07 सितंबर, 2016

कविता : विवेक निराला

आज आपके लिए प्रस्तुत हैं कुछ लघु कविताएँ इनका आनंद उठाएँ अपनी प्रतिक्रियाओं से अवश्य अवगत कराएँ
  

कविता :

1. मैं और तुम
*********
मैं जो एक
टूटा हुआ तारा
मैं जो एक
बुझा हुआ दीप।

तुम्हारे सीने पर
रखा एक भारी पत्थर
तुम्हारी आत्मा के सलिल में
जमी हुयी काई।

मैं जो तुम्हारा
खण्डित वैभव
तुम्हारा भग्न ऐश्वर्य।

तुम जो मुझसे निस्संग
मेरी आख़िरी हार हो
तुम जो
मेरा नष्ट हो चुका संसार हो।

2. हत्या
*****
एक नायक की हत्या थी यह
जो खुद भी हत्यारा था।

हत्यारे ही नायक थे इस वक़्त
और नायकों के साथ
लोगों की गहरी सहानुभूति थी।

हत्यारों की अंतर्कलह थी
हत्याओं का अन्तहीन सिलसिला
हर हत्यारे की हत्या के बाद
थोड़ी ख़ामोशी
थोड़ी अकुलाहट
थोड़ी अशान्ति

और अन्त में जी उठता था
एक दूसरा हत्यारा
मारे जाने के लिए।

3. मरण
****
वे सब अपने-अपने गाँवों से शहर आ गए थे
शहरों में प्रदूषण था इसलिए
वे बार-बार अंतःकरण को झाड़-पोंछ रहे थे।

वे अनुसरण से त्रस्त थे और अनुकरण से व्यथित इसलिए
पंक्तिबद्ध हो कर इसके खिलाफ
पॉवर हॉउस में पंजीकरण करा रहे थे।

वे निर्मल वातावरण के आग्रही थे
उनके आचरण पर कई खुफिया निगाहें थीं
वे बारहा अपनी नीतियों से मात खाते थे और भाषा से लात
क्योंकि उनके पास कोई व्याकरण नहीं था।

कई चरणों में अपनी आत्मा और स्मृतियों में बसे देहात को
उजाड़ने के बाद वे
अपनी काया में निरावरण थे बिल्कुल अशरण।
सबसे तकलीफ़देह वह क्षण था
जिसमें निश्चित था उनका मरण
और इस समस्या का अब तक निराकरण नहीं था।

4. भाषा
******
मेरी पीठ पर टिकी
एक नन्हीं सी लड़की
मेरी गर्दन में
अपने हाथ डाले हुए

जितना सीख कर आती है
उतना मुझे सिखाती है।

उतने में ही अपना
सब कुछ कह जाती है।

5. पासवर्ड
*********
मेरे पिता के पिता के पिता के पास
कोई संपत्ति नहीं थी।
मेरे पिता के पिता को अपने पिता का
वारिस अपने को सिद्ध करने के लिए भी
मुक़द्दमा लड़ना पड़ा था।

मेरे पिता के पिता के पास
एक हारमोनियम था
जिसके स्वर उसकी निजी संपत्ति थे।
मेरे पिता के पास उनकी निजी नौकरी थी
उस नौकरी के निजी सुख-दुःख थे।

मेरी भी निजता अनन्त
अपने निर्णयों के साथ।
इस पूरी निजी परम्परा में मैंने
सामाजिकता का एक लम्बा पासवर्ड डाल रखा है।

6. कहानियाँ
*********
इन कहानियों में
घटनाएं हैं, चरित्र हैं
और कुछ चित्र हैं।

संवाद कुछ विचित्र हैं
लेखक परस्पर मित्र हैं।

कोई नायक नहीं
कोई इस लायक नहीं।

इन कहानियों में
नालायक देश-काल है
सचमुच, बुरा हाल है।

7. ईश्वर
*****
(अपने गुरु सत्यप्रकाश मिश्र जी के लिए)

लोग उसे ईश्वर कहते थे ।
वह सर्वशक्तिमान हो सकता था
झूठा और मक्कार
मूक को वाचाल करने वाला
पुराण-प्रसिद्ध, प्राचीन ।

वह अगम, अगोचर और अचूक
एक निश्छ्ल और निर्मल हँसी को
ख़तरनाक चुप्पी में बद्ल सकता है ।

मैं घॄणा करता हूँ
जो फटकार कर सच बोलने
वाली आवाज़ घोंट देता है ।

ऎसी वाहियात सत्ता को
अभी मैं लत्ता करता हूँ ।

3. मेरा कुछ नहीं
************
मेरे हाथ मेरे नहीं
उन पर नियोक्ता
का अधिकार है।

मेरे पाँव मेरे नहीं
उन पर सफ़र लिखा है
जैसे सड़क किनारे का वह पत्थर
भरवारी-40 किमी।

तब तो मेरा हृदय भी मेरा नहीं।

फिर तो कुछ भी नहीं मेरा
मेरा कुछ भी नहीं
वह ललाट भी नहीं
जिस पर गुलामी लिखा है
और प्रतिलिपि से
नत्थी है मेरी आत्मा।

8. तबला
******
किसी की खाल है
जो खींच कर मढ़ दी गयी है
मढ़ी हुयी है मृतक
की जीवन्त भाषा।

मृतक के परिजनों 
का विलाप कस गया है
इस खाल के साथ।

वादक की फूँक से नहीं
खाल के मालिक की
आखीरी सांस से
बज रही है वह बाँसुरी
जो संगत पर है।

धा-धा-धिन-धा
और तिरकिट
के पीछे
एक विषादी स्वर है।
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परिचय: 
नाम: विवेक निराला
जन्म:    30 जून 1974
शिक्षा:    एम. ए. , डी. फिल.(इलाहाबाद          विश्वविद्यालय)
रचनाएँ: 'एक बिम्ब है यह' (2005) के बाद दूसरा कविता संग्रह,'ध्रुवतारा जल में' राजकमल प्रकाशन से शीघ्र प्रकाश्य। 'निराला-साहित्य में दलित चेतना' और 'निराला-साहित्य में प्रतिरोध के स्वर' (आलोचना) तथा
'सम्पूर्ण बाल रचनाएँ: सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' नामक पुस्तक का सम्पादन।
   फिलवक़्त कौशाम्बी जनपद के एक महाविद्यालय में विभागाध्यक्ष।

संपर्क: निराला-निवास, 265 बख़्शी खुर्द, दारागंज, इलाहाबाद -211006
viveknirala@gmail. com

( प्रस्तुति-बिजूका)
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टिप्पणियाँ:-

मनीषा जैन :-
विवेक निराला जी के स्वागत। सभी कविताएं अच्छी लगी। भाषा कविता थोड़े से शब्दों में बहुत कुछ कहती है।

शोभा सिंह:-
धन्यवाद बिजूका . आपने ग्वेट्माला  के  क्रांति कारी  कवि  से  परिचय  कराया.  उनकी  कवितायें  संघर्षों  से  तपी हुई  दिल  को  छूती  हुई  है

प्रदीप मिश्रा:-
वाह विवेक जी का स्वागत। अभी हाल ही में दस्तक पर इनकी बेहतरीन कवितायेँ पढ़ने को मिलीं।

पवन शेखावत:-
बहुत अच्छी कविताएं हैं... मरण, भाषा और पासवर्ड बहुत पसंद आईं...पारिवारिक, सामाजिक ताने बाने से उपजी ये कविताएं कम शब्दों सब कुछ कह रही हैं... शहरीकरण की दौड़ के परिणाम 'मरण' कविता में बखूबी उपजे हैं...
वे बारहा अपनी नीतियों से मात खाते थे
और भाषा से लात
क्योंकि उनके पास कोई व्याकरण नहीं  था
खूब....

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