18 दिसंबर, 2016

मशहूर केन्याई उपन्यासकार न्गुगी वा थ्योंगो के उपन्यास विज़ार्ड ऑफ द क्रो के एक अंश का अनुवाद अनुवाद: रेयाज़ उल हक़

नमस्कार साथियो,

आइये पढ़ते हैं मशहूर केन्याई उपन्यासकार न्गुगी वा थ्योंगो के उपन्यास विज़ार्ड ऑफ द क्रो के एक अंश का अनुवाद

अनुवाद: रेयाज़ उल हक़

आबुरीरिया के आज़ाद गणतंत्र के दूसरे सुल्तान की अजीबोगरीब बीमारी के बारे में कई सारे कयास लगाए जाते थे, लेकिन उनमें पांच कयास ऐसे थे जो अक्सर लोगों की ज़ुबान पर रहते थे.

पहले कयास के मुताबिक दावा किया जाता था कि उनकी बीमारी किसी वक्त उमड़ने वाले गुस्से का नतीजा है; और वो अपनी सेहत पर इसके खतरों से इस कदर वाकिफ थे कि वो इससे निजात पाने के लिए बस यही कर सकते थे कि वे हर खाने के बाद डकारें लें, कभी कभी एक से दस तक गिनती गिनें और कभी कभी ज़ोर ज़ोर से का के की को कू का जाप करें. कोई नहीं बता सकता था कि वो खास तौर से यही आवाज़ें क्यों निकालते थे. फिर भी उन्होंने मान लिया था कि सुल्तान की बात में दम था. जिस तरह कब्ज़ के शिकार इंसान के पेट में खलबली मचाने वाली हवा को निकालना ज़रूरी होता है ताकि पेट का बोझ हल्का हो जाए, एक इंसान के भीतर के गुस्से को भी निकालना ज़रूरी होता है ताकि दिल का बोझ हल्का हो सके. लेकिन इस सुल्तान का गुस्सा जाने का नाम नहीं लेता था और यह उसके भीतर खदबदाता रहा जब तक यह उनके दिल को खा नहीं गया. माना जाता है कि  आबुरीरिया की यह कहावत यहीं से पैदा हुई कि गुस्सा, आग से भी ज्यादा खतरनाक है क्योंकि यह एक सुल्तान की रूह की तक को खा गई.

लेकिन इस गुस्से अपना जाल कब बिछाया? जब राष्ट्रीय नज़ारे पर पहली बार सांप दिखाई दिए थे? जब धरती के कटोरे का पानी कड़वा हो गया था? या जब सुल्तान अमेरिका गए और ग्लोबल नेटवर्क न्यूज़ के मशहूर कार्यक्रम मीट द ग्लोबल माइटी में इंटरव्यू दे पाने में नाकाम रहे थे? कहा जाता है कि जब उन्हें बताया गया कि उन्हें एक मिनट के लिए भी टीवी पर नहीं दिखाया जा सकेगा, तो उन्हें अपने कानों पर यकीन ही नहीं हुआ. वे यह तक नहीं समझ पाए कि वे लोग किस चीज़ के बारे में बात कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें मालूम था कि अपने मुल्क में वे हमेशा ही टीवी पर होते थे; उनका एक एक पल कैमरे में दर्ज होता था: चाहे वो खा रहे हों, पाखाना कर रहे हों, छींक रहे हों या अपनी नाक साफ कर रहे हों. यहां तक कि उनकी जम्हाइयां भी खबरें थीं, क्योंकि वे ऊब, थकान, भूख या प्यास, चाहे जिस भी वजह से आ रही हों, उनके बाद कोई न कोई राष्ट्रीय तमाशा अक्सर ही होता था: उनके दुश्मनों को सरेआम चौराहों पर चाबुक लगाया जाता, पूरे के पूरे गांव मिट्टी में मिला दिए जाते थे या तीर-धनुष वाले दस्ते लोगों को गोद-गोद कर मार डालते. उनकी लाशें सियारों और गिद्धों के लिए खुले में छोड़ दी जातीं.

ऐसा कहा जाता है कि वो आबुरीरिया के परिवारों में झगड़े पैदा करने और दुश्मनी सुलगाते रहने के माहिर थे, क्योंकि उन्हें दुख भरे नजारों से ही सुकून मिलता था और वे चैन की नींद सो पाते थे. लेकिन अब ऐसा लगता था कि कोई भी चीज उनके गुस्से को बुझा नहीं पाएगी. 

चाहे उसकी आंच कितनी ही गहरी हो, क्या गुस्सा एक रहस्यमय बीमारी की वजह बन सकता है जिसके आगे तर्क और दवाओं के सभी उस्तादों ने हार मान ली हो?

प्रस्तुति-बिजूका समूह
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टिप्पणियाँ:-

संजीव:-
इनकी एक बहुत अच्छी किताब है...
"औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्ति" सबको अवश्य पढना चाहिये। दिमाग की तमाम बंद खिडकियाँ खुल जायेंगी।

दीपक मिश्रा:-
व्यंग की तीखी धार से न्यस्त यह छोटा सा हिस्सा ही काफी है, लेखक की क्षमता बताने को ।

रणेन्द्र कुमार:-
कभी तुलसीदास ने अपनी प्रिय पात्र मंदोदरी से कहलवाया था-
तव कुल कमल बिपिन दुखदाई।
सीता  सीत  निसा  सम  आई।।
-हे दशमुख! तुम्हारे कुल कमल की बगिया के लिए सीता पाले की रात बनकर आई है।
वह दशमुख अब बहुमुख हो गया है। ये घरैतिन अगर चाह लें तो कमल पर फिर पाला पड़ जाए।

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