03 जनवरी, 2018


वसंत सकरगाए की कविताएँ

वसंत सकरगाए 

  मृग-तृष्णा

एक बड़ी बाधा है दूर तक खींची हुई
मेरे मन के बीचोंबीच
एक हिस्से में इसके जंगल हराभरा
दूसरे में तपता रेगिस्तान काफी फैला हुआ
यह जो मृग है ना! पूरा जंगल फिरता हुआ
खुशियोँ में लम्बी-लम्बी कुलाचे भरता हुआ
जब कभी आ जाता है बाधा के ठीक पास
यकायक सदा-ए-आब की चमकीली 
कोई बदगुमानी उसे बार-बार पास बुलाती है...
और वो बाधा लाँघ जाता है
मैं चीख-चीख वापस बुलाना चाहता हूँ
बनिस्वत उसकी छलाँगों के 
मेरी कातर आवाज बहुत पीछे रह जाती है
लौटता है अर्धविक्षिप्त सा थकाहारा
बबूल नागफनी से बिधा लहूलुहान,कराहता हुआ
उसे पता है कि मेरी आत्मा के भीतर
एक काँधा भी है खासा मजबूत
जिस पर सर पटक-पटककर रोया जा सकता है मुकम्मल
वो जब लौटा है
अर्सा रोता है दहाड़ मार-मारकर
रोकते-रोकते सिसकियाँ फिर बामुश्किल कह पाता है-
'फकत गुमाँ नहीं है सेहरा पर पानी का होना
धरती को ओढ़ता-बिछाता हूँ
सूँघ लेता हूँ कि धरती के नीचे क्या है,
बेशक कहती हो दुनिया इसे सराब* मेरा
जिसके लिए बेज़ा तड़पता हूँ
हकीकत तो यह है कि तपते मरुस्थल के नीचे 
बहती जरुर है एक मीठी नदी
उसके कितने ही घाट
घट-घट लोग बुझाते हैं प्यास
फिर क्यूँ मेरी भागस्थली पर तपता मरुस्थल है
बस,यही एक तड़प मुझे रेज़ा-रेज़ा भटकाती है'
चूँकि कलेजा का टुकड़ा है यह मृग मेरा
लिहाजा तड़पता हूँ मैं भी 
एक नदी की याद में उतना ही
जो मेरे तपते रेगिस्तान के ठीक नीचे बहती है।
००


इन दिनों में

बहुत सताती रही तुम्हारी याद
इन दिनों तुम बहुत आयी याद
इन दिनों 
बहुत तेज चली शीतलहर
ठिठुरती रही धरती 
उदिग्न हुआ ऊष्मित सूर्य 
लाँघी नहीं किंतु कोहरे की झिलमिल
प्रेम कितना भी अंतरंग हो,सार्वजनिक न हो
टूटे न कोई वर्जना,
तो प्रेम शाश्वत है'
तुम चाहती थीं,सब वैसा यथावत रहा
स्मृतियों के पृष्ठ खुलते रहे 
मैं डूबकर पढ़ता रहा शब्द-शब्द
आदी से अब तक
बिल्कुल ताजा मिले प्रेम के अर्थ-कलाप
हालाँकि इन दिनों
शुभप्रभात-शुभरात्रि
इतना भर रहा हमारा संवाद
मुझे रहा इतना तक याद
तुम्हें पसंद नहीं पहले से काटकर रखा हुआ सलाद,
फ्रीज में रखे हुए हैं ज्यों-के-त्यों
ककड़ी,मूली,प्याज,गाजर और शलजम
तुम बिन यूँ भी मेरा खाना रसहीन रहा,
हालाँकि मन-ही-मन गौरवान्वित होओगी
पाकर मेरा बढ़ा हुआ यह प्यार
मगर इतराकर,
मुँह बिचकाकर
मुझे चिढ़ाने के लिए कहोगी-
ऊंहूँ..शायद!
००





उल्टी गिनती,उल्टे दिन

सीधी गिनती के साथ-साथ
सिखायी गई थी उल्टी गिनती मुझको छुटपन में
यह भी कि दिन फिरते हैं
सभी के एक-ना-एक दिन
आते हैं अच्छे दिन
तो बुरे बनकर लौटते हैं किसी के अच्छे दिन
तब मैं सोचता था,
जब चलता है सबकुछ सीधा-सीधा
सबको भाता है कुछ-ना-कुछ जोड़ा जाना
मुझको तब सचमुच बहुत अखरता था
जोड़े हुए से कुछ भी घटाया जाना
तब मैं  सचमुच नहीं जानता था,
यह कितना जरुरी होता है 
गणित और समीकरण से भरी इस दुनिया में
मैं चूँकि तब भी फैल कर दिया जाता था
और अभी-अभी करार कर दिया गया हूँ नाकामयाब 
किसी के बदले रुखे बर्ताव से
लेकिन मैं तब भी सोचता था और सोचता हूँ अब भी 
कि नौ के बाद बजते हैं जब दस
सोमवार के बाद तय है मंगलवार का आना
जनवरी का पन्ना बदलते ही
फरवरी का आ जाना
फिर क्यूँ लम्बी छलाँग लगाना
किसी के कदमों में गलीचे की तरह बिछ जाना
अब तक सीधा-सीधा चलते 
क्यूँ लगने लगा है किहोता है
किसी का गणित-समीकरण अलग-अलग
कब किसको जोड़ा जाना
किसको कब घटाया जाना
जिसे कभी समझ नहीं पाया सीधासादा
मेरा भोलामन!
अब क्यूँ लगने लगा है मन मेरा
सीधी के एबज उल्टी गिनती में
कि अमाँ छोड़ो यार!
एक जज्बे की इस तयशुदा मुकम्मल हार के बाद
आखिर क्यूँ न गिने जाए
मौत के उल्टे दिन!
००

तो खुला मिले घर का ताला

आ-आकर चोंच मारती,कुरेदती है पंजों से 
भोलीभाली चिड़िया करती है एक ही सवाल,
कब तक यूँ उदास लटके रहोगे जनाब!
लेकिन फँसी गर्दन घर पर लटके ताले
कुछ बोल नहीं पाते ...
फिर...बदलते मौसमों की मार झेलते घर के बंद ताले
ज्यादा बर्दाश्त नहीं कर पाते किसी की अनबन 
जैसे अपनी प्रियतमा-कुँजी के बिरह में अभिशप्त
लटके-लटके मर जाते हैं!
हिलाडुला मनाने या झुंझ में बार-बार झटकने के
बेकार जाते हैं हरसंभव प्रयास
जिस तरह मरने के बाद ऐंठ जाती है लाश
अकड़ जाते हैं वैसे ही मुर्दा ताले भी
टूट जाते हैं मगर खुल नहीं पाते हैं
यहाँ तक कि जीवनसंगिनी चाबी भी
टूट जाती है मुड़-मुड़कर लेकिन खोल नहीं पाती 
बंद हो चुकी पिया के जीवन की गाँठ..
मैंने देखे हैं ऐसे कितने ही डरावने दृश्य
जहाँ बिलखता है अब भी आकर इतिहास 
कि दीवारें ढह गईं मगर खुल नहीं पाए ताले
अब तक लापता हैं जिनकी कुँजियाँ
सुनो! मैं जा रहा हूँ प्रवास पर
चाहूँगा कि लौटने पर बंद न मिले घर पर ताला
और हाँ...
किसी नर्सरी से लेती आना सूर्ख गुलाब का पौधा
घर पर लगा सूर्ख गुलाब 
अब सूख चूका है तुम्हारे बिना
उसे अब मत छूना 
बहुत तीखे होते हैं सूखे गुलाब के काँटें
और मुझे बहुत पसंद है तुम्हारे गोरे-गुलाबी हाथ
जिन्होंने मेरे हर सुख-दुःख बाँटे
००



 जनेऊ

ब्राह्मण कुल में जन्मा और जनेऊ धारण नहीं किया
हाय!मेरा तो यह जीवन अकारथ गया
ऐसा नहीं कि मेरा ब्राह्मणत्व कभी जागा नहीं
और मैंने जनेऊ कभी पहनी नहीं
लेकिन जनेऊ को लेकर मेरे तजुर्बे कभी ठीक नहीं रहे,
मसलन-
एक बार नर्मदा में तैरते समय 
मेरे हाथों में उलझ गया था मेरा जनेऊ
और मुझे डूबकर मरने से
बाल-बाल बचाया था कुछ लोगों ने
ऐसे ही एक मर्तबा कार का स्टेरिंग घुमाते समय
मेरा बायाँ हाथ उलझा था जनेऊ में
वो तो गनीमत थी कि बावजूद इसके 
सामने से आ रहे ट्रक का ड्रायवर मुसलमान था 
जिसने ठीक वक्त पर ट्रक मोड़ लिया था विपरीत दिशा में
जबकि मेरी कार पर जय-जय श्रीराम लिखा हुआ था
और तो और मेरी एक प्रेमिका
रुठकर जो गई,तो लौटी नहीं फिर कभी मेरे जीवन में
इसी नामुराद जनेऊ की उलझन के चक्कर में
कि जब उसने फैलायी थी बाँहे अपनी
मैं भर न सका उसे अपनी बाँहों में 
तब से टाँग आया था अपनी जनेऊ
हरसूद के पुश्तैनी घर की किसी खूँटी पर
हालाँकि घर के बड़े-बुजुर्गों ने नाक-भौं सिकुड़ते हुए
मशविरा दिया था कि जाकर सिरा दूँ अपना जनेऊ
बाईस किलोमीटर दूर नर्मदा के बड़केश्वर घाट पे
मैंने सोचा क्यों जाना इतनी दूर
जबकि नर्मदा को खुद आना है 
सबका सबकुछ सिराने हरसूद
बहरहाल जनेऊ को लेकर
मेरा ताजा अनुभव यह है चुनाव के ठीक पहले
कि तमाम किस्म की दीर्घ और लघु शंकाओं के मद्देनजर
जीडीपी के ये तमाम आँकड़ें
नोटबंदी, रोजगार और किसानों के नृशंस हत्यारे
पता नहीं कैसे हो गए मैली गंगा में नहा कर पवित्र-पावन
कि एकाएक उछलाकर ऊपर लाए गए 
और जिन्हें कानों पर लेपटे जा रहा है कसकर जबरन
पर अब भी असंख्य लोग ऐसे हैं,जो सबकुछ अनसुना कर
जो सिर्फ हगने-मूतने के लिए 
कान पर जनेऊ लपेट रहे हैं
मुझे तो सचमुच बड़ी कोफ्त हो रही है
ऐसे देशद्रोहियों पर
मेरे देश में अब राजनीति ही ऐसी जगह है
जहाँ बेखौफ होकर,बिल्कुल नंग-धड़ंग
आप खुले में पेशाब और पाखाना कर सकते हैं
और इसके लिए आपको कदापि नहीं रोकेंगे
अमिताभ बच्चन या विद्या बालन!
००

 एक डॉक्टर की मीठी दवा
उम्र की अस्सीवीं पायदान पर
खुद को उपेक्षित,तिरस्कृत महसूस करता हुआ
बैठाठाला निठल्ला आदमी
बेशक भूलने लगता है कुछ जरुरी गिनतियाँ
लेकिन बावस्ता लोगों का सारा गुणा-भाग
और टूटे हुए विश्वास की गड़बड़ियों का एकएक हिसाब
आदमी इसी पायदान पर लगाता है
इस पायदान पर बैठे आदमी के
कँपकँपाते हाथ
बार-बार फैलते हैं चारों तरफ
खूब जतन से सहेजते हैं स्मृतियों के उपादान 
बिखरे हुए सारे अवदान
अदृश्य में अज्ञात किसी पायदान पर खड़ी मौत से बतियाता
तो दिल्लगी करता कभी
अकबकाया सकपकाया आदमी
यकायक चढ़ने-उतरने लगता है सातवीं-आठवीं पायदान
इस अस्सीवीं पायदान पर पुनर्यात्रा करता हुआ आदमी
इस पुनर्यात्रा में पुख्ता होते हैं
टूटे हुए कितने ही विश्वासों के जुड़ाव
मसलन पापा पर लागू नहीं हो रही है
दीगर डॉक्टरों की महँगी से महँगी दवाएं
मायने यह नहीं कि कमतर हो गया है हर दवा का असर
एकाएक तासीर भी नहीं बदली है पापा की
कहीं कोई रट है मगर
हथेली पर जो तम्बाकू मलवाती है
और कहते हैं!ले चलो मुझे डॉक्टर सुभाष शर्मा के पास
उदयराम हॉस्पिटल के इस प्रवेश कक्ष में
बार-बार मिचमिचाती,अस्थिर समय से बेखबर
ज्यों ही होती है स्वर्गीय डॉक्टर एस एल शर्मा की
तस्वीर से पापा की आँखें-चार
उंगली खुद-ब-खुद हरकत करने लगती है हथेली पर
गोकि तम्बाकू मल रहे हो पीरगेट स्थित 
स्वर्गीय डॉक्टर शर्मा की डिस्पेंसरी पर
थोड़ी अपने और थोड़ी शर्मा जी के लिए
कि तभी भीतर बुला लिया डॉक्टर सुभाष ने
और स्मृति-विस्मृतियों के किसी छोर से
कुछ दवाओं के साथ,थमा दिया खोया हुआ आस्वाद
और खिली हुई एक पुलक लिए
पापा ने कहा-'यह तो परम्परा है हमारी!'
और दाल-दलिया खिचड़ी की रकाबियों को
दूर सरकाते हुए उस रविवार
घी में डूबो-डूबो कर पापा ने छककर खायी
पूरनपोली!
कितना नामुमकिन लगता है दिन-ब-दिन 
कड़वे होते इस समय में
कड़वी दवाओं के साथ कोई डॉक्टर 
आदमी को लौटा दे उसका खोया हुआ स्वाद
उम्र की अस्सीवीं पायदान पर।
००




  तेरे नाम का दीया

जरुर किसी की नेमत हुई मुझ पर
तभी तो यह इल्म हुआ तुझको
नीम अँधेरों डूबा,एक गहरा कुआँ 
है मेरे दिल के भीतर 
बाजवक्त मैं लापता हो सकता हूँ
जिसमें गिरकर
तुम आईं और कुएँ के सफे पर
रख गईं प्रेम का जलता हुआ दीया
अपने नाम का
अब चलता हूँ तो कदम नाप कर बहुत चलता हूँ
हिल न जाए कहीं तेरे नाम का दीया,बहुत डरता हूँ
हर साँस अब बहुत हौले लेता हूँ
तेज साँसों से काँप ना जाए दीये की लौ
पूरी साँस अब छोड़ी नहीं जाती
कि दीये को भी चाहिए मेरी कुछ साँसें बहुत जरुरी
अब खड़कता है कहीं पत्ता कोई जरा 
होने को होता है अंदेशा जब आँधियों का 
बहुत चौकन्ना हो जाता हूँ
इन आँधियों का क्या भरोसा
अक्सर दाखिल होती हैं कानों को भरती हुईं
और आँखों में धूल झौंककर 
चली आती हैं दिल तक
किसी के दिल में रौशन किसी के नाम का
प्रेम-दीप बुझाने
हाथों को ले जाता हूँ दिल के भीतर तक
फानूस बना लेता हूँ हथेलियों को
सह लेता हूँ तेरे प्रेम के दीए की आँच
कि तेरे प्रेम-दीप की आँच को 
कहीं आँच ना आए आँधियों की
कहीं बुझ ना जाए मेरे दिल में
तेरे नाम का जलता हुआ दीया।
००


समर्थन

 इसलिए गोली दाग दी गई उड़ती चिड़िया को
लौटेगी,तो बैठेगी खुद को पंख से ढँककर
पेड़ को नग्न किया जाना चूँकि बहुत जरुरी था 
तलवारों से काट दिया गया एक-एक पत्ता
दुम और पैरों में गुप्तांगों को छुपाकर लेटी 
कुतिया को भगा दिया गया हड़काकर 
यह सब इसलिए किया गया
कि ताजा-ताजा पूर्णनग्न हुए 
भद्रजनों को
संबोधित किया जाना है यहाँ
और सुनिए!
पढ़िए अखबारों में देखिए टीवी चैनलों पर
इसे जनता का कितना समर्थन है।
००


चिड़िया भी होता है कविता का नाम

यूँ ही नहीं टूटती कविता की लय
बिखरता नहीं कोई छंद बेवजह
नहीं मिली होगी कहीं कोई शीतल छाँव
गर्मी से हलकान
दूभर हुई होगी हर साँस
तब कहीं दिया होगा खिड़की पर धरना
किया होगा सामूहिक प्रदर्शन
चीख में बदली होगी मीठी चहक
लगे होंगे गगनभेदी नारे
एसी,कूलर और कमरे में चल रहे पंखे के 
इस शोषण के खिलाफ
कि क्यों खींची जा रही है उसके हिस्से की
शीतलता सारी,सारी नमी सारी हवा
मद-मस्त पंखे ने जब सुनी नहीं धरने प्रदर्शन की आवाज
लगा उसे पहुँचाने अब तो अपनी बात
जाना होगा और पास
लेकिन धरती-आकाश एक करने वाली
वो थी इस त्रासद सच से अंजान
कि आदमी ने कर लिए हैं कितने ही बटन ईजाद
दुनिया की हर किस्म की हवा पर
उसी का है सारा हिसाब-किताब
एक चिड़िया जो आयी है पंखे की चपेट में
अनसुनी रही जिसकी आख़िरी चीख-पुकार
छूते हुए मेरी चलती कलम को
गिरी है कागज पर लहुलूहान
यह निखालिस मौत नहीं एक चिड़िया की
टूटना है कविता की लय का 
बिखरना है किसी  छंद का।
००




पिता की विरासत

ओ पिता!
मुझे नहीं चाहिए कोई खेत
बड़े से इस मकान का कोई हिस्सा,
पर मुझे चाहिए आम का बूढ़ा दरख्त
जो लगा हुआ है हमारे खेत,घर-आँगन
जिसकी किसी खोखल में
छुपा आया था नमक की कुछ पुड़ियाएँ छुटपन में
आम के उस पेड़ पर
अक्सर मैं चढ़ जाया करता था,मीठी किसी साग*
की तलाश में,
तुम्हारी बलिष्ठ भुजाओं,मजबूत कँधों के सहारे
कैरियाँ लगी थीं जिन शाखों पर
कैरी के फोतरे* दाँतों से खींचकर
भीतर जाती सारी खटास,जब नहीं होती थी बर्दाश्त
मिचमिचाने लगती थीं आँखें,नहीं मिलती थी
जब कोई मीठी साग
मैं लगाता था तुम्हारी गुहार...
उतरते-उतरते चाट लिया करता था तुम्हारे काँधे का नमक
और तुम खिलखिला उठते थे
मेरी जीभ की गुदगुदी पर
तुम्हारे काँधों के नमक में घुले हुए थे-
दो ही सूत्र वाक्य,जो अब भी ताकीद हैं मुझे बार-बार
कि-'एक-न-एक दिन हरामी हारेगा जरुर'
कि-'मत करना कभी किसी का बुरा,होगा नहीं
कभी तुम्हारा बुरा'
हाँ पिता हाँ!
नमक तुम्हारे काँधों से होकर
जो मेरी रगों में बहता है सतत...
कि मुझे चाहिए... और जरुर चाहिए
फकत इन सूत्र-वाक्यों की विरासत
कि अंततः बचा रहे मेरा कवि
मेरे भीतर!
००
(1-*फोतरा-निमाड़ी लोक भाषा का शब्द है।जिसका अर्थ छिलका है।
 2-*साग-'पेड़ पर लगी अधपकी कैरी)


 परिचय:
वसंत सकरगाए
दुष्यंत कुमार,वागीश्वरी तथा संवादश्री सम्मान से सम्मानित
जन्म-2 फरवरी 1960 (वसंत पंचमी) को हरसूद(जो कि इंदिरा सागर बाँध के कारण जलमग्न हो चुका है)
वर्तमान पता-ए/5 कमलानगर भोपाल

मोबाइल-9893074173/9977449467


चित्र: गूगल से साभार 

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