29 मई, 2016

कविताएँ : अनुराधा त्रिवेदी

आज प्रस्तुत हैं समूह के साथी अनुराध त्रिवेदी की कविताएं। कविताओं पर अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दें। आइए पढ़ते हैं कविताएं।

कविताएं

कुजात
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हम बहुत तरसे हैं
कातर और बुभुक्षु
हमारी अंतड़ियाँ आर्तनाद कर रही हैं
कोई बात याद नहीं आ रही हमें आज
वह निवाला तक रहे हैं
टुकुर टुकुर
जो आप अघाए मुखों में ठूँस रहे हैं
हमारी जात ने अभी अभी
श्राद्ध तर्पण किया है
उन कुसंस्कारों का
जिनमें छीन कर खाना नहीं सिखाया जाता
हम जात के कवि हैं हुज़ूर।

हम जात के कवि है हुज़ूर
हम अलग उठते बैठते बरतते हैं
हम छुआ मानते हैं क्योंकि छू भर पाते हैं
आपकी अटारियाँ और हौंस
बेतरतीब हैं और अव्यवहारिक
हम कलम से कमाल करने की बात करते हैं
और हमारी औकात स्याही खरीदने की नहीं
हमें साधन की छांव मे सोता मुटाया कुत्ता
बहुत खींसें निपोरे लगता है
हम उस कुत्ते जैसे वर्ण संकर हो जाना चाहते हैं
पर अभी हमारे दिन नहीं आए
कुछ कर गुजरने के ।


आउटडेटेड संविधान
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वह कि जिसने
सुरंग में पहली बारूद भरी थी
और जिसने
पुरुषों के दिल का रास्ता पेट से होकर जाता बताया था 
जाने कबसे उसे ही ढूंढ रही हूँ मैं
कि जब तुम यह ‘स्त्री सुबोधिनी संविधान’ लिख रहे थे
तो क्या तुम एक भी ऐसे पुरुष से नहीं मिले 
जो उजले, निखरे, ताज़ा चेहरों से प्रेम करता हो
जिसे सोती सुंदरी सुंदर लगती हो
और ज्ञान बघारती पत्नी जिम्मेदार  
या जिसे बस एक बात
एक मस्तिष्क
एक दिल
एक देह
एक सोच 
एक आवाज़
एक स्पर्श 
एक चाल
एक सुगंध 
एक दृष्टि
बस एक झलक भर से प्रेम हो जाए
तुम्हारे हवनकुंडों की समिधा बनते बनते
न जाने कितनी देहें, दिल और दिमाग
जो बोल, सुन और देख सकते थे
और शायद बिना लाग लपेट वाला प्रेम भी कर सकते थे
धसकी अँगीठियों में तब्दील हो गए
रंग और मुश्क़े हिना हल्दी, तेल और आटे की
बसायन्ध में खेत रहे 
भंवों का पसीना झुलसे गुलाबों तक ही छनक गया
कितना ही प्रेम झिलमिलाती आँखों से
सरक गिरा फूंकनी के रास्ते
फुंक गया खांड़ू की पोली लकड़ियों के साथ
यार, अगर तुम्हें बड़े बड़े हंडे और देग माँजती
स्त्री इतनी ही मोहक लगती थी
तो वह कौन था
जो मधुबाला, नर्गिस और मीना कुमारी पर मर मिटा था 
तुम समूचा प्रेम लील गए
कई बार तो डकार भी नहीं ली
और कैज़ुअल वर्कर्स बिछाते ही रह गए 
बजरी और धधकता डामर
तुम्हारे पेट से दिल जाते सिक्स लेन एक्सप्रेस वे पर।


देगची में प्रेम
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बगल वाले कमरे में
उसके अब्बा घर की सबसे बड़ी देग में
परमाणु बम बना रहे थे
फ्रिज में एक नामालूम सा लाल रंग का माँस रखा था
बहुत आगे जाकर पूरब में कहीं
तख़्ता पलट होने वाला था
मैं प्रेम को सिरे से खारिज करता हुआ
‘प्रेम’ की आखिरी किश्त भी
भुना लेना चाहता था 
और यही आखिरी मुद्दा पिछले कई सौ सालों से
उसे परेशान किए हुए था
आज तो
हमारे मजहब और धर्म की निरी अदला बदली
भी उसकी हताशा कम नहीं कर पाएगी 
उसके और मेरे लोग
घरों, बाज़ारों, सड़कों, स्कूलों को
परमाणु रियेक्टर बनाए हुए हैं
फ्रिज में पता नहीं क्या क्या रखा है
और पूरब में लोग कितना ऊपर चढ़ने के लिए
यहाँ कितने गहरे गिर रहे हैं
इन सबसे ज़्यादा बड़ा मसला
मेरा उसके प्रेम को हल्के में लेना था
और वह सिरे से ‘न’ कहना सीख रही थी ।


