27 अगस्त, 2016

कविता : सुषमा सिन्हा

समूह में आज पढ़िए समूह के ही एक साथी सुषमा सिन्हा की कुछ रचनाएँ ।
आप सभी के बेबाक विचारों की प्रतीक्षा रहेगी ।

साथी का नाम कल जानिए उनके परिचय के साथ ।

1. जीवन में प्रेम
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रेगिस्तान में ओस की बूँद
आँधियों में थरथराता दीया 
काली-अँधेरी रात का ध्रुवतारा
हिम्मत देता हुआ

अनजानी-अनचाही 
आवाजों के बीच 
ठहरी-सी एक आवाज
घने जंगल से गुजरती हुई 
पतली-सी एक राह

भागते-दौड़ते रास्ते पर 
मील का एक पत्थर 
सुकून देता हुआ

‘जीवन में प्रेम’
बस ऐसा ही तो है।।

2. विनाश
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सूरज उग रहा है ऐसे
कि तपने लगी है जमीन
जलने लगे है ख्वाब बेहिसाब
सुलगने लगा है संसार

चाँद निकल रहा चाँदनी के साथ
पर शीतलता इतनी
कि जमने लगा है आँखों का पानी
युवाओं की रगों में खून

बारिश भी इतनी
कि बहाए लिए जा रही है 
पैरों के नीचे की जमीन
और जमा पूँजी छत भी

रौशनी मिली भी तो ऐसी 
कि कड़कती रही बिजलियाँ
जलते रहे घर 
और छोटी-लंबी उम्र

हवाएँ साथ रहीं
पर सहलाती हुईं नहीं
सनसनाती हुई, उड़ाती रहीं धूल

बेबस हम चले जा रहे हैं
वक्त के इन थपेड़ों के बीच
जो कभी गर्म, कभी ठंढा
और कभी तेज इतना
कि लग रहा, उजड़ जाएगा जीवन।।

3. दुःख-सुख
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दुःख-सुख खड़े रहे हमेशा हमारे साथ
रात-दिन भी पड़े रहे हमारे पीछे
भूत और भविष्य 
दिखाते ही रहे आईना
और हम निरन्तर
भागते रहे वक्त के पीछे

दुःख मिला तो रो लिये
सुख मिला तो हँस लिये
रात मिली तो लौट गए घर
दिन मिला तो चल दिए कहीं
भूत मिला तो समझा लिया खुद को
भविष्य मिला तो सजा लिए सपने

हम जहाँ गए, ये सब गए हमारे साथ
हम जहाँ ठहरे, ये सब ठहरे हमारे साथ
हम सोए तो खड़े रहे सब हमारे सिरहाने
हम जागे तो सब दिखे फिर सामने
चले तो चल पड़े हमारे साथ-साथ
जबकि निकल गया वक्त
फिर हमसे बहुत आगे।।

4. कोमल-सा रिश्ता
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कोमल-सा एक रिश्ता 
अभी-अभी तो पनपा है 
मत दिखाओ उसे कठोर धरातल 
डर जाएगा, दरक जाएगा

प्यारा-सा एक रिश्ता 
अभी-अभी तो बँधा है
खुलने दो मन की सारी गाँठें 
खड़े होने दो सपनों को अपने पैरों पर 
उगने दो पंख उनके 
उड़ने दो आसमान की ऊँचाइयों पर

अपना-सा एक रिश्ता 
अभी-अभी तो शुरू किया है चलना 
चलने दो उसे अपनी रफ्तार में 
नाप लेने दो इस समाज की गहराई 
लम्बाई और चैड़ाई को 
गिरते, पड़ते, ठोकरें खाते 
समझते, संभलते सीख ही जाएँगे चलना

हर रिश्ते को जरूरी है सहेजा जाना
हर रिश्ते के लिए जरूरी है 
उसका पंख होना
हर रिश्ते के लिए जरूरी है 
उसकी अपनी जगह 
जहाँ वह पा सके इतनी मजबूती 
कि थक कर उतरे 
जब भी इस धरती पर 
तब टूटने से बचा रहे।।

5. अंत
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इस खत्म होने वाले संसार में
अभी-अभी एक नवजात की
चीखें सुनाई पड़ीं 
कि बीतने लगा है 
पल-पल, मिनट, घंटा
खत्म हाने लगा है समय 
जिसे बाँध रखा है 
उसने अपनी मुट्ठी में

बीज अँकुराये हैं अभी-अभी
नन्हे-नन्हे पौधे
जो बन सकते हैं
वक्त के साथ पेड़
जिन पर आ सकती हैं कलियाँ
खिल सकते हैं
रंग-बिरंगे फूल-फल 
कि तय हो गया
उनके मुरझाने, मिटने का समय
वजह चाहे जो भी हो  
समय निश्चित है खत्म हाने का

चैराहे पर एक कुतिया ने
दिए हैं जन्म पाँच-पाँच बच्चों को
जिन्होंने जन्म के साथ ही
शुरू कर दिया है चलना
समय सीमित है उनके पास भी

निरन्तरता की इस राह में सब कुछ
आने के साथ ही चल पड़ते हैं
जाने वाले रास्तों पर
लेकिन हमारे अंत तक
बचा रहता है समय
हमेशा हमारी मुट्ठी में ।

6.  इच्छा
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मैं लिखना चाहती हूँ
इस सुंदर दुनिया पर 
प्रकृति पर और इसके नियंत्रक पर
महाशक्तियों पर
जीवन पर, अच्छाइयों पर
किताबों पर, प्रेमियों पर

मैं नहीं लिखना चाहती
खुद की अपनी परिस्थितियों पर
इच्छाओं पर, भावनाओं पर, सपनों पर

मैं सोचना चाहती हूँ
दुनिया की राजनीति पर
आस-पास घट रहीं घटनाओं पर
धोखेबाजों, बेईमानों, हत्यारों पर

मैं नहीं सोचना चाहती
अपने अंदर हो रही छटपटाहट के बारे में
खुद को समझाने की प्रक्रिया पर,
सुंदर भविष्य की कल्पना में
वर्तमान से भागने के बारे में

पर शायद मेरा ‘मैं’ से भागना ही
इस दुनिया में शामिल होना है
और इस दुनिया की अच्छाइयों को
बचाए रखने की इच्छा 
जीवन की खूबसूरती को बचाए रखना है।।

7. असंभव 
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लोग कहते हैं 
तुम्हें जीना नहीं आता 
क्योंकि तुम्हें मालूम नहीं है 
बीच से निकल जाने का रास्ता

नहीं मालूम तुम्हें 
सच के साथ झूठ बोलने की कला 
सारी बातों के बीच
कुछ-कुछ छुपा लेने की अदा

नहीं मालूम तुम्हें कि होती है 
ईमानदारी के साथ बेईमानी 
विश्वास के साथ अविश्वास 
भरोसे के साथ धोखा 
यहाँ तक कि होता है 
जीने के साथ मरना भी 
और तो और.......

देते चले जाते हैं उदाहरण 
सिखाते हैं सलीका जीने का 
बताते हैं 
कि सिक्कों की तरह ही होते हैं 
हर बात के दो पहलू...

और मैं नि׃शब्द 
डूबती जाती हूँ अपने अंदर 
आँखें धुंधली, कान बहरे
सोचती हूँ-
ठीक है, होती होगी
वफा के साथ बेवफाई भी 
पर प्यार के साथ नफरत
.....….......... असंभव ।।

8. प्रकृति-पुरुष
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सुबह नजर गई थी एक खबर पर 
और दिन भर आँखें छलछलाती रहीं
मन विद्रोह पर उतारू पर किससे, कैसे, कहाँ
अंतर्मन चीखता रहा, मैं दर्द से भरती रही

आख़िरकार जब संभाल नहीं पाई खुद को
फ़ोन किया उसे, उसकी आवाज़ सुनते ही  
टुकड़े टुकड़े हो बिखर गई

परेशान-सा वह पूछता रहा- 
'क्या हुआ, कुछ बोलो तो....'
थोडा रुक कर उसने कहा- 
'अच्छा सुनो, एक काम करो
आँखे बंद करो और मेरी बाँहों में आ जाओ'
बात मान कर बच्चों की तरह
आँखें बंद कर समेट लिया खुद को-
'जानते हो, आज अख़बार में 
उसकी खबर थी
कह रहा था कोई
'अगर विरोध नहीं करती वह
तो मारी नहीं जाती.....।'

क्षण भर की ख़ामोशी के बाद चीख पड़ी मैं
'कैसी है यह दुनिया, कैसा समाज है
कैसी सभ्यता 
ऐसा कैसे कह सकता है कोई
ऐसा कैसे सोच सकता है कोई
क्या हम जानवर हैं 
क्या हम इंसान नहीं हैं
क्या हमारा कोई अस्तित्व नहीं है
क्या हम इस प्रकृति का हिस्सा नहीं हैं.....'

देर तक रोती रही, विफरती रही
चुपचाप सुनता रहा वह 
उस वक़्त दुनिया भर की औरतों का दर्द 
सिमट आया था मेरे सीने में
और मैं कर रही थी फरियाद
शायद किसी प्रकृति पुरुष (ईश्वर) से।।

9. मुनियाँ
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छोटी-सी मुनियाँ
खेला करती
लड़कों के ही सारे खेल
गोली, कंचे, गिल्ली-डंडे
पतंगें भी उड़ाती खूब ऊँचे
ढेर सारे सपनों के साथ

पड़ोस की चाचियाँ
शिकायत करतीं अम्मां से
बिगड़ रही है तुम्हारी बेटी
दिन-दुपहरिया घूमती रहती है
मुहल्ला भर के छोकरों के साथ
समझाती ऊँच-नीच

किसे पता वही मुनियाँ
लड़कों से ही कर-करके मुकाबला
जीत लेगी 
अपने हिस्से के सारे कंचे
गिल्ली-डंडे से मारते हुए 
पा लेगी एक मुकाम
और पतंगों के साथ-साथ 
पहुँच जाएगी एक ऊँचाई पर।।

10. कविता
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मैंने कभी नहीं लिखी कोई कविता
मैंने कभी नहीं लिखी किसी पर कविता

वह कविता ही थी
जो करवाती रही अंकित
मुझसे मेरे मन की व्यथा
मेरे दुःख, मेरे सुख को देती रही मूर्त रूप

वह कविता ही थी
जो पलती रही मेरी आँखों में
जगती रही मेरे साथ मेरी रातों में
रही मेरे साथ हर पल मेरे ख्यालों में

वह कविता ही थी
जो सुबह से शाम तक
संभालती रही मुझे
बताती रही इस दुनिया के बारे में
अच्छे और बुरे के बीच 
फर्क का एहसास कराती रही
पाने और खोने का अर्थ समझाती रही

वह कविता ही थी
जो बताती रही मुझे रास्तों के बारे में
चलते रहने और ठहर जाने के 
द्वंद को सुलझाती रही
आँसुओं के बीच मुस्कुराने की 
कला सिखलाती रही

वह कविता ही थी
जो जी लिया मैंने यह जीवन
वरना मेरी औकात क्या
कि लिखूं मैं कोई कविता
या कविता के बारे में।

परिचय:-

सुषमा  सिन्हा
शिक्षाः बी. ए. आॅनर्स (अर्थशास्त्र) फाईन आर्ट में डिप्लोमा

उपलब्धिः विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ शामिल, कुछ संकलनों में रचनाएँ शामिल, पंजाबी एवं उर्दू भाषा में संकलित कविताओं की किताब में रचनाएँ शामिल
               
‘‘मिट्टी का घर’’ कविता संग्रह 2004 में शिल्पायन दिल्ली से प्रकाशित

संप्रतिः  झारखंड वित्त सेवा में अधिकारी

मोबाइल न.- 9430154549
Email-
sushmasinha19@gmail.com

प्रस्तुति-बिजूका समूह
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टिप्पणियां:-

नीलिमा शर्मा:-
जिस भी ग्रुप में देखो स्त्री विमर्श की कविताएं छाई है   यहाँ अलग सी कविताये पढ़ कर अच्छा लगा ।   बधाई रचनाकार  को ।

डॉ सुधा त्रिवेदी:-
आदरणीय भाई श्री सत्यनारायण पटेल साहब।
आज आपने अच्छी कविताएँ लगाई हैं । कवि को बधाइयाँ प्रेषित करती हूँ ।बिजूका को साधुवाद।

भाई । आप नाम लगाएँ या न लगाएँ , हम जैसे लोगों को क्या ? हम तो ऐसे आँख के अंधे हैं जिन्हें केवल रचना दिखती है , नाम दिखता ही नहीं ।

राहुल शर्मा:-
एक बेहतर प्रयास। श्रद्धेय साथी की जो पहली कविता है 'जीवन में प्रेम' कुछ हद तक अपने संदेश को देने में सक्षम हो पायी है। जहाँ तक दूसरी कविता की बात है वह अपने अंतिम स्तवक में कमज़ोर जान पड़ती है।
तीसरी कविता, जिसका शीर्षक 'दु:ख-सुख' है वह एक कमज़ोर कविता है ख़ासकर यह पंक्ति जो इस कविता को कमज़ोर करती है -
'भविष्य मिला तो सजा लिए सपने।'
भविष्य, काल का वह खंड है जिसे कोई नहीं जानता। हां, उसे बेहतर बनाने के प्रयास प्रत्येक मनुष्य द्वारा किया जाता है। अतः यदि हमें भविष्य मिल जाए तो एक बड़ा परिवर्तन घटित हो जाएगा।
कुल मिलाकर यह कि पोस्टेड कवि साथी को और अधिक पढ़ने और मेहनत की आवश्यकता है।

पूनम शुक्ला:-
सुषमा जी की कविताओं में लय है और भाषा में प्रवाह है। कविताओं में एक स्त्री की व्यथा भी झलकती है पर पहली कविता इच्छा में जैसा वे कहती हैं कि मैं खुद की इच्छाओं और सपनों पर नही लिखना चाहती इससे मैं सहमत नहीं हूँ। सबसे पहले तो खुद को ही पहचानना होता है फिर समाज को फिर देश को और फिर पूरी दुनिया को । अगर हमें कुछ अच्छा करना है तो पहले खुद से ही शुरुआत करनी होगी।

नीलिमा शर्मा:-
सुषमा जी आप इतनी व्यस्त जिंदगी के बावजूद साहित्य साधना के लिये वक़्त निकाल लेती हैं । यह काबिल ए तारीफ़ है ।  आपको पहले भी अन्य ग्रुप्स में पढ़ा हैं फ़ेसबुक पर भी आपको पढ़ा हैं।समग्र रूप से कह सकती हूं आपकी रचनाये भाव  पूर्ण   अभियक्ति  से सराबोर करती है तो कही प्रश्न उठाकर   आवाहन करती हैं ।  आपके उत्तरोत्तर  साहित्यिक भविष्य के लिये शुभकामनाये

प्रदीप मिश्रा:-
सुषमा जी सूक्ष्म संवेदनाओं की व्यापक फ्लाक्वाली इन कविताओं के लिए बहुत बधाई।

सुषमा सिन्हा:-
सभी रचनाकार मित्रों का आभार कि आपने मेरी कविताएँ पढ़ीं। मित्रों को कविताएँ अच्छी लगीं। यह जानकर मुझे बहुत ख़ुशी हुई। बहुत शुक्रिया आप सबों का

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