23 नवंबर, 2015

डायरी के कुछ अंश : शालिनी बाजपेयी

आज पढ़ते हैं समूह के साथी की डायरी के कुछ अंश। अच्छा लगे तो रचनाकार का हौसला जरूर बढ़ाये।

भैय्या जैसे ही दूब को बकरे की गर्दन पर रखते हम लड़कियां मेंहssss...मेंहssss...कर मिमियातीं

हमारे यहां हर व्रत-त्योहार पूरे विधि विधान और परंपरागत रूप से मानाया जाता है। मझे तिल-गुड़ के लड्डू वाला वो व्रत-त्योहार आज भी याद आता है। सकट चौथ। मम्मी इस दिन व्रत रखती थी लेकिन हम बच्चों के लिए ऐसा हर कर्मकाण्डी दिन किसी त्योहार से कम नहीं होता था। और मेरी मम्मी, चाची और ताई जी ही नहीं मुहल्ले की सभी ऐसी शादीशुदा औरतें जो 'पुत्रवती' थीं वो सब इस दिन व्रत रखती थी। शाम होते ही एक बड़ी सी कढ़ाई चूल्हे पर रखकर उसमें गुड़ गरम किया जाता। काले तिल भूनकर उससे डाले जाते। इसके बाद हम सब बैठकर लड्डू बनाते। कोई गोल बनाता, कोई अंडाकार। मेरा छोटा चचेरा भाई बहुत खेल करता था, वो चौकोर लड्डू बनाता और हम सबको दिखाता। मम्मी, चाची सब उसे डांटतीं..... भागो यहां से तुम लड्डू ख़राब कर रहे हो....और वो सबको मुंह चिढ़ाता अपना लड्डू ले कर भाग जाता। वहां उसे ही बैठने की इजाज़त मिलती, जिसकी हथेली लड्डू को गोल बना पाती।

लड्डू बनाने के साथ ही एक बड़ी सी पीतल की परात में तिल-गुड़ से बकरे की आकृति बनायी जाती। उस परात में उतने हो बकरे बनाए जाते जितने घर में लड़के होते। इसके बाद उसे दूर रख दिया जाता, ताकि कोई बच्चा गंदे हाथों से छूकर उसे 'अपवित्र' न कर दे। पूजा से पहले किसी को भी लड्डू खाने की इजाज़त नहीं होती थी।
घंटों ऐसे ही लड्डू बनाने के बाद फिर पूजा की तैयारी होती। चौक रखने के बाद लकड़ी के पाटे पर सकट चौथ बनाई जाती। मम्मी-चाची-ताई जी पूजा करती और हम लोग दूर से देखते।

पूजा करने के बाद समय आता उन तिल-गुड़ के बकरों को काटने का जो परात में बनाए गए थे। फिर मम्मी-चाची बकरे के सर की पूजा करतीं, उस पर चन्दन लगातीं। इसके बाद घर के लड़कों को बुलाया जाता। और वो सब राजकुमारों की तरह ऐंठते हुए आते। मम्मी उन्हें दूब (घास) देतीं। वे दूब को परात में जमे बकरे की गर्दन पर रखते। जैसे ही दूब बकरे की गर्दन पर रखी जाती, हम लड़कियां चिल्लातीं मेंहssss...मेंहssss...मेंहssss....। बारी-बारी से हर लड़का ऐसे ही बकरे की गर्दन पर दूब रखता और हम लड़कियां हर बार ऐसे ही मिमियातीं। इसके बाद बकरे का सर पूजा में चढ़ाया जाता और बाकी का उसका शरीर लड़कों को ही खाने को मिलता।

मुझे याद है दीपावाली के अगले दिन दादी अलसुबह ही घर में सूप बजाकर मम्मी-चाची-ताई जी को उठा देतीं थी। फिर वे सब नहाने के बाद रात को भिगोए गए नए चावल सिल पर पीसतीं। पीसने के बाद एक तरफ चावल की चिड़िया बनाई जाती, तो दूसरी तरफ गोबर से बने गोबर्धन रखे जाते। चिड़िया बनाने के बाद उसे भाप पर पकाया जाता। घर की हर स्त्री के लिए एक-एक चिड़िया बनानी होती थी। पकने के बाद चिड़िया को लाकर गोबर्धन की पूजा होती। उसके बाद चिड़िया के सर पर चन्दन लगाकर उसकी भी पूजा होती।

