13 दिसंबर, 2015

श्रद्धांजलि : रमाशंकर यादव 'विद्रोही'

मित्रो जैसाआप सभी जानते हैं कामरेड 'विद्रोही' जी नही रहे ।

रमाशंकर यादव जी

उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जिले में जन्मे प्रगतिशील चेतना के प्रखर कवि ‘विद्रोही’ के नाम से विख्यात रहे। दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय (जेएनयू) के छात्रों के बीच उनकी कविताएँ ख़ासी लोकप्रिय रही । वाम आंदोलन से जुड़ने की ख़्वाहिश और जेएनयू के अंदर के लोकतांत्रिक माहौल ने उन्हें इतना आकृष्ट किया कि वे इसी परिसर के होकर रह गए। उन्होंने इस परिसर में जीवन के 30 से भी अधिक वसंत गुज़ारे ।
बिजूका समूह के सभी सदस्यों की ओर से उन्हें श्रुद्धांजलि देते हुए आज पढ़ते हैं उन्ही की कुछ रचनाएँ ।

1
कविता और लाठी

तुम मुझसे
हाले-दिल न पूछो ऐ दोस्त!
तुम मुझसे सीधे-सीधे तबियत की बात कहो।
और तबियत तो इस समय ये कह रही है कि
मौत के मुंह में लाठी ढकेल दूं,
या चींटी के मुह में आंटा गेर दूं।
और आप- आपका मुंह,
क्या चाहता है आली जनाब!
जाहिर है कि आप भूखे नहीं हैं,
आपको लाठी ही चाहिए,
तो क्या
आप मेरी कविता को सोंटा समझते है?
मेरी कविता वस्तुतः
लाठी ही है,
इसे लो और भांजो!
मगर ठहरो!
ये वो लाठी नहीं है जो
हर तरफ भंज जाती है,
ये सिर्फ उस तरफ भंजती है
जिधर मैं इसे प्रेरित करता हूं।
मसलन तुम इसे बड़ों के खिलाफ भांजोगे,
भंज जाएगी।
छोटों के खिलाफ भांजोगे,
न,
नहीं भंजेगी।
तुम इसे भगवान के खिलाफ भांजोगे,
भंज जाएगी।
लेकिन तुम इसे इंसान के खिलाफ भांजोगे,
न,
नहीं भंजेगी।
कविता और लाठी में यही अंतर है।


पुरखे

नदी किनारे, सागर तीरे,
पर्वत-पर्वत घाटी-घाटी,
बना बावला सूंघ रहा हूं,
मैं अपने पुरखों की माटी।
सिंधु, जहां सैंधव टापों के,
गहरे बहुत निशान बने थे,
हाय खुरों से कौन कटा था,
बाबा मेरे किसान बने थे।
ग्रीक बसाया, मिस्र बसाया,
दिया मर्तबा इटली को,
मगध बसा था लौह के ऊपर,
मरे पुरनिया खानों में।
कहां हड़प्पा, कहां सवाना,
कहां वोल्गा, मिसीसिपी,
मरी टेम्स में डूब औरतें,
भूखी, प्यासी, लदी-फदी।
वहां कापुआ के महलों के,
नीचे खून गुलामों के,
बहती है एक धार लहू की,
अरबी तेल खदानों में।
कज्जाकों की बहुत लड़कियां,
भाग गयी मंगोलों पर,
डूबा चाइना यांगटिसी में,
लटका हुआ दिवालों से।
पत्थर ढोता रहा पीठ पर,
तिब्बत दलाई लामा का,
वियतनाम में रेड इंडियन,
बम बंधवाएं पेटों पे।
विश्वपयुद्ध आस्ट्रिया का कुत्ता,
जाकर मरा सर्बिया में,
याद है बसना उन सर्बों का
डेन्यूब नदी के तीरे पर,
रही रौंदती रोमन फौजें
सदियों जिनके सीनों को।
डूबी आबादी शहंशाह के एक
ताज के मोती में,
किस्से कहती रही पुरखिनें,
अनुपम राजकुमारी की।
धंसी लश्क रें, गाएं, भैंसें,
भेड़ बकरियां दलदल में,
कौन लिखेगा इब्नबतूता
या फिरदौसी गजलों में।
खून न सूखा कशाघात का,
घाव न पूजा कोरों का,
अरे वाह रे ब्यूसीफेलस,
चेतक बेदुल घोड़ो का।
जुल्म न होता, जलन न होती,
जोत न जगती, क्रांति न होती,
बिना क्रांति के खुले खजाना,
कहीं कभी भी शांति न होती।

