26 जून, 2016

लघुकथाएँ : खलील जिब्रान

आज आपके लिए बिजूका पर प्रस्तुत हैं विश्व प्रसिद्ध साहित्यकार और कलाप्रेमी ख़लील ज़िब्रान की तीन अनुवादित लघुकथाएँ,  जिनका अनुवाद हिन्दी के प्रसिद्ध साहित्यकार बलराम अग्रवाल द्वारा किया गया है।
     आप सभी से अनुरोध है पढ़कर अपनी प्रतिक्रिया जरूर दें ।

लघुकथाएँ :

1.     "आदमी की परतें"

रात के ठीक बारह बजे, जब मैं अर्द्धनिद्रा में लेटा हुआ था, मेरे सात व्यक्तित्व एक जगह आ बैठे और आपस में बतियाने लगे :
पहला बोला - "इस पागल आदमी में रहते हुए इन वर्षों में मैंने इसके दिन दु:खभरे और रातें विषादभरी बनाने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी। मैं यह सब और ज्यादा नहीं कर सकता। अब मैं इसे छोड़ रहा हूँ।"
दूसरे ने कहा - "तुम्हारा भाग्य मेरे से कहीं अच्छा है मेरे भाई! मुझे इस पागल की आनन्द-अनुभूति बनाया गया है। मैं इसकी हँसी में हँसता और खुशी में गाता हूँ। इसके ग़ज़ब चिंतन में मैं बल्लियों उछलता-नाचता हूँ। इस ऊब से मैं अब बाहर निकलना चाहता हूँ।"
तीसरा बोला - "और मुझ प्रेम से लबालब व्यक्तित्व के बारे में क्या खयाल है? घनीभूत उत्तेजनाओं और उच्च-आकांक्षाओं का लपलपाता रूप हूँ मैं। मैं इस पागल के साथ अब-और नहीं रह सकता।"
चौथा बोला - "तुम सब से ज्यादा मजबूर मैं हूँ। घृणा और विध्वंस जबरन मुझे सौंपे गए हैं। मेरा तो जैसे जन्म ही नरक की अँधेरी गुफाओं में हुआ है। मैं इस काम के खिलाफ जरूर बोलूँगा।"
पाँचवें ने कहा - "मैं चिंतक व्यक्तित्व हूँ। चमक-दमक, भूख और प्यास वाला व्यक्तित्व। अनजानी चीजों और उन चीजों की खोज में जिनका अभी कोई अस्तित्व ही नहीं है, दर-दर भटकने वाला व्यक्तित्व। तुम क्या खाकर करोगे, विद्रोह तो मैं करूँगा।"
छठे ने कहा - "और मैं - श्रमशील व्यक्तित्व। दूरदर्शिता से मैं धैर्यपूर्वक समय को सँवारता हूँ। मैं अस्तित्वहीन वस्तुओं को नया और अमर रूप प्रदान करता हूँ, उन्हें पहचान देता हूँ। हमेशा बेचैन रहने वाले इस पागल से मुझे विद्रोह करना ही होगा।"
सातवाँ बोला - "कितने अचरज की बात है कि तुम सब इस आदमी के खिलाफ विद्रोह की बात कर रहे हो। तुममें से हर-एक का काम तय है। आह! काश मैं भी तुम जैसा होता जिसका काम निर्धारित है। मेरे पास कोई काम नहीं है। मैं कुछ-भी न करने वाला व्यक्तित्व हूँ। जब तुम सब अपने-अपने काम में लगे होते हो, मैं कुछ-भी न करता हुआ पता नहीं कहाँ रहता हूँ। अब बताओ, विद्रोह किसे करना चाहिए?"
सातवें व्यक्तित्व से ऐसा सुनकर वे छ्हों व्यक्तित्व बेचारगी से उसे देखने लगे और कुछ भी न बोल पाए। रात के गहराने के साथ ही वे एक-एक करके नए सिरे से काम करने की सोचते हुए खुशी-खुशी सोने को चले गए।
लेकिन सातवाँ व्यक्तित्व खालीपन, जो हर वस्तु के पीछे है, को ताकता-निहारता वहीं खड़ा रह गया।

2.     "ओछे लोग"

