01 मार्च, 2016

कविताएँ : रचना त्यागी

आज समूह के साथी रचना त्यागी की कुछ छोटी छोटी कविताएं प्रस्तुत कर रहे हैं। उम्मीद है अच्छी लगेंगी। आपकी टिप्पणी रचनाकार के लिए बहुत महत्वपूर्ण होगी। आइए पढ़ते हैं कविताएं।

1.
अप्रेम की कड़ी धूप में
तुम वाष्पित होते हो
मुझ में से
और मैं सूखती जाती हूँ
भाप दर भाप ...
तुम दर तुम ...

2. अहसासों की यात्रा

अहसासों को तुम तक 
पोटली में बाँधकर 
लाने के जतन में
कई शब्द जो भारी थे, 
कहीं पथ में ही गिर गये

और तुम तक पहुँचे 
केवल हल्के शब्द 
जताने हल्के अहसास ...
और तुम रह गये वंचित 
मेरी सम्पूर्ण सम्प्रेषणा से, 
सम्पूर्ण भावनाओं से... 
और जाना केवल आधा हृदय। 
प्रतिकृत भी किया 
असम्पूर्ण तुमने, 
ठीक उसी अनुपात में 
जिसमें गिरे थे शब्द 
और जिसमें पहुँचे तुम तक...

3. महानता

महानता के इस 

महाकुम्भ में 

सब हैं तैयार 

गोते लगाने को 

पर यह नदी बहुत है छोटी 

इतने सारे 

महानों के लिए !

केवल अधिकार है उन्हीं को 

जिन्होंने खरीदे हैं तट 

या फिर पानी

या फिर उन्हें,

कि जिन्हें कुछ पीढ़ियों से 

पहचानते हैं तट 

और पानी 

आखिर महानता भी 

विरासत है !

 4. क्रांति

असहिष्णुता और आक्रोश की 
अवैध सन्तान हैं 
क्रांतियाँ 
आक्रोश के वीर्य से जन्मी 
असहिष्णुता के गर्भ में पली 
उसके रक्तपान से पोषित !
क्रूर तानाशाहों की 
वासनामयी गिद्ध दृष्टि से 
बचा , छिपाकर
इन्हें सहेजा जाता है 
युवा होने तक 
परिपक्व होने तक !
फिर वे नहीं रुक पातीं
फूट पड़ती हैं 
ज्वालामुखी सी !

5. सम्बन्धों के हाशिये

अपेक्षित है सम्बन्धों का 
जीवन के केंद्र में होना 
पर प्राय: 
चले जाते हैं 
हाशिये पर वे 
सरक -सरक कर 
स्वार्थों, व्यस्तताओं और 
महत्वाकांक्षाओं की 
गाढ़ी तरलताओं की 
साज़िश का शिकार होकर ,
उनमे बह -बहकर !
और वहीं से चीख -चीखकर 
दुहाई माँगते हैं 
अपने प्राणों की !
सुन लिए जाने वाले 
बचा लिए जाते हैं 
कभी -कभार ,
हाशिये से खींच लाये जाते हैं 
परिधि के भीतर 
और अनसुने 
वहीं 
हाशिये का तट पकड़े 
मदद की गुहार लगाते 
अन्ततः 
छोड़ देते हैं हाथ 
तोड़ देते हैं दम !!

6.
खिड़की में रखा 
हवा का टुकड़ा 
उसके इंतज़ार में 
पीला हो चुका है 
उस टुकड़े में 
सांस लेती मैं 
पीलेपन को पी रही हूँ 
इंतज़ार को जी रही हूँ....

7. पदचाप 

ह्रदय में किसी के आगमन से 
अधिक मधुर लगती है
उसकी पदचाप, 
दिल पर उसकी दस्तक !
ठीक वैसे, जैसे बारिश से 
अधिक प्यारी लगती है फुहार !
कुछ कच्चा, पके से अधिक अच्छा लगता है
कभी -कभी !
तो, क्या कहते हो ?
न खोलूँ दिल के द्वार
और सुनती रहूँ 
यह मधुर दस्तक ?
कहीं लौट तो न जाओगे
थक कर तुम ? 
या तुम्हें भी द्वार खुलने से अधिक 
मधुर लगती है प्रतीक्षा
द्वार खुलने की ? 
तो तय रही
इस दस्तक की निरंतरता,
मधुरता, मादकता !!

8. 'धुआँ'

चलो,  मैं नहीं रोकती तुमको 
कश लेकर धुआँ छोड़ने से !
बस इतना बता दो 
कि इस धुएँ की गंध-ओ-रंगत 
मुक्तिबोध की सिगरेट के
धुएँ सी है 
या साहिर की सिगरेट के धुएँ सी..! 
यह सोच कर ही 
ख़ुद को थोड़ी तसल्ली दे लूँ 
कि तुम किस दिशा 
बढ़ रहे हो...!

9. 'मर्द बनो'

 आओ दरिन्दों

मुझे लूटो, खसोटो, नोचो !

गौर से देखो

एक नारी हूँ मैं

ब्रहा द्वारा तैयार

तुम्हारे ऐशो आराम का सामान,

तुम्हारी ऐय्याशी का सामान,

तुम्हारी पाश्विक, घिनौनी औऱ नरपैशाचिक

जरूरतों को पूरा करने का सामान !

चिथडे चिथडे कर दो

वो झूठी अस्मिता
जो बचपन से मैं
साथ लेकर जी रही थी !
दिल दहला देने वाली मर्दानगी दिखा दो
सारी दुनिया को !
अरे, मर्द हो !
कोई मजाक है क्या ?
ऐसी दुर्गति करदो
मेरी आत्मा और शरीर की,
कि पूरी औरत जमात
सात पीढियों तक काँपे,
औरत होने के लिये !!
डरो मत !!
अधिक कुछ नहीं होगा !
तुम्हारी तलाश, और कुछ
सजा के बाद सब ठीक हो जायेगा तुम्हारा,
धीरे -धीरे !
मैं शायद न बचूँ
अपने जऩ्मदाताओं की
जीवन पर्यन्त यातना देखने,
और मुझ पर चल रही
टी वी चैनलों की प्राईम टाईम बहस देखने ....
और वे तमाम धरने और प्रदर्शन देखने,
जो इस तुम्हारे क्षणिक सुख से उपजे !!
पर वो सब बाद की बातें हैं !
शायद इतनी आबादी में
सब भूल भी जायें !
पर तुम तो अपना कर्म करो,
जिसके लिये तुम्हे
देवतुल्य पुरुष जीवन मिला है!!
मर्द बनो !! निडर होकर !!!   

 10. 'कोहरा'

जी रहे हैं हम सब 
कोहरे में
जाने कितने युगों से !
तरह -तरह के कोहरों में.. 
धार्मिक,  सामाजिक और राजनैतिक। 
इतने अभ्यस्त हो चुके हैं हम
कि प्रकाश की कोई भी किरण
कोहरे को बेधकर 
हम तक आना चाहती है 
तो चौंधिया जाती हैं 
अनाभ्यस्त आँखें हमारी। 
अपनी सनातन बाधित दृष्टि की
रक्षा के लिए 
हम मूंद लेते हैं आँखें 
नहीं चाहिए हमें प्रकाश
हम पूर्ण संतुष्ट हैं
आदी हैं,  अभ्यस्त हैं
कोहरों में जीने के.. 
जाओ प्रकाश !
कहीं और जाओ 
यहाँ तुम्हारा स्वागत नहीं !

11. 'खाल'

'खाल उतार दूँगा..!'
गली से गुज़रते 
ये कट्टर मर्दाना शब्द  
कानों में पड़े ।
निस्संदेह किसी, 
बल्कि उसकी 'अपनी'
स्त्री के लिए ही थे 
मन में आया ...
खाल उतरने के बाद
कैसी लगेगी वह ?
स्त्री ही तो रहेगी.. 
खाल दर खाल.. 
खोल दर खोल... 
क्यों नहीं जानता वह 
कि खाल स्त्रीत्व नहीं है..!!

रचनाकार - रचना त्यागी
प्रस्तुति - मनीषा जैन
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टिप्पणियाँ:-

देवेन्द्र रिनावा:-
सत्यनारायण भाई बिजूका की नई अंगड़ाई शानदार है।बहुत कुछ नया सिखने समझने को मिल रहा है।धन्यवाद।

आशीष:-
स्त्री अस्मिता  की  बात करने  के  दौरान हम  अपनी  ही  स्त्री की  गरिमा औ  अस्मिता  के   बारे  में  कितना   सोच  पाते  हैं ।  खुद पर  निगाह डालने के  लिए  महत्वपूर्ण कविताएं  ।  आभार मनीषा  जी  इस प्रस्तुति के लिए  ।

अंजू शर्मा :-
रचना की कविताओं में स्त्री मन के वाजिब सवाल हैं, जो सदियों से अनुत्तरित हैं। एक शाश्वत बेचैनी है इन कविताओं में। खूब बधाई रचना। शुक्रिया मनीषा जी।

आनंद पचौरी:-
स्तब्ध कर देने वाली सशक्त रचनाएँ ।अंदर तक भेद देती हैं ये कविताएँ ।काश!कि ये कुछ आज के उपद्रवी दरिंदों के समझ में भी आ पा तीं
सुंदर कविताएँ, विशेषकर पदचाप बहुत अच्छी लगी। कवि को शुभकामनाएँ
वाद जहाँ भी होगा वहाँ विवाद होंगे ही।ऱाजनीति इन में सडन पैदा करती है।यही हर जगह हो रहा है चाहे वह कोई भी प्रणाली हो। साम्यवाद से जो कुछ मिला ऊसका इतिहास सामने है। परिवर्तन व्यक्ति से व्यक्ति के लिए होता है।अभी तक ऐसी कोई निरापद प्रणाली नहीं है। जो आ दमी को आदमी होने का सुहूर सिखा दे।आवश्यकता आदमी के आंतरिक परिवर्तन की है।उसके सब बातें केवल intellectual jugglery हैं जो काफीहाउस में उठे क्रोध के बाद बाहर आकर दिशाहीन हो
जाती हैं ।

संजीव:-
क्रांति एक अलग ही चीज है। क्रांति इस रूप में तो नहीं ही होती जैसी कविता में है। क्रांति पहले एक वर्ग की चेतना में घटित होती है फिर बाहर तभी वह सच्ची होती है।

चंद्र शेखर बिरथरे :-
सभी क‌विताए अच्छी है . नई स‌म्भाव‌नाऒ कॊ त‌लाश‌ती . ताल‌, ल‌य‌ , न‌ये बिम्ब‌ . ब‌धाईया . च‌न्द्र‌शॆख‌र‌ बिरथरॆ

मीना अरोड़ा:-
और मैं सूखती जाती हूं,भाप दर भाप
कमाल की पंक्ति
क्रांति।  पदचाप  के क्या कहना
अति सुंदर रचना

विदुषी भरद्वाज:-
सुन्दर कविताएं, सम्बन्धों के हाशिए बहुत सामयिक,पदचाप बहुत मीठी

गरिमा श्रीवास्तव:-
रचना त्यागी की कविताये हमारे समय के कटु यथार्थ की अभिव्यक्ति हैं।रचनाकार की सृजन पीड़ा यथार्थ बोध से उपजी है इनके मंतव्य को समझा जाना ज़रूरी है।रचना जी की पकड़ भाषा पर अच्छी है,गद्य कविता का स्वाद देती ये कविताये आईना हैं।

परमेश्वर फुंकवाल:-
इसमें संदेह नहीं कि यह कविताएँ समय के यथार्थ पर टिप्पणी हैं। परंतु कुछ कविताओं को छोड़कर बाकी सपाटबयानी लगती हैं। जैसे मरद बनो।धुंआ,  खाल बेहतर है। फिर भी यह तो है कि अनावश्यक घुमाव फिराव नहीं है इनमें। कवियित्री को बधाई और शुभकामनाएं। सादर।

वसुंधरा काशीकर:-
बहोत बेनज़ीर कविताएँ! सुंदर, मन को चीरती हुई अभिव्यक्ति। खाल सबसे अधिक अच्छी लगी। मर्द बनो का दुसरा हिस्सा वो झूठी अस्मिता से लेकर ज़्यादा पसंद आया। पहिला हिस्सा ना भी लिखा होता तो चलता एेसा लगा।

राहुल सिंह:-
अप्रेम की कड़ी धूप में.....

लघु कविता, सूखते ह्रदय संबंधो की त्रासदी कह रही है।

अहसासों की यात्रा, भावनाओ को जता न पाने की झिझक, और सही सम्प्रेषण के अभाव में किस तरह हम सारा जीवन तो साथ जी डालते है, पर अपने ह्रदय की गहराई किसी को दिखा ही नहीं पाते....

महानता.....रचना

... सत्ता-शक्ति संपन्न लोगो द्वारा सार्वजनिक संसाधनों पर vip पकड़ को हसरत से तकती आँखों का बयान है।

क्रांति:
को बहुत ही दुर्लभ भाव से  उकेरा गया है। क्रांतियाँ  निर्घृण मानव परिस्थियां जनती है, उन परिस्थितियों के निर्माता चाहे जो कर लें।
उन्हें घटित होने से नहीं रोक सकती।

संबंधो के हाशिये पहली कविता का दूसरा पार्ट हो गई है।

नए शब्द, अच्छे कोण

सुषमा अवधूत :-
Bahut sundar rachnaye aaj ke mahol ke liye satik mard , kohra . Khal bahut Achhi lagi

रचना:-
सभी साथियों की टिप्पणी के लिए हार्दिक आभार! रचना पर प्रतिक्रियाएँ रचनाकार को प्रेरणा व अनुवर्ती लेखन को दिशा प्रदान करती हैं।

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