3
नई खेती

मैं किसान हूं

आसमान मैं धान बो रहा हूं।

कुछ लोग कह रहे हैं,

कि पगले आसमान में धान नहीं जमता,

मैं कहता हूं कि

गेगले-घोघले

अगर जमीन पर भगवान जम सकता है,

तो आसमान में धान भी जम सकता है।

और अब तो

दोनों में एक होकर रहेगा-

या तो जमीन से भगवान उखड़ेगा,

या आसमान में धान जमेगा ।

4
तुम्हारा भगवान

तुम्हारे मान लेने से

पत्थर भगवान हो जाता है,

लेकिन तुम्हारे मान लेने से

पत्थर पैसा नहीं हो जाता।

तुम्हारा भगवान पत्ते की गाय है,

जिससे तुम खेल तो सकते हो,

लेकिन दूध नहीं पा सकते।

5 कवि

न तो मैं सबल हूं,

न तो मैं निर्बल हूं,

मैं कवि हूं।

मैं ही अकबर हूं,

मैं ही बीरबल हूं।
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विद्रोही की एक और खासियत थी कि वे वाचिक परंपरा के कवि थे। उन्होंने अपनी कोई कविता लिखी नहीं। जो छपी मिलती हैं वे हम जैसे साथियों ने उनसे सुन कर लिखी या रिकॉर्ड की। वो तो बस आपकी आँखों में आँख डाल धारा प्रवाह बोले चले जाते। उनकी कविता जितनी पढ़ने की नहीं उतनी सुनाने वाली होती थी।

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टिप्पणियाँ:-

प्रज्ञा :-: विद्रोही जी को नमन। ये कविताएँ उन्हें हमेशा ज़िंदा रखेंगी।

पारितोष:-
विद्रोही जी जेएनयू के स्थायी पहचान थे।न जाने कितनी पीढ़ियों ने उनके ग़ुरबत में रहते हुए भी अपने जज्बे को बचाये रखना और प्रातिरोध के झंडे को हमेशा बुलंद रखना ,को देखा,उसके सतत गवाह रहे और उनके इस जिजीविषा को ग्रहण किया या उससे प्रेरित रहे।ऐसे विद्रोही जी सत् सत् नमन।विद्रोही जी की स्मृति को लाल सलाम।

संतोष श्रीवास्तव:-
जेएनयू में जब मुझे दलित साहित्य सम्मान मिला था उस  दौरान  विद्रोही जी से मेरी मुलाकात हुई थी।दुखद।
श्रद्धांजलि

अर्पण कुमार:-
रमाशंकर विद्रोही एक सहज कवि थे। छपने छपाने की लालसा से दूर, वाचिक परंपरा के एक लोकप्रिय कवि। हाशिए पर गुजर बसर कर रहे लोगों की पीड़ा के वे गवाह थे और उनकी त्रासदी से भली भांति अवगत होते हुए, उनकी लड़ाई लड़ते थे।
स्त्रियों के पक्ष में लिखी उनकी कई कविताएँ हमें झकझोर देती हैं।'एक औरत की जली हुई लाश' उनकी एक ऐसी ही कविता है।
ऐसे लोककवि को नमन।

अज्ञात:-
कविता और वास्तविक जीवन दोनों में समान रूप से ‘विद्रोही’ और जनपक्षधर आवाज हमेशा के लिए खामोश हो गई. 58 वर्षीय कवि रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ ने 8 दिसंबर को इस दुनिया से अलविदा कह दिया. वे मंगलवार को पिछले डेढ़ माह से विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के दफ्तर के सामने सरकार की शिक्षा नीतियों के विरोध में हो रहे धरना-प्रदर्शन में शामिल होने पहुंचे थे. दोपहर धरनास्थल पर अचानक उनके शरीर में कंपन हुआ और कुछ देर बाद उनकी सांसें थम गईं. डॉक्टरों ने मृत्यु का कारण ब्रेन डेथ (दिमाग का अचानक काम करना बंद कर देना) बताया है.