चिड़िया को पूजने के बाद मम्मी, चाची और ताई जी उस चिड़िया का सर तोड़कर पैर के अंगूठे के नीचे दबा लेतीं। इसके बाद में बिना बोले चीनी के खिलौने के साथ चिड़िया का बाकी का शरीर खातीं। हम लोग पास में बैठकर उन्हें हंसाने की खूब कोशिश करते, बोलने के लिए उकसाते, वो हमें आंखें दिखाती लेकिन एक शब्द नहीं बोलतीं। एकदम मौन रहकर पूरी चिड़िया खातीं। चिड़िया खाने के बाद वे पैर के अंगूठे से उसका सर निकालतीं और अपने सर के चारों ओर उसे घुमाकर छत पर फेंक देतीं। ...फिर हम लोगों को डांटना शुरू करतीं और हम बच्चा पार्टी वहां से फुर्र हो जाते।

मैं हमेशा सोचती थी कि जब हमारे घर में मांस-मछली का नाम लेना भी किसी अपराध से कम नहीं तो फिर पूजा में ये बकरा-चिड़िया बना कर उन्हे प्रतीकात्मक रूप से मारने और उन्हें खाने की रस्में क्यों होती हैं? जब मैं दादाजी से पूछती कि बाबा, भैय्या लोग बकरे को ऐसा क्यों करते हैं जैसे काट रहे हों जबकि हम लोग तो बकरा खाते ही नहीं और हम लड़कियों से मेंहssss....मेंहssss... करने को क्यों कहा जाता है। तब मुझे हर बार यही जवाब मिलता, अरे पगली, ये तो पूजा है....ये कोई बकरा थोड़े है, ये तो तिल-गुड़ का लड्डू ....,...तुम भी सीखो मम्मी कैसे करती हैं।

मेरे दादाजी संस्कृत के विद्वान थे। वे मुझे बहलाते थे या उनके पास मेरे सवालों के जवाब नहीं थे मुझे नहीं पता। लेकिन आज जब सकट चौथ और गोवर्धन पूजा के बारे में सोचती हूं तो लगता है इन प्रतीकों का कुछ तो अर्थ होगा। संभव है किसी काल में बकरे और पक्षियों की बली की प्रथा रही हो जो समाप्त हो गयी हो और ये प्रतीकात्मकता उसका अवशेष हो। अन्यथा मुझे कोई और कारण नहीं समझ आता कि व्रत-पूजा आदि में प्रतीक के रूप में भी गुड़-तिल के बकरे की आकृति बना दूब को उसकी गर्दन पर रखना, जैसे बकरे की गर्दन काट रहे हों, हमारा मेंहsss...मेंहsss... की आवाज निकालना, चावल से बनी चिड़िया की गर्दन मरोड़ना आदि का क्या अर्थ हो सकता है।

हमारे पूर्वज मांस-भोजी थे। यज्ञादि में पशु बलि भी दी जाती थी। इन बातों से इंकार नहीं किया जा सकता। हमारे ही धर्मशास्त्रों में मांसाहार और पशुबलि के संबंध में नियम दिए गए है। ये भी सच है कि समय के साथ हिन्दुओं में मांसाहार कम हुआ और पशुबलि में भी कमी आयी। जो प्रथाएं धार्मिक कर्मकाण्डों के साथ जुड़ी थीं, वे प्रतीक के रूप में आज भी विद्यमान हैं।

हमारे घर में मांस, मछली, अण्डे का नाम लेना मना है। पाप उस घर का पानी भी नहीं पीते जहां मांस, मछली और अण्डा पकाया जाता हो। हमारी बुआ ऐसी दुकान से कोई सामान नहीं लेती हैं, जहां पर अण्डा बिकता हो। वे ये बात मानने को तैयार नहीं होंगे कि उनके पूर्वज मांस भोजी थे। व्रत-पूजा आदि में हम आज भी कुछ ऐसी रस्मों का पालन करते है जो शायद इसी ओर इशारा करती हैं।
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टिप्पणियाँ:-

निधि जैन :-:
तो क्या कहना चाहती हैं लेखिका
कि मांसाहार को पाप मानना गलत है?
अगर भूतकाल में हम कोई गलती करते रहे तो उसे आज भी जारी रखें
या जिस बात की आवश्यकता भूतकाल में थी उसकी आवश्यकता न होने पर भी उसे ही जारी रखें?

सुवर्णा :-
मेरे ख्याल से नहीं। यहाँ प्रतीकों के इस्तेमाल की चर्चा बस हुई है। मैंने और भी कई घरों में देखा है कि हलवे को जानवर की शक्ल देकर बलि को प्रतिस्थापित किया जाता है। मुमकिन है उन घरों में कभी पहले प्रथा रही हो बलि देने की जिसे महज़ प्रतीक के तौर पर रस्म अदायगी कर ली जाती है।

ब्रजेश कानूनगो:-
वो कौनसा भय है जिसके कारण छोड़ दी गयी बांते किसी और रूप में जारी रखना जरूरी  लगता  है?

जैन :-
कोई भी बात और जब वो आस्था से जुडी हो एकदम से छोड़ना कठिन होता है

खाते तो हमारे पूर्वज भी रहे ही होंगे

पर जैनियों में अब इस तरह का कहीं कोई विधान नही दीखता

इवन नारियल तक नही फोड़ा जाता बलि के नाम पर

शायद इसलिए भी कि जैन पंथ में अहिंसा मूलभूत रही

और जगह अहिंसा पूर्ण रूप से नहीं अपनाई गई?

सुवर्णा :-
जी मुझे भी यही लगता है। कि यह अंतर्मन का भय ही है कि लोग छोड़ नहीं पाते तो मोड़ लेते हैं और प्रतीकों का सहारा लिया जाता है। जैन धर्म नया है और अहिंसा उसका मूल रहा है इसलिए शायद वहाँ ऐसा कुछ नहीं मिलता। हाँलांकि हमारे घरों में भी ऐसा कुछ नहीं मिलता.....

ब्रजेश कानूनगो:-
हम तो दशहरे पर बिना भय के गिलकी के पकौड़े खाते हैं। न जाने कौनसी प्रथा का परिवर्तित रूप है।

प्रज्ञा :-
ये लेख उन धार्मिक रिवाज़ों की ओर ध्यान दिलाता हुआ बलि संदर्भ को सामने लाता है। वेदों में ब्राह्मणों के मांस भक्षण का उल्लेख है। भारतेंदु का नाटक पढ़ना बेहद ज़रूरी
वैदिक हिंसा हिंसा न भवति
जहाँ अग्नि में खूब मांस पकाया जा रहा है। ये प्रतीक आज भी धर्म और हिंसा के समीकरण की पुष्टि तो कर ही रहे हैं । वैश्विक संदर्भों में देखिये धर्म का अंधानुकरण और रूढ़िवादिता कितनी जघन्य हत्याओं की ज़िम्मेदार है। कितने लोग इस अग्नि में होम हो चुके तारीख गवाह है।

मनीषा जैन :-
प्रज्ञा जी से सहमत। हिंसा चाहे किसी भी तरह की हो दुख देती है। धर्म का अंधानुकरण हम सभ्य कहे जाने वाले प्राणी आज भी करते हैं। मानसिक हिंसा भी उतनी दुखदायी है जितनी शारीरिक हिंसा।

शालिनी बाजपेयी:-
दीपावली पर घर गई थी। गोवर्धन पूजा पर मम्मी ने वही सब किया जो मैं बचपन से देखती रही हूं। पहले दादी मम्मी और चाची होतीं थी अब मम्मी और मेरी भाभी। भाभी सीख रही हैं कि गोवर्धन पूजा कैसे की जाती है चावल की चिड़िया कैसे बनाई जाती है आदि आदि। मैनें देखा है कि कार्य कारण से किसी को कोई मतलब नहीं है। मेरी मां और भाभी जैसी घरेलू स्त्रियों के लिए ये एक सीखा हुआ व्यवहार है। एक रस्म है जो निभानी है। क्योंकि उनकी नज़र में ये धर्म है।

मांसाहार पाप है या पुण्य मैं इस बहस में नहीं पड़ती। हमारे पूर्वज मांसाहारी थे इस सत्य को स्वीकार करना चाहिए। सकट चौथ....गोवर्धन  पूजा आदि पर की जानी वाली क्रियाएं भी, जिन्हे आम लोग धर्म मान कर करते है, इसी ओर इशारे करती हैं। ऐसा मेरा मानना है। इन्हे समझना होगा।

आभार...

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