05 नवंबर, 2017

रेखा चमोली की कविताएं

रेखा चमोली: जोशियाड़ा उत्तरकाशी की रेखा चमोली के पास यहां देने के लिए संक्षिप्त से भी संक्षिप्त परिचय है। बस.. इतना है कि प्राथमिक विद्यालय में पढ़ाती है। कुछ लेख लिखे हैं। कविताएं कही हैं। कविताओं का एक संकल- पेड़ बनी स्त्री, नाम से है। रेखा चमोली की पास लम्बा-चौड़ा परिचय नहीं है, मगर कविताएं ख़ूब हैं।
रेखा चमोली


बन्दर भगाती औरतें, अन्न से भरे खेत, भूली हुई बेटियां, स्कूटर पर मां और साहब, भाई जैसी तमाम कविताएं ही रेखा चमोली का परिचय है। बच्चों के खेलने के मैदान की चिंता ही परिचय है। वैसे भी बिजूका के मित्र ब्लॉग पर परिचय नहीं, कविताएं पढ़ने ही आते हैं। तो चलिए कविताओं से ही मुखातिब हुआ जाए।                                                                                    


कविताएं

 बन्दर भगाती औरतें                              
                                   
इन दिनों खेतों में लहलहा रही हैं तैयार फसलें
गेहूॅ जौ सरसों राडू प्याज मटर धनिया लहसुन
इठला रहा है आलू
अपनी नयी ताजी बढती पत्तियों पर
नए श्रंगार के साथ पेडों ने फैला ली हैं बाहें
थोडा ज्यादा मेहनत करनी पड रही है
चारा पत्ती वाले पेडों को
अभी कुछ कम हरी दिखती है देह
पर बहुत जल्द ये पूरे सजे धजे दिखेंगे

इन दिनों भरी पूरी मॉ सी विनम्र और स्वाभिमानी दिखती है पृथ्वी
इन्हीं खेतों से
बारी-बारी समूह बना
बंदर भगा रही हैं औरतें
बंदर जो अपनी पूरी टोली के साथ आ धमकते हैं
अपने नन्हें बच्चों को सीने से चिपकाए
भूखे-प्यासे
इनकी भूख-प्यास का मुलाजा किया तो
अपने बच्चों की थाली रह सकती है खाली
इसीलिए तेज धूप में सतर्क
लाठियां लिए खडी हैं औरतें
मानों अपने बच्चों की भूख के हर दुश्मन को मार गिराएंगी।
००

अन्न से भरे खेत

लहलहा रहे हैं खेत अन्न से भरे पूरे
गेहॅू के साथ मटर की फलियां
सरसों का धानी विस्तार
धनिया, राई ,पालक, लहसुन ,प्याज की अलग अलग क्यारियों में
नटखट बच्चे सा खडा कोई घुसपैठिया पौधा
दूर से ताक रहा अपने साथियों को

काश इतनी हल्की हो पाऊं मैं
दौड कर निकल जाऊं इस ओर से उस छोर
बिना एक पत्ती या पंखुडी को नुकसान पहुॅचाए
बन जाऊं ढेर सारा पानी
हर पौधे की जड तक पहुॅचुं
उसके रेशे-रेशे में घुल जाऊं
पत्तियों के रोशनदानों से बाहर झॉकू
या फिर बन जाअॅु हवा बासंती
हर पौधे का हाल पूछॅू
घूमूॅ दिन भर  इधर उधर इठलाऊं
चमकीले उजाले से भरा घाम हो जाऊं
दाने-दाने को तपाऊं
आहा ! ये अन्न से भरे खेत
इनमें से कोई भी एक मेरा नहीं
इनके लहलहाने में भी मेरा कोई श्रम नहीं
पर इन्हें देखकर यहीं रह जाने को कर रहा मन
लग रही अपनी रसोई भरी-पूरी।
००
सत्यनारायण पटेल

विदाई की सीख

सुनों बिटिया
हमारे पास कुछ नहीं सिवाय इज्जत के
यही कमायी है उम्र भर की
किसी का बुरा न किया
किसी का हक नहीं मारा
सबसे बना के रखी
तभी खा पा रहें हैं दो रोटी
बेटी तो होती ही पराया धन
तुम्हारे पैदा होने के क्षण से ही
तुम्हारी विदाई की सोच
एक फॉस सी चुभती रही भीतर
ज्यादा तेज लडकियां बिगाड देती हैं कुल को
कलह होता है
इसीलिए धरती माता कहा जाता बेटियों को
सात बुद्धि होती है लडकी के पास
संभाल लेती है सब कुछ
देखो , सुनो कहॉ उठ कर चल दीं
मुॅह ना फुलाओ
तुम्हारे भले को कह रहे हैं
मान जाओ बिटिया
कुछ नहीं हमारे पास सिवाय इज्जत के
भरोषा है तुम पर
कुछ ऊॅच नींच हो जाए तो संभाल लोगी
सब कितनी तारीफ करते हैं
गऊ समान बिटिया है तुम्हारी
जा रही हो दूसरे घर
याद रखना बिटिया
चिता के साथ ही जाए तुम्हारी रुलाई
तुम्हारे दर्द तुम्हारे साथ ही जलें
और जो धुऑ उठे वो भी उजला ही हो
इसीलिए
कभी उफ न करना बिटिया
लाज रख लेना हमारी ।
००



भूली हुई बेटियॉ

बेटियॉ जो मानती सबका कहा
घर वालों की ऑखों से देखती सारे रंग
उनकी पसंद-नापसंद से तय करती
खिडकी का खुलना
छत में टहलना
भाई की लम्बी उम्र ,घर की खुशहाली के लिए रखती व्रत
अनदेखा करती अपने हिस्से आए
थोडा कम मीठे, ज्यादा नमक को
होती घर भर की लाडली
नाते रिश्तेदार ,पडोसी तारीफंे करते नहीं थकते

सबकी हों ऐसी बेटियॉ
सबकी हों ऐसी बेटियॉ

धन्य-धन्य ऐसे मॉ बाप
धन्य-धन्य ऐसी बेटियॉ

कुल की लाज बेटियॉ
ऊॅचा माथा, ऊॅची नाक बेटियॉ

बेटियॉ जो अपने लिए खुद बनाना चाहती अपनी दुनियॉ
उसमें बसने वाले लोग ,अच्छा बुरा

अपनी पसंद नापसंद का करती इजहार
सवाल पूछतीं बार -बार
झिडकियॉ खाती हर बार
लाडली नहीं रह पाती
खटकती हैं घर भर की अॅाखों में
इन्हें देख खो जाती मॉ के चेहरे की मुसकान
पिता भरते लम्बी सॉसे
भाई-चाचा देखते संदेह से
फिर नहीं बन पाती वो
घर के किसी काम ,योजना ,त्यौहार का जींवत हिस्सा

बाहरी लोगों के सामने
घर वाले भले ही बतियॉए इनसे
अक्सर खामोशी ही इनके हिस्से आती
इनकी शादी भी किसी निबटाऊ काम जैसी होती
मायके आने पर जहॉ
लाडली बिटिया रखवाती अपनी मनपसंद चीजें
इनके सामने रोया जाता दुखडा अभावों का
इनको न कोई गले लगाता
न ही रखता सिर पर हाथ
ये रूठ जाएं तो रूठी ही रह जाती है

धीरे -धीरे भुला दी जाती हैं।
००



अवधेश वाजपेई

 निर्वासन

सबसे पहले मेरी हॅसी गुम हुयी
जो तुम्हें बहुत प्रिय थी
तुम्हें पता भी न चला

फिर मेरा चेहरा मुरझाने लगा
रंग फीेका पड गया
तुमने परवाह न की

मेरे हाथ खुरदुरे होते गए दिन प्रतिदिन
तुम्हें कुछ महसूस न हुआ

मेरा चुस्त मजबूत शरीर पीडा से भर गया
तुम्हें समय नहीं था एक पल का भी

मैंने शिकायतें की , रूठी , चिढी
तुमने कहा नाटक करती है

मेरी व्यस्ताएं बढती गयीं
तुम्हारी तटस्थता के साथ

अब मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं
कोई दुख या परेशानी नहीं
पर इस बीच तुम
मेरे मन से निर्वासित हो गए।



सुनो बिटिया

बिटिया , अजब गजब होता है मां का मन
दुनिया का सबसे दयालु और महत्वाकांक्षी मन
कितनी तो इच्छांएं , सपने , अपेक्षाएं  भरी होती हैं इसमें
रात-दिन ,पल-पल रंग बदलता है
ट्रे्फिक संभालती किसी युवती को देखती हूं तो उसमें
तुम्हारा चेहरा दिखायी देता है
किसी अच्छे डाक्टर से मिलती हूं तो
सफेद कोट पर तुम्हारा नाम पढती हूं
किसी अफसर को अकडकर बात करते हुए देखती हूं तो मन करता है
झटपट तुम ऐसी अफसर बन जाओ
जो लोगों की समस्याएं भले न सुलझाए
पर उनको कमतर का अहसास न कराए
और भी जाने क्या-क्या आता है मन में
वो सब जो मैं नहीं कर पायी
मुझे नहीं मिल पाया
सब तुम्हारे लिए चाहती हूं
पर तुम कभी ये मत सोचना कि
तुम ऐसा करोगी तो मुझे अच्छा लगेगा
ऐसा नहीं करोगी तो मेरा मान रखोगी
तुम सब कुछ करना जो चाहती हो
वही बनना जिसे बनने में तुम्हें खुशी हो
तुम्हें निराश होने की कोई जरूरत नहीं
बहुत सारे खांचों में अनफिट हो तुम
बहुत से समूहों से तुम्हें बाहर कर दिया जाएगा
तुम्हारी खूबियों को कमजोरी बता तुम्हें भीड में खींचने का प्रयास होगा
तुम्हें असफल घोषित किया जाएगा
फिर भी मुझे उम्मीद है तुम हमेषा प्रश्नों और नयी राहों की ओर बढोगी
क्योंकि चीजों को बिना समझे करना और
आंख मूंदकर नायकों के पीछे जाने से अच्छा है
अपनी खुद की पगडंडिया तलाशना
बिटिया , तुम कुछ ऐसा बनना कि
तुम सच का साथ देने में झिझको नहीं,
और कोई तुम्हारा बुरा करने से पहले हजार बार सोचे।

अवधेश वाजपेई

 साहब

साहब आएंगे लडखडाते हुए
दरवाजे ना ना करते हुए भी जोर से जा भिडेंगें दीवारों से
दिन भर कसे जूते
पलंग के नीचे कहीं अपनी थकान उतारेंगें
दीवारों पर पडे दाग और ज्यादा गहरे नजर आएंगे
साहब उठेंगें चाय पीने के लिए
थूकेगें होंठों में दबाया विष
डपटकर पूछेंगे बच्चों से क्या हो रहा है भई ?
पत्नी की बांह पकड
हम तो गुलाम हैं इनके ,कहेंगे
और  पसर जाएंगे
कुछ देर बाद उनकी पत्नी
उन्हें प्यार से हिला डुलाकर उठाएगी
साहब खाना खाएंगे
आस्तीन से मुंह पोंछ पत्नी की ओर बाहें फैलाएंगे
उसका उदास चेहरा देख
दूर हट कमीनी कह लात जमाएंगे
और ढल जाएंगे
उनकी पत्नी और बच्चे अपने काम समेट सुबह का इंतजार करेंगे।
००


टॉफी का छिलका

सफर में बेटे ने दी खट्टी मीठी टॉफी खाने को
जी मचला रहा था
वरना अब मिठाई , टॉफी खाना बहुत कम हो गया है
बचपन में मन करता था
खूब सारे पैसे पास होते तो मन भर मिठाई खाती
अब जब मिठाई खाने लायक पैसे हो गये तो
मन नहीं करता
मिठाइयों में भी अब मिठास की जगह जहर भर रहा है
टॉफी खाने के बाद कुरते की जेब में डाल दिया छिलका
सुंदर चमकीले छिलके ने रास्ते भर असहज रखा
खिडकी से बाहर दिखते पेड-पौधे देखते रहे मुझे संशय से
कहीं उनकी जडों पर न फेंक दूं मैं ये अमर विष।
००


स्कूटर पर मां

भीड भाड वाली सडक पर
तेज रफतार से चला जा रहा है स्कूटर
पीछे बंदर के बच्चे सी चिपक कर बैठी है मां
एक उम्र में इस मां ने मुठ्ठी भर हरियाली के लिए
लांघें हैं नंगे पैर ,ऊंचे ऊंचे पहाड
कभी बर्फ में जमें तो कभी धूप से तपे
छोटे बडे डंगार ,गाड-गदने खेल-खेल में नापे हैं
कितना भी ऊंचा और नाजुक रहा हो पेड
मजबूत लता सी पहुंच जाती मां सबसे आखिरी डाल पर
खडिक हो या तुन ,पराल लगाने में एक्सपर्ट माना जाता था मां को
अकेले ही मुंह अंधेरे उठ
एक गागर धान कूट देती सबके जगने तक
चार बोरी का खेत रोप देती शाम तक

कभी मां का परिचित कोई घर आ जाए तो
नए-नए किस्से निकल आते हैं
बहुत किसांण थी तुम्हारी मां और बहादुर भी
अरे ! उस दिन कैसे मार गिराया इसने छह हाथ लंबा सांप बिना डरे
अभी भी देखो कैसे पचास किलो गेंहू की बोरी छत में पहुंचा देती है
तुम आजकल की लडकियां तो बस देखने भर की हो

मां को भी लगता दिनभर क्या करती है छोटी बहू घर में
दो बच्चे तो संभाले नहीं जाते
और बडी, दफतर से आकर ऐसी थकी दिखती है
मानों पहाड तोडकर आयी हो ,
मां अक्सर कहती ,एक हम थे और एक तुम हो
किसी काम के नहीं हो तुम
बच्चे कभी मुस्कुराते कहते मां सुनाओ ना कोई किस्सा
जिसमें धूम मचा दी थी तुमने ,कभी चिढ़ जाते

आज बरामदे में गिर पडी मां
बहुत मनाने पर डाक्टर के पास जाने को हुयी राजी
रास्ते भर डरती रही
कस कर पकडे रही बहू को
चारों ओर पीं पीं पौं पौं का शोर था
दूसरे से आगे निकलने की होड़ थी
लंबी काली सडक पर दौडती तेज लाइटें थीं
अचानक लगते ब्रेकों पर
बहू की पीठ पर कसते मां के हाथ थे
अकेली ही मां को डाक्टर के पास ले जाकर
पैर में प्लास्टर बंधवाकर सावधानी से घर लाती है बहू
घर लौटकर अपनी इस रोमांचक यात्रा के बारे में बताते हुए
सबके सामने बहू को गले लगाकर कहती है मां
तू भी कुछ कम नहीं है रे।
००

भाई

छोटा रहा होगा कोई चार एक साल का
और बडा छह या सात का
छुट्टी के समय किसी बात पर नाराज हो गया छोटा
और छुडा लिया बडे का हाथ
जबरन पकड लिया बडे ने हाथ तो
छोटा रोते रोते मारने लगा
चले जा रहे हैं दोनों
छोटा हाथ छुडाने की कोशिश में है
बडा चल रहा है उसका हाथ थामें
उसे आसपास के बच्चों के धक्के
और सामने से आती स्कूटी से बचाते हुए।
००
अवधेश वाजपेई

खेलने के लिए

कितनी जगह है इस दुनिया में
दीवारें बनाने के लिए
पंडाल लगाने के लिए
यु़द्ध वाहनों को खडा करने के लिए
युद्ध परिक्षणों के लिए
मॉल , दुकानों , होटलों , बाजारों के लिए
संकरी से संकरी सडक पर गाडियां खडी करने के लिए
कूडा फेंकने के लिए तो मनमानी जगहें हैं
बस नहीं हैं तो कोई जगह बच्चों के खेलने के लिए।
००


क्यों न हो इनसे प्रेम

एक नन्हां पौधा अपनी नयी कोमल पत्ती को हवा में लहराता है
अपने नन्हें से वजूद को स्वीकारता सूरज से ऑखें लडाता है
तेज हवा के झौकों का सामना करता है डटकर
बारिशें उस पर टूट पडती हैं
वो अपने हिस्से का ताप , नमी , सांसें ले
अगले दिन थोडा और बडा थोडा और चमकीला दिखता है

मेंढक के बच्चे सीना ताने निकल पडे हैं दुनिया देखने
तमाम खतरों के बाबजूद उत्साह से भरेे
यह जानते हुए भी कि किसी सुरक्षित तालाब किनारे नहीं है उनका घर
सडक के व्यस्त कोने पर टूटी नाली के पास है
इनकी मां ने भी इन्हें जाने दिया है यह कहकर कि
जाओ और खुद को आजमाओ

मेरे अखरोट तोडते ही जाने कैसे पता लग जाता है चींटियों को
मेरी गाडी का हार्न सुन बाहर निकलता है किसी कोने में दुबककर सोया कुत्ता
मैं हटाती हॅू मकडी का जाला एक जगह से
दूसरी सुबह उसे नयी जगह बना पाती हूॅ

ऐसी ही बहुत सी चीजें हैं आसपास
उकसाती, खुश करतीं , मन में उमंगें जगातीं
मुझे क्यों न हो इनसे प्रेम।
००


परेशानी

परेशानी यह नहीं कि
तुम बात को समझ नहीं रहे
बल्कि यह है
कि तुम बात को समझने के बावजूद
नासमझी का ढोंग कर रहे हो
और सही बात दूसरों को पता न चले
अपनी सारी ताकत
इसी में लगा रहे हो

परेशानी यह है कि
मैं यह बात लोगों को समझा नहीं पा रही हूॅ
पर कब तक ?
००

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सत्यनारायण पटेल

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