क्या कहा था तुमने
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जब समुद्र की
तरफ से आने वाली हवाएँ भी सूख गईं थीं
तो
कुछ कहा था तुमने
बदलते मौसम और सियासी मिजाज पर
बहुत कुछ कहते रहे थे
उस शाम 
क्या कहा था अपनी बदलती फितरत पर ?
क्या कहा था
जब जब मैंने सांस के साथ आँसू घुटके थे
और आवाज़ हुई थी उस घूँट की ?
या शायद
चीखता हुआ कठफोड़वा गुज़रा था
हमारे सिरों के ऊपर से 
मुझे आखिरी बार जाते देख क्या कहा था ?
नारे लगाये थे तुमने
नामीबिया की औरतों पर होते
अत्याचारों के खिलाफ़
क्या कहा था तुमने
जब मेरी उम्मीद मर रही थी ?
कुछ तो कहा था
मेरी टूटी चप्पल पर सहानुभूति से
क्या कहा था तुमने मेरी लहूलुहान
हिम्मत पर ?

शेड कार्ड और पटरियाँ
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लौट आना है उसी जगह
जहाँ आँगन में सूखते कपड़े  
भीग जाने से पहले मेरी बाट जोह रहे हैं
पतीले में खौलता दूध
रुकने या उफन जाने की
कशमकश में है
और चादर और परदे इतने
आहिस्ता आहिस्ता रंगहीन हो रहे हैं
कि मेरा उन पर नज़र रखना बड़ा ज़रूरी है
बड़े गौर से नज़र रखती हूँ इन सब पर
और घंटों, महीनों, सालों 
चर्चा करती रहती हूँ इन सब अहम मुद्दों पर
जो ज़िन्दगी को पटरी पर रखते हैं 
कभी कभी बिलकुल खाली
और बेकार वक़्त में सबसे छिपकर
सोच लेती हूँ
अंदर कुछ खौलने और उफन जाने की कशमकश
बादलों के इश्क़ पेंचा को बिना छुए
अनायास गुज़र जाने और
ज़िन्दगी से उन सब रंगों
के उड़ जाने के बारे में
जो इस साल एशियन पेंट्स के
शेड कार्ड में नहीं दिए गए थे
फिर ज़िन्दगी की गाड़ी और पटरी के
बारे में सोचती हूँ
और दूध और धोबी का हिसाब
तसल्ली से एक बार फिर लगाती हूँ ।

खत्म होना लाज़मी था
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तुम्हारा खत्म होना लाज़मी था
लाज़मी था कि मुझे नहीं आते थे नए सपने
कि मेरी खिड़कियों के पर्दों पर
उसी बसंत के फूल चस्पाँ थे अब तक
कि मैं पुराने चेहरों से कतराती थी
और नए चेहरे दिलचस्प नहीं लगते थे मुझे
कि मुझे सुख दुख में फर्क ही नहीं लगता था
और खट्टे मीठे, या रंगीन और बेरंग में भी
तुम्हारा खत्म होना लाज़मी था।

लाज़मी था कि मुझे आईने की फ़राखदिली खलती थी अब
कि मुझे रुखसत के दिन का स्क्रीन सेवर पसंद नहीं था
कि मुझे ज़िंदगी बेशकीमती लगने लगी थी 
और तुम्हारे बहाने बड़े खोखले
कि मैंने जान लिया था कि लोग पुरखुलूस और सच्चे भी हैं
कि मैंने तुम्हारी आँखों में सर्द बिल्लौरी काँच देख लिए थे ।