धरनास्थल पर मौजूद छात्रों के मुताबिक, कवि विद्रोही मंगलवार को छात्रों के सरकार विरोधी मार्च में शामिल होने पहुंचे थे लेकिन ​तबियत कुछ खराब लगी तो मार्च में शामिल न होकर धरनास्थल पर ही लेट गए. दोपहर दो बजे के आसपास उनके शरीर में अचानक कंपकंपी होने लगी. कुछ देर बाद ही उनकी नब्ज बंद हो गई. उन्हें तुरंत अस्पताल ले जाया गया, जहां डॉक्टरों ने उनकी मृत्यु की पुष्टि की.

देर रात उनका शव एलएनजेपी अस्पताल के पीछे शवदाहगृह में रखवाया गया है. बुधवार को लोदी रोड​ स्थित शवदाहगृह में उनका अंतिम संस्कार किया जाएगा. उनके परिजनों को सूचना दे दी गई है.

विद्रोही उपनाम से कविता लिखने वाले रमाशंकर यादव बीते दो दशकों से  जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) परिसर में ही रहते थे. जेएनयू के शोधार्थी ताराशंकर ने दुख व्यक्त करते हुए कहा, ‘विद्रोही हमारे समय के वास्तविक जनकवि थे. और देखिए ‘आसमान में धान बोने वाला’ ये निर्भीक कवि गया भी तो संघर्ष करते हुए.’

इस दौर में वे ऐसे कवि थे जो आजीवन सिर्फ कविता ‘कहता’ रहे. उन्होंने कभी अपनी कविताओं को लिपिबद्ध नहीं किया. अपनी सारी कविताएं उन्हें जुबानी याद थीं. यह फक्कड़ कवि जेएनयू के छात्रों और तमाम कविता प्रेमियों के बीच बेहद लोकप्रिय रहे.
उनकी एक प्रसिद्ध कविता-
‘मैं भी मरूंगा
और भारत के भाग्य विधाता भी मरेंगे
लेकिन मैं चाहता हूं
कि पहले जन-गण-मन अधिनायक मरें
फिर भारत भाग्य विधाता मरें
फिर साधू के काका मरें
यानी सारे बड़े-बड़े लोग पहले मर लें
फिर मैं मरूं- आराम से
उधर चल कर वसंत ऋतु में
जब दानों में दूध और आमों में बौर आ जाता है
या फिर तब जब महुवा चूने लगता है
या फिर तब जब वनबेला फूलती है
नदी किनारे मेरी चिता दहक कर महके
और मित्र सब करें दिल्लगी
कि ये विद्रोही भी क्या तगड़ा कवि था
कि सारे बड़े-बड़े लोगों को मारकर तब मरा ।

रमाशंकर यादव 'विद्रोही' (03 दिसम्बर 1957- 8 दिसंबर 2015) जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में विद्यार्थियों के बीच लोकप्रिय रहे जनकवि थे।

उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जिले में जन्मा प्रगतिशील चेतना का यह प्रखर कवि ‘विद्रोही’ के नाम से विख्यात था। दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय (जेएनयू) के छात्रों के बीच उनकी कविताएँ ख़ासी लोकप्रिय रही हैं। वाम आंदोलन से जुड़ने की ख़्वाहिश और जेएनयू के अंदर के लोकतांत्रिक माहौल ने उन्हें इतना आकृष्ट किया कि वे इसी परिसर के होकर रह गए। उन्होंने इस परिसर में जीवन के 30 से भी अधिक वसंत गुज़ारे हैं। शरीर से कमज़ोर लेकिन मन से सचेत और मज़बूत इस कवि ने अपनी कविताओं को कभी कागज़ पर नहीं उतारा। उनकी कविताओं में कई तो अंधेरे में और राम की शक्ति पूजा की तरह की लंबी कविताएँ हैं। उन्हें अपनी सारी कविताएँ याद थीं और वे बराबर मौखिक रूप से अपनी कविताओं को छात्रों के बीच सुनाते रहे हैं। ख़ुद को नाज़िम हिकमत, पाब्लो नेरूदाऔर कबीर की परंपरा से जोड़ने वाला यह कवि जेएनयू से बाहर की दुनिया के लिए अलक्षित सा रहा है।

जीवन वृत्त

अपनी कविता की धुन में छात्र जीवन के बाद भी उन्होंने जेएनयू कैंपस को ही अपना बसेरा माना। वे कहते थे "जेएनयू मेरी कर्मस्थली है। मैंने यहाँ के हॉस्टलों में, पहाड़ियों और जंगलों में अपने दिन गुज़ारे हैं।" वे बिना किसी आय के स्रोत के छात्रों के सहयोग से किसी तरह कैंपस के अंदर जीवन बसर करते रहे । अगस्त 2010 में जेएनयू प्रशासन ने अभद्र और आपत्तिजनक भाषा के प्रयोग के आरोप में तीन वर्ष के लिए परिसर में उनके प्रवेश पर पाबंदी लगा दी थी। जेएनयू के छात्र समूह ने प्रशासन के इस रवैए का पुरज़ोर विरोध किया। तीन दशकों से घर समझने वाले जेएनयू परिसर से बेदखली उनके लिए मर्मांतक पीड़ा से कम नहीं थी।

नितिन पमनानी ने विद्रोही जी के जीवन संघर्ष पर आधारित एक वृत्त वृत्तचित्र आई एम योर पोएट (मैं तुम्हारा कवि हूँ) हिंदी और भोजपुरी में बनाया है।मुंबई अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में इस वृत्तचित्र ने अंतर्राष्ट्रीय स्पर्धा श्रेणी में सर्वश्रेष्ठ वृत्तचित्र का गोल्डन कौंच पुरस्कार जीता।

विचारधारा

उनकी कविताओं में वाम रुझान और प्रगतिशील चेतना साफ़ झलकती है।

साहित्यिक वैशिष्ट्य

वाचिक परंपरा के कवि होने की वजह से उनकी कविता में मुक्त छंद और लय का अनोखा मेल दिखता है।

रचनाएँ

उनके पास क़रीब तीन-चार सौ कविताएँ हैं जिनमें से कुछ पत्रिकाओं में छपी है। उन्होंने ज्यादातर दिल्ली और बाहर के विश्वविद्यालयों में घूम-घूम कर ही अपनी कविताएँ सुनाई हैं। उनकी कुछ प्रतिनिधि कविताएँ इस प्रकार हैं-

नई खेती

मैं किसान हूँ

आसमान में धान बो रहा हूँ

कुछ लोग कह रहे हैं

कि पगले! आसमान में धान नहीं जमा करता

मैं कहता हूँ पगले!

अगर ज़मीन पर भगवान जम सकता है

तो आसमान में धान भी जम सकता है

और अब तो दोनों में से कोई एक होकर रहेगा

या तो ज़मीन से भगवान उखड़ेगा

या आसमान में धान जमेगा।

औरतें

…इतिहास में वह पहली औरत कौन थी जिसे सबसे पहले जलाया गया?

मैं नहीं जानता

लेकिन जो भी रही हो मेरी माँ रही होगी,

मेरी चिंता यह है कि भविष्य में वह आखिरी स्त्री कौन होगी

जिसे सबसे अंत में जलाया जाएगा?

मैं नहीं जानता

लेकिन जो भी होगी मेरी बेटी होगी

और यह मैं नहीं होने दूँगा।
युवा आलोचक ज्ञानेन्द्र विक्रम सिंह 'रवि' कहते हैं  -मैं जिनकी बात कर रहा हूँ वह केदारनाथ सिंह के छात्र और उदय प्रकाश के समकालीन एक अलक्षित कवि हैं. आपने शायद ही रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ की कविताओं को सुना हो यदि आप जेएनयू के बाहर रहते हैं.  पर जेएनयू के परिसर में विद्रोही किसी को भी  जब तब गोपालन की कैंटिन में, टेफ्ला के बाहर और शाम को गंगा ढाबा पर एक अंधेरे कोने में  अक्सर मिल जाते थे । पिछले तीस  सालों से लगभग हर शाम इस अंधेरे कोने में अपनी मंत्र कविताओं को बुदबुदाते विद्रोही जी  एक उदास गिरगिट से बात करते दिखते रहे चेथड़ी लपेटे, रसहीन चाय के प्याले को हाथ में थामे वे कह उठते थे  ‘ मैं तुम्हारा कवि हूँ’ वे अपनी लय और ताल में कहते थे
" मैं किसान हूँ/ आसमान में धान बो रहा हूँ/ कुछ लोग कह रहे हैं/ कि पगले! आसमान में धान नहीं जमा करता/ मैं कहता हूँ पगले!/ अगर ज़मीन पर भगवान जम सकता है/ तो आसमान में धान भी जम सकता है/ और अब तो दोनों में से कोई एक होकर रहेगा/ या तो ज़मीन से भगवान उखड़ेगा/ या आसमान में धान जमेगा "
विद्रोही जी केदारनाथ सिंह की कविता 'नूर मियां' से आपको आगे ले जाएँगे और बार बार पूछेंगे- क्यों चले गए नूर मियां पाकिस्तान/ क्या हम कोई नहीं होते थे नूर मियां के  ?

कादीपुर के युवा साहित्यकार ज्ञानेन्द्र विक्रम सिंह 'रवि' बताते हैं कि 3 दिसम्बर 1957 को सुलतानपुर जिले के  अखण्डनगर ब्लाक के फिरोजपुर गांव में जन्मे थे  विद्रोही जी । आजीवन अविवाहित  रहे विद्रोही जी एक बार  जे . एन .यू . गये तो फिर वहीं के होकर रह गये ।विद्रोही जी इतने आत्म केन्द्रित थे कि वे कभी मुख्य धारा के साहित्य लेखन में आये ही नहीं । न तो  उनके जिले  सुलतानपुर  के लोग उनको जानते हैं और न ही साहित्य जगत के अन्य धुरन्धर ।
पर जे .एन.यू . के विद्यार्थियों में उनका जबरदस्त क्रेज था । साहित्य जगत में वे जे .एन.यू.के विद्यार्थियों के कारण ही जाने गये ।

वागीश झा:-
विद्रोही अविवाहित नहीं थे, उनकी पत्नी शिक्षिका थी और उनकी एक बेटी भी है। नीचे प्रणय कृष्ण का प्रमाणिक लेख देखें।

वागीश झा:-
'मैं जिंदा हूँ और गा रहा हूं.' - 'विद्रोही'
(जनकवि रमाशंकर 'विद्रोही' को जन संस्कृति मंच की श्रद्धांजलि)

कल ८ दिसंबर, २०१५ को शाम ४.३० के करीब जनकवि रमाशंकर 'विद्रोही' ने दिल्ली में अंतिम साँसें लीं. विद्रोही ने अपनों के बीच, आन्दोलन के मोर्चे पर अंतिम साँसे लीं. जैसा वे जिए, वैसा ही मरे. जैसे कोई मध्यकालीन संत शताब्दियाँ पार करके आधुनिक सभ्यता के जंगलों में आ निकले, उसकी सारी विडंबनाएं और चोटें झेलते, वैसे ही फक्कड़, मलंग बना फिरे, अपनी मातृभाषा में हमारे आज के समय के सबद और अभंग जोड़ते हमारे बीच से गुज़र जाए. कविता उनकी जीविका नहीं, ज़िंदगी थी और जन-आन्दोलन और मार्क्सवादी जीवन-दृष्टि उसकी सबसे पौष्टिक खुराक. कविता में वे बतियाते हैं, रोते और गाते हैं, खुद को और सबको संबोधित करते है, चिंतन करते हैं, भाषण देते हैं, बौराते हैं, गलियाते हैं, संकल्प लेते हैं. ”कविता क्या है?” जैसे सनातन विषय पर विद्रोही के  विचार देखें-
”कविता क्या है
खेती है
कवि के बेटा-बेटी है
बाप का सूद है,  मां की रोटी है।”
ऐसी कविता और ऐसी ज़िंदगी अक्सर उस सीमान्त पर विचरण करती हैं जहां मौत हाथ मिलाने के फासले पर होती है. जो दुनिया उन्हें मिली, उसमें जीने की 'शर्म की सी शर्त' उन्होंने नामंजूर कर दी. अपनी कविताओं में अलग दुनिया बनाई. उन्होंने अपने भौतिक अस्तित्व की रक्षा के लिए किसी से कोई गुहार नहीं लगाई. अपने लोगों से उनकी अपेक्षा यही थी कि वे अपने कवि को बचाएं -
”...तुम वे सारे लोग मिलकर मुझे बचाओ-
जिसके खून के गारे से
पिरामिड बने, मीनारें बनीं, दीवारें बनीं,
क्योंकि मुझको बचाना उस औरत को बचाना है,
जिसकी लाश मोहनजोदड़ो के तालाब की आखिरी सीढ़ी पर
पड़ी है।
मुझको बचाना उन इंसानों को बचाना है,
जिनकी हड्डियां तालाब में बिखरी पड़ी हैं ।
मुझको बचाना अपने पुरखों को बचाना है,
मुझको बचाना अपने बच्चों को बचाना है,
तुम मुझे बचाओ!
मैं तुम्हारा कवि हूं। ”
और यह कवि बचा रहेगा, उन लोगों के बीच जिन्हें उसने जान से ज़्यादा प्यार किया है और जिनसे उसने खुद को बचाए रखने की उम्मीद की है. विद्रोही में पितृसत्ता-धर्मसत्ता और राजसत्ता के हर छ्द्म, हर पाखण्ड के खिलाफ अपरम्पार गुस्सा, तीखी घृणा है. प्राचीन और समकालीन मिथकों का कविता में रचा उनका पाठ हर उस शोषक , हर उस आततायी को तिलमिला देगा जिसे अपनी बदमाशियों को छिपाने के लिए संस्कृति की पोशाक चाहिए. विद्रोही ने कलजुगहे मजूर की आत्मा में प्रवेश किया और उसकी चाहतों का ऐसा अपूर्व विप्लवी, अछोर संसार रचा  जो पूरी हिन्दी कविता में अनन्य है, जिसे यहाँ मैं पूरा ही उद्धृत कर रहा हूँ- 
” जनि जनिहा मनइया जजीर मांगात ऽ ऽ
ई कलिजुगहा मजूर पूरी सीर मांगात ऽ ऽ
बीड़ी-पान मांगात ऽ ऽ
सिगरेट मांगात ऽ ऽ
कॉफ़ी-चाय मांगात ऽ ऽ
कप-प्लेट मांगात ऽ ऽ
नमकीन मांगात ऽ ऽ
आमलेट मांगात ऽ ऽ
कि पसिनवा के बाबू आपन रेट मांगात ऽ ऽ
ई भरुकवा की जगहा गिलास मांगात ऽ ऽ
औ पतरवा के बदले थार मांगात ऽ ऽ
पूरा माल मांगात ऽ ऽ
मलिकाना मांगात ऽ ऽ
बाबू हमसे पूछा ता ठकुराना मांगात ऽ ऽ
दूधे -दहिए के बरे अहिराना मांगात ऽ ऽ
दुलहिनी के बरे बरसाना मांगात ऽ ऽ
आलू-भांटा बरे बोड़री के चक मांगात ऽ ऽ
अंचारे बरे लखनी के बाग मांगात ऽ ऽ
बिहारै बरे पूरा वृन्दावन मांगात ऽ ऽ
गोड़ धोवै बरे राजा गंगासागर मांगात ऽ ऽ
अंचावै बरे पूरा जगन्नाथ मांगात ऽ ऽ
गंगा-जमुना मांगात ऽ ऽ सरस्वती मांगात ऽ ऽ
तौ सौवै बरे जनक के बगीचा मांगात ऽ ऽ
दरी मांगै, गद्दा मांगै औ गलीचा मांगात ऽ ऽ
