03 अगस्त, 2016

कविताएं : नंदना किशोर

आज कुछ नई कविताएं आप
सभी के लिए प्रस्तुत है ।
एक रचनाकार की कुछ रचनाएँ हैं पढ़कर आप सभी अपने विचार रखें ऐसी ही आशा है ।

रचनाकार का नाम कल जानिएगा उनके परिचय के साथ ।

1.चुल्लू भर पानी

अहा! कितना सुकून भरा है ये पल,
45° पार करती गर्मी में
किचन से उठते भाप की उमस
और तवे की झुलसी धाह से
निबट कर कितना अच्छा लगता है
बाथरूम में युँ शॉवर की
ठंडी फुहारें लेना,
आषाढ़ की पहली बारिश सा
सौंधा अहसास,
पसीने की भिनभिनाती बू मिटाती
शॉवर जेल की नींबू वाली
हरी-हरी महक
कितना सूदिंग और रिफ्रेशिंग है,
ओह! बाहर तपती गर्मी है तो
अभी यहीं इस पल को जिया जाये,
थोड़ी देर और ख़ुद में ही खोया जाये,
लूफा की नरम रगड़ खाये
गुलाबी हुई देह पर कैसे
ठहरतीं , फिसलतीं हैं बूंदें,
आत्ममुग्ध होते हुए मैंने
ज़रा आइना निहारा
और चौंक पड़ी-
आँखों के सामने थी
विदर्भ की पपड़ायी सुखी धरती,
लातूर के सुखे कुँए पे
जान की बाज़ी लगाती प्यासी भीड़,
सिर पे मटकों का पिरामिड उठाये
मॉडलों के कैटवॉक को मात देती
थार की बंजारन, रहस्यमयी ढ़ंग से
मुस्काते हुए घूर रही थी मुझे,
और वहीं कहीं आड़ में 'गंगीया' खड़ी थी
मेरे बाहर निकलने की प्रतिक्षा में,
कि 'ठाकुर के कुँए' का पानी
ज्यों-ज्यों सुख रहा है
पहरे और कड़े हो रहे हैं,
जोर-शोर से चल रही है
तीसरे विश्व-युद्ध की तैयारियाँ,
मैं काँप उठी,
टैप तुरंत बंद किया,
करती रही तौलिये से
बार-बार देर तक
ख़ुद को सुखाने की कोशिश,
पसीना था या शर्मिंदगी
पता नहीं,
कहीं कोई नल टपकता रह गया
मेरे भीतर,
आँखे पनियाली हो गई,
जाने वे लोग
जिनके बंग्ले के सोना, जकुज़ी,
पर्सनल हॉट/कोल्ड स्वीमींग पूल
भरे हैं मिनरल वाटर से,
हाँ वही बिसलरी, किनले,
किंगफिशर वाले जैसे लोग
उनके पास क्यों कम पड़ जाता है
बस 'चुल्लु भर पानी'

2. पोलियोग्रस्त व्यवस्था

पहले छीनी गई
बच्चों के मुख से
'दो बूँद ज़िंदगी की'
बंद कर दिये गये
रोकथाम के सारे
टीकाकरण अभियान
और जब पुरी पीढ़ी
लँगड़ाते हुए सरक रही थी
उन्होंने थमाई
एन.जी.ओ. नामक बैसाखियाँ
इस नेक कार्य के लिए
वे बार-बार पूरूस्कृत हो रहें हैं
मिडीया उनके गुण गा रही है
रोज़ छप रही है उनकी
तस्वीरें पेज थ्री पर

3. समतावादी प्रगतिशील 'पुरूष'
 
" 'मैंने' 'इजाज़त' 'दी' उसे
शादी के बाद भी ज़ारी रखे
अपनी नौकरी ताकि
खड़ी रह सके वो
अपने पैरों पे,

" 'मैंने' 'इजाज़त' 'दी' उसे
कि घुँघट से बाहर निकल
वो पहन सके जींस,पैंट या
जो भी उसे पसंद हो,

" 'मैंने' छुट दे रखी है" उसे
वो जैसे चाहे खर्च करे
अपनी सैलरी,
जब चाहे जा सके मायके,
जहाँ चाहे घुम सके
महिला या पुरूष मित्रों के साथ,

और "इतनी आज़ादी दी है"
कि वो ले सके अपना निर्णय ख़ुद
आखिर हम दोनों को ही
बराबरी का हक़ है।

4. अवसरवाद

अवसर के अनुकूल
अपनी सुविधानुसार
हम चुनते हैं इतिहास से
कोई नायक/विचारक महापुरुष
पुजने लगते हैं उन्हें
ईश्वर की भाँति
रिचाओं सी दोहराते रहते हैं
उनकी सुक्तियाँ
अपने 'वाद' को अपना
धर्म बना लेते हैं
ढोते रहते हैं उनके दिये
प्रतिकों और चिन्हों को
किंतु अक्सर आचार से
विचार काे परे रखते हैं
ठीक मंदिर के बाहर
उतारी हुई चप्पल की तरह

5.

ब्रेकिंग न्युज़
साल की बेस्ट एक्ट्रेस का अवार्ड लेते हुए 'वो' 
करती है खुलासा
अपने साथ हुए
'कास्टिंग काउच' का
हालाँकि बता नहीं पाती
कोई नाम
कौन डायरेक्टर या प्रोड्युसर  या कोई एक्टर ऑडियंस में सनसनी मची हुई है,    

6.

गाजर के हलुवे से भरे      टिफिन के साथ
अपनी प्रमोशन की फाइल अधिकारी की टेबल पे
रखते हुए
बड़ी मिठास के साथ
'वो' रिक्वेस्ट करती है
प्लीज़ सर, तीन बार से 
ये फाइल यहीं अटक रही है इस बार तो...
बात पुरी करने से पहले ही अधिकारी गुलदान से
एक फुल उसकी ओर
बढ़ाते हुए 
उतनी ही मिठास से पुछा ...
तो आज शाम क्या कर रही हो तुम         
        

7.
सहमा सा आत्मविश्वास
और अंदर की साहस को
खुरच कर बटोरते हुए
बड़ी दबी जबान से
'वो' पुछती है-सर
कैसी लगी मेरी कविताएँ संपादक उसकी फाइल से  ध्यान हटाकर
उसके चेहरे को
गौर से टेबते हुए
कहता है- बहुत सुंदर
फिर नज़रों को 
ठोड़ी से सरकाते हुए
ठीक गर्दन के थोड़ा नीचे
टिका देता है         
     

8.
अक्सर अकेले
में बतियाते, ठिठयाते
बार-बार बहाने से
देह छुने की कोशिश
और नॉनवेज चुटकुलों से
तंग देवर को ज़ोरों से
झिड़क देती है 'वो'
फिर बातचीत बंद
दरक जाते हैं रिश्ते
बिखरने लगता है घर
अब पड़ोसी व रिश्तेदार
उसके किरदार की तुलना फैमिली ड्रामा फिल्मों की मँझली बहू से करते हैं,

********

8.शुर्पनखा

कहो सीते!
तुम क्यों रही मौन
जब काटी जा रही थी
मेरी नाक,
'नाक काटना'
मुहावरे का अर्थ तो
भली-भांति समझती होगी तुम,

क्या ये था मेरा दोष
कि नारी होके भी
कर न पाई मैं अपनी
इच्छाओं का दमन,
चढ़ते यौवन के अल्हड़पन में
किसी सुकुमार पे आसक्त हो
कर डाला प्रणय-निवेदन,
जो विपरीत था तुम्हारे
तथाकथित सभ्य समाज के
दोगले नियमों के,

क्या इर्ष्या कर बैठी थी तुम
मेरी स्वच्छंदता,
मेरी निर्भिकता,
मेरी आत्मनिर्भरता से,
या सीखा ही न था तुमने
अपनी जिह्वा का उपयोग करना
पौरूष मनोवृत्ति के प्रतिकुल,

संभवतः तुम्हें भान न था
मेरे उन्मुक्त कामनाओं के
शोणित होने के परिणाम का,
सो चुप रही तुम,
और तुम्हारी चुप्पी
एक भयंकर भूल सिद्ध हुई,

सहना पड़ा तुम्हें भी
चरित्र पे लांछन,
भोगा ऐसे अपराध का दंड
जो तुमने किया ही नहीं,
अग्निपरीक्षा से सुरक्षित
निकल आई तुम्हारी देह,
किंतु हृदय को धधकने से
बचा पाई क्या तुम,

दग्ध व हताश तुमने
पुनः एक प्रलयकारी भूल की,
समा गई धरती में
कहलाई सती,
तुम्हारी कायरता को
महिमामंडित कर
ली जा रही है सदियों से
असंख्य सीताओं की बलि,

काटी जा रही है
शूर्पनखाओं की नाक अब भी,
फिर भी जी रही हूँ 
उतनी ही स्वच्छंद,
उतनी ही निर्भिक,
उतनी ही आत्मनिर्भर होकर,

डायन, चुड़ैल,
फुलन, चरित्रहीन
कहता रहे ये आडंबरपुर्ण
सभ्य समाज,
स्वीकार है मुझे,
सीता या सती होना भी नहीं मुझे,
देवी कहलाना गाली से अधिक कुछ नहीं,

इतिहास से पूजी आ गई हो
वर्तमान तक किंतु
भविष्य तुम्हारा संकट में है सीते
क्या अब भी मूक ही रहोगी...

परिचय

नाम- नन्दना किशोर

पिता- श्री अवध किशोर प्रसाद

जन्मतिथि- 27-11-1982

लिंग-महिला

शिक्षा- पुर्वस्नातक

संप्रति- स्वतंत्र लेखन

विशेष- कविता लेखन के लिये वर्ष 2005 में   'हिंदी अकादमी, दिल्ली' से पुरुस्कृत व वर्ष 2016 में 'अंग महिला सम्मान २०१६' से प्रोत्साहित,

वर्तमान पता- 1102, ए.वी.जे. होम्स,
                    बीटा-2, ग्रेटर नोयडा,
                    गौतम बूद्ध नगर, उत्तर प्रदेश,
                     201308

संपर्क सुत्र- 08010475007,
                 01204376932
  ईमेल पता-               nandanapankaj@gmail.com

प्रस्तुति-बिजूका समूह
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टिप्पणियां:-

संजीव:-
अच्छी कवितायें। समतावादी पुरुष संबंधो की पुरानी कहानी है। आजादी भी भीख में ही मिलेगी स्त्री को। पुरुष के दिए बिना कुछ नहीं मिलेगा।

अनिल अनलहातु:-
मेरा प्रमोशन के साथ जयपुर ट्रान्सफर हो गया है, एक हफ्ते में ज्वाइन करूँगा। इस ग्रुप में कोई जयपुर के हों तो संपर्क करना चाहूँगा।

तिथि:-
कटाक्ष और व्यंग्य का तेवर सभी कविताओं में नज़र आ रहा है।कुछ महत्वपूर्ण मुद्दों को कविताएं उठाती हैं। मुझे 'समतावादी प्रगतिशील पुरुष'     सबसे अच्छी ,नपी तुली और प्रभावशाली लगी। पहली कविता आधा हिस्सा गुज़रने के बाद ही अपने आपसे जोड़ पाती है। कवि को शुभकामनाएँ।

राजवंती मान:-
सभी कविताएँ अच्छी हैं।पानी के बेजा इस्तेमाल और चुल्लू भर पानीे  के लिए संघर्ष का सार्थक चित्रण है ।प्रगतिशील पुरुष होते/कहते हुए भी अपने पुरुषत्व से बाहर नहीं है ।अवसरवाद भी  मानव प्रकृति पर सटीक चोट करती है ।शुभकामनाएँ और बधाई ।

परमेश्वर फुंकवाल:-
कविताएं परिचित विषयों को उठाती हैं।ट्रीटमेंट नया हो सकता था। मुझे इनकी दिशा पर भी कुछ कहना है। कास्टिंग काउच एक समझौता है, उसे करने के उपरांत उसे उजागर करने से बेहतर उसे न करना होता।  प्रमोशन वाली कविता में हलवे भरा टिफिन योग्यता के बदले प्रलोभन देकर काम करवाने की कोशिश है।यहां भी संघर्ष के बजाय समझौता ही है। देवर वाली कविता में भी अबोला भर है विरोध का मुखर स्वर नहीं। मुझे एसा लगी।कवियित्री कुछ कहें तो मंतव्य स्पष्ट हो।

नंदकिशोर बर्वे :-
दैनिक जीवन की बातों में कितना कुछ सहती है नारी। उन  पीड़ा दायी घटनाओं का सजीव चित्रण है इन कविताओं में। संवेदनशील कविताएँ। कवियत्री को बधाइयाँ। बिजूका को धन्यवाद।

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