07 दिसंबर, 2017

पड़ताल: नीलोत्पल की कविताएं

हम सफल होने नहीं आए हैं
                                                                       प्रमोद पाठक


प्रमोद कुमार

साहित्य या कला कोई इसलिए नहीं रचता कि उसे सफल होना है। और व्यापक अर्थों में कहें तो किसी भी क्षेत्र में किया जाने वाला सर्जन दरअसल इसलिए नहीं किया जाता कि सफल होना है। सफलता तो यदाकदा हाथ थाम लेती है वरना इस रास्ते पर बहुत से वे हैं 'जो नहीं हो सके पूर्ण काम' (नागार्जुन)। नीलोत्पल की कविता मानो यह घोषण करते हुए अपना आकार ग्रहण करती है-

''अंततः हम सफल नहीं होते



क्योंकि हम सफल होने नहीं आए हैं

हम लौट जाते हैं अपने बनाए जंगलों में

जहां हम शुरुआत करते हैं पत्थरों से

और पत्थर कहीं से भी अनैतिक और असभ्य नहीं ।''



रचनारत होना एक तरह से  ''अपने बनाए जंगलों में'' लौटने की तरह होता है। ऐसे जंगल जिनके भीतर दुनियावी सफलता, हार-जीत, अनैतिकता, असभ्यता अपने मायने खो देती है। हम नीलोत्पल की कविताओं में इस बात को बहुत शिद्दत से महसूस कर सकते हैं। यह कविताएं आपसे इस धीरज की मांग करती हैं कि आप उनके शब्दों को गौर से सुनें, बल्कि उनका ध्यान लगाएं ताकि उनसे पैदा हो रही इमेज़री तक पहुॅँच सकें। इन कविताओं को पढ़ते वक्त आप अपनी इंद्रियों को सचेत रखें ताकि उन शब्दों से पैदा हो रही ध्वनि, गंध, रूप को महसूस सकें। जरा सी चूक आपको उस महसूसियत से महरूम कर सकती है। आपको अपने रोजमर्रा के चश्मे को कुछ समय के लिए उतार कर इन कविताओं को पढ़ना होगा। आप पाएंगे कि ऐसा करते हुए कविता खुद ब खुद आपकी नज़र का काम करती चली जाती है। और तब आप इस बात को महसूस कर पाते हैं-

''पहाड़ किसको हराते हैं

नदियां किससे जीतती हैं

हवाओं ने कब किसे पीछे छोड़ा''



तब आप ''युद्ध से बाहर जहां कोई युद्ध नहीं'' तक पहुंच पाते हैं। आप पाते हैं -

''ज़िंदगी वहां भी थी

जहां मैं खोज नहीं रहा था''



यह एक दर्शन है जिसमें इस आपधापी से बाहर भी एक जिन्दगी का वज़ूद संभव है। बस हमारा ही ध्यान उस तरफ नहीं जाता या कहें ध्यान नहीं जाने दिया जाता। एक दुश्चक्र आपाधापी का इस तर रच दिया गया है और हमारे मन में बिठा दिया गया है कि हम इससे इतर कुछ सोच ही नहीं पाते। यह एक पूरी की पूरी साजिश है हमें अपने ही भीतर के संगीत, अपने ही देखने, अपनी ही महसूसियत से दूर रखने की। हमें बार-बार उस मुहाने पर खड़ा करके डराया जाता है जिसके उस तरफ अनंत खाई है। मगर इस मुहाने के दूसरी ओर एक दूसरा छोर भी तो है। यह कविताएं बस उसे ही दिखाने की कोशिशों में लिखी गई हैं-



''मैं हर बार सोचता रहता हूॅँ

ये जहाजए मोटर गाडियाॅँ कैंचियाॅँ

पलंग, कंचे, काग़ज़ और रोशनी

किस तरह ज़रुरतों में खदबदाते हैं

और मैं उन्हें छोड़ देता हूं पके आलुओं के स्वाद में



जिंदगी एक पुकार, एक दुख है

वह धक्का देती है

मैं गिरता हूं

अपनी ही छांह में



मेरे भीतर का संगीत बजता है

मैं चिड़ियाएं देखता हूं

और वह पुल जिसे पार करता हूं रोजाना

एक दिन गिर जाता है



सारी चींटियां जिन्हें मैं नाम से नहीं जानता

बच जाती हैं

उन्हें मालूम है

मिट्टी से किस तरह उगा और बचा जाता है''


नीलोत्पल

यह कविताएं कभी सवाल की शक्ल में, कभी किसी इशारे में बार-बार आपसे कहती लगती हैं कि दुनिया को जरा इत्मीनान से देखो, इत्मीनान से महसूस करो। अपने से इतर चीजों के वज़ूद को पहचानो, उसे भी मान दो।

''सभी के बीच हत्याएं होती हैं

ख़ूबसूरत शहर इसी तर्ज़ पर बनते हैं



हम उन्हीं आंखों से देखते हैं

जो उन्माद और संयम से भरी हों



विचार एक प्रक्रिया है जो पेड़ों

और समुद्र में सबसे ज़्यादा चलती है''



यह कविता हमें बताती है कि हम एक कवि तक उसकी भौतिक उपस्थिति से नहीं उसकी कविताओं के जरिए पहुंचते हैं। उसकी कविताओं में साझा हमारी आकांक्षाओं के जरिए पहुंचते हैं। और ऐसे कवि का पता उसकी कविताओं की शक्ल में हर कहीं मौजूद होता है-

''तुम्हारे गीत सरहद चीरते

चिड़ियाओं की मानिंद

बैख़ौफ़ आ धमकते हैं हमारे दिलों में



आख़िर हम नाराज़ हों तो किस बात पर

हमारी नाराज़गियों में भी चहेते हो तुम



नदियाए दरख़्त, बादल, पहाड़, आसमान

पता पूछते हैं तुमसे मिलने के लिए

तुम्हारा पता हवाओं.सा

हर कहीं मौजूद



इन कविताओं को पढ़ते वक्त बार-बार यह लगता है कि आप कोई एक कविता नहीं बल्कि कविता के भीतर कविताएं पढ़ते जा रहे हैं।
००

नीलोत्पल की कविताएं नीचे लिंक पर पढ़िए

https://bizooka2009.blogspot.in/2017/12/blog-post_5.html?m=1


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