27 नवंबर, 2017

प्रतिभा चौहान की कविताएं:


प्रतिभा चौहान:  हैदराबाद में जन्मी प्रतिभा चौहान ने एम ए ( इतिहास ) और एल एल बी की पढ़ाई की है। आप प्रमुखता से कहानी और कविता लिखती है।
आपकी रचनाएं वागर्थ, हंस,  निकट, अक्सर, जनपथ, अंतिम जन, छपते-छपते, चौथी दुनिया, कर्तव्य-चक्र, जागृति, यथावत, गौरैया, सरिता, वाक्-सुधा, साहित्य निबन्ध ,पंजाब टुडे, सृजन पक्ष, दैनिक भास्कर, हिन्दुस्तान, अमर उजाला, प्रभात खबर, दैनिक जागरण आदि पत्र-पत्रिकाओं में रचनायें प्रकाशित हुई है।

शब्दांकन, लिटरेचर पाइंट, कृत्या, मीडिया मिरर, प्रतिलिपि ब्लाॅग्स, कविता कोश  में कविताएं प्रकाशित हुई है।

आपके लेख आजकल ,अंतिम जन, विकल्प है कविता , इरावती, चौथी  दुनिया, संवेदना एवं राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की संचयिका एवं जर्नल में प्रकाशित हुए हैं।

आपका कविता संग्रह- पेड़ों पर मछलियाँ , प्रकाशित है।

एक कहानी संग्रह  " स्टेटस को" शीघ्र प्रकाश्य है।

आपकी रचनाएं  देश की विभिन्न भाषाओं में  अनूदित हुई है।  आप अनेक राष्ट्रीय एवं अन्तराष्ट्रीय सेमिनार में शिरकत व आलेख का पाठ कर चुकी है। आज बिजूका के साथियों के लिए प्रतिभा चौहान की कविताएं प्रस्तुत है।




कविताएं



एक

राष्ट्रीय-चरित्र

यूनान की खूबसूरती,
रोम की विधि,
इस्राइल का मजहब,

हे देवों
भारत का धर्म तो
ईश्वरीय पूँजी का पुँज है

आकाश की गूँज है
सूरज की गठरी है

तुम धरती पर आकर देखो
उन्हें कर्मकाण्ड मिले हैं सौगात में
और मुझे तत्वज्ञान का दर्शन

उन्हें अभिमान है ईश्वर होने का
तो प्राणियों पर दया मेरा मौलिक स्वभाव

उनकी भेद भरी दृष्टि
तो मेरी एकात्म अनुभूति--बेमेल है

प्रदीप्ति अतीत से
छनकर आती सुनहरी धूप की गरमी
दीप्तिपूर्ण प्रिज्म की त्रिविमीय श्रृंखला है

पर
शायद तुम्हें अहसास भी नहीं
चन्द दिनों पूर्व उड़ता हुआ चाँद
नीली झील में गिर गया

जिसे ढूँढा गया
खेल के मैदान से विज्ञान की लैब तक
सुनो
कल रात्रि दूसरे देशों ने
उसे अपनी नीली झील से निकाल लिया

जानते हो ?
त्रासदी पूर्ण नाकामी में
उनकी खामियों की जड़ें
राष्ट्रीय चरित्र के अभाव में पोषित हो रही है

हे देव
अभी समय है
बिखेर दो धरा पर राष्ट्रीय रंग
गढ़ दो नया चरित्र

ओ धरा
अब जन्म दो
वीर सपूतों को
जो निकाल सकें उतराते हुए चाँद को
दिन रात के अथक प्रयत्नों में
अपनी देह -पाँवों को छलनी कर देने वाले ज़ज़्बों के साथ
जन्म जन्मान्तर के लिए।
००

महावीर वर्मा


                  दो

हमारे हिस्से की आग

पत्थर सरीखे जज़्बात
एक टोकरी बासे फूल भर हैं ,

शब्दों का मुरझा जाना
एक बड़ी घटना है
पर चुप्पियों को तोड़ा जाना
शायद बड़ी घटना नहीं बन पायेगी कभी ,

इस रात्रि के प्रहर में
घुटे हुये शब्दों वाले लोगों की तस्वीर
मेरी करवटों सी बदल जाती है

खामोशी की अपनी रूबाइयाँ हैं
जिसका संगीत नहीं पी सकता कोई

सूरज की पहली किरन को रोकना
तुम्हारे बस की बात नहीं
न आखिरी पर चलेगा तुम्हारा चाबुक
थाम नहीं सकते तिल तिल मरते अँधेरे को

नहीं बना सकते तुम हमारे रंगों से
अपने बसंती चित्र ,

नहीं पी सकते
हमारे हिस्से की आग
हमारे हिस्से का धुँआ
हमारे हिस्से की धूप
हमारे हिस्से की हँसी
पत्थरों से फूट निकली है घास
नही रोक सकते
उनका उगना , बढ़ना , पनपना
जिस पर प्रकृति की बूँद पड़ी है

अंतहीन सौम्यता की जुब़ान
अपनी भाषा चुपके तैयार कर रही है
जो खौफनाक आतंक को फटकार सके
कर सके विद्रोहियों से विद्रोह
सीना ताने , सच बोले ,
जिसका संविधान की अचुसूचि में दर्ज किया जाना जरुरी न हो

तब,
यदि ऐसा होगा

हे भारत।।
वो इस ब्रह्माण्ड की
सबसे शुभ तारीख होगी।
००


            तीन

आज का दिन

शताब्दियों ने लिखी है आज
अपने वर्तमान की आखिरी पंक्ति

आज का दिन व्यर्थ नहीं होगा
चुप नहीं रहगी पेड़ पर चिड़िया
न खामोश रहेंगी
पेड़ों की टहनियाँ

न प्यासी गर्म हवा संगीत को पियेगी
न धरती की छाती ही फटेगी
अंतहीन शुष्कता में

न मुरझायेंगे हलों के चेहरे
नहीं कुचली जायेंगी बालियाँ बर्फ की मोटी बूँदों से

बेहाल खुली चोंचों को
मिलेगी समय से राहत

नहीं करेगी तांडव नग्नता
आकाश गंगा की तरह ,

पीली सरसों से पीले होंगे बिटिया के हाथ
अबकी जेठ- घर – भर,
आयेगा तिलिस्मी चादर ओढ़े ,

न अब उड़ेगा ,न उड़ा ले जायेगा
चेहरों के रंग
आँखों के सपने ,
दिलों की आस,

भर देगा आँखों में चमक
आँखों से होता हुआ आँतों तक जायेगा

बुझायेगा पेट की आग ये बादल
आज के वर्तमान में।
००




                  चार

   कैक्टस

शायद कैक्टस के रहस्य
थार के रेगिस्तान में मिल जायें......

तब तुम अपने व्यक्तित्व की ऊपरी परत को छूना......

उभर आयेगी आँखों में
एक ही तरह के कई प्रतिबिम्ब

फिर छूना भीतरी तह.......

धो देना तब बरसों से
गले में अटकी फाँस को ।
००

महावीर वर्मा


     पांच

गौरव-अतीत

इस देश के चेहरे में उदासी
नहीं भाती मुझे
बजूद की विरासत बंद रहती है
तहखानों में कैसे कोई राजा अपना स्वर्ण  बंद रखता है
पेड़ों पर उगने दो पत्ते नए
गीत गुनगुनाने दो हमें
हमारे गीतों की झंकार से
उन की नींद में आएगी शिकन
मेरी वज़ूद की मिट्टी कर्जदार है
मेरे देश की
अपनी परछाई की भी
इन चमकती आंखो में
खुद को साबित करने का हौसला
नसों में दौड़ता करंट जैसा लहू
नई धूप के आगोश में
बनेंगे नए विचार
जिनकी तहों लिखा हुआ हमारा प्रेम
रेत सा नही फिसलेगा
हमारी विरासत की प्रार्थनाओं में विराजमान हैं
हमारे वर्तमान के संरक्षक
हमारे डाले गए बीज
प्रस्फुटित होने लगे हैं
धरा ला रही है बसंत
देखो
फिर से गौरव-अतीत लौट रहा है
००

             

                छः

मानवीयता एक नैतिक आग्रह

मानवीयता
एक नैतिक आग्रह है,
संघर्ष की जिजीविषा है...

अभिषप्त दायरों को तोड़ती दुनिया पत्थरों की तरह
विद्रूपता और मिथकीयता में
सभ्यता विमर्ष
बस, बौद्धिक स्वर भर

बदलाव की खाई भरने के लिये
त्र्मृण की लिपि व स्याही सूख चुकी है
अब बंद करो देवताओं के गान
चीत्कारों मे मत ढूँढो संगीत

नई कलम तराशकर लिख जाने दो
स्वाभाविकता का प्रेम संदेश

क्योंकि अब न राजा है
न प्रजा
न साम्राज्य ।
००


सात


जानी पहचानी

पुनर्जन्म सी

अपने जातिगत उभार में

आदिम प्रकृति का समकालीन पाठ करती हैं


घात में बैठा है हर एक शिकारी....


कोई फर्क नहीं

शिकार चाहे जानवर का हो

या इन्सान का ,

खून जानवर का बहे

या इन्सान का ,

कोई फर्क नही पड़ता


आखि़र....

आखेट की संतुष्टि भर कहानी ही तो है

शिकार और शिकारी

घात प्रतिघात

चलता परस्पर युद्ध


सतर्क बैठा है वो

खुद शिकार किये जाने के भय के साथ

कभी कभी दंश भी

उसको सतर्क किये रखता है


आईने में आईने झाँकते हैं -

और चेहरे !

चेहरे गायब

जटिल प्रश्न ?


अब कौन सवाँरेगा उन चेहरों को

गंभीर , नम्र, सादगी भरे चेहरों को

कौन पढ़ेगा

उनके हृदय की गीता -रामायण को,


शायद अब

प्रतिद्वन्द्विता में

नहीं सँवरेंगे चेहरे

ना साफ होगी आईनों की धूल


क्योंकि

परम सुख , इह लोक माया

चरम सुख है आखेट

होड़ है , बाजार में

कौन बनेगा सबसे बड़ा शिकारी,

जो समाज में ईनाम पायेगा

सिर उठाकर फक्र से जियेगा


मरने के बाद

इतिहास लिखा जायेगा ।
००



                   आठ


सार्थकता की तलाश में


सार्थकता की तलाश में

ऊबड़ खाबड़ रास्तों पर

चलती है राष्ट्र भावना की संवेदना की भाषा...


घर द्वार, प्रेम व्यवहार

जीवन की आशा ,

जीने की अभिलाषा

खेत खलिहान

बाग-बगीचों , खपरैल छप्पर

कच्ची गली, ताल-तलैय्या

अंतर्मन को याद दिलाती

भीनी भीनी मिट्टी की खुशबू की भाषा


परिवेश ,मनोवृत्ति में

शिक्षा , अनुभव,

व्यवहार और संस्कृति में

संबंधों की भाषा

अनुशाषन और अन्तर्द्वन्द्वों की भाषा,


जनने दो

कोमल मन की पवित्रता और ईमान की भाषा

बढ़ने दो.

पुरखों से सीखी प्रेम ,त्याग और समर्पण की भाषा

पढ़ने दो,

दबे कुचलों को तिरस्कार की भाषा

समझने दो

लड़ने दो हक के लिये,

मिटने दो

आततायियों की भाषा।
००

   
महावीर वर्मा

नौ


नियति


काला बादल निगलने की फिराक में है....

नीला आसमान

लाल सूरज

हरी धरती

पर हजार बृह्माण्डों की ताकत भी

असफल रही नियति को निगलने में।
००


        दस


माँओं की नींद


गुथ जाती है माँओं की नींद

लोरियों में,

जिनसे बुना होता है

हमारे सपनों का संसार

आजाद पंखों से उड़ने वाली बुलबुलें

उड़ा ले जातीं हैं माँओं की नींद भी

गूँथती हैं अब वे

अपनीं नींदों को

नये सपनों को बुनने के लिये,


माँयें कभी नहीं सोतीं.......
००



    ग्यारह

समर्पण


मैं दरिया हूँ

निश्चित है कि समुन्दर में मिलूँगी


और तुम मेरे समुन्दर हो

निश्चित है कि

मुझे अपने आगोश में लोगे


कुछ इस तरह मुझे अपने वजू़द को

तुममें मिटाने की ख़्वाहिश है।
००

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