14 फ़रवरी, 2018

अरुणाभ सौरभ की कविताएं


अरुणाभ सौरभ 


राग यमन                                  


रात की पेट में 
धँस चुकी चाँदनी 
ठिठुर रही हवाएँ 
गली के नुक्कड़ पर
बेआवाज़ गाता पेड़ 
आरोह अवरोह के साथ  
किनारे की रेत पर 
संगत करती फेनिल लहरें
आलाप में सनन-सनन 
दूर कहीं अनजान झोपड़ी से 
कनखी मारता चाँद  

गाँव की सबसे बूढ़ी अम्मा 
अंधेरे से लड़ने का दावा करता कवि 
फूलती साँसों के बीच हारमोनियम पर 
भास मिलाता कोई गायक-कलाकार 
राग यमन तो रात की खूबसूरती है 

एक एकांत कोना 
कोई मौन संगीत 
एक पहचानी सी छुवन 
एक धड़कती सी आहट 
भीतर-भीतर बज रहा हो 
स्थायी-अंतरा के साथ 
हरेक अंतस में 
अलग-अलग जैसे कि राग यमन 

ये राग यमन है 
ना कि रात का विरानापन 
ये इस गली का आखिरी मकान है 
ना कि कोई भीड़-भीड़ चौराहे का 
ये प्यार की सिफ़ारिश है
ना कि कोई चालाकी 

गाँधीजी की आत्मा रागों में बसती थी 
नरसी मेहता की भी 
चरखा तो ताल मिलाने का बहाना था 
जो चलता नहीं बजता था थाट के मुताबिक़ 
सूत काटकर कपड़े बुनना जो जानता हो 
वही जान समझा सकता है 
रात के समय गाये जाने वाले राग की अहमियत .......
००







आतम-गियान


महान वेधशालाओं में
किए गए परीक्षण
विचारों के सबसे बड़े स्कूल से प्राप्त ज्ञान के आधार पर
सभ्यता में दुमुँही चाल चलताचालाक आदमी
जिसकी चमकती शातिर आँखें
बेहद मीठी जुबान और मुसकुराता हर बात पर
वह दुनिया का सबसे अमीर
सबसे बड़ा नेता,अधिकारी हो सकता है
वो दुनिया का सबसे चालक आदमी हो सकता है
पर वो सिर्फ़ आदमी
और कवि नहीं हो सकता ..............


आतम-गियान 



किसी साजिश के तहत 
सिल जाए ज़ुबान 
किसी अपराध के नाम पर
कोई और क़ैद हो जाए झूठ-मूठ में
तो परिवार के लोगों 
मित्रों 
साथियों 
दुश्मनों 
किसी भी बात पर रोना मत 
यह समय रोती आँखों में लाल मिर्च रगड़ने का है 
बदलती दुनिया का भाष्य है 
सूरज के गालों में फेसियल करने 
ब्लीच करने चंद्रमा को पहुँच चुकीं हैं क्रीम कंपनियाँ 
क़ैदख़ाने की समूची रात अपने भीतर समेटे बैठी है जनता
दिन में/ दुपहरी में 
अपने घोसले में माचिस के डब्बे जैसे घर में 
इधर योजना और नीति पर चल रही है बहस 
असली इंडिया या असली मसाला 
उधर मांग कि लोच समझ नहीं पायी 
अपनी प्यारी आर बी आई ......