बेशारे नगर में एक सुन्दर राजकुमार रहता था। सभी लोग उसे बहुत प्यार और सम्मान देते थे।
लेकिन एक बहुत ही गरीब आदमी था जो राजकुमार को बिल्कुल भी नही चाहता था। वह उसके खिलाफ हमेशा ज़हर ही उगलता रहता था।
राजकुमार को यह बात पता थी, लेकिन वह चुप रहा।
उसने इस पर गहराई से विचार किया। एक ठिठुरती रात में उसके दरवाज़े पर उसका एक सेवक एक बोरी आटा, साबुन और शक्कर लेकर जा पहुँचा। उसने उस आदमी से कहा, "राजकुमार ने ये चीजें तोहफे में भेजी हैं।"
आदमी बकबक करने लगा। उसने सोचा कि ये उपहार राजकुमार ने उसे खुश करने के लिए भेजे हैं। इस अभिमान में वह बिशप के पास गया और राजकुमार की सारी करतूत उसे बताते हुए बोला, "देख रहे हो न, राजकुमार किस तरीके से मेरा दिल जीतना चाहता है?"
बिशप ने कहा, "ओह, राजकुमार कितना चतुर है और तुम कितनी ओछी बुद्धि के आदमी हो। उसने इशारों में तुमसे बात की है। आटा तुम्हारे खाली पेट के वास्ते है। साबुन तुम्हारे भीतर छिपी बैठी गन्दगी को साफ करने के लिए। और चीनी, तुम्हारी कड़वी जुबान में मिठास लाने के लिए।"
उस दिन के बाद वह आदमी अपने-आप से भी लज्जित रहने लगा। राजकुमार के बारे में उसकी घृणा पहले से कहीं ज्यादा बढ़ गई। उससे भी अधिक घृणा उसे बिशप से हो गई, जिसने राजकुमार की प्रशंसा उसके सामने की थी।
लेकिन उस दिन के बाद उसने मौन धारण कर लिया।

3.    "आनन्द और पीड़ा"

मई माह में एक दिन आनन्द और पीड़ा एक झील के किनारे मिले। उन्होंने एक-दूसरे का अभिवादन किया और ठहरे हुए जल के किनारे बैठकर बातें करने लगे।
आनन्द ने धरती पर स्थित सुन्दरता के बारे में बात शुरू की। उसने वनों और पहाड़ों में रोजमर्रा होने वाली अद्भुत घटनाओं की चर्चा की। ज्वार-भाटे से उत्पन्न होते गीत-संगीत की बात की।
पीड़ा भी बोली। उसने आनन्द की सभी बातों से सहमति जताई। काल के जादू और उसकी सुन्दरता की बात की। खेतों और पहाड़ों की मई के दौरान हालत पर बात करते हुए उसने हताशा महसूस की।
दोनों देर तक बातें करते रहे। दोनों जो कुछ भी जानते थे, उससे सहमत थे।
तभी, झील के उस पार दो शिकारी वहाँ से गुजरे। जैसे ही उन्होंने इस पार निगाह दौड़ाई, उनमें से एक बोला, "बड़े ताज्जुब की बात है, उस पार कौन दो लोग बैठे है?"
"तुम दो कह रहे हो? मुझे तो केवल एक ही नजर आ रहा है!"
"लेकिन वहाँ दो ही हैं।" पहले शिकारी ने कहा।
"मैं साफ देख रहा हूँ। वहाँ एक ही है।" दूसरे ने कहा, "झील में परछाई भी एक ही है।"
"नहीं। दो हैं।" पहला बोला, "और ठहरे हुए पानी में परछाइयाँ भी दो लोगों की ही हैं।"
लेकिन दूसरे ने पुन: कहा, "मुझे तो एक ही दीख रहा है।"
"मैं तो साफ-साफ दो देख रहा हूँ।" पहले ने पुन: कहा।
और आज तक भी, एक शिकारी कहता है कि उसको दो दिखाई देते हैं। जबकि दूसरा कहता है, "मेरा दोस्त थोड़ा अन्धा हो चला है।"
(प्रस्तुति-बिजूका टीम)
----------------------------------
टिप्पणियाँ:-

आर्ची:-
पहली लघुकथा समझ में आई, दूसरी का उद्देश्य और तीसरी का मतलब बिलकुल समझ में नहीं आया, दूसरी के माध्यम से लेखक क्या कहना चाहते हैं? राजकुमार के प्रतीकात्मक उपहार का उस आदमी पर कुछ भी असर नहीं हुआ? कृपया ज्ञानी जन इन लघुकथाओं के मंतव्य को स्पष्ट करने की कृपा करें

प्रदीप मिश्रा:-
बिजूका नए साहित्य का केंद्र रहा है।आजकल बिजूका पर समकालीन साहित्य कम ही दिखता है।
राहुल चौहान:-
ख़लील को पढना मन-आत्म-हृदय-दिमाग का बंद कपाट खोलने जैसा है, ख़लील ठेठ गुण-अवगुण-भाव-भावना को 'पात्र' 'पात्रों' के किस्से में ढाल , बेहद सम्प्रेषणीय और आसानी से पाठक के अंतर में पैठ बना लेते है।
मैं ख़लील जिब्रान को लेखनी का एक सर्वकालिक चमत्कार कहूँगा।

इस महान दार्शनिक,चिंतक,लेखक,कवि
को प्रेम भरा अभिवादन

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें