03 अगस्त, 2016

कहानी : शल्यचिकित्सा : प्रह्लाद श्रीमाली

आज प्रह्लाद श्रीमाली की एक कहानी और परिचय आज समूह में प्रस्तुत है।  आपकी प्रतिक्रियाओं का स्वागत है।

कहानी:

                     "शल्यचिकित्सा"
                                                                            ‘‘कुल मिलाकर कितना खर्च बैठा?‘‘ मिलने आने वालों में शायद ही कोई ऐसा हो जिसने यह जिज्ञासा प्रकट करने से परहेज बरता हो। मैंने कोई मकान या गहने बनवाए हैं या ह्दय का बाईपास ऑपरेशन करवाया है! आरंभ में मुझे सोचना पडता। लेकिन लगता है इधर मध्य-वर्ग में यह रिवाज सा बन गया है। दिल का इलाज करवा चुके मरीज का हाल चाल पूछने जाओ तो खर्चा-चर्चा जरूर करो। ताकि अभागा रोगी दुबारा दिल की बिमारी नहीं पाले। अब तो मुझे भी आदत सी पड गयी है। इस बाबत जवाब देने का खेल खेलने की। बल्कि मैं आतुर रहता हूं। अगला कब पूछे और मैं बढ-चढ कर बताऊं! पर किसी-किसी को मैं एकदम कम भी बता देता हूं। इतना कम कि कोई भलाचंगा स्वस्थ कंजूस भी सोचने लगे कि बस इतना ही। इतने में तो मैं भी अपना बाईपास करवा ही लूं। सुनने वाले को एकदम विश्‍वास नहीं होता। इतने कम खर्च में इस महंगे महानगर में कैसे संभव है इतना अच्छा इलाज। लेकिन मैं गंभीर रहता हूं। उसकी अचरज से फटी आंखों को सहानुभूति से देखता हूं। तब उसे मानना ही पडता है। इससे मुझे सुख मिलता है। मजा आता है। आनंद की अनुभूति होती है। लगता है मन फिर से युवा हो रहा है। वैसे मैं तन से भी युवा हूं। अभी मेरी उम्र ही क्या है !
यह डाक्टरी चमत्कार है या मेरी जीवंतता! इतना खिलंदड मैं पहले तो नहीं था। कहीं मेरा पुनर्जन्म तो नहीं हो गया! एक तरह से यही तो हुआ है। पहले मैं सारे जमाने को लेकर चिंतित रहा करता था। आजकल विपरीत हो रहा है। मुझे देखने आने वाले आत्मीयता प्रकट करते है। मेरे लिए चिंता करते से लगते हैं। तब मैं मुस्कुराता हूं। मौज में हुआ तो ठहाका लगाता हूं।
गिरधारी लाल जी आए थे मिलने। बडे होशियार आदमी हैं। पर जितने हैं खुद को उससे कुछ ज्यादा ही समझते हैं। यह बात मैं बरसों से जानता हूं। किंतु चाहकर भी कभी उन्हें पटकनी नहीं दे पाया। बल्कि कई बार झख मार कर उनकी समझदारी का कायल होना पडा। आज भी लगभग यही हुआ। उन्होंने हालचाल पूछा। दवाई-परहेज की जानकारी ली। फिर दिल खोल कर तबियत से हिदायत दी। हंसी-ठिठोली की। यहां तक कि कुछ महीनों तक ब्रह्म्चारी रहने की सख्त सलाह तक दे डाली। डाक्टर ने भी यही कहा था। सुनकर मुझे गुदगुदी सी हुयी। लेकिन मन ही मन झुंझला रहा था। अब तक इन्होंने इलाज पर हुए खर्च के बारे में क्यों नहीं पूछा! आखिर ये अपने आप को समझते क्या हैं! खुद को समझदार साबित करने की इतनी अकड! जब कि यह जानने की उत्सुकता इनके भीतर भी छटपटा रही होगी। मुझे उनके पाखंड पर तरस आने ही वाला था कि विचार आया। हो सकता है सचमुच इस बाबत इन्हें कोई जिज्ञासा नहीं हो। हालांकि यह असंभव है। जब हर आने वाला यह जानकारी पाना अपना अधिकार मानता है। तो ये महाशय कोई अलौकिक प्राणी थोडे ही हैं। लेकिन जताएंगे यही।
उनसे बतियाते हुए ये सब विचार मन में घुमड रहे थे। तभी फोन की घंटी बजी। पत्नी ने पास वाले कमरे से लाकर फोन का चौगा मुझे थमाया। और चली गयी। लेकिन मैं जानता हूं वह कमरे के बाहर दरवाजे की ओट में खडी हमारी बातें सुन रही होगी। यह इसकी पुरानी आदत है। फोन मनोज का था। बेचारा खुद काफी दिनों से बीमार था। इसलिए अरसे से मिल नहीं पाया। अब जैसे ही उसे मित्रों द्वारा पता चला कि मेरा बाईपास ऑपरेशन हुआ है, कुशल मंगल जानने के लिए तुरंत फोन कर दिया। यह फोन पर दी गयी उसकी लंबी सफाई का सार था। काफी दूर रहता है इसलिए पता लगते ही प्रत्यक्ष उपस्थित नहीं हो पाने के लिए माफी मांग रहा था। समय निकाल कर जल्दी मिलने आने का उसने वादा भी किया था। हालांकि यह सब वह मुझ से बिल्कुल पहली बार कह रहा था, लेकिन मुझे लगा मानो उसके मुंह से ये सारी बातें मैं पहले भी कई बार सुन-सुन कर ऊब चुका हूं। और अब फिर ऊब रहा हूं। उसकी बातें थी ही ऐसी परंपरादार। सिर्फ मैं ही नहीं मेरे चेहरे से ऊबने का परावर्तन झेलते हुए गिरधारीलाल जी भी ऊब रहे हैं। ऐसा मैंने महसूस किया। मैं उसकी बातों को अंतिम मोड देकर फोन रखने की सूचना देने ही वाला था कि अकस्मात मनोज ने मुझे एक रोचक झटका दिया। मेरा चेहरा खिल उठा। मानो मन की इच्छा पूरी हो गयी हो। मेरे भाव देख कर गिरधारी लाल जी उत्तेजित होने के स्तर तक उत्सुक हो उठे। मैंने इस बात को ताडा और मन ही मन गुनगुनाने लगा।
‘‘यही करीब पांच-साढे पांच लाख हो जाएंगे। कुल मिलाकर।‘‘ फोन पर मनोज को बताते हुए यह बात मैंने गिरधारी लाल जी की आंखों में आंखें डाल कर कही। मनोज ने खर्च के विषय में जानना चाहा था। यह जाने बिना कि इस वक्त यह बात पूछ कर वह मुझ पर कितना बडा उपकार कर रहा है। अपनी पूर्ण तंदुरूस्त अवस्था में जो काम मैं नहीं कर पाया था वह आज बिस्तर पर पडे-पडे कर दिया था। मैंने चतुर शिरोमणि गिरधारी लाल जी को पटकनी दे दी थी।

‘‘क्या बताया आपने! पांच-साढ़े पांच तक खर्च हो जाएंगे। लेकिन इसमें तो दो-ढाई से ज्यादा नहीं होते। वह भी अच्छे से अच्छे अस्पताल में।‘‘ गिरधारी जी ने बडी बेचैनी से मुझे यह जानकारी दी। मानो मेरे इस तरह लुट जाने में उनका भी हाथ हो। मतलब वे पहले आ जाते तो मेर ढाई-तीन बच जाते।
‘‘यह तो मैं भी जानता हूं। इतने ही होते हैं। लेकिन क्या हुआ कि हमारे जो अमेरिका वाले मौसेरे भाई हैं उनका मन नहीं माना और वे अपने साथ अपने एक मित्र डाक्टर को अमेरिका से अपने तामझाम सहित ले आए। और सारा काम उनकी देख रेख में ही सम्पन्न हुआ। अब वे भले ही लें न लें लेकिन उनके आने-जाने रहने-खाने का सारा खर्च भी तो आखिर इसी मद में गिना जाएगा ना।‘‘ इतनी लंबी हांककर मैं खुद को बडा हल्का महसूस कर रहा था। लेकिन गिरधारी जी ने बडे भारी कदमों से प्रस्थान किया। कदाचित मेरे उपर पडे खर्च के अतिरिक्त बोझ को वे सह नहीं पा रहे थे।
जब मनोज फोन पर बतिया रहा था तब मैं सोच रहा था। यह भले ही बाद में निरापद स्थिति भांप मुझ से मिलने आ जाए। किंतु यदि कभी मनोज वास्तव में बीमार पडा तो मैं बस फोन पर ही हालचाल ले लूंगा। दरअसल मैं मनोज की चालाक और बीमार मानसिकता से अच्छी तरह परिचित हूं। कई दिनों से मनोज बीमार है! यह जानकारी किसी ने दी नहीं। फिर खुद उसने नहीं बताया कि क्या बीमारी है उसे। इससे सिद्ध होता है कि वह बहाना बना रहा है। और अपनी संकीर्ण सोच के मारे आशंकित है कि कहीं इस वक्त मिलने जाने पर मैं बीमारी में भारी खर्च का हवाला देकर उससे कर्ज न मांग बैठूं। यह विचार मुझे अपमानबोध करा रहा है। जिसकी प्रतिक्रिया में आक्रोषित होने से बचना मेरे स्वास्थ्य के लिए जरूरी है। लेकिन अब मैंने सकारात्मक सोच अपनाते हुए तय कर लिया है। यदि कभी ऐसा मौका पडा तो मनोज की खैरियत जानने के लिए मैं सब से पहले जाऊंगा। मेरे ये विचार मनोज जान ले तो बेचारे पर क्या बीतेगी। सोचते हुए मैं मुस्कुराया। तभी मुझे ध्यान आया। अरे! मुरली भी तो आज मिलने आया था। और उसे तो मैंने खर्च के मद में सिर्फ पच्चीस हजार बताए हैं। साहित्यकारों वाले विशेष कोटे का खयाली हवाला देते हुए। अब आएगा मजा। मुरली और गिरधारी लाल जी तो मिलते रहते हैं। वाह! मैंने एक जोरदार ठहाका लगाया।

सुनकर पत्नी ने परेशानी भरा चेहरा लिए कमरे में झांका। सुबह उसके हाथ में हृदय रोग वाले एक लेख की अखबारी कतरन थी। जिसमें लिखा था, बाईपास के बाद किसी-किसी रोगी का मानसिक संतुलन गडबडा जाता है। साहित्यिक भाषा में पागलपन को मानसिक संतुलन गडबडाना कहते हैं। यह जानकारी उसे एक बार किसी संदर्भ  में जोर देते हुए मैंने ही दी थी। पत्नी की स्मरणशक्ति तेज है। यह याद रखते हुए मैं पुनः हंसा। पत्नी मेरे पास आयी। उसने भी मेरे सुर में सुर मिलाते हुए अपनी बत्तीसी दिखायी। तुम्हारे दांत पहले से ज्यादा पीले हो गये हैं! यह अप्रिय जानकारी देकर मैं उसे व्याकुल करने का सुख भोगना चाहता था। किंतु ऐसा कर नहीं सका। जाने कब, पागलपन से संबंधित किसी पुस्तक में पढा था या शायद नहीं भी पढा हो। किंतु मुझे लगा कि मैंने कहीं पढा है कि पागल को हंसते देख कर हमें भी उसका साथ देना चाहिए। इस सावधानी के साथ कि उसे कदापि ऐसा नहीं लगे कि उसकी हंसी उडायी जा रही है। अब मैं सचमुच गंभीर था। क्या पत्नी उसी लिहाज से हंसी में मेरा साथ दे रही है! मैंने तिलमिलाना चाहा। किंतु वाह रे विवशता। डॉक्टर के साथ-साथ आदरणीय परमानंदजी भी कडी चेतावनी दे चुके हैं। कि इस दौरान ब्रह्म्चारी रहने से भी ज्यादा जरूरी है अपने क्रोध पर नियंत्रण। षांत चित्त, प्रसन्न भाव से जितना लाभ होगा उससे कई गुणा हानि क्रोध करने से हो सकती है। मैं मूलतः स्वार्थी प्राणी हूं। हर हाल से लाभान्वित होने की चेष्टा रखना मेरे जीवन का मूल मंत्र है। मैंने तत्काल अपनी गंभीरता को ठहाके में बदलने की कलाबाजी दिखायी। मुझे बहुत अच्छा लगा। पत्नी मेरी बराबरी नहीं कर पाई।
वैसे मैं प्रगतिवादी व्यक्ति हूं। महिलाओं को समान अधिकार देने का पक्षधर। बल्कि कई क्षेत्रों में महिलाओं को पुरूषों से आगे बढते देख कर मुझे प्रसन्नता होती है। इसी बात पर मैं पत्नी से अक्सर विवाद करता रहता हूं। कि वह जमाने के साथ क्यों नहीं चलती। मुझ से आगे क्यों नहीं निकलती। पत्नी सदा मेरे इस उत्प्रेरक अभियान को परिहास मान लेती है। मेरी उच्च श्रेणी की चिंतशीलता से केवल अपना मनोरंजन करती है। सो उस पर झुंझलाते रहना मेरा अधिकार सा बन गया था। इधर मैं अपनी पत्नी से सख्त क्रोधित रहने लगा हूं। निरंतर विचार उठते हैं। मेरे हृदय रोग में पत्नी का पूरा हाथ है। यह चाहती तो शल्य चिकित्सा की नौबत नहीं आती। किंतु इसके लिए आवश्‍यक सावधानी पत्नी ने नहीं बरती। स्पष्ट कहूं तो इसकी लापरवाही से ही मुझे यह बीमारी भुगतनी पड रही है। असमंजस में रहता हूं। ऐसा पत्नी ने अनजाने में किया है अथवा जानबूझकर, सोच समझकर। कई जासूसी उपन्यासों में ऐसे विषम त्रिया चरित्र पाए जाते हैं। कम पढी-लिखी है, परंतु है समझदार, सलीकेवाली। चाहती तो मेरी अप्राकृतिक दिनचर्या को अनुशासित रख सकती थी। मेरी स्वाद लोलुप जीभ को अपनी सिद्ध पाक-कला द्वारा प्रोत्साहित नहीं करती। तो संभवतः मेरी यह दशा नहीं होती। विडंबना है कि मुझे इस पर नाराज होकर भी नाराज दिखना नहीं हैं। खुल्लमखुल्ला ऐसा भीषण आरोप लगाने की अमानवीयता मुझे स्वीकार नहीं। मेरे लिए यह कठिन परीक्षा की घडी है। पत्नी के प्रति व्यवहार-संतुलन रखते हुए मुझे अपने कोप-कर्म का निर्वाह करना है!
यह मेरी रणनीति है। पिछले पांच दिन से मैं पत्नी के पीछे पडा हुआ हूं। हाथ धोकर, कमर कसकर जैसे मुहावरे घिसे पिटे बासी लगते हैं। पत्नी पर मेरा यह मनोवैज्ञानिक दबाव इनकी तुलना में कई गुणा विकसित असर रखना है। वैसे पत्नी पर वह अपेक्षित पीड़ाकारी असर प्रकट नहीं हो रहा। संभव है यह उसकी अतिरिक्त दक्षता भरी रणनीति हो। ऐसी परिस्थिति में मुझे हताश, निराश हो जाना चाहिए। जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। यह हानि मुझे कदापि स्वीकार्य नहीं। मैं प्रफुल्लित दिखते हुए प्रहार किए जा रहा हूं।
गिरधारी लाल जी की श्रीमती जी का गुणगान मेरा अचूक अस्त्र है। पत्नी के समक्ष मैं निरंतर उनका बखान किए जा रहा हूं। वाह! धन्य हैं गिरधारी लाल जी, कि ऐसी धर्मपत्नी मिली उन्हें। जो उनके स्वास्थ्य की पोशक संरक्षक बनी हुई है। अपनी चेतना, सजगता के बल प्रताप से उन्होंने गिरधारी जी को 55 वर्ष की अवस्था में भी स्फूर्ति भरे युवक सा बना रखा है। न उन्हें रक्तचाप होने दिया न मधुमेह। हृदय रोग का तो प्रश्‍न ही नहीं। पूरी जागरूकता से उनके आहार-विहार पर ध्यान देती हैं। योगासन-प्राणायाम से लेकर सुपाच्य-सात्विक खानपान तक सारी जिम्मेदारी निभाती हैं। अन्यथा उनकी भी हालत मेरे जैसी हो जाती। 42 वर्ष में ही हृदय की शल्य चिकित्सा कराए बिस्तर पर पडा हूं। जब कि गिरधारी लाल जी ने हमारी तरह प्रेम विवाह नहीं किया था। तुम जरा पता लगाना। प्रेम विवाह नहीं होने के बावजूद उनकी श्रीमती जी के मन में उनके प्रति इतना लगाव, इतनी लगन कैसे पैदा हुई !
इसी तरह की कई बातें सहज शालीन भाव से कहता आ रहा हूं। बारंबार, लगातार, धुआंधार। सुनकर पत्नी पलट कर कुछ कहती नहीं। बस मधुरता पूर्वक मुस्कुरा देती है।  प्रत्युत्तर में मुझे भी मुस्कुराना पडता है। यह प्रक्रिया बडी पीडादायक साबित हो रही है। यह सोच कर तो आत्मपीडा और बढ़ जाती है। कि उसके कुछ कहने पर मेरे दिल को ठेस न लग जाए! यह चिंतन करते हुए उसकी चुप्पी कहीं मेरे प्रति सहानुभूति वश तो नहीं! कसमसाते हुए मुस्कुराता हूं।
‘‘आनंद पूर्वक विचारते हुए जरा बताओ तो! गिरधारी लाल जी की पत्नी तुम्हारे जैसी होती तो उन्हें कितनी अवस्था में हृदय रोग की शल्य चिकित्सा करानी पडती?‘‘ सौम्य मुस्कान के साथ पूछा गया यह प्रश्‍न पत्नी पर मेरा क्रूरतम प्रहार है। जिसका उत्तर पाने के लिए मैं बेहद उतावला हो रहा हूं। जवाब में पत्नी की मुस्कुराहट में सौम्यता और अधिक है। वह बोलने के लिए मुंह खोल रही थी। किंतु पहले उसे घर का दरवाजा खोलना पडा। सामने आत्मीय मुस्कान के साथ मुरली खडा है।
आखिर तुम से प्रेरणा लेकर उन्हें एक उपाय सूझा। लडकों के आगे हृदय रोगी बन गये। कहा, डॉक्टर ने षल्य चिकित्सा अनिवार्य बतायी है। लडके तत्काल तैयार हो गये। होशियारी दिखाते हुए बोले, अच्छा हुआ आपने अपनी बचत में से रूपये बहन के कोर्स पर खर्च नहीं किए! अब यह राशि शल्य चिकित्सा में काम आ जाएगी!
सच्चाई जानकर लडके खिसियाये, भुनभुनाए! किंतु गिरधारी जी ताल ठोक कर डटे रहे। बोले, आजकल 40-42 वर्ष की आयु में लोगों के लिए हृदय रोग की शल्य चिकित्सा सामान्य बात हो गई है। ऐसे में 55 साल का होने पर भी स्वस्थ-तन्दुरूस्त होना उनकी व्यक्तिगत उपलब्धि है। जो स्वस्थ रहने की उनकी जागरूकता से ही संभव हुई है। इसलिए बचत की इस रकम पर उनका विशेषाधिकार स्वयं सिद्ध है! जिसे अस्वीकार करना नैतिक अपराध है! इस तर्क के सामने लडके क्या कहते। इस विषय में पत्नी ने भी उनका समर्थन किया। इस तरह बात बन गई! मैं इसका श्रेय आपको देता हूं। बधाई स्वीकार करें!‘‘ मुरली ने कहते-कहते मेरी पीठ थपथपाई। उसकी प्रसन्नता मुझ पर हावी हो रही है। पत्नी की प्रसन्नता और अधिक है। जिसे प्रकट करते हुए वह कमरे से बाहर चली गई है। स्पष्ट है मुरली के स्वागत में चाय-पानी की व्यवस्था के लिए।
मुरली ने अपने दोनों हाथों से कोमलता के साथ मेरा हाथ थाम लिया है। वह मुझे स्नेह से निहारता हुआ मुस्कुरा रहा है। और मैं घूरते हुए उसके चेहरे पर उलाहने के भाव ढूंढने में असफल हो रहा हूं। शल्य चिकित्सा की खर्च राशि बताते हुए मैंने उसके साथ उपहास किया था। इस बात पर कोई नाराजगी नहीं, कोई शिकायत नहीं! आखिर क्या बात है। कहीं यह मेरे विरूद्ध कोई षड्यन्त्र तो नहीं रच रहा! या फिर मुझे मानसिक रोगी समझ कर मेरे प्रति सहानुभूति तो नहीं रख रहा! मैं पुनः कसमसाते हुए मुस्कुराता हूं। आशंकित हूं, कहीं पत्नी ने मुरली के सामने मेरे प्रश्‍न का बेबाक उत्तर दे दिया तो! और गिरधारी लाल जी ने यह क्या कर दिया। निर्णय नहीं कर पा रहा। मेरी रूग्णावस्था का सकारात्मक उपयोग किया है या मुझे करारी पटकनी दी है। क्या मुझे एक और शल्यचिकित्सा की आवश्यकता है ?

परिचय :
नाम  -प्रहलाद श्रीमाली
पता - 31/42,रघुनायकूलु स्ट्रीट,  पार्क टाउन, चेन्नई-600003
मो. 9445260463
ईमेल: prahaladshrimali@yahoo.co.in

( प्रस्तुति-बिजूका)
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टिप्पणियां:-

विनोद राही:-
कल की कहानी के मुकाबले कहानी अच्छी है| कुछेक शब्दों, वाक्यों को छोड़ दें तो विस्तार सही ढंग से दिया गया है| अखर नहीं रहा| वैसे भी वास्तविकता देखी जाए तो आजकल कहानी पर बहुत से प्रयोग हो रहे हैं| कुछेक कहानियां तो बिल्कुल निबंधात्मक  रूप में लिखी गई हैं या लिखी जा रही हैं| कहानीकार स्थापित हैं या प्रसिद्ध हैं इसलिए प्रफुल्लित मन से स्वीकार की जा रही हैं| परंतु नवोदितों के प्रयोग को अक्सर असफल कहकर अस्वीकार कर दिया जाता है|

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