08 दिसंबर, 2015

कविता : एकांत श्रीवास्तव

पिता की समाधि 

गाँव के घर में पिता की समाधि है
बखरी में
आँवले के पेड़ के नीचे
घर पहुँचता हूँ तो साफ करता हूँ
समाधि पर झड़े हुए पत्ते
धोता हूँ जल से
आसपास की जगह बुहारता हूँ
दिया जलाता हूँ चढ़ाता हूँ फूल
तो पिता पूछते हैं जैसे
बड़े दिनों में आए बेटा
कहाँ भटकते रहे इतने दिन?
कुछ दिन गाँव में बिताकर
फिर लौटता हूँ
परदेश की नौकरी में
जाने से पहले दो घड़ी धूप में
बैठता हूँ समाधि के पास
विदा माँगता हुआ
पिता उदास हो जाते
कहते - अच्छा
समाधि को छोड़कर लौटता हूँ
जैसे घर में
गाँव में पिता को छोड़कर लौटता हूँ

नगर के घर में
कंप्यूटर है, फ्रिज है, वाशिंग मशीन है
गाँव के घर में पिता की समाधि है।

लोहा 

जंग लगा लोहा पाँव में चुभता है
तो मैं टिटनेस का इंजेक्शन लगवाता हूँ
लोहे से बचने के लिए नहीं
उसके जंग के संक्रमण से बचने के लिए
मैं तो बचाकर रखना चाहता हूँ
उस लोहे को जो मेरे खून में है
जीने के लिए इस संसार में
रोज लोहा लेना पड़ता है
एक लोहा रोटी के लिए लेना पड़ता है
दूसरा इज्जत के साथ
उसे खाने के लिए
एक लोहा पुरखों के बीज को
बचाने के लिए लेना पड़ता है
दूसरा उसे उगाने के लिए

मिट्टी में, हवा में, पानी में
पालक में और खून में जो लोहा है
यही सारा लोहा काम आता है एक दिन
फूल जैसी धरती को बचाने में।

रास्ता काटना 

भाई जब काम पर निकलते हैं
तब उनका रास्ता काटती हैं बहनें
बेटियाँ रास्ता काटती हैं
काम पर जाते पिताओं का
शुभ होता है स्त्रियों का यों रास्ता काटना

सूर्य जब पूरब से निकलता होगा
तो निहारिकाएँ काटती होंगी उसका रास्ता
ॠतुएँ बार-बार काटती हैं
इस धरती का रास्ता
कि वह सदाबहार रहे
पानी गिरता है मूसलाधार
अगर घटाएँ काट लें सूखे प्रदेश का रास्ता

जिनका कोई नहीं है
इस दुनिया में
हवाएँ उनका रास्ता काटती हैं

शुभ हो उन सब की यात्राएँ भी
जिनका रास्ता किसी ने नहीं काटा

000 एकांत श्रीवास्तव
प्रस्तुति तितिक्षा
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टिप्पणियाँ:-

 
मनीषा जैन :-
बहुत ही महत्वपूर्ण कविताएँ। तीनों कविताएँ पढ़ी हुई थीं फिर से पढ़ना अच्छा लगा।

फ़रहत अली खान:-
आहा; सहल ज़बान में कही गयी और मज़बूत भावनात्मक पक्ष वाली तीनों ही कविताएँ कितना प्रभावित करती हैं।

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