21 अक्तूबर, 2015

कविता : राजेश जोशी

मित्रो आज बिजूका पर पढ़िए सुप्रसिद्ध कवि राजेश जोशी जी कि लिखी कविताएँ ।

राजेश जोशी उन साहित्यकारों में से एक है जिन्होंने हाल ही में साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाया है ।

तो आइये पढ़ते हैं उनकी ये कविताएँ ---

बिजली का मीटर पढ़ने वाले से बातचीत

बाहर का दरवाज़ा खोल कर दाखिल होता है
बिजली का मीटर पढ़ने वाला
टार्च की रोशनी डाल कर पढ़ता है मीटर
एक हाथ में उसके बिल बनाने की मशीन है
जिसमें दाखिल करता है वह एक संख्या
जो बताती है कि
कितनी यूनिट बिजली खर्च की मैंने
अपने घर की रोशनी के लिए

क्या तुम्हारी प्रौद्योगिकी में कोई ऐसी हिक़मत है
अपनी आवाज़ को थोड़ा -सा मज़ाकिया बनाते हुए
मैं पूछता हूँ
कि जिससे जाना जा सके कि इस अवधि में
कितना अँधेरा पैदा किया गया हमारे घरों में?
हम लोग एक ऐसे समय के नागरिक हैं
जिसमें हर दिन महँगी होती जाती है रोशनी
और बढ़ता जाता है अँधेरे का आयतन लगातार
चेहरा घुमा कर घूरता है वह मुझे
चिढ़ कर कहता है
मैं एक सरकारी मुलाजिम हूँ
और तुम राजनीतिक बक़वास कर रहे हो मुझसे!

अरे नहीं नहीं....समझाने की कोशिश करता हूँ मैं उसे
मैं तो एक साधारण आदमी हूँ अदना-सा मुलाजिम
और मैं अँधेरा शब्द का इस्तेमाल अँधेरे के लिए ही कर रहा हूँ
दूसरे किसी अर्थ में नहीं
हमारे समय की यह भी एक अजीब दिक्क़त है
एक सीधे-सादे वाक्य को भी लोग सीधे-सादे वाक्य की तरह नहीं लेते
हमेशा ढूँढने लगते हैं उसमें एक दूसरा अर्थ

मैं मीटर पढ़ने निकला हूँ महोदय लोगों से मज़ाक करने नहीं
वह भड़क कर कहता है
ऐसा कोई मीटर नहीं जो अँधेरे का हिसाब-क़िताब रखता हो
और इस बार तो बिजली दरें भी बढ़ा दीं हैं सरकार ने
आपने अख़बार में पढ़ ही लिया होगा
अगला बिल बढ़ी हुई दरों से ही आएगा

ओह ! तो इस तरह लिया जायेगा इम्तिहान हमारे सब्र का
इस तरह अभ्यस्त बनाया जायेगा धीरे-धीरे
अँधेरे का
हमारी आँखों को

पर ज़बान तक आने से पहले ही
अपने भीतर दबा लिया मैंने इस वाक्य को

बस एक बार मन ही मन दोहराया सिर्फ़!

2. पक्की दोस्तियों का आइना

पक्की दोस्तियों का आईना इतना नाजुक होता जाता था
कि ज़रा-सी बात से उसमें बाल आ जाता और
कभी-कभी वह उम्र भर नहीं जा पाता था ।

ऐसी दोस्तियाँ जब टूटती थीं तब पता लगता था
कि कितनी कड़वाहट छिपी बैठी थी उनके भीतर
एक-एक कर न जाने कब-कब की कितनी ही बातें याद आती थीं
कितने टुच्चेपन, कितनी दग़ाबाजियाँ छिपी रही अब तक इसके भीतर
हम कहते थे, यह तो हम थे कि सब कुछ जानते हुए भी निभाते रहे
वरना इसे तो कभी का टूट जाना चाहिए था ।

पक्की दोस्तियों का फल
कितना तिक्त कितना कटु भीतर ही भीतर !

टूटने से खाली हुई जगह को भरती थी हमारी घृणा !

उम्र के साथ-साथ नए दोस्त बनते थे और पुराने छूटते जाते थे
बचपन के लंगोटिया यार बिछड जाते थे ।
कभी-कभी तो महीनों और साल-दर-साल उनकी याद भी नहीं आती
साल-चौमासे या बरसों बाद उनमें से कोई अचानक मिल जाता था
कस कर एक दूसरे को कुछ पलों को भींच लेते थे
फिर कोई कहता कि यूँ तो मैंने सिगरेट पीना छोड़ दिया है
पर आज तेरे मिलने की ख़ुशी में बरसों बाद एक सिगरेट पिऊँगा
दोनों सिगरेट जलाते थे ।
अतीत के ढेर सारे किस्सों को दोहराते थे, जो दोनों को ही याद थे
बिना बात बीच-बीच में हँसते थे, देर तक बतियाते थे
लेकिन अचानक महसूस होता था
कि उनके पास सिर्फ़ कुछ यादें बची हैं
जिनमें बहुत सारे शब्द हैं पर सम्बन्धों का ताप कहीं चुक गया है ।

पक्की दोस्तियों का आईना
समय के फ़ासलों से मटमैला होता जाता था ।

रात दिन साथ रह कर भी जिनसे कभी मन नहीं भरा
बातें जो कभी ख़त्म होने का नाम ही नहीं लेती थीं
बरसों बाद उन्हीं से मिल कर लगता था
कि जैसे अब करने को कोई बात ही नहीं बची
और क्या चल रहा है आजकल..... जैसा फ़िज़ूल का वाक्य
बीच में बार-बार चली आती चुप्पी को भरने को
कई-कई बार दोहराते थे ।
कोई बहाना करते हुए कसमसाकर उठ जाते थे
उठते हुए कहते थे... कभी-कभी मिलाकर यार ।
बेमतलब है यह वाक्य हम जानते थे
जानते थे कि हम शायद फिर कई साल नहीं मिलेंगे ।

मुश्किल वक़्त में ऐसे दोस्त अक्सर ज़्यादा काम आते थे
जिनसे कभी कोई खास नज़दीकी नहीं रही ।

पक्की दोस्तियों के आईने में
एक दिन हम अपनी ही शक़्ल नहीं पहचान पाते थे ।

3. रुको बच्चों

रूको बच्‍चो रूको !
सड़क पार करने से पहले रुको

तेज रफ़्तार से जाती इन गाड़ियों को गुज़र जाने दो

वो जो सर्र से जाती सफ़ेद कार में गया
उस अफ़सर को कहीं पहुँचने की कोई जल्‍दी नहीं है
वो बारह या कभी-कभी तो इसके बाद भी पहुँचता है अपने विभाग में
दिन, महीने या कभी-कभी तो बरसों लग जाते हैं
उसकी टेबिल पर रखी ज़रूरी फ़ाइल को ख़िसकने में

रूको बच्‍चो !
उस न्‍यायाधीश की कार को निकल जाने दो
कौन पूछ सकता है उससे कि तुम जो चलते हो इतनी तेज़ कार में
कितने मुक़दमे लंबित हैं तुम्‍हारी अदालत में कितने साल से
कहने को कहा जाता है कि न्‍याय में देरी न्‍याय की अवहेलना है
लेकिन नारा लगाने या सेमीनारों में बोलने के लिए होते हैं ऐसे वाक्‍य
कई बार तो पेशी दर पेशी चक्‍कर पर चक्‍कर काटते
ऊपर की अदालत तक पहुँच जाता है आदमी
और नहीं हो पाता इनकी अदालत का फ़ैसला

रूको बच्‍चो ! सडक पार करने से पहले रुको
उस पुलिस अफ़सर की बात तो बिल्‍कुल मत करो
वो पैदल चले या कार में
तेज़ चाल से चलना उसके प्रशिक्षण का हिस्‍सा है
यह और बात है कि जहाँ घटना घटती है
वहां पहुँचता है वो सबसे बाद में

रूको बच्‍चों रुको
साइरन बजाती इस गाडी के पीछे-पीछे
बहुत तेज़ गति से आ रही होगी
किसी मंत्री की कार
नहीं, नहीं, उसे कहीं पहुँचने की कोई जल्‍दी नहीं
उसे तो अपनी तोंद के साथ कुर्सी से उठने में लग जाते हैं कई मिनट
उसकी गाड़ी तो एक भय में भागी जाती है इतनी तेज़
सुरक्षा को एक अंधी रफ़्तार की दरकार है
रूको बच्‍चो !
इन्‍हें गुज़र जाने दो

इन्‍हें जल्‍दी जाना है
क्‍योंकि इन्‍हें कहीं पहुँचना है।

प्रस्तुति - तितिक्षा

कवि परिचय
जन्म: 18 जुलाई 1946

जन्म स्थान
नरसिंहगढ़, मध्य प्रदेश, भारत
कुछ प्रमुख कृतियाँ
समरगाथा (लम्बी कविता), एक दिन बोलेंगे पेड़, मिट्टी का चेहरा, दो पंक्तियों के बीच (कविता संग्रह), पतलून पहना आदमी (मायकोवस्की की कविताओं का अनुवाद), धरती का कल्पतरु(भृतहरि की कविताओं का अनुवाद), गेंद निराली मीठू की'
विविध कविता संग्रह
सम्मान-
"दो पंक्तियों के बीच" के लिये 2002 का साहित्य अकादमी पुरस्कार सहित अनेक प्रतिष्ठित सम्मान और पुरस्कार से से विभूषित।
साभार- हिन्दी समय
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टिप्पणीयाँ:-

मनचन्दा पानी:-

रुको बच्चों रुको और बिजली का मीटर पढ़ने वाले से बातचीत दोनों कविता उच्च कोटि की लगी. ऐसी सामान्य बातों से कविता निकाल लेना या ऐसी सामान्य बातों को कविता में पिरोना बहुत खूब लगा.

फ़रहत अली खान:-

उम्दा कविताएँ हैं।
'रुको बच्चों' सबसे ज़्यादा पसंद आई क्यूँकि इसमें बेहद ख़ूब-सूरती से कईयों पर तंज़ कर दिया गया और कहीं भी ये नहीं लगा कि कोई बात हक़ीक़त से दूर हो।
बाक़ी दोनों भी अच्छी बन पड़ी हैं।

निधि जैन :-
इस कविता का अंत 'क्योंकि इन्हें कहीं नही पहुँचना है' होता तो और बढ़िया पंच लगता

है न

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