ज़िंदा कब्रें
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कमाल के मकबरे हैं
ताजमहल, सिकंदरा, सीकरी
कई और इमारतें.
भर जाते हैं अहाते सुबह शाम
छोटी छोटी ज़िंदा कब्रों से
वफ़ादार कब्रें
भूख मिटाने के लिये 
पांच सितारा कमरे नहीं तलाशतीं
भीड़ के एन बीच
पसीजती हथेलियों की हरारत
सब दिनों, रातों और शामों का
प्यार कह देती है
पूरा जीवन जी लेतीं हैं ये 
उसी एक मुलाकात में
शर्मातीं झिझकतीं अनगढ़ कब्रें
खुद से भी आँखें चुरातीं
गुजरते बच्चों को दुलरातीं हैं
और बहुत समय जाया कर देतीं हैं
परिचित आँखें दिख जाने की आशंका में
कुछ पत्थरों पर उकेरतीं हैं साथ साथ अपने नाम
कि ये अपने ही मकबरे गढ़ लेतीं हैं अनायास
ये मिलने नहीं आतीं कि ब्याह नहीं होते कब्रों के
उजाड़ मक़बरों से
ज़िन्दग़ी भर की जुदाई का सलीका सीखने आतीं हैं  
मिलते समय चुप रहतीं हैं
और बिछुड़ते समय भी
बस तकतीं रहतीं हैं भीड़ को बेजान आँखों से
अंधेरा होते होते
ख़राशें छोड़ जातीं हैं
अभिशप्त अकेले नामों की 
अपनी अपनी कब्रों पर।

प्रेमिकाएँ प्रेम नहीं करतीं थीं 
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प्रेमिकाएँ प्रेम नहीं करतीं थीं 
दूसरे कई काम करती थीं दिन भर
प्रेम न करने वाली स्त्रियों सी
शांत, संयत दिख पाने में विफल होकर
व्याकुल रहती थीं

सोचतीं रहतीं कि कैसे इस पार उतरते ही 
सब कश्तियाँ जला दीं थीं उस दिन
बस तभी से थीं लगातार गुमशुदा
शहर के पुराने रास्ते
ख़ुमारी में काट देतीं रहीं
वर्षों नहीं सीखीं नए रास्ते
अपरिचित सड़कों या आसमानों के रंग तक
नहीं पहचानना चाहतीं थीं
भनभनाहटों और व्यवधानों में
फ़ासले तय करती रहीं 
ठिकाने पर बमुश्किल होश में लायी जाती थीं
ये प्रेम में बेसुध स्त्रियाँ 
 
उलटे पाँव तय करती रहीं
सब काले अँधेरे जंगल निर्विकार
जिन्नों औघड़ों मसानों से अविचलित
कितने ही सिरों और कन्धों पर
हवा के पाँव रखते
गुजर गयीं
ये विदेह औरतें
लेकिन काँपती थीं
प्रेम की क्षीण हूक भर से

जाने कैसे माएँ बनी रहीं इस दौरान ये प्रेमिकाएँ
बच्चों के पुराने सामानों को देख
थरथराती रहीं इनकी छातियाँ
चिर वियोग और क्षणिक रोमांच के बीच
लगाती रहीं खाने के डिब्बे
याद रखती रहीं डाक्टर की विज़िट और परीक्षा की तिथियाँ  
बच्चों के उन्हीं चेहरे मोहरों में तलाशती रहीं
हालिया प्रेम के नाक नक़्श
आनुवांशिकी के नियमों से अनजान
कुपढ़ औरतें

इनके तकिये दीवार की तरफ करवट लिए
बहुत नम थे
और चादरें थीं एक ही तरफ घिसी
पति सुख से चूम लेते थे सुबह
उषा से गुलाबी मुख
और बहुत रात गए, हर रात
छनके हुए लहू से निस्तेज हुए
पीले चेहरे बिछा देती रहीं
कुछ दीवार की ओर सरक कर बिना नागा
अपराध विज्ञान नहीं पढीं थीं  
दण्ड व्यवस्था भी नहीं
लेकिन कैद समझती थीं
और जिस ढब की मैनाएँ वे थीं
उसमें प्यास ही ऊपर ले जाती है
पंख नहीं
ये बेमियादी प्यास थी
कि धसकती ही जा रही थी
पेस्टन जी की रेत घड़ी में  
ज़र्रा ज़र्रा

सबको सुनती और मानती थीं ये निर्विरोध
बस झगड़ पड़ती थीं प्रेमी से 
पहले तीन मिनटों के भीतर
प्रेमिकाएँ खर्च करतीं थीं सब ईंधन
प्रेम छिपा लेने में।

कवयित्री का परिचय

अनुराधा त्रिवेदी सिंह  (16 अगस्त )
एम ए (मनोविज्ञान, अंग्रेज़ी साहित्य), बी एड
एक कविता संग्रह प्रकाशित, अनेक प्रमुख पत्रिकाओं और ब्लाग्स में प्रकाशित ।
संप्रति:  मुंबई में प्रबंधन कक्षाओं में बिजनेस कम्युनिकेशन का अध्यापन, हिमाचल प्रदेश के एचआइवी पॉज़िटिव स्वयंसेवकों की आपबीती पर आधारित श्रंखला 'ज़िंदगी ज़िंदाबाद' का लेखन ।
 ईमेल: anuradhadei@yahoo.co.in
प्रस्तुति- बिजूका समूह
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टिप्पणियाँ:-

मज़कूर आलम:-
लाजवाब बेहतरीन। कविताएँ पढ़ कर मजा आ गया।
बिम्ब, शिल्प से लेकर कविताओं के विषयों की प्रस्तुति- सब बेहद असरदार।

जय:-
सहमत मजकूर भाई ।ये नए तेवर की कविताएँ है। पितृसत्ता पर व्यंग्य करती आउटडेटिड संविधान बहुत मारक लगी जहाँ जेंडर स्टिरियोटाइप से अलग स्त्री को स्वीकार करने की बात है

सुषमा सिन्हा:-
बहुत बढ़िया कविताएँ। पहले भी पढ़ी हूँ। 'आउटडेटेड संविधान' तो एक यादगार कविता है। इसलिए यह याद रह गई है। 'देगची में प्रेम' भी एक बेहतरीन कविता है। बधाई कवि को।

मृत्युंजय प्रभाकर:-
दिल को छू और दिमाग को झकझोर देने वाली कवितायेँ हैं ये। अपने साथ भाषा और बिम्ब के नए आख्यान गढ़ती हुई।

मज़कूर आलम:-
ख़त्म होना लाज़मी था की कसावट और बुनावट थोड़ी ढीली लगी, लेकिन अच्छी है। बाकी कविताएँ बेहतर हैं। कल वाली ज्यादा अच्छी थीं। कल से एक और बात। कविता का आने वाला कल अनुराधा जी का भी हो तो आश्चर्य नहीं।

मृत्युंजय प्रभाकर:-
नए ढब की या कहनी चाहिए उनके अपने ढब की रचनाएं। एक कवि जब अपनी भाषा खोज लेता है तो समझिए उसने कविता को साध लिया है। अनुराधा जी ने यह कर दिखाया है। उन्हें बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएं।

रचना:-
अनुराधा जी की कविताएँ कसे हुए सुगठित शिल्प से सुसज्जित होती हैं संदर्भ और भाषा भी लाजवाब हैं। ये अपनी अलग पहचान,  अलग मुहावरे गढ़ रही हैं। इन्हें पढ़ने में एक अद्भुत आनंद की प्राप्ति होती है,  चाहे किसी भी रस पर आधारित हों। विषय का चयन और कथ्य का रुचिकर होना.. दोनों तत्वों की एक साथ मौजूदगी इन्हें बेहद पठनीय बनाती है। मैं अनुराधा जी की कविताओं की बहुत मुरीद हूँ और समकालीन कवयित्रियों में इनका एक बिल्कुल अलग स्थान देखती हूँ।

रचना:-
मेरी साहित्यिक प्यास बुझाने के लिए ये कविताएँ एक खनिज-जल ( मिनरल वॉटर)  की तरह काम करती हैं। खासकर ऐसे समय में,  जबकि शुद्ध जल मिलना बेहद कठिन है।

हनीफ मदार:-
दिनों बाद ही सही मन को मन तक छूने और टटोलने वाली कवितायेँ पढ़ीं हैं । सच काहू  तो कविता शब्दों में नहीं य शब्दों से नहीं मन से ही बुनती है इस  इंसानी सच को पुख्ता करतीं अनुराधा जी की कवितायेँ किसी को भी अपना मुरीद बना लेने की कुव्वत रखतीं हैं ।

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