अपने बिटुआ के अंजोरिया का बच्चा मांगात ऽ ऽ
और बियाहे बरे राजा अंगरक्खा मांगात ऽ ऽ
औ बराते बरे बाजा अलगोजा मांगात ऽ ऽ
न ता धोखी मांगात ऽ ऽ न ता धोखा मांगात ऽ ऽ
न ता ओझा मांगात ऽ ऽ न ता सोखा मांगात ऽ ऽ
सोझा-साझा ई मनइया शासन सोझा मांगात ऽ ऽ
न इनाम मांगात ऽ ऽ न इकराम मांगात ऽ ऽ
न कउनो भीख मांगात, न अनुदान मांगात ऽ ऽ
न गऊदान मांगात ऽ ऽ न रतिदान मांगात ऽ ऽ
ई सड़किया के बीचे खुलेआम मांगात ऽ ऽ
मांगे बहुतै सकारे, सरे शाम मांगात ऽ ऽ
आधी रतियौ के मांगे, आपन दाम मांगात ऽ ऽ
ई तो खाय बरे घोंघवा के खीर मांगात ऽ ऽ
दुलहिनिया के द्रोपदी के चीर मांगात ऽ ऽ
औ नचावै बरे बानर महावीर मांगात ऽ ऽ
न ता साधू मांगात ऽ ऽ न फकीर मांगात ऽ ऽ
ना ई तोहरी तिरथिया के नीर मांगात ऽ ऽ
ई अपनी मइया बहिनिया से बीर मांगात ऽ ऽ
जनि जनिहा मनइया जगीर मांगात ऽ ऽ
ई कलिजुगहा मजूर पूरी सीर मांगात ऽ ऽ जनि जनिहा मनइया जगीर मांगात ऽ ऽ
विद्रोही की कविता के हलवाहे, चरवाहे, केवट, कहार, दलित, मजदूर, किसान, औरतें, बच्चे जितना अपनी यातनाओं, उतना ही अपने सपनों के साथ आते हैं. वे तमाम पंडे, पुरोहितों, मुल्ला, मौलवियों, महाजनों, ज़मीदारों, पूंजीपतियों, साम्राज्यवादियों से अपने भविष्य को लेकर ही नहीं लड़ते, बल्कि अपहृत अतीत का भी हिसाब माँगते हैं. विद्रोही की कविताएँ सबसे ज़्यादा यही लोग समझेंगे. विद्रोही हमारे अपवंचित राष्ट्र के  कवि हैं, उन लोगों के  कवि हैं जिन्हें अभी राष्ट्र बनना है. लेकिन विद्रोही के विकट व्यक्तित्व को दुनियाबी व्याकरण से समझना मुश्किल है. जिन्होंने उन्हें दुनिया से बेखबर बाउल गानेवालों की तरह अकेले में डूब कर गाते देखा है, खुद से बातें करते देखा है, भीतर के किसी श्मशान के प्रेतों से लड़ते-झगड़ते देखा है, वे विद्रोही की उस अलग, अगम और निराली दुनिया का सिर्फ बाहरी आभास पा सके हैं जिसमें प्रवेश करना शायद किसी के लिए भी आसान न था.
रमाशंकर यादव 'विद्रोही' का जन्म ३ दिसंबर, १९५७ को ऐरी फिरोजपुर ( जिला सुल्तानपुर) में श्री रामनारायण यादव व श्रीमती करमा देवी के घर हुआ. बचपन में ही शांतिदेवी से विवाह हो गया. शान्ति जी पढ़ती थीं और वे भैंसे चराते थे. गाँव में चर्चा होती कि रमाशंकर की पत्नी उन जैसे अनपढ़ को छोड़ देगी. इसी भय से विद्रोही शिक्षा के प्रति प्रेरित हुए. प्रारम्भिक शिक्षा गाँव के स्कूल में हुई , फिर सरस्वती इंटर कालेज, उमरी से इंटर पास किया और राज डिग्री कालेज, बनवारीपुर, सुलतानपुर से बी.ए. किया. एल.एल. बी. की पढ़ाई धनाभाव के चलते पूरी नहीं कर पाए. नौकरी की, लेकिन नौकरी ज़्यादा दिन उन्हें बांध नहीं पाई. १९८० में दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्विद्यालय में हिन्दी से एम. ए. करने आ गए. १९८३ के छात्र आन्दोलन में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेने के चलते कैंपस से निकल दिए गए. १९८५ में उनपर मुक़दमा चला. तबसे उन्होंने आन्दोलन की राह से पीछे पलटकर नहीं देखा. वाम राजनीति और संस्कृतिप्रेमी छात्रों की कई पीढियों ने विद्रोही को उनकी ही शर्तों पर स्वीकार और प्यार किया है और विद्रोही छात्रों के हर न्यायपूर्ण आंदोलन में उनके साथ तख्ती उठाए, नारे लगाते, कविताएं सुनाते, सड़क पर मार्च करते रहे, यहाँ तक कि कल तक जब उन्होंने आखिरी साँसें लीं. जे़ एन. यू. में रहने के  चलते विद्रोही की आवाज़ दिल्ली की सडकों पर, बैरिकेडों और पुलिस पिकेटों के सामने तमाम तरह के लोकतांत्रिक जुलूसों, प्रदर्शनों के समय दशकों तक गूंजती रही है. जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय पार्षद वे २००८ के राष्ट्रीय सम्मलेन में बने जो कवि धूमिल के गाँव खेवली में हुआ था. उसके बाद से दिल्ली के  बाहर भी उत्तर प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ आदि तमाम जगहों पर आयोजनों और आन्दोलनों में बुलाए जाते. विद्रोही कविता लिखते नहीं , कहते थे. उनकी खडी बोली की काफी कवितायेँ मित्रों ने लिपिबद्ध कीं जो 'नयी खेती' संग्रह में छपीं. कचोट इस बात की है कि उनकी ढेरों अवधी रचनाएं रिकार्ड नहीं की जा सकीं. एक स्मृति सदा के लिए खो गयी.   
याद आता है कि गोरख पाण्डेय के गाँव जाते हुए कैसे बच्चों जैसी जिज्ञासा से भरे और उत्फुल्ल थे. आन्दोलनों और प्रतिवाद सभाओं के दौरान कविता सुनाकर बच्चों की तरह उनका खुश होना, उसे अपना एकमात्र तमगा और पुरस्कार बताना याद आता है. याद आता है पटना के गांधी मैदान के निकटवर्ती चौराहे पर उनके कविता-पाठ के दौरान रिक्शेवालों, खोमचेवालों और मजूरों का स्वतःस्फूर्त जुटना और ताली बजाना. विद्रोही जहां जाते, हाथों हाथ लिए जाते. बाहर के लोग भी उन्हें उतना ही प्यार करते जितना उन्हें जे.एन.यू. के छात्रों से हासिल हुआ था. जे. एन.यू. में नबारूण दा के  काव्यपाठ के कार्यक्रम के बारे में सुधीर सुमन ने ११ दिसंबर, २०११ को मुझे विस्तृत मेल लिखा जिसका एक अंश नबारूण और विद्रोही की भेंट के बारे में था. दुर्ग में दोनों की मुलाक़ात हो चुकी थी. सुधीर ने लिखा, " जेएनयू के कार्यक्रम से बाहर निकलते वक्त जिस गर्मजोशी और प्यार से नबारूण दा छात्रों और जनता के प्यारे कवि विद्रोही से गले मिले, वह मेरी चेतना में एक बेहद सुकूनदेह अहसास की तरह दर्ज हो गया, जैसे बेचैन दिल को करार आ गया। पूरे देश में, खासकर हिंदी पट्टी में विद्रोही को जनता प्यार करती है, छात्रों के बीच वे बेहद लोकप्रिय हैं। उन्हें अपने लिए कोई कोई फंड, कोई पुरस्कार, सरकारों की कोई नजरे-इनायत नहीं चाहिए, उनके कवि को किसी साहित्यिक प्रोमोटर की जरूरत नहीं है..... आंदोलनकारियों और सामान्य जनता के बीच वे मशहूर हैं...., मैंने मन ही मन नबारूण दा को सलाम किया कि उन्होंने जनता के कवि को सम्मान दिया.., शायद यही जनता के क्रांतिकारी कवि की असली पहचान है।" आज दोनों हमारे बीच नहीं हैं. क्या सचमुच वे हमारे बीच नहीं हैं? विद्रोही इसे नहीं मानते. यकीन न हो तो उनकी ही एक कविता के इस अंश से आपको तसल्ली हो जाएगी-
"मरने को चे ग्वेरा भी मर गए
और चंद्रशेखर भी
लेकिन वास्तव में कोई नहीं मरा है
सब जिंदा हैं
जब मैं जिंदा हूँ
इस अकाल में
मुझे क्या कम मारा गया है
इस कलिकाल में
अनेकों बार मुझे मारा गया है
अनेकों बार घोषित किया गया है
राष्ट्रीय अखबारों में पत्रिकाओं में
कथाओं में, कहानियों में
कि विद्रोही मर गया।
तो क्या मैं सचमुच मर गया!
नहीं मैं जिंदा हूँ
और गा रहा हूं...... "
( प्रणय कृष्ण, महासचिव, जन संस्कृति मंच)

1 टिप्पणी:

  1. ये विद्रोही भी क्या तगड़ा कवि है
    कि मरा मरा के बाद भी नहीं मरा है। सारे बड़े-बड़े लोगों को मारकर.....नहीं तब भी नहीं मरेगा। बोल-बोल में जिन्दा रहेगा ।

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