आतम गियान

अपने ख़ून को पानी समझ
किसी माँद में दुबककर खुजलाते रहो काँख
भेड़िये, साँप या भूखे शेर के मानिंद 
किसी जलाशय में नदी में 
तरकर अनंत काल तक जल समाधि में 
लीन होकर त्याग दो प्राण 
हत्या के बाद ज़मीन पर गिरे ख़ून, माँस और लोथड़े 
कटे फल के टुकड़े सा महसूसना है 
जिन्हे देखकर आंतरिक तपोबल जागृत होगा 
हम अपने कुनबे,दड़बे में छिपे लोग जिनकी कोई मांग नहीं 
एक अमरफल लाने निकले हैं 
अगम के पार 
निगम के पार 
सत के पार 
असत के पार 
लोकतन्त्र को बैताल की तरह अपने कंधों पर लादकर 
कथा सुन रहे हैं राजा विक्रम की तरह 
भयानक चीख़ का नाम है हमारा समय 
अनगिन सवालों से टकराने से पहले 
अपने बच्चे को जी भर चूम लिया जाए !
००



दिन ढलने से पहले 

अंगड़ाई में कट गए फूलों से दिन
चिड़ियों की चहकन से शुरू हुआ दिन
आसमानी चादर ताने गुनगुने दिन
मखमली घास की  सेज पर गीत गाते दिन 
सूरज के जूते में फीता बांधते दिन 
या पीछे से हाथों से आँखेँ  मूंदता दिन 
भरी दुपहरी में सरसराता दिन 
लोहित आकाश में कनात फैलाये दिन 
सूरज को परदेस भेजकर सुबक रहा दिन
ढलने की पारी से लड़ रहा दिन 
चाँद के चेहरे पर क्रीम लगाकर लौट आना दिन 
चिड़ियों की चहक में फूलों की महक में 
प्रभाती से आकाश से पाताल से 
दसों दिशाओं से ऋतुओं से 
नक्षत्रों से पक्षों से 
मास-पहर और सातों घोड़े  से कह दो 
कि सूरज के संग रोमांस कने का वक़्त हो गया है ...
उस दिन की प्रतीक्षा में 
मुरझा जाएँगे सूखे फूल सारे
पानी किसी अनजान लड़की सा
बहने लगेगा मेरे भीतर 
और ट्राफिक सिग्नल देंगे पेड़
उस रास्ते के लिए
जहाँ हरियाली अवसाद से निकाल खींच लेगी
अपना वजूद
वसंत उस वक्त
पूरी जवानी में झूम-झूम गाएगा मालकौंस
भैरवी थाट में
दिन के सातवें पहर में

पतीले में माँ लगाएगी लेवा
अदहन उबलने से पहले
चावल गिरने से पहले
और हम निकलेंगे बाहर
होशो-हवास में
हमारे पास कहने-सुनने और चल पड़ने का
बचेगा विकल्प
उस दिन दिशाओं में गूँजेगी
हमारी आवाज़
पहाड़ अपनी सबसे ऊँची चोटी से
कविता पढ़ेगा
शंखनाद की तरह
अन्तरिक्ष की विराट सत्ता में
दिन का समूचा प्रकाश
रात का सन्नाटा
बहती हवाओं की फड़फड़ाहट
और हमारा रक्त
पेड़ की छाल के नीचे से बहेगा
तब हमारे पास दुनिया बदलने की
पूरी ताक़त होगी

उस दिन घोषणाओं के वजाय
कोई उदास नहीं होगा
किसी का दिल नहीं टूटेगा
कोई भूखा नहीं होगा
गोदाम में नहीं सड़ेंगे अनाज
कोई हत्या नहीं होगी
ना हत्यारा आवारा घूमेगा

उस दिन से हर बच्चों के हाथ में किताब होगी
आँखों में चमक
उस दिन से कोई अस्पताल नहीं जाएगा
ना कोई न्यायालय ना थाना
तो साथियों,
क्या कोई ऐसा दिन
हमारे हिस्से में आएगा
जिस दिन किसी को
प्रार्थना ना करनी पड़े
अपने-अपने वास्ते
अपने-अपने ईश्वर के आगे
गिड़गिड़ाना ना पड़े ???????......
००

मीरा टॉकीज


बेसहारे की लाठी नहीं
स्कूल की उबाऊ क्लास नहीं
वहाँ सिर्फ आनंद बरसता है
भीड़-भक्कड़
धूल-धक्कड़
बस-ट्रक की हाँय-हाँय से
हाँफते-खाँसते
मेरे उसी शहर
सहरसा में
जो निस्तेज चेहरे की झुर्रियाँ और
झक्क सफ़ेद बालों वाली
बूढ़ी अम्मा की तरह
जिसका बेटा जनसेवा एक्सप्रेस पकड़कर
पंजाब गया है कमाने
और अब उँगलियों पर गिने जा सकते हैं नौजवानों के नाम


उसी शहर में
स्टेशन और बस स्टैंड के बीच
दो द्वारों के बगल में
प्रशांत टॉकीज-मीरा टॉकीज
जैसे गंगा-जमुनी तहजीब


पोस्टरों से पटी दीवार पर
पान की पीक से पटी सड़कें
टिमटिमाकर जलते वैपर लाइट की पीली रोशनी में
मिरमिराए रोगी सा सुस्ताया शहर है जो
शहर जो बन ना पाया कभी
सहर-सा,थोड़ा गाँव,थोड़ा कस्बा सा
थोड़ा शहर जो बीमारियों से लड़ता है
थोड़ा बेरोज़गारी  का मारा
थोड़ा आवारा घूमता है
थोड़ा मीर टोला होकर
महिला कॉलेज के गेट पर पहुँच जाता है
और लड़कियों पर फब्तियाँ कसता है
जो बच गया सो 
भांग के नशे में धुत्त है
या रक्तकाली मंदिर से आगे गाँजा कश लेकर
घंटाध्वनि सुनकर जीता है
बस्ती से आते अजान के स्वर पर
या मेंहीदास सत्संग पर
कान देता है
कुछ-ना-कुछ सुनकर ही जागता है यह शहर
और रिफ़्यूजी कॉलोनी से होकर
महाबीर चौक होते हुए
खिरियाही की तरफ़ भागता है
और वहाँ
नई-नवेली वेश्याओं का दाम पता करता है
मेरे उस शहर की पहचान है दो सिनेमाघर
उनमें से एक-मीरा टॉकीज


जहां अनजान चेहरे को
घुप्प अंधेरे में टॉर्च दिखाकर सीट बताता टॉर्चमैन
जिसकी गोल रोशनी की
गोलाइयाँ भर गोल है पृथ्वी हमारी
सिल्वर स्क्रीन भर रंगीन है ये दुनिया
खड़खड़ाते पंखे भर है  संगीत
और कानफ़ाड़ू सीटी से
सी ......सी.....ई.....ई .............करती है
मीरा टॉकीज ...


आधुनिकता का ककहरा
फैशन का पाठ
इस शहर ने बंबइया फिल्मों  से सीखा है
गुप्त-ज्ञान मॉर्निंग से
जिसकी गवाही देती है –मीरा टॉकीज
फिल्में बदलती गई
हमारा समय बदलता रहा
लोग बदलते रहे
शो के लिए लंबी लाइने
ब्लैक टिकट,लाठी चार्ज,मारपीट
होते रहे ,
मुश्किल  से अब दीखता है हाउस-फुल का बोर्ड


मल्टीप्लेक्स बनने तक
जितनी बच जाय
इतना है इनदिनों कि
शहर की बढ़ती चमक-दमक में
थोड़ी और चमक गई है
..........मीरा....टॉकीज ..........
००










नींद और कविता



जैसे अन्न
भूख के लिए
नदी पानी के लिए
पानी ज़िंदगी के लिए
ज़िंदगी तुम्हारे लिए
तुम्हारी बाँहें
सुकून के लिए
तुम कविता के लिए


रात नींद के लिए
नींद रात के लिए
वैसे हमारी सभ्यता के लिए
नींद और कविता
सबसे निर्दोष कोशिश है .....
००


मामी:एक कविता

ननिहाल जाना पसंद करता हूँ                                 
कि मंदिर का प्रपंच नहीं
पर यहाँ
वरदान में सिर्फ प्यार बरसता है,
नानी-नाना के अलावा मौसियाँ
और ननिहाल को ननिहाल बनाने में
सबसे बड़ी भूमिका होतीं हैं-मामी
मामी शब्द उच्चारण की दृष्टि से भी
सबसे मधुर सम्बोधन है


मधुरता इतनी की कह दूँ कि
शहद की पूरी शीशी होती है-मामी
मा........मी...........
मिश्री की डली,
बताशे की डब्बी
दूध में मिली चीनी
रसगुल्ले का रस होती है-मामी


महासागर की तरह स्त्री जीवन
यंत्रणाओं में परिवार की गाड़ी खींचती
कभी रोती-कभी सुबकती
कभी रूठती
जाने क्यों कभी-कभी पिट जाती मामी ??
और शरीर पर पड़े काले निशान को साड़ी के पल्लू से 
फटी ब्लाउज को
सफाई से काहे छिपाती थी-मामी
तब जबकिमेरी उम्र दस साल थी.........
पति का सारा दुख अपने ऊपर  लेकर
इन सबके बीच
जीने के सलीके और
तमीज़ के पाठ जबरिया पढ़ती रही-मामी


सुस्वादु पकवान की गंध
दाल के फोरन की छौंके की झांस
गरमागरम भात पर घी होती है-मामी
अचार की खटाई
सूरन की कब-कब
बूटनी मिर्च की रिब-रिब
रूप की सुंदरता,समूचा-स्वाद,समूची-गंध,समूचा-स्पर्श
स्त्री कलाओं की सम्पूर्ण सुंदरता
का समूचा कोलाज
भागती हुई दुनिया में छूटे सम्बन्धों को जोड़ने वाली पुल होती है-मामी  
कभी प्यार करती,इतराती,इठलाती,गरजती,बरसती
और अपनी पहचान के लिए हमेशा तरसती है………..मा......मी.........
००




प्यार तुम्हारा

तुम्हारी आँखें-
महेन्द्रू घाट,बाँस घाट
तुम्हारे होठ
गोलघर,बिस्कोमान
तुम्हारी बाँहें-
गांधी मैदान
तुम्हारे स्तन-
जंक्शन, डाक बंगला चौराहा
तुम्हारी बातें-
रीजेन्ट,अशोक सिनेमा
तुम्हारा दिल-
कंकड़बाग
मन तुम्हारा-
समूचा पटना
तुम्हारा प्यार-
जैसे पूरा बिहार ...........
००



प्यार तुम्हारा


तुम्हारी बातों में
बरहैया का रसगुल्ला
मनेर के लड्डू
पिपरा का खाजा
प्यार के नशे में बहती है
कोसी,कमला,बलान
शामिल हो जाती है
तुम्हारी आत्मा की गंगा में
डबडबाई कजरारी आँखों में
आती है बाढ़
जिसमें डूब जाता है
मेरे मन का सहरसा
तन का उत्तरी बिहार  


तुम्हारी बातों की मिठास में
और रसीले हो जाते हैं 
भागलपुरी जर्दालू आम
तिरहुतिया लीची
तुम्हारी भाषा
जैसे जनकपुरिया मैथिली
तुम्हारे तानें
जैसे बनमनखी स्टेशन की झाल-मूढ़ी


तुम्हारे सपनों में बनता है
दरभंगा का घेवर
जिसे कांपते हाथों से बनाती हो तुम
टावर चौक पर
क्योंकि तुम मुझसे हज़ारों किलोमीटर
दूर रहती हो
और कभी-कभी रोती हो
जैसे झारखण्ड बटबारे के बाद
रोता है-बिहार .........
००










भविष्यत उचार  

इतिहास की किताब से निकल कर 
आता हुआ एक सुग्गा
भूत की स्याह गाथा गाने लगा 
''जिनके हाथों में सत्ता थी
 वहाँ वादे थे
या आश्वासन’’
धर्म-चक्र में 
बदलने लगा था
इतिहास-चक्र’’
और बदलता गया चक्र 
सुग्गे की बात को उसी तरह भुला दिया गया
जैसे भुला दिए जाते हों  गैरज़रूरी बातें तमाम 
उचार रहा था सुग्गा भविष्यत 
किसी और बहाने से
यह जानते हुए कि
भूत हो जाएंगी सारी बातें  

ये तब की बात है जब,
परिचार-मात्र 
या आदेश-पालन के लिए 
लिखी जाती थी -कविता 

और न्याय-गुण
होती थी हिंसा 
अहिंसक या तो मार दिये गए 
या मस्तक पर
विचारहीन  
तर्कहीन
दिशाहीन
सभ्यता का 
नग्न नर्त्तन होता रहा 
बहुत सारी
टिटही,
बटेर और
बुलबुल की चीखें 
इतिहास से वर्तमान तक  
गूँजती रही  
अब तो,
 वे पंछी भी गायब हुए सारे 
विचारों की हत्याएँ होती रहीं 
राजसत्ता-धर्मसत्ता  
खेल चलता रहा  
हत्या का समाज बनकर 
खेल-खेल में हत्याओं की सत्ता बन गयी  
खेल-खेल में

षड्यंत्र का कोलाज रचा गया विराट कैनवास पर 
खेल-खेल में विचारों से  खेलती रही सत्ता 

खेल-खेल में बनती रही योजना
बिना किसी अमल के  
इस खेल से गायब रहा  जन 
एक देश बनने से पहले 
एक देश बनने के बाद  
एक देश में रक्तरंजित रहा  सबकुछ
इतिहास से वर्तमान तक
खूनी खेल में
००




गाँव की उदासी का गीत

कहीं चले गए हैं पेड़ की डाल से पंछी
उदास हो-होकर
नहीं है बसेरा गिद्ध का ताड़ पर
बिज्जू आम की डाल से
टूट कर गायब हो चुका है
मधुमक्खी का छत्ता
और धूल भरे आसमान में
दोनों पाँव थोड़ा उचक गया है-गाँव


ऐसे बे-मौसम कैसे गायी जाए ठुमरी-कजरी
जब गाँव के किस्से-कहानी का
परान ले जाये कोई जमदूत
कि लोकगीत गानेवाली औरतों के सुर,लय,तान 
कंठ में छाले पड़ने से नहीं
अपने शरीर के क्षत-विक्षत होने के डर से
गुम हो चुके हैं


अब जबकी
मुखिया जी की मूछ में लगे घी से
और बाबूसाहेब के स्कार्पियो के टायर से
नापी जा रही औकात,गाँव की
और सरपंच के घूसखोर,मुंहदेखुआ फैसले पर
टिका है गाँव का न्याय
तो क्या पंडित जी के ठोप-त्रिपुंड से
चीन्हा जाय गाँव का संस्कार


ऐसे समय में
जब हममें कोई संवाद लेने-देने का ढब नहीं बचा
मोबाइल पर अनवरत झूठ बोलकर
ले लेते हैं जायजा गाँव का

वही गाँव
जहां छल-छद्म-पाखंड और भेदभाव के बीच भी
पड़ोसी सिर्फ़ लड़ते ही नहीं थे
पड़ोसी के घर और अपने घर में अंतर
सिर्फ़ चेहरे से हुआ करता था
पड़ोसी के घर के बननेवाले
पकवान की गंध से ही
बरमब्रूहि-कह उठता था पेट
अपनी थाली में जिस समय
सब्जी के बदले रोटी पर
सिर्फ़ एक टुकड़ा अंचार था
पड़ोसी दादी दे जाती थी
गरमागरम माँछ-भात
अब तो पड़ोस में सड़ रही
लाश की गंध तक हमें नहीं आती
पड़ोसी की उदासी तो
हमारे लिए आनन्द है
सिर्फ़ पड़ोस ही नहीं/समूचा गाँव उदास है
गाँव की उदासी का गीत
कोई कलाकार नहीं
पाकड़,नीम,बरगद और पीपल गाते हैं
या गाते हैं वो सूखे तालाब
जिसके आस-पास नहीं मँडराते हैं-गिद्ध
या वो कुआँ जिसमें अब कछुवा नहीं तैरता
महीनों से सड़ रहा
आवारा कुत्ता गंधा रहा है
दुल्हिन नहीं गाती मंगलचार
अपने खून और किडनी बेचकर
सियाराम भरतार परदेस से
पैसे भेजते हैं गाँव
जो गाँव बच्चे-बूढ़े और विधवाओं की
रखवारी में है,जहाँ
हर मजूरिन उदास है खेत में;कि
धान की सीस में
बहुत कम है धान
खलिहान का जो हो
भूसखाड़ में सिर्फ़ भूसा बचेगा
उदास समय में
सिर्फ़ गाँव में उदासी है,कि
पेड़ उदास है
या मधुमक्खी का छत्ता उदास है
लोककथाओं में उदासी है
या रो-रोकर मिट गया है लोकगीत
खलिहान में उदासी है
कि समूचा खेत उदास है
बिन पानी नहर उदास है
हार्वेस्टर-ट्रेक्टर उदास है
कि थ्रेसर की धुकधुकी उदासी का गीत गा रही है
और आटाचक्की ऐसे ही बकबका रही है
उदासी माँ की बूढ़ी आँखों में
छायी हुई दुख भरी नमी है
या आंसू की बूंद
या कच्चे जलावन से चूल्हे जलाने के बाद
आँख में लगे धूएँ का असर
इन सबका
हिसाब-किताब
मैं एक कविता लिखकर
कैसे लगा सकता हूँ....................??????
००


कुछ रोजमर्रे

समय पर सोना
समय पर जागना
दफ्तर जाना
समय पर घर वापस आना
समय पर बाज़ार जाना
एक दुनियाबी आदमी के लिए बहुत जरूरी है
समय पर आदमी बन जाना
समय पर बीमा भरना
बिजली-पानी बिल भरना
समय पर मकान का किराया देना
समय पर खाना-पीना
संभव है समय पर प्यार करना
असंभव है बस समय पर
कविता लिखना 
००



कुछ होना कविता होना नहीं है

कुछ बेपरवाह
कुछ संतुलित
कुछ रोगी-भोगी-योगी
कुछ शांत-अशांत-प्रशांत
कुछ स्वस्थ-निरोग
कुछ मीठा-खट्टा-खारा
कुछ सही-गलत
कुछ होना भी कविता होना नहीं है
कुछ पागलपन है कवि होना
कुछ बीमारी है
कुछ खास लोग ऐसा कहते हैं ....

इतिहास पुरुष जैसा 
काले आखरों की अंतहीन 
उलझी दीवार फांदकर 
बाहर आने की चाह 
स्याह दुनिया में 
प्रलाप छोडना चाहता है, वो 
किताबों की दुनिया से 
जो शायद कह ना पाया हो 
(अधूरे विचार )
जो ज़िंदगी से पहले दफ्न हो गए 
उसे पकाकर-सिंझाकर 
निकालना चाहता है 
आना चाहता है 
पनियाई खामोशी में 
कब्र की मिट्टियों में 
हौले-हौले 
होती है सुगबुगाहट 
आता है धीरे-धीरे 
कब्रिस्तान से 
साथ में मुर्दों की फौज 
देखता है जीते जागते इन्सानों की कमीनगी 
दुर्गंध देती 
लिजलिजी-चिपचिपी दुनिया
अर्थ-विकास-समाज-तंत्र 
भागता है कदम 
फिर उसी कब्रिस्तान में 
जहां से आया था 
कि दूर से गूँजती है-
नारे की कतार
गड़ासा-भाला-तलवार की 
साँय-साँय-साँय 
'निकलो','बाहर निकलो' की चिल्लाहट  
कि सबके सब 
मुर्दों के साथ 
वह भी ज़ोर से चीखता है 
'हमें अंदर ही रहने दो 
हम यहीं हैं-तो ठीक हैं '
वो चीखता है 
चीखता ही रह  रह जाता है 
इतिहास पुरुष जैसा कोई एक 
पर प्रेतों की आवाज़ है 
जो इन्सानों से ऊँची 
कभी हो ही नहीं सकती ...............
००

मेरे तुम्हारे बीच में   

मेरे तुम्हारे बीच में 
पटना -इलाहबाद है 
गाँव-देहात है 
खेत-खलिहान है 
ज़ाफ़री मचान है 
रेलों का आना-जाना मेरे 
तुम्हारे बीच में 
शाहरुख़ ख़ान है 
टाम क्रूज और आमिर ख़ान है 
एंजेलीना, कटरीना, दीपिका 
गुलज़ार, समीर 
ए आर रहमान है 

मेरे तुम्हारे बीच में 
इंटरनेशनल एअरपोर्ट है 
वीजा पासपोर्ट है 
कई भाषाएँ और बोलियाँ 
कई देश और परदेश 
कई पसंद, नापसंद 

फिर भी मै हूँ कि चुप हूँ 
तुम हो कि बोलती ही नही 
क्यो़कि तुम्हारे बोलने पर 
थरथराने लगता है हावड़ा ब्रिज 
हँसते ही चमक उठता है 
ताजमहल का सफ़ेद संगमरमर
नज़र उठाने पर झुकती जाती  है 
पीसा की मीनार 

मेरे तुम्हारे बीच में 
सुकरात के जूठे ज़हर का कटोरा है 
दुर्दांत यातना सह चुके 
कवि की उदास कविता है 

मेरे तुम्हारे बीच में 
कई होनी अनहोनी है ............. 







मेरे तुम्हारे बीच में 
क्रिस्टल ग्लोब पर 
घूमती हुई दुनिया है 
फेन सुई की घंटियाँ 
हँसता हुआ 'लाफिंग बुद्धा'
मोनालिसा और क्लियोपेट्रा है 
मेरे तुम्हारे बीच में 
भविष्यवाणी करता ऑक्टोपस 
पीसी सरकार का जादू 
मौत का कुआँ और
जेमिनी सर्कस है

मेरे तुम्हारे बीच में 
थ्री ड़ी फिल्मों का चश्मा है 
जिससे देखने पर 
बहुत नजदीक लगती है ये दुनिया 
जिससे तुम्हारी दोनों आँखें 
दजला और फ़रात की तरह दीखती है

मेरे तुम्हारे बीच में 
इस्रायल-फिलिस्तीन है
तिब्बत और चीन है 
दक्षिण-उत्तर कोरिया है 
नाटो-सार्क है 
संयुक्त राज्य अमरीका और लेटिन अमरीका है
देश-विदेश के और कई नाम हैं 
मेरे तुम्हारे बीच में 
हिरोसीमा नागासाकी और वियतनाम है 

मेरे तुम्हारे बीच की उदासी 
विचारों की हत्या है.
मेरे तुम्हारे बीच में 
आर्कमिडीज़ की कराह है 

फिर भी हम हैं कि 
जीते हैं,मिलते हैं,
बतियाते हैं
मेरे तुम्हारे बीच में 
चन्दा-मामा है 
अल्फा-बीटा-गामा है
सा-रे-गा-मा .......है 
००







Dr. Arunabh Saurabh 

KV Gole Market New Delhi 110001 

J-23 A Jaitpur Extn. Part-1, Arpan Vihar Badarpur New Delhi 110044

Mobile no.  9871969360 


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