03 दिसंबर, 2016

विवेक निराला की कविताएं

नमस्कार साथियो,

आज प्रस्तुत है समूह के साथी विवेक निराला की कुछ कविताएँ
इन्हें पढ़कर अपने विचार अवश्य रखें ।

साथी का नाम कल जानिए।

1.आदिवासिनी

मैं जंगली लड़की हूँ
तुम लोगों की
कब्जे़ की लड़ाई में
बार-बार मात खाती हुई ।

सबका मालिक एक-
है आज भी
अपनी सारी अर्थच्छवियों में।
जब उस एक के खिलाफ़
हम सम्मिलित खड़े होते हैं
तो तुम हमें नक्सली कहते हो।
तुम एकल न्याय के नाम पर
सामूहिक नरसंहार करते हो।

तुम्हें हमारे जंगल चाहिए
तुम्हें हमारी ज़मीन चाहिए
तुम अपनी सभ्य भाषा में
हमारे शरीर का ही अनुवाद करते हो
चाहे वह जीवित हो या मृत।

अपनी सभ्यता में
हमारी कला, हमारी संस्कृति,
हमारी देह और हमारे देश पर

कब्ज़ा करने वालों से
मैं कहती हूँ -
"जान देबो, ज़मीन देबो ना"
नफ़रत की तमीज़ को
अपनी बोली से
तुम्हारी भाषा में रूपान्तरित करते हुए

2.उस स्त्री के भीतर की स्त्री के बारे में

उस स्त्री के भीतर
एक घना जंगल था
जिसे काटा - उजाड़ा जाना तय था
उस स्त्री के भीतर
एक समूचा पर्वत था
जिसे समतल
कर दिया जाना था
उस स्त्री के भीतर
एक नदी थी
बाढ़ की अनन्त
संभावनाओं वाली
जिसे बांध दिया जाना था
उस स्त्री के भीतर
एक दूसरी देह थी
जिसे यातना देते हुए
क्षत -विक्षत किया जाना था
किन्तु उस स्त्री के भीतर
एक और स्त्री थी
जिसका कोई कुछ
नहीं बिगाड़ सकता था ।

3.निषाद-कन्या

मैं मछलियां बेचती हूँ
जल से ही शुरू हुआ जीवन
पृथ्वी पर, मेरा भी।

आदिकाल से ही अपने
देह की मत्स्यगंध लिए
महकती, डोलती
तुम्हारी वेगवती
कल्लोलिनी भाषा के प्रवाह में
मछलियां पकड़ती
अपने को खोलती।

मेरा ध्रुवतारा जल में है
मेरा चांद, मेरा सूरज

जल में ही दिपता है
मेरे लिए आरक्षित नहीं कुछ
मछली भर मेरी निजता है।

अपने गलफरों से सिर्फ़ तुम्हारे लिए
सांसे लेती थक गई हॅूं।
अपने घर लौट जाओ ऋषि!
तुम्हारे आत्मज संकल्पबद्ध हैं
और तुम्हारे पास
न अपनी जर्जर देह का कोई
विकल्प है, न परम्परा का।
ऋषि! लौट जाओ अपनी
अमरत्व और मोक्ष की
मोहक कामनाओं में।
मुझे तो इसी जल में
फिर-फिर जन्म लेना है।

4. नागरिकता

मक़बूल फ़िदा हुसैन के लिए

दीवार पर एक आकृति जैसी थी
उसमें कुछ रँग जैसे थे
कुछ रँग उसमें नहीं थे।

उसमें कुछ था और
कुछ नहीं था
बिल्कुल उसके सर्जक की तरह।

उस पर जो तितली बैठी थी
वह भी कुछ अधूरी-सी थी।
तितली का कोई रँग न था वहाँ
वह भी दीवार जैसी थी
और दीवार अपनी ज़गह पर नहीं थी।

इस तरह एक कलाकृति
अपने चित्रकार के साथ अपने होने
और न होने के मध्य
अपने लिए एक देश ढूँढ़ रही थी।

5.महाप्राण निराला से

बाबा! 
थोड़ा तो इंतज़ार किया होता
न ज्यादा सही
कम से कम
मेरे पैदा होने तक
मैं देख लेता
तुम्हारा दिव्य उन्नत माथ
तुम्हारा शब्द- शिल्पी हाथ
उँगलियाँ पकड़कर
चलना सिखा दिया होता
यों गोद में उठा लिया होता
तो सँवर जाता मैं
बड़े जल्दबाज निकले बाबा! थोड़ा रुक जाते
कम से कम मेरे पैदा होने तक
तो मैं जान पाता
तुम्हारा दुःख
कि तुम्हारी एक आँख में
तैरता हुआ
कोई लाल भभूका
अंगार
और दूसरी आँख में
पानी की
चमकदार बूंद क्यों है? 
तुम्हारा सुमिरन करते हुए
मैं कहीं अन्दर तक
उजास से भर जाता हूँ
बाबा!

6.प्रतीक

भाषा में देश था
देश में धर्म
धर्म में नायक थे
नायकों में राम
राम में भय था
भय का पार्टी से लेकर
भेड़िये तक कई प्रतीक थे
प्रतीकों में प्रेम नहीं था
प्रेम का प्रतीक कोई नहीं था ।

प्रस्तुति-बिजूका समूह
--------------------------------------------------------------------
टिप्पणियां:-

प्रदीप कान्त:-
एक स्त्री के भीतर
एक और स्त्री
जिसका कोइ
कुछ नहीं बिगाड़ सकता था

और वही स्त्री जीवन है भाई
बढ़िया

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें