08 नवंबर, 2017

इधर की कविता में परिवर्तन की एक नई किरण ‘ध्वनियों के मलबे से'

अनिल कुमार पाण्डेय

बहुत कम लोग होते हैं जो अपने समय के यथार्थ को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम दे पाते हैं| कविता की शक्ल में कहने की नीयति तो जैसे और भी कम है| अनुभव और अनुभूति का जो समन्वय कवि और कविता में दिखाई देना चाहिए, वह आज के समय में अधिकतर कवियों के यहाँ मात्र कहने और सुनने की स्थिति भर रह गयी है|
अनिल कुमार पाण्डेय
पाठकीय दृष्टिकोण में भी कुछ इस तरह का परिदृश्य उभर कर सामने आया है| हर एक शब्द और तुक-ताल पर वाह-आह करने/ कहने की प्रवृत्ति कुछ अधिक ही विकसित हुई है| कविता के वर्तमान परिदृश्य में एक भ्रम का वातावरण फ़ैल गया है| कवि जितना कविता को लेकर संशय में आज है उससे कहीं अधिक पाठक अपनी पठनीयता को लेकर| ऐसा इसलिए भी हुआ है कि लोगों ने गद्य पंक्तियों को तोड़-मरोड़ कर रख देना ही कविता समझ लिया है|
कविता की शक्ल में यहाँ ऐसा करने वाले एक साथ कबीर और रैदास की परंपरा में स्व-विभूषित तो होते ही हैं, मुक्तिबोध और धूमिल के वंशज के रूप में भी स्वयं को प्रचारित और प्रसारित करने से पीछे नहीं हटते| हालांकि ऐसे लोग महानगरों में अपना समय जैसे-तैसे बिताने वाले हो सकते हैं जहाँ कविता लिखी कम और लिखवाई अधिक जाती है| यह भी हो सकता है कि गांव से उसका कोई सीधा ताल्लुकात न रहा हो, जहाँ से कविता उद्भूत ही नहीं होती झरती रहती है झरनों की तरह| यह तो निश्चित है कि कवि के रूप में यहाँ से सम्बन्ध रखना लोक-जीवन का जीना है| जीवन-विसंगतियों को सहने और झेलने के लिए अभिशप्त मानव-समुदाय की स्थिति-परिस्थिति का सीधा साक्षात्कार करना है|

अभी कुछ कवि हैं जो जीने और रू-ब-रू होने की व्यावहारिकता को बचाए हुए हैं| नगर-महानगर की चकाचौंध से दूर रहते हुए लगातार कवि और कविता की संभावना को जीवित रखे हुए हैं| देस और देसीयता की भीनी सुगंध को संजोए हुए हैं| इनसे जितनी अधिक संभावना हमारे समय को है समाज को भी उससे अधिक है| ऐसे कवि जन और जीवन के बीच व्याप्त मानवीय संभावनाओं को न सिर्फ दिशा दे रहे हैं अपितु उनकी उपेक्षित दशा को सुधारने के लिए प्रयत्नशील भी हैं| इनकी दृष्टि और दृष्टिकोण स्पष्ट हैं इसलिए कविता की शक्ल में ये विशिष्ट हैं| हुकुम ठाकुर ऐसे ही कवि हैं जो महानगरीय परिवेश के दृष्टान्त न होकर लोक-जीवन के यथार्थ हैं| इनकी विशिष्टता इस बात से भी आंकी जा सकती है कि ये वादों-विवादों से दूर जीवन का शास्त्र तो रच ही रहे हैं रचे हुए में बस भी रहे हैं| सबसे दूर रहते हुए भी सबके हृदय में और सबके पास| अपना छुपाते और सबका सुनाते जैसे व्यवहार में वर्तमान|
यह भी कि, आम आदमी की यथा-स्थिति को एक आम ही समझ सकता है क्योंकि वह उन विसंगतियों से कहीं गहरे में गुजरा होता है| कवि अपने सिद्धांत और व्यवहार से आम ही होता है| वह जीवन की छोटी-छोटी घटनाओं से व्यथित होकर बैठा हुआ न होकर संघर्ष करते हुए आगे बढ़ा होता है| जिन प्रश्नों से अक्सर लोग जान छुड़ा कर भाग लेना उचित समझते हैं उन्हें वह जी लेना अपना कर्तव्य माना हुआ होता है| वह जानता है कि “किसी एक दिन अचानक/ पुरानी जंत्री के साथ जीवन के पुराने प्रश्न भी/ अलमारी में धर दिये जाते हैं/ परन्तु भले मानस दिखने को बर्बर कभी साफे नहीं बदलते/ तो आओ कुछ ऐसा करें/ कि आने वाले कल की हार से डरे हुए/ हमेशा आत्मरक्षा में लगे लोगों के चेहरों पर/ आज के वक्त की मोहर लगाएं|” इधर के इस दौर में ‘डरे हुए’ और ‘आत्मरक्षा में लगे लोगों के’ मस्तिष्क पर ‘आज के वक्त की मोहर’ लगाने की प्रतिबद्धता बहुत ही कम कवियों में देखी जा रही है| हुकुम ठाकुर अपने व्यवहार के प्रति एकदम से तल्ख़ हैं| कवि की भूमिका में वे वर्तमान को देखकर संतुष्ट नहीं हो जाना चाहते| वे किसी तत्काल आई सामाजिक गतिविधि का अचानक स्वागत करने के लिए स्वयं को समर्पित नहीं करते बल्कि उसकी परख में संघर्ष की एक जमीन तैयार करते हैं| उनका मानना है कि “तलख होने के लिए/ केवल नीलकंठी की फांकी जरूरी नहीं/ हम भविष्य की आँख में आँख डाल देखना चाहते हैं|” संभावनाओं की तलाश यहीं से प्रारंभ होती है| कवि के भविष्य में कविता को सजाने के लिए छान्दसिक विधाओं के तुक-ताल न होकर उसे संवारने के लिए जन-संवेदनाएं हैं| जैसे वह जानता है कि यदि जन-संवेदनाएं सजी और संवरी रहेंगी संभावनाएं खुद-ब-खुद बढ़ती जाएँगी|
संभावनाओं की तलाश में सक्रिय बहुत से कवियों में हुकुम ठाकुर उन कुछ कवियों में से आते हैं जो “ध्वनियों के मलबे से” शब्दों को निकालते हुए उन्हें संवेदनात्मक धरातल देते हैं| उन्हीं में डूबकर अपने समय और समाज को जीवन-व्यवहार देने का सार्थक उपक्रम करते दिखाई देते हैं| इस उपक्रम में “आओ मिट्टी-मिट्टी खेलें” के साथ उसका यह स्पष्ट करना कि “हमें आंतों से सोचना होता है/ सुबह और शाम की पालियों में कटता दिन/ एक के ऊपर तह लगती आवाजें/ जब धरती पर गिरते हैं तो कंकाल कहलाते हैं” कवि के मनोभाव को स्पष्ट करना तो है ही मानवीय जीवन की संघर्षधर्मिता को परिभाषित करना भी है|

अवधेश वाजपेई
कवि के ये सार्थक उपक्रम किसी मंदिर-मस्जिद या गुरुद्वारे में जाने से निर्धारित नहीं हुए क्योंकि मनुष्य के हृदय में श्रद्धा का जन्म उसकी नजर में डर से उत्पन्न भाव हैं| श्रद्धा के उत्सवधर्मी होने पर वह प्रश्न भी करता है--“डर से पैदा हुई श्रद्धा/ अपने लिए जगह बनाते-बनाते/ अंत में क्यों उत्सवधर्मी हो जाती है?” और न ही तो किसी जुलूस-जलसे-नारे में शामिल हो कर गढ़े गये प्रतीत होते हैं| परिवर्तन के इन हथियारों से देश-समाज का बहुत अधिक हित नहीं होने वाला है यह भी कवि अपने अनुभव से जान चुका है| देश में घटना बन कर समाप्त हो रही समानतामूलक संभावनाएं कुछ विशेष सामाजिक परिवर्तन का आगाज नहीं कर सकी हैं| मनुष्यता के लिए आवश्यक चीजें “कानखाऊ विषयों” का रूप ले चुकी हैं| ‘मेरे देश में’ ये परिदृश्य बड़ी सिद्दत से मौजूद है—

मेरे देश में
जहां बारिश की थकी हुई बूंदें अपनी कुबड़ी पीठ पर
आज भी मौसमों के पिंजर ढोती हैं

मेरे देश में
जहां शिव के हिस्से की बर्फ
राम के हिस्से का जंगल
आज भी कल आने वाली खुशियों की मढ़ियों के
दरवाजों पर पहरा देते हैं

मेरे देश में
जहां पेड़ के नीचे सूखे पत्ते बीनने वाला हलवाहा
मछली के कटले बेचने वाला कवि
पत्थर काटकर बनाई हौदियों में जमा पानी पीकर
आज भी अपने सुख के पास लौटने का हक़ मांगते हैं|

मेरे देश में
जहाँ ढाबे के बाहर सीलन से थुडथुड़ी हुई रोटी पर
आज बी ठंडी ढीठ नज़रों के चाबुक का इंतजाम पक्का है

मेरे देश में
जहां शुभ लाभ कमाकर आई
दिन भर की थकी गाड़ियां
सड़क किनारे देर तक सोती हैं
दाने कमाने में ख़ारिज होते मेरे बूढ़े बैलों को
बही-खाते में दर्ज कत्लगाहों के कर्ज को
घर की छत से ऊपर उठते धुंए को
यह बिलकुल नहीं पता
आज महीने का दूसरा शनिवार है

मेरे देश में
सुना है इन कानखाऊ विषयों पर
वातानुकूलित कमरों में बेनतीजा बहसें होती रहती हैं
जबकि श्मशान जी तरफ बढ़ते पाँव
उस सुस्त आवाज के अभ्यस्त हो गये हैं
जो ऊनी कपड़े में लिपटी
कांसे की थाली के बजने जैसी आवाज है|
जिन “विषयों पर वातानुकूलित कमरों में बेनतीजा बहसें होती रहती हैं” वे लोक-जीवन में अपनी जड़ें तेजी से पसारती जा रही हैं| इसकी चिंता न तो सरकारों को है और न ही तो उनके प्रतिनिधि के रूप में वर्तमान कवि-समुदाय को ही| कवि समुदाय सरकारों के प्रतिनिधी के रूप में इसलिए क्योंकि आज का अधिकाँश कवि जन-जरूरतों पर बात करने वाला न होकर सरकारी-तंत्र की चाटुकारिता में अपना समय खर्चने वाला दिखाई देता है| सेंसेक्स के उठते-गिरते आंकड़ों पर उनसे चर्चा की जा सकती है लेकिन परिवेश में आए दिन घटित हो रही घटनाओं पर उसका कोई संज्ञान नहीं है| हो भी नहीं सकता क्योंकि ये घटनाएँ विचारधाराओं के केन्द्र में न होकर उन समुदायों के केन्द्र में है| “सुबह-शाम के निपटारे के लिए” कवि इन घटनाओं की तहकीकात करने का प्रयास करता भी है तो “खुद से मिलने का फर्ज अदा कर रहा होता” है| यह भी सोचने का विषय है कि खुद से मिलने की यह फर्ज अदायगी ही क्यों?और फिर कितने दिन तक? खुद से मिलने का समय भी आज के कितने कवि को है यह भी चिंतन का विषय हो सकता है|
ये उपक्रम सही अर्थों में संघर्षों से निकली पसीने की मर्यादा और समाज से उपेक्षित जीवन की अभिलाषा हैं| संघर्षों की इस मर्यादा और अभिलाषा को समझना कवि-दृष्टि में सबके बस की बात नहीं| क्योंकि पसीने की स्थिति से तर-ब-तर ऐसे लोग “जहाँ आदमी की लम्बाई काम से मापी जाती है/ वहां ये विल्कुल बौने पाए गये/ इनके घरों में खिड़की रोशनदान नहीं होते/ अलबत्ता धूप रसोई से पर्दे जरूर रोज हटाती है/ एक अनिवार्य रिवाज के तौर पर/ थकावटों के शव ढोते इन वीरों को/ कोई वीरता पुरस्कार नहीं दिया जा सकता/ क्योंकि केवल मिट्टी को पता है/ इनका पसीना कहाँ-कहाँ गिरा है|” गहरे में यह मिट्टी आज के समय की धरती माता न होकर ऐसे लोक-धर्मी कवि हैं| मिट्टी की नीयति को मिट्टी बनकर ही महसूसा जा सकता है| इन्हें ही “कैसे भूख छज्जे पर बैठी मुस्तैद पहरा देती है/ जब आदमी सो रहा होता है/ कैसे रोटी के चंदोबे के नीचे भूख जश्न मनाती है/ और कैसे पहाड़ों में धूप से नहीं/ बादलों की रहस्यमयी दुनिया से अकाल बरसते हैं” दिखाई दे सकता है क्योंकि ऐसे कवि ऐसी भयावह स्थिति पर कविता कहते नहीं कविता की शक्ल में उसे जीते हैं| ऐसे कवियों को ही यह दिखाई दे सकता है कि जो आम इंसान किसी के लिए पालतू-फालतू है उसका महत्त्व एक पूरे परिवार को है| उसी के सहारे स्वर-लहरियां हैं, सौंदर्य है, जीवन-व्यापार है, श्रद्धा है, भक्ति है, आचार और विचार है| उसके “गुमनाम” होने की यथार्थता में सब भले अनभिज्ञता जाहिर करें लेकिन कवि को पता है “आसपास के सभी चलते-फिरते जनों से अलग दीखता है वह/ और उसकी गुमनामी भी/ उसकी गुमनामी—/ पेट की बिना पची रोटी है/ अफसर की मेज पर/ फाइलों के नीचे दबा विधवा पेंशन का प्रार्थना-पत्र है/ शनि की महादशा में/ छूत की बीमारी से छुटकारा पाने को किया गया टोटका है/ मंदिर के भीतर कीर्तन में/ ढोलक पर्दे में नजर आता बकरी की खाल का बाल है/ बुढ़ापे की टेढ़ी होती हड्डियों में होने वाली प्रतिक्रिया है|” ऐसे स्वभाव लिए भविष्य के तहों में घुसकर पसीने की टोह लेने की इस अभिलाषा में जब कवि कविताई के लिए प्रस्तुत होता है, कविता वह नहीं रचता, कविता उसे रचती है| ऐसे रचाव में रहना जितना सुखद होता है उतना ही कष्टप्रद भी| सुखद अनुभूति के साथ कष्टप्रद अनुभव को सहेजना ही अपने समय के कवि और कविता को आत्मसात करना है|
यह सच है कि इक्कीसवीं सदी में वर्तमान होने के बावजूद हमारी सोच और सक्रियता में बहुत अधिक अंतर नहीं आ सका है| दुनिया बदल रही है| परिवर्तन हमारे व्यवहार में भी देखने को मिला है| जिसके निमित्त समाज बदल रहा है लेकिन बदलाव की प्रक्रिया घातक और अधिक संस्लिष्टता लिए है, यह चिंता का विषय है| सोच में हमारे जड़ता अधिक है इधर| यह आभास करना एक तरह से टेढ़ी खीर साबित हो रही है कि हम इसी युग में जी रहे हैं या फिर किसी पुरा-पाषाण काल में| एक तरह की सेट हो चुकी मानसिकता में हम यथार्थ को स्वीकार करने से जैसे पीछे हट रहे हैं| यह स्थिति यदि ‘स्त्री’ के जीवन-वर्तमान से संदर्भित हो तो यथा-स्थिति और भी अधिक दारुण और भयानक हो उठती है क्योंकि उसके जीवन में “यह रोजमर्रा की समान्य-सी बात है/ कि इस घर में रोटी और एक स्त्री साथ-साथ रहती हैं/ जलने काटने से छिलने तक में/ उनके पास साथ रहने की तसदीकी सिनाख्तें हैं|” इन सिनाख्तों को जरूरतों और आवश्यकताओं के अनुरूप देखा और परखा जा सकता है| ठाकुर के कवि दृष्टि में यही स्त्री जहाँ एक तरफ भूख को शांत करने वाली रोटी के समान एक घर की जरूरत है वहीं वह एक नदी के समान अनवरत बहती रहती जल-धारा भी है| नदियों ने पत्थरों और पहाड़ों के विरोध को सहते हुए भी अपनी गति को बरक़रार रखा है; उन्हें जीवन और सम्मान देते हुए अपना अस्तित्व बचाया है| स्त्री ने भी अपने समय की विडम्बनाओं को झेलते हुए अपना मार्ग तय किया है| “नदी वक्त के साथ लगकर बहती गई/ तटबंधों को तोड़ने पर आमादा/ तमाम मुकम्मल तेवर मिजाजों के साथ/ स्त्री के पास कहने को शब्द न बचते/ तो वह खांस कर काम चला लेती” विडंबना यह भी कम नहीं है कि स्त्री का खांसना और नदी का बढ़ना भी लोगों को चुभा है हताहत किया है| समय ने इनके ऊपर हर तरह के प्रतिबन्ध लगाए हैं| कहीं बैरकों से तो कहीं बांधों से इन्हें रोकने के उपक्रम किये गये हैं और यदि “फिर भी दोनों बह रही हैं/ एक प्रेम से पगी दूसरी लुढ़कनों से ठगी|” तो यह तो इनकी अपनी संघर्षधर्मिता ही कही जा सकती है|
‘आसपास’ के परिवेश को परखते हुए कवि को यह आभास होता है कि वैश्वीकरण के इस दौर में जन सामान्य के स्थायित्व की परिकल्पना जैसे धूमिल होती नजर आ रही है | बेजार होती समाज-व्यवस्था में जैसे सब कुछ दिवास्वप्न बनकर रह जाना चाहता है| कवि के परिवेश में हताशा है भय है, चिंता है, वितृष्णा है और यदि कुछ है तो वह समय के बेजोड़ थपेड़े से झुलसा जन मानस| कवि के ‘आसपास’ का यह ऐसा परिवेश जहाँ एक तरफ सुविधा-संपन्न परिवार पैसों के दम स्कूलों का चयन कर रहे हैं| बच्चे माता-पिता से लड़-झगड़ स्कूल की पढ़ाई को छोड़कर आपराधिक दुनिया में प्रवेश कर रहे हैं वहीं कुछ ऐसे भी परिवार हैं “पहाड़ के गांव की/ चौहद्दी के बाहर सड़क पर/ चट्टान तोड़कर/ गिट्टी-बजरी कूटते मुन्नू के हाथों से/ जेठ की ताबड़तोड़ तपती दोपहरी में/ ठेकेदार से मिले हुए दाम/ सस्ते राशन की दूकान पर पहुँचने से पहले/ फटी फेब से गिरकर गुम हो जाएं/ और घर पिता को जवाब देते न बने/ तो इस तरह छूटता है मुन्नू से स्कूल|” भारतीय परिवेश में ‘मुन्नू’ की यह स्थिति मात्र ‘पहाड़ के गाँव’ की न होकर देश के अधिकाँश गांवों के ‘मुन्नुओं’ की है जहाँ बचपन रुपया-पांच रूपया के लिए कुर्बान कर दिया जाता है| जिनके हाथों में कलम होनी चाहिए उनके हाथों में फावड़ा और हथौड़ा थमा दिया जाता है| अपने परिवेश को जीते और लगभग अपने जीवन में ढालते कवि का यह ‘आसपास’ जैसे हम सब का आसपास है जहाँ “टुनटुनाती पसलियों वाली भीड़ अपने लिए/ कुछ सहलाई जा सकने वाली/ संभावनाएं तलाश रही है/ मंहगे जूते पहनने वालों से पूछना चाह रही है/ नंगे पाँव चलने का दर्द|” इधर ‘अफरा-तफरी’ में विलुप्त होती संवादहीनता से कवि चिंतित है और लगभग लोक में अरसे से वर्तमान और अब हाशिए पर जा रही संवाद-व्यवस्था को वापस लाने के लिये लालायित है| वह मानता है कि “सचमुच समय बहुत आगे निकल गया है/ सभी चेक प्वाइंट आगे निकल गया है/ छान-छप्पर के नीचे बचा है कुछ अगर/ बस थोड़ी-सी अच्छाइयां थोड़ी-सी बुराइयां/ और आगे चलने की जुगत/ जिसे केवल कुछ साहसी लोग संभाले हुए हैं|”
यह वही साहसी लोग हैं जिन्हें सभ्य समाज अमानवीयता की हद तक नफरत करता है| जबकि प्रेम और करुणा की सहज यथार्थता यहीं उपलब्ध होती है| अलाव जलाने की प्रथा में सुख-दुःख सांझा करने की प्रथा यहीं की देन है और यहीं की उपज है नदी का बहाव लिए अनवरत गतिमान जीवन-शैली| कवि इस तेजी से परिवर्तित हो रहे समय पर अपनी भावनाएं खर्च करने की अपेक्षा बाधित हो रहे संवाद-प्रक्रिया पर बात करना उचित समझता है इसलिए वह कहता है—“मैं इस अफरा-तफरी के बारे में/ कविता नहीं कह सकता/ इसके बारे में कविता कहना नालायकी होगी/ मैं सोच रहा हूँ/ उस आग के बारे में/ जिसको तापते थे सब मिल बांटकर/ उस नदी के बारे में/ जिसकी आंखों में आँखें डाले/ बैठते थे पहाड़ रात-रात भर|” वर्तमान की विसंगतियों को इस तरह ‘सोच’ के माध्यम से सुलझाने का प्रयास यदि साकार होता है तो इसमें कवि की व्यावहारिकता और कविता की शक्ति का एहसास दोगुना बढ़ जाता है| कविता अपने स्वाभाविक रूप में जुड़ाव का नाम है| हाशिए को मुख्य धारा में लाकर समान संवाद-व्यवस्था को प्रश्रय देना समकालीन हिंदी कविता की शक्ति और सामर्थ्य कही जा सकती है|
      कितने आश्चर्य की बात है कि “ध्वनियों का मलबा अर्थहीन/ छितरा रहा चारों ओर/ युगों-युगों तक/ पर मलबे का कोई मालिक न निकला|” अपने हिसाब से रचने-बसने की आजादी सबको रही| किसी ने इसे हृदय की यथार्थता का रूप दिया तो किसी ने इसे ईश्वर के स्वरूप ढाल बनाकर ‘पूज्य’ बना दिया| पूज्य बने हुए मलबे ने खंडहरों में परिवर्तित होकर जीवन-सौंदर्य को हास्यास्पद बना दिया है
निज़ार अली बद्र
 जब अभिव्यक्ति श्रद्धा में झुकी और व्यवस्था से डरी हुई लोक-व्यवहृत होती है, वह सिर्फ भक्ति-भंजक आरती का रूप ले सकती है न कि जन-जागरण की मशाल थामें जन-गीत की| ‘यांत्रिक मानव’ के लिबास ओढ़े भक्ति-भंजक परंपरा में “हम इतने समझदार हैं/ कि सब पड़ोसी रामदुआरों में जाकर शीश नवाते हैं/ नये-नये देवताओं का आवाहन करते हैं/ चौरस्ते पर तीरनी और राहदारी वसूल करने के लिए/ दो और दो को पांच करने के लिए/ साठ वर्ष से एक गाद भरी नदी पर/ कमर में तूंबियाँ बांधकर सकुशल तैर रहे हैं|” जन-जागरण की स्थिति में हमारी यही समझदारी कहाँ गुम हो जाती है यह हैरानी भरा प्रश्न हमारे समकाल के लिए चिंता का विषय हो सकता है| यह भी एक विडंबना है कि हमारे समकालीन कवि भक्ति-भंजक परंपरा से अधिक से जुड़े| सत्ता की जुगाली और दो रोटी की थाली के लिए अधिक भिड़े| जन-मुद्दे और जन-समस्याएँ उनके लिए चिंतन का विषय न होकर राजनीतिक दलों की चाटुकारिता और शासन-सत्ता की प्रशंसा में अस्तित्व बचाए रखने की पैंतरेबाजी अधिक महत्त्वपूर्ण रही| ‘यांत्रिक मानव’ के स्वभाव में हुकुम ठाकुर का यह कहना एक बड़ी सच्चाई है वर्तमान कवि एवं कविता के लिए-
हमसे डरने की किसी को कोई जरूरत नहीं
क्योनी हम सड़क किनारे
नमक के साथ सूखी रोटी खाने वाले का बिम्ब पेश कर सकते हैं
उस भूख का मूल्यांकन कर सकते हैं
जो आदमी ने आदमी के लिए पैदा की
लेकिन उस भूख को मिटा नहीं सकते
तासली भर आटा, लोहिया भर आलू के लिए
बोझे ढोते पीठ में लागे लगे
चनन के शरीर से उठते
पसीने के खट्टे भभके की बात कर सकते हैं
परन्तु आदिम अँधेरे की ओर लौटते
उसके कदमों को रोक नहीं सकते|”
ऐसा इसलिए भी नहीं कर सकते क्योंकि यहाँ पुरस्कार की व्यवस्था न होकर देश निकाले डर हर समय वर्तमान रहता है| यहाँ कविता के एवज में स्वाभिमान बेचने के स्थान पर स्वाभिमान के एवज में कविता रचने और उसे लोक-मानस में रचाने-बसाने का प्रयास वर्तमान होता है| हुकुम ठाकुर के दृष्टि में यदि “केवल भूख और युद्ध ही/ मानव सभ्यता का इतिहास है” तो इन दोनों में सामंजस्य बिठाते हुए इन्हें लगभग प्रचलन से बाहर कर देना कवि का स्वभाव होना चाहिए| यह इस संग्रह के कवि का प्रदेय तो है ही इस संग्रह का भी मूल उद्देश्य है| इस संग्रह की एक अन्यतम विशेषता यह भी है कि कवि-अभिव्यक्ति भाव एवं भाषा के धरातल पर भटकाव का शिकार न होकर एकत्व का आकर्षण है| विषय चयन और उसके प्रतिपादन को लेकर सचेष्टता स्पष्ट परिलक्षित होती है| संग्रह की लम्बी कविता ‘काहिका’ अलग से विश्लेषण और मूल्यांकन की मांग करती है और इसे पढ़ते हुए ऐसा आभास होता है कि लम्बी कविता परंपरा में कवि का जुड़ाव अधिक घनिष्टता के साथ हो सकता है| हुकुम ठाकुर की काव्यात्मक अभिव्यक्ति के हवाले  से यदि यह कहा जाए कि सैद्धांतिकता के साथ-साथ व्यावहारिक स्तर पर भी इधर की कविता में परिवर्तन की एक नई किरण दिखाई दी है, यह कम साहस की बात नहीं है|
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शोधार्थी, हिंदी-विभाग, पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़
मो-8528833317


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