20 दिसंबर, 2015

कविता : टीकम शेखावत

| सम्वेदना |
 
डोर  बेल बजती है, 
मैं दरवाज़ा खोलता हूँ । 
आगंतुक को मैं नहीं जानता 
वे अपना परिचय खुद देते हैं। 
कहते हैं -
'हम जनमानस की संवेदनाएं हैं ' ,
सुना है तुम संवेदनाओं के लिए घर बनाते हो ,
अपनी  कलम और कागज़ के साथ।।  
तो क्यों नहीं समेट लेते  हमे भी
अपनी  कलम और कागज़ के साथ। 
अब इस संसार में  हमारी जगह नहीं हैं ।  
अतिक्रमण समझ कर हटा  दिया गयाहै हमें ।।  
 
मैं पल भर के लिए
रुकता हूँ ,
सोचता हूँ ,
हँसता हूँ..... 
मन ही मन कहता हूँ, 
शायद डायनोसोर के बाद अब सम्वेदनाओं का नंबर हैं। 
जब संवेदनाएं ही नहीं रहेगी 
तो संवेदनाएं लिखने वाले कवी भी लुप्त हो जायेंगे,
डायनोसोर की तरह ही ।। 
 
यह मेरा अपना लालच है जिसे सोचकर 
मैं दरवाजा खोलता हूँ और
संवेदनाओं ,को अंदर ले लेता हूँ। 
 
किसी से कहना मत दोस्तों
मैं समृद्ध हो गया हूँ। 
इन संवेदनाओं के साथ। । 
दुःख बस इस बात का हैं
मेरे यहाँ आने से पहले, 
वे  कुछ और घर भी गए थे ,
उन्होंने कुछ दरवाजे और खटखटाएं थे,
लेकिन !
लेकिन ! खैर... 
हो सकता है कल आपके यहाँ आए ,
आप इन्हे वापस मत जाने देना ,
घर के अंदर ले लेना । 
और समृद्ध हो जाना इन संवेदनाओं 
के साथ  ।।

| आग |

‘आग’ भी बड़ी अजीब है,
विज्ञान के सिद्धान्तों को भी नहीं मानती.

खैर,
पिताजी कहते थे, आग से दूर रहो!
लेकिन सच कहूँ ,
आग अक्सर हमारे आस पास ही होती थी.
जैसे, गैस स्टोव पर खाना बनाते समय,
जैसे पूजा के लिए दीपक प्रज्वालित करते हुए,
या फिर, दिवाली के समय पटाखे छोड़ते हुए,
टीवी पर न्यूज़ में सामाजिक रिश्तो की आग..
और भी बहुत सारी....

वे कहते, आग से दूर रहो –
थोड़ी सी ‘आग’ जीवन की जरूरत है,
लेकिन थोड़ी ज्यादा हो जाये तो ‘सब कुछ खत्म’.
शायद, हर बार ‘आग’ यह सुन लेती थी ख़ामोशी से...
वो कभी कुछ न कहती..

पिताजी के साथ के आखिरी सफ़र मुझे याद है
पिताजी खामोश थे.
और आग को हम खुद लाये थे...
इस बार वो ज्यादा हो गयी थी, बहुत ज्यादा.
पिताजी जी ने सही ही कहा था
आग ज्यादा हो तो ‘सब कुछ ख़त्म’
हमारा भी सबकुछ ख़त्म.

लेकिन

साथ ही विज्ञानं का यह सिद्धान्त भी ख़त्म हुआ...

टु  एव्री  एक्शन  डेयर  इज़  इक्वेल  एंड  ऑपोज़िट  रिएक्शन।
आग हावी होती रही,
पिताजी बिना किसी प्रतिरोध/रिएक्शन  के उसमे समाते रहे..

| सेक्युलर |

मैं दो बाते हरदम  मानते आया था,

एक यह कि
सूरज सेक्युलर है.
यहाँ मेरा मतलब धर्म से नहीं,
बल्कि इंसान को एक नज़र से देखने से है.

दूसरी बात
अंधविश्वास विज्ञान के सामने धराशायी है.

लेकिन,किन्तु,मगर,परन्तु
जब मैं किसी सड़क से गुजरता हूँ,तो
कईयों को आलीशान कार में देखता हूँ
कईयों को मेरी तरह दुपहिये संग
या फिर बस या रेल में ..
तो कहीं सड़क किनारे देखता  हूँ। 

जैसे

जूतों के अस्पताल में सर्जरी करते मोची काका
कही भीख मांगते बच्चे तो कही बूढ़े बाबा....
तब मुझे लगता है-
शायद सूरज ने चुपके से
रोशनी देने में धान्धली की है.

तो फिर पक्का ..सूरज सेक्युलर नहीं है!!
अगर वो सेक्युलर होता तो,
हर रात का एक सवेरा होता
हर गम और आसू का पाँव फेरा होता.
सच में अगर वो सेक्युलर होता
तो फिर शब्दकोष में
‘किस्मत’ शब्द न होता।

000 टीकम शेखावत

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टिप्पणियाँ:-

अल्का सिगतिया:-
वाह वाह वाह।मनीषा  जी  आभार आभार आभार  संवेदना से ओतप्रोत  कविताएँ। साझा। करने के लिए।सच सीधी  दिल में। उतर गईं।नश्तर भी चुभा आँखें भी नम हुई।लेखक को अमित अमिट बधाई

किसलय पांचोली:-
सम्वेदनाओं का स्वागत , आग की ताकत का स्वीकार्य और सूरज के सेक्युलर/ धर्मनिरपेक्ष होने पर प्रश्न हिंदी कविता को निसंदेह नई दृष्टि से समृद्ध कर रहा है। लेखक और चयन कर्ता को बधाई।

आर्ची:-
सादे सरल शब्दों में बहुत गहरी बातें कही हैं कवि ने..संवेदना कविता बहुत ही मानीखेज है आज के युग में मानव संवेदनाओं को खोता जा रहा है जिससे मानवता ही क्षीण हो रही है.. साधूवाद!!!

टीकम शेखावत:-

सर्वप्रथम, फिर एक बार  सभी का शुक्रिया। प्रेषित हुए  विचार, वक्तव्य ,आलोचना सभी बेशकीमती हैं. दरअसल २ साल हो  गए, कविता लिखना फिर एक बार प्रारम्भ  (कॉलेज के बाद ) किया  हैं और  कोशिश जारी हैं।  हर्ष के  साथ  साझा  करना  चाहुँगा  यहाँ  पुणे के मराठी कवि सम्मेलनों  में  मैं अपनी  हिंदी कविता प्रस्तुत करता  हूँ और  उसी  के लिए मुझे  बुलाया जाता हैं। साझा करना  चाहूँगा, पिछले  साल जागतिक मराठी  भाषा  दिवस (२७ फरवरी ) पर एक  सरकारी कार्यक्रम में विशेष  तौर  पर  'संवेदना'  कविता प्रस्तुति के  लिए  आमंत्रित किया  गया  था.
मीडिया  में काम करते हुए  समाज /जीवन के  कई पहलुओं को  बेहद  करीब  से  देखने  का  मौका  मिलता  हैं और वहीं से  कविता मिलती  हैं. वही से  मेरी कविताएँ जन्म लेती  हैं.
मेरी नज़र  में कविताएँ  लिखी  नहीं  जाती बल्कि आपकी संवेदनाओ  में  निहित  होकर प्रवाहित  होती  हैं। आपके शब्द केवल भौतिक रूप  से उस  अभिवयक्ति  की व्याख्या करते  हैं. वास्तविक  टीस,वेदना, भावना के  स्वरुप का यह केवल आंशिक रूप होता  हैं.... केवल मात्र कुछ प्रतिशत तक!  इसीलिए शब्दों  की अभिव्यक्ती अधूरी  हैं, कविता  अधूरी हैं  परन्तु कल्पना चिर यौवन हैं, निरंतर प्रवहित हैं और  पूर्ण भी  हैं।

खैर जैसी भी हैं , ये  मेरी कविताएँ  हैं और बड़ी विनम्रता के  साथ  आप  सभी  के विचार स्वीकृत करता  हूँ ..

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