी वो रहे 'ज़ौक़' किस तरह
फिर तो न ठहरे पाँव घड़ी दो घड़ी के बाद

प्रस्तुति- फरहत खान
-----------------------------------
टिप्पणियाँ:-

फ़रहत अली खान:-
लेकिन मैंने तो विदेशी कविताओं की भावनाओं को आमतौर पर न समझे जाने की वजह आब-ओ-हवा, स्वभावों, विचारों और नज़रियों में फ़र्क़ होना बताया था। क्लिष्ट भाषा को तो शब्दार्थ देखकर भी समझा जा सकता है परंतु भावनाओं का परिवेश से गहरा सम्बन्ध होता है, इनका भाषा से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं होता;
जबकि उर्दू तो देशी भाषा है और ज़ौक़ भारतीय परिवेश में रचे-बसे शायर थे, तब तो इनकी भावनाएँ समझने में कठिनाई नहीं होनी चाहिए।
अगर मैं पूरी तरह से ग़ज़लों का हिंदी अनुवाद करता तो वो ग़ज़ल के नियमों का पालन न कर पाने के फल-स्वरूप ग़ज़लेँ नहीं कहलातीं; इसीलिए इन्हें मैंने मुश्किल शब्दों के अर्थ के साथ प्रस्तुत किया।

मनीषा जैन :-
उस्ताद "ज़ौक़" की इन ग़ज़लों के लिए फ़रहत साहब का बहुत बहुत शुक्रिया
"ज़ौक़" की शाइरी की ख़ासियत, "मज़्मून की ताज़गी, तरकीब की चुस्ती, मुहावरों की ख़ूबी, कलाम में सफाई और आम-फहम" होना थी.
समूह एक से बलविदंर जी की टिप्पणी☝

बलविंदर:-
उस्ताद "ज़ौक़" की इन ग़ज़लों के लिए फ़रहत साहब का बहुत बहुत शुक्रिया
"ज़ौक़" की शाइरी की ख़ासियत, "मज़्मून की ताज़गी, तरकीब की चुस्ती, मुहावरों की ख़ूबी, कलाम में सफाई और आम-फहम" होना थी.
इन तीनोँ ग़ज़लों के बाक़ी अशआर भी हाज़िर हैं
1
हम से भी इस बिसात पे कम होंगे बद-क़िमार
जब चाल हम चले सो निहायत बुरी चले

लैला का नाक़ा दश्त में तासीर-ए-इश्क़ से
सुन कर फुग़ान-ए-क़ैस बजा-ए-हुदी चले

नाज़ां न हो ख़िरद पे जो होना है हो वही
दानिश तिरी न कुछ मिरी दानिश्वरी चले

2
आँखें मिरी तलवों से मिल जाए तो अच्छा
है हैरत-ए-पा-बोस निकल जाए तो अच्छा

जो चश्म कि बे-नाम हो वो हो कोर तो बेहतर
जो दिल की हो बे-दाग़ वो जल जाए तो अच्छा

खींचे दिल-ए-इन्सां को ना वो ज़ुल्फ़-ए-सियाह-फहम
अज़्हदर कोई गर उस को निगल जाए तो अच्छा

फ़ुरक़त में तिरी तार-ए-नफ़स सीने में मेरे
काँटा सा खटकता है निकल जाए तो अच्छा

ऐ गिरिया न रख मेरे तन-ए-ख़ुश्क को ग़रक़ाब
लकड़ी की तरह पानी में गल जाए तो अच्छा

हाँ कुछ तो हो हासिल समर-ए-नखल-ए- मुहब्बत
ये सीना फफोलों से फल जाए तो अच्छा

है क़तअ रह-ए-इश्क़ में ऐ "ज़ौक़" अदब शर्त
जूं शम्अ तू अब सर ही के बाल जाए तो अच्छा

3
उस लाल-ए-लब के हम ने लिए बोस इस क़दर
सब उड़ गई मिसी की धड़ी दो घड़ी के बाद

अल्लाह रे ज़ोफ़्-ए-सीना से हर आह-ए-बे-असर
लब तक जो पहुंची भी तो चढ़ी दो घड़ी के बाद

कहता रहा कुछ उस से अदू दो घड़ी तलक
ग़म्माज़् ने फिर और जड़ी दो घड़ी के बाद

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें