20 अप्रैल, 2018

पड़ताल: 
पंकज मित्र की कहानी ‘सहजन का पेड़’
मृत्युंजय पाण्डेय  



                     मृत्युंजय पाण्डेय  


भारतीय गाँवों में आज भी ऐसे परिवार हैं जो सामंती सोच के साथ जी रहे हैं । वे आज भी अपने पूर्वजों के दबदबे को भुला नहीं पा रहे हैं । यह स्थिति खास तौर पर आभिजात्य वर्ग के लोगों में देखी जा सकती है । आज भी वे इस बात को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं कि समय बदल चुका है, कल का गरीब आज का राजा है । आज वे जिसे चाहें उसे अपने इशारों पर उठा बैठा नहीं सकते । पीठ पीछे आभिजात्य वर्ग के इन लोगों को लोग गाली भी दे रहे हैं । इनकी आलोचनाएँ कर रहे हैं । पंकज मित्र की कहानी ‘सहजन का पेड़’ का पांडे परिवार एक ऐसा ही परिवार है, जो पुरानी चीजों को पकड़कर जी रहा है । इस परिवार में तीन मर्द, दो औरतें, तीन बच्चे, एक लंगड़ा पिल्ला और एक अंधा तोता है । पंकज मित्र ने इन तीनों मर्दों को बड़कू पांडे, मँझले पांडे और छोटकू पांडे के नाम से संबोधित किए हैं । जरा परिवार पर एक नजर डालें । कुछ समय पूर्व तक इन तीनों भाइयों के पिता की तूती बोलती थी । कहानी के शब्दों में कहूँ तो – ‘रामाधार पांडे के मूत से चिराग जला’ करता था । पर, आज इसी परिवार की स्थ्ति अत्यंत शोचनीय और दयनीय हो गई है । दो वक्त की कौन कहे, एक वक्त का भोजन भी ठीक से नहीं मिल पा रहा है और उस पर भी यह गुमान कि – “हम छोटे-मोटे काम करे ला पैदा नहीं हुए हैं ।” (पृष्ठ – 21) यह मँझले पांडे का कथन है । जो एक नंबर के बदचलन हैं और दिन भर सहजन के पेड़ के नीचे ताश खेला करते हैं । परिवार की चिंता उन्हें नहीं है । इन्हीं के नक्शे-कदम पर छोटकू पांडे भी चल रहे हैं । रही बात बड़कू पाड़े की तो अब वे बेकार हो चुके हैं । बड़कू पांडे पहले राज्य परिवहन विभाग में बस के ड्राइवर थे । पर कुछ ही दिनों बाद उनकी नौकरी छूट जाती है और नौकरी के छूटते ही उनकी पत्नी उन्हें छोड़कर भाग जाती है ।
गाँव में आज भी कुछ ऐसे लोग है, जो पूरी तरह से दूसरों पर निर्भर हैं । उम्मीद की आखिरी किरण तक वे घर से बाहर नहीं निकलते । ‘सहजन का पेड़’ कहानी के पांडे परिवार के मँझले पांडे और छोटकू पांडे दो ऐसे ही जीव हैं । दोनों की शादियाँ हो चुकी हैं और बच्चे भी हैं । पिता के मरने के बाद जब तक बड़े भाई की नौकरी थी तब तक वे बड़े भाई के सहारे जीवित थे । उसके बाद घर के एक-एक बर्तन बिकने शुरू हुए । पर ए साहब लोग घर से बाहर नहीं निकले । धीरे-धीरे घर के सारे कीमती बर्तन बिक गए । अपनी झूठी शानो-शौकत और ऊँची जाति के दंभ में वे अपना सब कुछ बेचते चले गए । ‘अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम’ वाले सिद्धान्त पर इनका जीवन चल रहा था । बर्तन के साथ-साथ उन्होंने अपनी इज्जत और मान को भी बेच डाला था । आभिजात्य वर्ग का गरीबी के दलदल में फंसे रखने का एक कारण यह भी है । अब ए पूरा पांडे परिवार सहजन के पेड़ के सहारे ही जीवित था । जीवित तो ए बड़कू पांडे के समय भी इसी के सहारे थे, पर उस वक्त स्थिति इतनी दयनीय नहीं हुई थी । बड़कू पांडे की नौकरी के दिनों में घर की हालत कुछ थोड़ी ही