22 फ़रवरी, 2018

पाठक मिलते, तो कहानी रचता

उमा


मेरा ताल्लुक बीकानेर से रहा है, एक ऐसा शहर जहाँ आज भी पाटा संस्कृति का चलन है, मुँह में पान दबाये हुए लोग घंटों पाटे पर बैठे बतियाते रहते हैं, कई तो ऐसे भी हैं, जिनकी रात भी इन पाटे पर गुजर जाया करती है। यहाँ से निकले कुछ किस्से बड़े कमाल के होते हैं, जो शहर की सीमा लाँघ जाते हैं और सब जान जाते हैं कि यहाँ के लोग तसल्ली पसंद है, भांग के नशे से ज्यादा, बातों का नशा पसंद करते हैं, लेकिन अधिकतर शहरों ने ऐसे कल्चर को बहुत पीछे छोड़ दिया है, लेकिन बतकही के बिना चैन कहाँ! 

कहानीकार उमा 


पहले आरकुट, फिर फेसबुक, ट्विटर और वॉट्सएप के चलन ने बतकही के लिए एक नया ठिकाना दे दिया। सोशल मीडिया पर वर्चुअली बस जाने के लिए लोगों की बाढ़ सी आ गई। शुरुआती जान-पहचान के बाद, जब याराना पुराना हो चला, तो फिर वहीं पाटा संस्कृति यहाँ भी दिखाई देने लगी। आज क्या बनाया, क्या पहना से लेकर क्या हुआ तक। बात इतनी बढ़ी है कि कुछ लोग इधर-उधर का सामान जुटा कर पोस्ट करने लगे, तो कुछ लोग फेसबुक की भित्ती पर आखर मढ़ते रहे। कुछ लोगों को लिखा इतना दिलचस्प बन पड़ा कि अखबारों-पत्रिकाओं की नजरें भी इन दीवारों को निहारने लगी और छपने लगे वो लोग भी, जिनकी रचनाएँ बिना पढ़े ही लौटा दी जाती थीं। बोधि प्रकाशन की ओर से फेसबुकिया कवियों को छपने का मौका दिया गया। स्त्री विमर्श पर किताब आई 'स्त्री होकर सवाल करती हैं वहीं एक अन्य संग्रह 'शतदल'  में सौ लोगों की कविताओं को प्रकाशित किया गया। ई-पब्लिकेशन और साहित्यिक वेबसाइट के चलन से तकनीक पसंद लेखकों की जमात लगातार बढ़ती ही गई। ये सोशल मीडिया का ही कमाल है कि नई पीढ़ी जल्दी से पुरानी हो रही है, वहीं पुरानी पीढ़ी अपने वजूद को बनाए रखने के लिए वर्चुअल ठिये तलाशना शुरू कर चुकी है। लेखक को यह तो समझ आ ही गया है कि जो दिखेगा वो ही बिकेगा। हालांकि अब भी कई लेखक हैं, जिन्हें यहाँ ठहरना रास नहीं आता, लेकिन वे भी यहाँ यदा-कदा आते हैं और साझा कर जाते हैं कि वे फलां फलां जगह छप रहे हैं, फलां फलां रचनाएँ आ रही हैं। लेखक प्रचार का एक तरीका सीखता है, इतने में दूसरा आ जाता है। लेखक असमंजस में है, पाठक उससे भी ज्यादा असमंजस में। अखबार में साहित्य कम हो गया है और सोशल मीडिया में ज्यादा, ऐसे में नई किताबों के बारे में जानने का जरिया भी सोशल मीडिया बन चुका है, तो एक नई चुनौती है लेखक के सामने, अपनी किताब के लिए पाठक ढूँढऩा। और पाठक को चाहिए कुछ नया। नये शब्द गढ़े नहीं जा रहे, नए मुहावरे हैं नहीं, तो नए प्रयोग ही सही! शायद यही वजह है कि फेसबुकिये लेखकों ने एक नया प्रयोग किया। फेसबुक पर एक ही कहानी को तीस लोगों ने आगे बढ़ाया और तीस दिन में लिख डाला और सामने आया एक उपन्यास '30 शेड्स ऑफ बेला'। पत्रकार जयंती रंगनाथन के संपादन में आई यह किताब इसलिए ज्यादा खास है कि इसे लेखकों ने फेसबुक पोस्ट के माध्यम से ही आगे बढ़ाया है। किताब खूब चर्चा में है, नया प्रयोग एक स्त्री के जीवन में कैसे-कैसे रोचक मोड़ लेकर आता है, पाठक जानना चाहता है।
लेखन में प्रयोग करना यूँ तो नया नहीं है। सालों पुरानी पंरपरा है, पर सालों पीछे जाने से पहले करीब दो साल पीछे जाना होगा आपको याद आ जाएगा कि किस तरह फेसबुक और ट्वीटर पर सिक्सवर्डस्टोरी ट्रेंड कर रहा था। छह शब्दों में कहानी लिखना हर किसी के बस का है नहीं, फिर भी लोग कुछ भी लिख रहे थे, पर कुछ ने कमाल भी लिखा।  शब्दों की जादूगरी खूब दिखाई। उन दिनों खूब वायरल हुई कुछ कहानियाँ इस तरह हैं-
कहानी होती, संवार लेते, जिंदगी थी।
वह चुप रहा, चुप्पी बोलती रही।
चलने से बनी पगडंडी, खुला रास्ता।
न जाने किसने ये कवायद शुरू की, न जाने ये कहाँ से नन्ही सी कहानियाँ चली आईं! बात निकली थी, तो दूर तलक जानी ही थी, गई भी, करीब सौ साल पीछे और एक अमेरिकन लेखक अर्नेस्ट हेमिंग्वे तक जा पहुँची। कहा जाता है कि वे ही अति लघु कथा या यूँ कहें कि अति लघु वाक्य कथा के प्रवर्तक और जन्मदाता थे। उनकी कहानी 'फॉर सेल, बेबी शूज, नेवर वोर्न' ही पहली सबसे छोटी कहानी मानी जाती है, हालांकि यह अभी तक प्रमाणिक नहीं है। फिर भी इस कहानी के पीछे भी एक छोटी सी कहानी है कि एक बार हेमिंग्वे अपने दोस्तों के साथ एक रेस्त्रां में बैठे थे। उनमें शर्त लगी कि कोई सबसे छोटी कहानी लिख कर दिखाए। हेमिंग्वे ने इस चुनौती को स्वीकारा और छह शब्दों में कहानी लिखी। कुछ इसे कहानी नहीं मानते, बल्कि अखबार में छपा एक विज्ञापन मानते हैं। खैर जो भी हो, वो कहानी हो या विज्ञापन हो, वो आज तक चर्चित है, संदेश पाठक तक पहुँचना सबसे अहम जरूरत है। सिक्स वर्ड स्टोरी के नाम से एक वेबसाइट भी चलन में हैं, जहां ऐसी ही कहानियों को मंच मिलता है। ऐसी प्रतियोगिताएं भी आयोजित होने लगी हैं। ट्विटर पर भी बाकायदा एक ट्विटर हैंडिल 'टेल्स ऑन ट्वीट' के नाम से मौजूद है, जिसे मनोज पांडेय संचालित करते हैं। 
ट्विटर के बढ़ते चलन को देखते हुए मनोज ने एक प्रयोग किया, जो बेहद सफल रहा। वे दुनियाभर से बड़े से बड़े लेखकों, विचारकों को इससे जोड़ते हैं। 140 अक्षरों में सिमटी नन्ही कहानियाँ हमेशा मासूम नहीं होती, कभी सरकार पर तंज कसती हैं, कभी इतिहास को खंगालती हैं, तो कहीं जीने का सलीका सिखाती हैं। मनोज की इस पहल में शशि थरूर भी शामिल हुए। उनकी कहानियाँ भारत के इतिहास और राजनीति पर केंद्रित होती हैं। उसके बाद सलमान रुश्दी और जीत थाइल जैसे लेखक भी जुड़े। टेल्स ऑन ट्वीट्स अब किताब के रूप में भी मौजूद है। हालांकि ये माइक्रो कहानियाँ खास संदर्भ लिए हुए होती हैं, ये एक लेखक को तो माँजती है, उसके शब्दों की धार को तो पैना करती हैं, लेकिन सामान्य पाठक को उस तरह समझ नहीं आती और जो एक लेखक की जिद है, समाज को बदलने की, वो पूरी नहीं हो पाती। ये माइक्रो कहानियाँ एक खास रूप में, जैसे अनमोल वचन के रूप में या किसी विज्ञापन के रूप में ही आम लोगों के गले उतर सकती है और ये दोनों ही चीजें बेहद मुश्किल है। एक लेखक का संत बन जाना या एक लेखक का खुद को बाजार को सौंप देना ही ऐसा करवा सकता है। 
'घड़ा है, उसमें पानी भी है, पर प्यास मर चुकी है।' सोचिए ऐसा हो, तो कोई क्या करेगा, वो घड़े में ही दोष निकालता रहेगा। अगर आप प्यासे हैं, तो रोज सुबह आपके वाट्सअप पर आपके साहित्यिक ग्रुप में पोस्ट की गई रचनाएँ आपके लिए ही हैं, बशर्ते वो ग्रुप अनुशासन में रहे, जैसे इंदौर के सत्यनारायण पटेल का बिजूका ग्रुप। सोशल मीडिया के इस दौर में सेल्फी तो लेनी चाहिए, लेकिन अपने अंतर्मन की, एक सवाल करने की जरूरत है कि आप क्यों लेखक हैं? वरना तो प्रेम ऋतु चल रही है और पिछले साल की तरह ही फिर कोई चुनौती आपको मिल सकती है, पांच शब्दों की एक प्रेम कहानी लिखिए। आप सोचिए आप क्या लिखेंगे! क्या कुछ ऐसा- 'यार मिलता, तो इश्क करता ' या फिर कुछ ऐसा-'पाठक मिलते, तो कहानी रचता! '
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