25 नवंबर, 2017

दामिनी की कविताएं



दामिनी: ' माहवारी ' कविता से चर्चा में आयी युवा कवियत्री की अब तक तीन किताबें प्रकाशित हो चुकी है। दामिनी की पहली किताब ' मादा ही नहीं, मनुष्य भी ' में स्त्री विमर्श केन्द्र में है। इनकी दूसरी किताब ' समय से परे सरोकार ' समसामयिक लेखों का संकलन है। तीसरी किताब ' ताल ठोक के ' उनकी कविताओं की पहली किताब है। दामिनी का कविता कहने का अंदाज़ इनके कविता संग्रह के शीर्षक से समझा जा सकता है। वे ताल ठोकने और हुंकार भरने वाले अंदाज़ में कविताएं कहती हैं। दामिनी की काव्य भाषा पारंपरिक काव्य भाषा जैसी नहीं है। उनके कहने में मुझे क़िस्सा भी नज़र आता है और कविता की लय भी महसूस होती है।

दामिनी का आलेख ' वितान' सातवीं कक्षा की पाठ्यपुस्तक  में भी  सम्मिलित किया गया है।

आप ‘हिन्द पॉकेट बुक्स’, ‘मेरी संगिनी’ तथा डायमंड प्रकाशन की पत्रिका ‘गृहलक्ष्मी’ में क्रमशः सहायक संपादक व वरिष्ठ सहायक संपादक के रूप में अपनी सेवाएं दे चुकी हैं।
कुछ वर्षों तक आकाशवाणी दिल्ली से भी जुड़ी रहीं है। आपकी रचनाएं
समय-समय पर नवभारत टाइम्स, राष्ट्रीय सहारा, जनसत्ता, हिंदुस्तान, आउटलुक, नया ज्ञानोदय, हंस, अलाव और संवदिया आदि समाचार पत्र- पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। आप डी.डी. नेशनल, जी.सलाम पर प्रसारित कई काव्यपाठों में हिस्सा ले चुकी हैं।
 विश्व पुस्तक मेला व साहित्य अकादमी द्वारा आयोजित काव्य पाठों और देश  के कई भागों में आयोजित हुए  काव्यपाठों में भाग लेती रही हैं। बहरहाल स्वतंत्र रूप से लेखन, संपादन व अनुवाद आदि करती हैं। आज बिजूका के मित्रों के समक्ष दामिनी की कविताएं प्रस्तुत हैं।



कविताएं


एक


माहवारी
...............
आज मेरी माहवारी का
दूसरा दिन है।
पैरों में चलने की ताक़त नहीं है,
जांघों में जैसे पत्थर की सिल भरी है।
पेट की अंतड़ियां
दर्द से खिंची हुई हैं।
इस दर्द से उठती रूलाई
जबड़ों की सख़्ती में भिंची हुई है।
कल जब मैं उस दुकान में
‘व्हीस्पर’ पैड का नाम ले फुसफुसाई थी,
सारे लोगों की जमी हुई नजरों के बीच,
दुकानदार ने काली थैली में लपेट
मुझे ‘वो’ चीज लगभग छिपाते हुए पकड़ाई थी।
आज तो पूरा बदन ही
दर्द से ऐंठा जाता है।
ऑफिस में कुर्सी पर देर तलक भी
बैठा नहीं जाता है।
क्या करूं कि हर महीने के
इस पांच दिवसीय झंझट में,
छुट्टी ले के भी तो
लेटा नहीं जाता है।
मेरा सहयोगी कनखियों से मुझे देख,
बार-बार मुस्कुराता है,
बात करता है दूसरों से,
पर घुमा-फिरा के मुझे ही
निशाना बनाता है।
मैं अपने काम में दक्ष हूं।
पर कल से दर्द की वजह से पस्त हूं।
अचानक मेरा बॉस मुझे केबिन में बुलवाता है,
कल के अधूरे काम पर डांट पिलाता है।
काम में चुस्ती बरतने का
देते हुए सुझाव,
मेरे पच्चीस दिनों का लगातार
ओवरटाइम भूल जाता है।
अचानक उसकी निगाह,
मेरे चेहरे के पीलेपन, थकान
और शरीर की सुस्ती-कमजोरी पर जाती है,
और मेरी स्थिति शायद उसे
व्हीसपर के देखे किसी ऐड की याद दिलाती है।
अपने स्वर की सख्ती को अस्सी प्रतिशत दबाकर,
कहता है, ‘‘काम को कर लेना,
दो-चार दिन में दिल लगाकर।’’
केबिन के बाहर जाते
मेरे मन में तेजी से असहजता की
एक लहर उमड़ आई थी।
नहीं, यह चिंता नहीं थी
पीछे कुर्ते पर कोई ‘धब्बा’
उभर आने की।
यहां राहत थी
अस्सी रुपये में खरीदे आठ पैड से
‘हैव ए हैप्पी पीरियड’ जुटाने की।
मैं असहज थी क्योंकि
मेरी पीठ पर अब तक, उसकी निगाहें गढ़ी थीं,
और कानों में हल्की-सी
खिलखिलाहट पड़ी थी
‘‘इन औरतों का बराबरी का
झंडा नहीं झुकता है
जबकि हर महीने
अपना शरीर ही नहीं संभलता है।
शुक्र है हम मर्द इनके
ये ‘नाज-नखरे’ सह लेते हैं
और हंसकर इन औरतों को
बराबरी करने के मौके देते हैं।’’
ओ पुरुषो!
मैं क्या करूं
तुम्हारी इस सोच पर,
कैसे हैरानी ना जताऊं?
और ना ही समझ पाती हूं
कि कैसे तुम्हें समझाऊं!
मैं आज जो रक्त-मांस
सेनेटरी नैपकिन या नालियों में बहाती हूं,
उसी मांस-लोथड़े से कभी वक्त आने पर,
तुम्हारे वजूद के लिए,
‘कच्चा माल’ जुटाती हूं।
और इसी माहवारी के दर्द से
मैं वो अभ्यास पाती हूं,
जब अपनी जान पर खेल
तुम्हें दुनिया में लाती हूं।
इसलिए अरे ओ मदो!
ना हंसो मुझ पर कि जब मैं
इस दर्द से छटपटाती हूं,
क्योंकि इसी माहवारी की बदौलत मैं तुम्हें
‘भ्रूण’ से इंसान बनाती हूं।
...........

गूगल से


दो

इज्जत
..............
यह बात इतनी खास भी नहीं
मगर इतनी आम भी नहीं,
बताती हूं आपको
यह किस्सा-ए-मुख्तसर
आपने भी देखा होगा ये अक्सर
सड़क के किनारे या झाड़ियों-पेड़ तले मुंह किए या
किसी दीवार की तरफ चेहरा छिपाए
बहुत से मर्द
करते रहते हैं
लघु शंकाओं के दीर्घ निवारण।
कभी बेचारे तन्हा खड़े हो जाते हैं,
कभी दो-तीन मिलकर
पेंच-से-पेंच लड़ाते हैं,
क्या पुरुषों की इज्जत नहीं होती?
बीच-चौराहे से
मौहल्ले-चौपाल तक
भरे बाजार से लेकर
अपने घर-ससुराल तक
जब देखो ‘वहां’ खुजाते रहते हैं,
क्या यह इस तरह से बार-बार
अपने पुरुषत्व का
भरोसा जुटाते रहते हैं?
और झिझकते भी नहीं!
क्या पुरुषों की इज्जत नहीं होती?
हम औरतों की लघुशंकाएं
बस शंकाएं बनी रह जाती हैं
अक्सर आसानी से नहीं मिलता
कोई ‘सुलभ’ ठीया, कोई मुकाम
और सब्र बांधे हो जाती है
सुबह से शाम, क्योंकि
सब कहते हैं
औरतों की इज्जत होती है।
अगर हम जींस पहनें
तो किसी कॉलेज में,
बैन लगवा लेती हैं,
स्कर्ट-स्लीव्लेस में
‘आइटम’, ‘माल’
कहला लेती हैं,
नाइट शिफ्ट से लौटें तो
कुल्टा बन जाती हैं,
इस घर से उस घर तक की
पगड़ी का मान जुटाती हैं,
कर लें अगर
प्यार या मनमानी कभी
तो बीच चौराहे-चौपाल
बेसूत कर दी जाती हैं।
चलो, आपने समझाया
और हमने समझा
कि सारी मर्यादाएं और मान
हम ही से होती हैं और
इनके ठींकरें भी
हमीं ढोती हैं, पर
क्या पुरुषों की इज्जत
वाकई नहीं होती?
................

तीन


मां
.......
मानती हूं कि किसी ने मेरी कोख में
खलबली नहीं मचाई,
ये भी माना कि दूध की नदियां
मेरी छातियों ने नहीं बहाई,
सच है, किसी के रोने से
मेरी नींद नहीं अचकचाई,
मैं सोई हूं सदा सूखे बिछौने पे
किसी ने मेरी चादर नहीं भिगाई,
ये सब भी है कुबुल मुझे कि
मैंने किसी के लिए लोरी नहीं गाई,
किसी के शुरुआती कदमों को
ऊंगली भी नहीं थमाई,
मगर, पूछना चाहती हूं मैं ये सवाल,
क्या यही सब बातें हैं मां होने का प्रमाण?
भला कब नहीं थी मुझमें ममता?
कब नहीं थी मैं मां?
हां, मैं तब भी मां थी,
जब सुलाती-जगाती, दुलारती-लताड़ती
और खिलाती-पिलाती थी अपनी गुड़िया को,
कम भावभीनी नहीं थी मेरे लिए
उसकी शादी और विदाई।
मैं तब भी मां थी,
जब अम्मा की गोद में था मुन्ना,
और अपने से दो बरस छोटी मुन्नी के लिए,
मैंने ही थी मां जैसी गोद जुटाई,
मैं तब भी मां थी,
जब रूठे भाई को,
मैंने लाड़-मुनहार से रोटी खिलाई ,
मैं अपनी मां के लिए भी,
मां बनी हूं तब,
जब बिखरे घर की,
मैंने जिम्मेदारी उठाई।
समेटकर अपनी विधवा मां के
बिखरे वजूद को अपनी बांहों में
मां की ही तरह,
मैंने उसके लिए सुरक्षा की छत जुटाई।
बताओ, कहां नहीं दी
तुमको मुझमें मां दिखाई?
नहीं कहा मैंने कभी कि
मेरे भींचे होठों में सैकड़ों लोरियां
हजारों परी-कथाएं खामोश हैं,
मैंने ये भी नहीं बताया कभी कि
जो दूध मैने छातियों में सूख जाने दिया,
वो आंखों में अब भी छलछलाता है,
मेरी कोख में जो बंजर सूख गया,
वो सिर्फ उम्र का एक गुजरता पल था,
ममता तो बिखर गई है मेरे सारे वजूद में।
आ जाए कोई भी,
किलकारियां मारता या भरता रुलाई,
मुझमें पा जाएगा
मां जैसी ही परछाईं,
फिर भी आप कहते हैं
तो मान लेती हूं,
कि बस मां जैसी हूं,
मैं मां नहीं हूं,
चलो ये क्या कम है,
अगर मेरी कोख किसी को
दुनिया में नहीं लाई
तो किसी जिंदगी की पहली सांस को ही,
सड़क किनारे की झाड़ियों में,
मौत की नींद भी नहीं सुलाई।
नहीं भरा किसी अनाथालय का
एक और पालना मैंने,
ना ही जिंदगी की वो लावारिस सौगात
मंदिर की सीढ़ियों पर चढ़ाई।
कोई माने, ना माने,
क्या फर्क पड़ता है मुझे।
मैं जानती हूं कि ममता की खुशबू
किस कदर है
मेरे कुंवारे वजूद में समाई।
-----
अवधेश वाजपेई


चार

गद्दार कुत्ते

आवारा कुत्ते खतरनाक बड़े होते हैं
पालतू कुत्ते के दांत नहीं होते हैं
दुम होती है,
दुम टांगों के बीच दबी होती है
दरअसल पालतू कुत्ते की
धुरी ही दुम होती है,
वो दुम हिलाते हैं
और उसी हिलती दुम की
रोटी खाते हैं,
आवारा कुत्ते दुम हिलाना नहीं
गुर्राना जानते हैं,
जब उनमें भूख जागती है,
वो भूख अपना हर हक मांगती है
और हर भूख का निवाला
सिर्फ रोटी नहीं होती है,
वो निवाला घर होता है,
खेत होता है, छप्पर होता है,
उस भूख की तृप्ति,
कुचला नहीं, उठा हुआ सर होता है,
इन हकों की आवाज
उन्हें आवारा घोषित करवा देती है
और ये घोषणा उन्हें
ये सबक सिखा देती है
कि मांग के हक नहीं,
भीख मिला करती है
इसीलिए पालतू कुत्तों की दुम
निरंतर हिला करती है,
यही रूप व्यवस्था  को भी भाता है,
सो उन्हें हर वक्त चुपड़ा निवाला
बिना नागा मिल जाता है,
व्यवस्था उनसे
तलवे चटवाती है
और बीच-बीच में
उन्हें भी सहलाती है,
आवारा कुत्ते उन्हें डराते हैं,
वो पट्टे भी नहीं बंधवाते हैं,
इसलिए चल रही हैं कोशिशें
कि इन आवारा कुत्तों को
खतरनाक घोषित कर दो
और इनके जिस्म में
गोलियां भर दो,
अपनी सत्ता वो
ऐसे ही बचाएंगे,
चुपड़े निवालों के लालच में
हर उठती आवाज को
पट्टा पहनाएंगे,
हक मांगती हर आवाज का
घोंट देंगे गला
और पालतुओं से सिर्फ
तलवे चटवाएंगे,
सिर्फ पालतू कुत्ते ही
मिसाल होंगे वफादारी की,
आवारा कुत्ते सजा पाएंगे
थोपी हुई गद्दारी की
जमाना इन्हें नहीं अपनाएगा
पर इनके नाम से जरूर थर्राएगा,
हो जाओ सावधान
सत्ता और व्यवस्था के ठेकेदारो
कि जब ये आवारा कुत्ते
अपने जबड़ों से
लार नहीं लहू टपकाएंगे
तब ओ सत्ताधीश
वो तुम्हारी सत्ता की
नींव हिला जाएंगे
और इस नींव क
हर ईंट चबा जाएंगे।
.....................


पांच


जद्दोजेहद

मेरे बचपन ने काठ के हाथी-घोड़े
नहीं मांगे थे,
वक़्त की सवारी गांठना सीखने में
छिलवाए है घुटने मैंने,
मैंने गुड़ियों के मंडप
नहीं सजाये कभी,
खुद को किसी बाज़ार की गुडिया
बनने से बचाने को
किये हैं हाथ ज़ख़्मी,
मैं नहीं जानती,
आसीस देते हाथ कैसे लगते हैं,
मैं दिखा सकती हूँ,
पीठ पर सरकने को बेचेन कई हाथों पर
अपने दांतों का पैनापन,
मुझे नहीं मालूम ,
घुटी सिसकियाँ क्या होती हैं,
खूंखार गुर्राहटों को अपने हलक में पाला है मैंने,
मेरे तीखे पंजों ने दूर रक्खा है,
सच्चे रिश्तों का झूठ,
अपने भीतर के जानवर को.
दिन-रात जगाया है मैंने,
तब कहीं जा के,
इंसा बन के
जिंदा रहने का हक पाया है मैंने............
............................


अवधेश वाजपेई


छः

एक औरत, दूसरी औरत



ओ शहरी औरत!
तुम मुझे हैरानी से क्यों देख रही हो?
हां,
मैंने भवें नहीं नुचवाई है,
वैक्स भी नहीं कराई हैं,
मेरे चेहरे पर ब्लीच की दमक नहीं है
फेशियल की चमक भी नहीं है
फिर भी स्त्री तो मैं भी हूं
आज की स्त्री।
तुम मुझे हैरानी से देख रही हो
देहाती-गंवार समझ
मैं मजबूत हूं तुमसे कई गुना,
क्योंकि मैं झेल सकती हूं धूप की तपिश
बिना सनस्क्रीन के
और मैं करियाऊंगी भी नहीं
लाल-तांबई रंगों की धमक उठेगी मुझसे।
मैं ईंट-गारा ढोती
या खेतों में फसल बोती
मिलूंगी कहीं तुम्हें,
या कहीं पीठ पर बच्चा और
सिर पर गट्ठा ढोते पाओगी तुम मुझे।
मैं मज़बूत हूं तुमसे कई गुना,
क्योंकि मैं रात-बिरात भी
निकल पड़ती हूं अकेले,
बिना आदमखोरों या मादाखोरों के डर के।
मुझे मर्दोंं से डर नहीं लगता है
मेरा कांधा रोज उनके कांधे से भिड़ता है।
मैं लो वेस्ट, स्लीवलैस या बैकलैस तो नहीं जानती,
पर शहरों में भी मैं तुम्हें
किसी उठती इमारत की बुनियाद तले
धोती या लहंगा लापरवाही से खोंसे दिख जाऊंगी।
आओ जंगलों में तो
मेरे आंचल का फेंटा ही मेरी चोली पाओगी।
मैं तुम्हारी तरह शिक्षा के संकोच से
इंच-भर नहीं मुस्कराऊंगी
मारूंगी पुट्ठे पर हाथ और
ज़ोर से ठट्ठा लगा खिलखिलाऊंगी,
हैरान हो तो हो जाओ मुझे देख
क्योंकि जिस वक़्त तुम अपने सवालों की तलाश में
अपने अस्तित्व को खंगालती भटक जाओगी,
मुझ अनपढ़ की बेबाक दुनिया में ही
आज की औरत की सच्ची परिभाषा गढ़ी हुई पाओगी।
...............


सात

अबॉर्शन
...............
अभी तो तुम्हारे आने का
आभास-भर हुआ था
अभी तो मेरी कोख को तुमने
छुआ-भर था
कि सब जान गए,
तुम्हारे वजूद की आहट
पहचान गए,
नहीं, तुम्हारा वजूद
नहीं है कुबुल
लड़कियों का जन्म होता है
सेक्स की भूल,
ये भूल इस परिवार में
कोई नहीं अपनाएगा।
कल मुझे अस्पताल
ले जाया जाएगा
मेरी जाग्रति को
एनेस्थीसिया सुंघाया जाएगा,
मैं भी नहीं करूंगी प्रतिकार
अनसुनी कर दूंगी तुम्हारी
अनसुनी पुकार,
डॉक्टर डालेगी मेरी योनि में
लोहे के औज़ार
उन के स्पर्श से तुम
मेरी कोख में
घबरा के सिमट जाओगी।
शायद किसी अनचीन्ही आवाज़ में
मुझे चीत्कार कर बुलाओगी,
पर अपने नन्हे-नरम
हाथ, पांव, गर्दन, सीने को
उन औज़ारों की कांट-छांट से
बचा नहीं पाओगी,
क्योंकि लेने लगे हैं वो आकार,
ओ कन्या!
इस दुनिया में आज भी
तुम नहीं हो स्वीकार।
तुम्हारे वजूद के टुकड़ों को
नालियों में बहा आऊंगी
और इस तरह मैं भी
लड़की जनने के संकट से
छुटकारा पा जाऊंगी,
वरना इस दुनिया में मैं तुम्हें
किस-किस से बचाऊंगी।
अगर बचा सकी अपना ही वजूद,
तभी तो क्रांति लाऊंगी,
मिट जाएगी मेरी पीढ़ी शायद
करते-करते प्रयास,
तब जाकर कहीं मैं इस दुनिया को
तुम्हारे लायक कर पाऊंगी
पर अभी तो ओ बिटिया!
तुम्हें मैं,
जनम नहीं दे पाऊंगी,
जनम नहीं दे पाऊंगी,
जनम नहीं दे पाऊंगी,
..............


रमेश आनंद

आठ

चेतावनी

हे सभ्य समाज के
व्यंग्य बाणो!
तुम्हें मेरा शत्-शत् प्रणाम
कोटि-कोटि धन्यवाद,
आखिर तुम मेरे
श्रद्धेय हो
पूजनीय हो
प्रेरणा हो,
तुम्हीं ने धकेला है मुझे
साधारणता से
असाधारणता के मार्ग पर।
तुम्हीं ने छीना है मुझसे
मेरा संकोच, मेरी लज्जा
मेरा भय, मेरी सज्जा,
तुम ही ने किया है निर्माण
मुझ ही को तोड़कर
मुझ ही से मेरे
प्रस्तर व्यक्तित्व का
तुम्हीं ने प्रदान की है मुझे
दृढ़ इच्छाशक्ति।
आशा और निराशा
पाने और खो जाने के
भय से छुटकारा,
घनघोर अंधेरों से
केवल और केवल
आशा की ओर
सत्य की ओर
सफलता की ओर
इच्छित की ओर
बढ़ते जाने का साहस।
तुम्हें शत्-शत् प्रणाम
कोटि-कोटि धन्यवाद
आख़िर तुम मेरे
श्रद्धेय हो
पूजनीय हो
प्रेरणा हो, परंतु
हे सभ्य समाज के
व्यंग्य बाणो, सावधान!
तुम कोई भी अवसर
मुझे तोड़ने का
झिंझोड़ने का
रूलाने का, सताने का
चूक ना जाना,
भरपूर करो वार,
और वार पे वार
और करो इंतज़ार
मेरे संपूर्ण प्रस्तर होने का
क्योंकि, तब तक
तुमसे टूटते-टूटते
मैं तुम्हें तोड़ने योग्य हो जाऊंगी।
--------

नौ

ताल ठोक के
........................
आज फिर तुमने मेरा बलात्कार कर दिया
और मान लिया कि
तुमने मेरा अस्तित्व मिटा दिया है
क्या सचमुच?
तुम्हें लगता है कि तुम्हारी इस हरकत पर
मुझे रोना चाहिए,
पर देखो, देखो
मेरी हंसी है कि
रोके नहीं रुक रही है।
मैं हंस रही हूं व्यवस्था पर
उसी व्यवस्था से उपजी
तुम्हारी मानसिकता पर,
मेरे कपड़ों के चिथड़े उड़ा
तुम्हें क्या लगा
कि तुमने मुझे भी तार-तार कर दिया है!
मैं भी नंगी हो गई हूं!
वैसे, मेरी नग्नता का प्रमाण ही है
तुम्हारी देह, तुम्हारा अस्तित्व
फिर क्या, क्यों देखना चाहते हो
मुझे बार-बार नंगा?
शायद मेरे अस्तित्व की गहनता
तुम्हारे सिर के ऊपर से गुजर जाती है
इसीलिए उस गहनता को
तुम मेरी योनि में
सरिये, मोमबत्ती, बोतलें डालकर नापना चाहते हो।
फिर भी नाकाम ही होते हो
मुझे समझने में,
तभी क्यों नहीं नाप लिया था तुमने
इस असीमता को
जब तुम खुद इसी योनि से
गुजरकर जनमने आए थे?
तुम तब भी मुझे
समझ नहीं पाए थे।
अपनी हताशा से उपजी तिलमिलाहट में,
भर देते हो मेरी योनि में मिर्ची पाउडर!
फिर भी नाकामयाब ही होते हो
मुझे जलाने में।
इसी झल्लाहट में
मेरे शरीर को
काटकर, नोंचकर वीभत्स कर देते हो
फिर भी नाकामयाब होते हो
मेरी आत्मा को घायल कर पाने में,
तुम कितने शरीरों को रौंदकर
मेरा अस्तित्व मिटाने चले हो?
मेरा अस्तित्व मेरे शरीर से परे है,
मैं तुमसे मिटी नहीं
मैंने तुमको मिटाया है।
यकीन नहीं होता तो देखो,
अब मैं तुमसे छलनी होकर भी
ताल-तलैया, कुआं-बावड़ी
ढूंढ़ने की बजाय
पुलिस स्टेशन ढूंढ़कर
एफ.आई.आर. दर्ज कराती हूं।
तुम्हारे चेहरे की पहचान कर
सजा देने को सबूत जुटवाती हूं।
अब आओ, आओ
कि ताल ठोककर
मैं तुम्हें चुनौती देती हूं,
करो मेरा बलात्कार फिर से
और देखो मुझे धूल झाड़कर
वीभत्स-लहूलुहान शरीर से ही सही
फिर से खड़ा होते।
मैं अब भी तुम्हें
गली-कूचों, बाजारों में नजर आऊंगी
चौके-चूल्हे, ऑफिस, मीडिया
सत्ता के गलियारों में नज़र आऊंगी
अब सुनो!
ताल ठोककर मैं देती हूं तुम्हें चेतावनी
कि सुधर जाओ।
मुझे रौंदने के सपने देखने से
बाज आ जाओ,
वरना मैं तुम्हारे होश ठिकाने लगा दूंगी,
मर्द से बना दूंगी भू्रण
और जैसा कि करते आए हो
तुम मेरे साथ
मैं भी गर्भ में ही
तुम्हारा अस्तित्व मिटा दूंगी,
या फिर भू्रण से बना दूंगी अंडाणु
और माहवारी के जरिये
बजबजाती नालियों में बहा दूंगी।
छोड़ दो कोशिशें
मुझे लहूलुहान करने की
अपने लिंग की तलवार से।
बरसों खौला है मेरा रक्त
मेरी शिराओं में,
मेरे संस्कारों की दरार से
अब तुम्हारी बारी है,
बचो-बचो!
रक्तबीज बने मेरे नए अवतार से।
........................

दस


प्रेम कविता की मौत पर

जब मैं प्रेम कविताएं लिखती हूं
तुम कहते हो मुझमें दर्द नहीं ह,ै
जब मैं दर्द को नंगा करती हूं
तुम कहते हो मुझ में शर्म नहीं है,
जब मैं शर्म से बोझिल पलकें
उठा तक नहीं पाती हूँ,
तुम कहते हो मुझे अभी जमाना देखना है
जब मैं जमाने को देखकर
तुम्हें दुनिया दिखाती हूं,
तुम कहते हो
मुझे प्रेम करने की जरूरत है,
पर मेरी शर्म से झुकी पलकें
जो तुमने जबर्दस्ती उठवाईं
खुली आँखों में जो तुमने
अपनी नंगी सच्चाइयां घुसाईं
वो देखती हैं सड़क पर जन्मते
जन्मकर मरते किसी इंसान के बीज को
वो ठिठक जाती हैं,
बलात्कार से उधड़े शरीर पर,
वो देखती हैं सबका पेट पालने वाले
भूख से बिलबिलाते मरते किसान को,
भूख की कीमत पर आबरू का
सौदा करवाते किसी धनवान को,
ढाबे पर चाय बांट-बांट बुढ़ाते
किसी बचपन को,
अपने हक की आवाज से
अपराधी की श्रेणी में आते किसी नक्सल को,
ये कड़वी सच्चाइयां हैं परत-दर-परत
नहीं है इनका कोई समाधान, कोई हद,
मुझे अब फूल-पत्ती, चुंबन-आलिंगन
नदियां-सागर, इंद्रधनुष-बादल
नजर नहीं आते हैं,
सिर्फ खामोश चीखें और दर्द ही
मेरे कान तक पहुंच पाते हैं,
फिर भी सुना तो यही है
दुनिया गोल है
और घूम भी रही है अपनी धुरी पर निरंतर
मैं इंतजार में हूं शायद
कभी पहुंच ही जाऊं उस बिंदु पर दोबारा
जब मैं फिर लिख पाऊँ प्रेम कविताएं,
पर तब ना कहना
कि मुझमें दर्द नहीं रहता है,
देख सको तो देखो
मुझमें अब दर्द का लावा बहता है,
अब मैं शरमाऊंगी भी नहीं
तुम्हें ही शर्मसार कर दूंगी,
क्योंकि मैं अब जान गई हूं
तुम्हारा भी राज कि
कपड़ों के नीचे सबकी तरह
तुम्हारा जिस्म भी नंगा रहता है,
तुम्हारी जबान कुछ कहती है
तुम्हारा जिस्म कुछ और कहता है,
इसीलिए तो देखो
तुम्हारी दोगली समझदारी का ठीकरा
अब मेरे ठेंगे पे रहता है।
............................

निज़ार अली बद्र


ग्यारह

चांद और सूरज
...........................
गांव की कच्ची सड़क पर
पसरता यह पक्कापन
सुना है विकास के सूरज तक
जाता है।
इसी बनती सड़क के किनारे
कूटे हुए पत्थरों की ढेरी पर लेटा
गुदड़ी में लिपटा एक ‘चांद’
खिलखिलाता है।
सामने पत्थर तोड़ने में लगी
वो बच्ची ही
इस बच्चे की मां है,
शायद वो इसकी ममता ही है
जो धरातल की कठोरता पर
मुलायमियत बन पसरी हुई है
जभी तो तपती दोपहरी में भी
बच्चे के चेहरे पर
हंसी बिखरी हुई है।
बच्चे को सीधे धूप से बचाने को
एक चिथड़ा हवा में तिरछा टंगा हुआ है,
उसके एक पैबंद से बीच-बीच में
सूरज झिलमिला जाता है,
बच्चा समझ रहा है उसे भी
कोई खिलौना और
हाथ-पांव झटकता-पटकता
उसे पकड़ में आने को
हुलसकर पुकारता है।
यह बनता रास्ता तो
कहीं-न-कहीं पहुंच ही जाएगा,
पर मुझे नहीं मालूम
पत्थरों से अटी,
जमीन पर पड़ी
इस मासूमियत की पकड़ में
कभी विकास का कोई सूरज आ पाएगा?
................

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