15 नवंबर, 2017

स्वप्निल श्रीवास्तव की कविताएं


स्वप्निल श्रीवास्तव: पूर्वी उ.प्र के जनपद सिद्धार्थनगर के ठेठ गांव मेहनौना  में 05 अक्टूबर 1954 को जन्म । मिडिल तक की  शिक्षा  गांव में, उसके  बाद  की  पढ़ाई कुशीनगर जनपद के एक कस्बे में । गोरखपुर विश्वविद्यालय से एम. ए . एल एल बी की  शिक्षा  और  दीक्षा । उ.प्र सरकार  में  राजपत्रित अधिकारी  के  रूप  में बिभिन्न जनपदों में  तैनाती । ईश्वर एक लाठी  है , ताख  पर  दियासलाई , मुझे दूसरी  पृथ्वी  चाहिये जिंदगी  का  मुकदमा , जब तक है जीवन कविता संग्रह प्रकाशित।
एक पवित्र  नगर की दास्तान – स्तूप महावत तथा  अन्य कहानियां ..नाम से  दो  कहानी संग्रह।
कविता  के  लिये भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार . फिराक सम्मान .केदार सम्मान के साथ रूस का अंन्तर्राष्ट्रीय पूश्किन सम्मान ।
देश विदेश की  भाषाओं  में  कविताओं  के  अनुवाद ।
यदा  कदा  पसंद के  हिसाब  से  समीक्षाएं। फिलहाल नौकरी  पूरी  करने के  बाद फैज़ाबाद  में  स्थायी  निवास और स्वतंत्र लेखन ।




कविताएं


बिकना

जो कभी  नही  बिके  थे
वे इस  बार  की  बाजार  में  बिक गये
सौदागर  ने  उनकी  जो  कीमत  मुकर्रर की
वह उनके  औकात  से  ज्यादा  थी
इसलिये  वे  खुशी- खुशी  बिक  गये

इस  खरीद- फरोख्त  में  दलालों  ने
खूब  माल  और  शोहरत  कमाई
अपने  सात  पुश्तों  का  इंतकाम
कर  लिया

इस  खरीद  में  हर  दिशा  के लोग
शामिल थे
कुछ  बजिद्द  लोग अपने  शर्तों  मे
उदार  होकर  बिक  गये

इस  बेशर्म  समय  में  उनके पास
शर्मिंदा  होने  का  भाव  नही
बचा  था

जो  नही  बिके वे  मूर्ख थे
००


इसके  पहले

 इसके  पहले  की  घोडे  बिदक जाय
अपने  हाथ  में  मजबूती  से
रखो  लगाम
रकाब  पर  जमाये  रहो अपने पांव
कभी – कभी  पीठ  पर  फटकारते
रहो कोड़े

इन  घोड़ो  का  नही  है  कोई  इमान
जो  इन्हें  घास  दिखाता  है
उसी  तरफ  दौड़े चले  आते  हैं

हर  दौर  में  होते  है
अच्छे – बुरे  घोड़े

कुछ  घोड़े युद्ध  के  वफादर
सैनिक  होते  है
कुछ  घोड़े पीठ  से  उछाल  कर
अधबीच  रास्ते  में  छोड़  देते  है

जोखिम से  भरा  हुआ  है
घोड़ो  का  इतिहास
इसलिये  अच्छी  नस्ल के  घोड़े
चुने
अन्यथा बुरे  घोड़े  तुम्हे
रौद  देगे
००
अवधेश वाजपेई

एक नहीं  कई  जगह

उसे  एक  जगह  नहीं
कई  जगह  देखा  गया  है
कभी  वह  गरीबो  के  घर
भोजन करता  दिखाई  देता  है
दुर्घटनाओं  में या  शहीदों  के परिजनो के बीच
आंसू बहाता  है
और  शाम  के  वक्त  अमीरों
के  भोज  में  शामिल  हो  जाता  है

गोपनीय  सूचनायें  बताती  है  कि बाहर
के  बैंको  में उसने  अकूत  धन
जमा  किया  है
उसके  कई  स्त्रियों  से नाजायज
सम्बंध  है

जिस  मुकाम  पर  वह  पहुंचा  है
वहाँ  पहुंचने  के  लिये  उसने
चार  हत्यायें ,पांच  विश्वाशघात और  छ;
घोखाधड़ी  कर  चुका  है

राजनीतिविद  बताते  है कि  इतने
काले  कारनामों  के  बाद  उसका  भविष्य
उज्ज्वल  है
००


हमलावर


जिन  हमलावरों  ने  उसकी  हत्या  की  थी
वे  उसकी  अंतिम  यात्रा  में  शामिल  थे

हत्यारों  को  जानती  थी  पुलिस
वे  राजनेताओं  के  करीब  थे
नगर  के  लोग  उनसे  परिचित  थे
उनके  दुस्साहस  के  सामने छोटा था
लोगो  का  साहस

जो  हत्यारों  के  खिलाफ बोलता  था
वह  मारा  जाता  था

हत्यारे  बंदूक  लहराते  हुये  आते  थे
और  हत्या  करके  आराम  से  चले
जाते  थे
उन्हे इस  काम  में  हड़बड़ी  नहीं
पसंद  थी
वे  बेखौफ  और  निडर  थे

हत्या  के  बाद  अपने  मनपसंद  नारे
दोहराते  थे
लोगो  को  धमकी  देते  हुये  कहते  थे
.. अगर  किसी  ने  जुबान  खोली  तो  उसका
हश्र  यही  होगा।
००


अवधेश वाजपेई

नाक

सुग्गे  के  ठोढ़  की  तरह  थी
उनकी  नाक
उनके  चेहरे  पर  दूर  से
दिखाई  देती  थी

वह  ओठ  की  ओर  झुकी  हुई  थी
जैसे  वे  चेहरा  उठाते  बरबस  नाक
नजर  आती  थी

इसी  तरह उनके  पिता  की  नाक थी
उन्हे  अपने  पिता  से  बुद्धि  नही
नाक  विरासत  में  मिली

पिता  की  तरह  वे  आनेवाले संकट को
सूंघ  लेते  थे

वे  चेहरे  से  नही  नाक  से पहचाने
जाते  थे
हजारों  की  भींड़  में  उनकी  नाक
अलग  थी


सोते  समय  उनकी  नाक  से तुरही  की
आवाज  निकलती  थी
लोगो  का  सोना  मुहाल  हो
जाता  था

उनके  पिता  ने  कहा  था- कि  यह  नाक
बचाये  रहना – यह  तुम्हारी  नही  मेरी
भी  नाक  है

एक  दिन  वे  एक  स्त्री  के  साथ
आपत्तिजनक  मुद्रा  में  पाये  गये
लोगो  ने  कहा – वे  सब  कुछ  तो
गंवा  चुके  है. कमसे  कम अपनी  नही
पिता  की  नाक  बचा  लेते
००


मछुवारें

मछुवारों  से  उनके त्तालाब  छीन
लिये  गये  है
मछलियां  कुछ  ताकतवार लोगो के
कब्जें  में  आ  गयी  है

मत्स्यकन्याये उनके  हरम  में
पहुंचा  दी  गयी  है
मांसाहारियों  की  जीभ पर
चढ़  गया  है , हिंसक  स्वाद

मछुवारों  की  बस्तियों  में छाया
हुआ  है सन्नाटा
न उनके  पास  नांवें  है , न जाल
हिम्म्मत  तो  पहले  से  टूट  चुकी  है

नदियां  उदास  है
हतप्रभ हैं  झीलें

चारों  तरफ  फैल  गये  है  आखेटक
वे  बच्चा  मछलियों  पर  भी  नही
दिखाते  दया

समुंद्र  के  पास  नदियों  की  कई
करूण  कथायें  है
लेकिन  उन्हे  भी  रौद  रहे  है
उनके  जहाज ।
००

अवधेश वाजपेई


पत्थर

पत्थर  नही  होते  तो  पैदा  नही
होती  आग
नही  गढ़ी  जाती  मूर्तियां
देवताओं  का  आस्तित्व न  होता

पत्थर  रोकते  है नदियों  का  वेग
वरना  हम  पानी  में  डूंब  जाते

पत्थर  न  होते  तो  हमारे  आवाजाही
के  लिये  नही  बन  पाती  सड़के
तामीर  न  हो  पाती  इमारतें

पत्थर  को  पत्थर  कह कर बहुत
किया  गया  है अपमानित
पत्थर दिल जैसी  उपमायें खोजी
गयी  है

जिन  चीजों  को  हम  कठोर
समझते  है , उनके  भीतर हमारी
अनंत  कोमल कल्पनायें  छिपी  हुई  है

पत्थर  उनमें  से  एक  हैं
००




संपर्क:
स्वप्निल श्रीवास्तव
510- अवधपुरी  कालोनी – अमानीगंज
फैज़ाबाद -224001
मोबाइल- 09415332326

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