अच्छी थी । उस वक्त भी दाल-भात के साथ सहजन की सब्जी और उसके फूलों की पकौड़ी बना करती थी और हाँ, साथ में कभी-कभी बैंगन-टमाटर का चोखा भी बनता था । पर, बड़कू पांडे की नौकरी छूटने और उनकी पत्नी लछमी के भागने के बाद पांडे परिवार के थाली से दाल और चोखा गायब हो गया और साथ में गायब हो गई सहजन के फूलों की पकौड़ी । इतना कुछ होने के बाद भी पांडे परिवार पूरी तरह से नाउम्मीद नहीं हुआ था, उम्मीद की आखिरी किरण अभी दिख रही थी और वह था ‘सहजन का पेड़’ । नौकरी छूटने और पत्नी के भागने के बाद बड़कू पांडे लगभग अपने आप को अंधेरी कोठारी में बंद कर चुके थे । ‘सहजन का पेड़’ एक कमाऊ सुपुत्र की तरह पूरे परिवार का पालन-पोसन कर रहा था । सभवतः इसीलिए यह पूरा परिवार सहजन के इर्द-गिर्द चक्कर लगाता रहता है । सहजन बेचकर वे चावल खरीदते थे और सहजन की ही तरकारी वे खाते थे । यानी, भात और सहजन की तरकारी पांडे परिवार का स्थायी भोजन बन गया । ‘सहजन का पेड़’ इस परिवार के लिए कामधेनु गाय थी, जिसकी जब इच्छा होती थी वे इसे दुह लेता था ।
पांडे परिवार के इस कामधेनु गाय पर, उसी परिवार के, तिवारी पाहुन की बड़े दिनों से नजर थी । सवर्ण घरानों में, घर के पाहुन से, घर की वास्तविक स्थिति हमेशा छिपाई जाती रही है । हिन्दी भाषी क्षेत्रों में पाहुन की इज्जत भी खूब होती है । घर के सदस्य भले ही न खाएँ पर पाहुन को अपने सामर्थ्य से आगे बढ़कर अच्छा भोजन कराया जाता है । पांडे परिवार भी अपने आहुन के प्रति कुछ ऐसा भी भाव रखता है । पर, लाख अच्छे भाव रखने के बावजूद वे उन्हें भात और सहजन की तरकारी से अलग कुछ दूसरी चीज नहीं खिला पाते हैं । अन्य पाहुनों की तरह पांडे परिवार के पाहुन भी घर की वास्तविक स्थिति से बखूबी परिचित थे । उनसे कुछ भी छिपा नहीं था । इसलिए एक बार वे सहजन के पेड़ से सारे सहजन तोड़ कर बेचने चल देते हैं । सहजन के पेड़ पर सहजन न देख पांडे परिवार में भाग-दौड़ शुरू होती हैं । चोर को गाली एवं श्राप देने के बाद वे उसका श्राद्ध भी कर देते हैं । बाद में सीताराम इस रहस्य पर से पर्दा उठाते हुए कहता है – “तिवारी पाहुन को अँधियारे देखे थे साइकिल पर ढेर सूटी (सहजन) लोड करके हजारीबाग तरफ जैते । हमको लगा, आप लोग दिए होंगे – सन्देस में । लेकिन बेसी था तो हम पूछे – तो बोले कि यही गछवा इ लोग को निकम्मा बना दिया है । जब जरूरत पड़े, सूटी (सहजन) तोड़ के बेच लो । अबरी आवेंगे तो आरी लेके राते-रात गिरा देंगे गछवे को...तब बुझेगा – सरकारी कंपनी बूझ लिया है !” (पृष्ठ- 21) सहजन के टूटने के साथ पांडे परिवार की आखिरी उम्मीद भी टूट गई । अब तो भात और सहजन की तरकारी के भी लाले पड़ने वाले थे । कहानी के अंत में मँझले पांडे हजारीबाग जाने की तैयारी कर रहे है, उन्हें किसी एटीएम में गार्ड की नौकरी मिल गई है और छोटकू पांडे किसी अपार्टमेंट के ठेकेदार के साथ निकले हैं, जाहिर है गार्ड की ही नौकरी करने ।
पंकज मिरे इस कहानी में यह बताते है कि वर्तमान समय में पुराने सोच के साथ नहीं जिया जा सकता । समय बदल चुका है और समय के साथ हमें खुद को भी बदलना होगा ।
इस कहानी का एक और पाठ हो सकता है । इस कहानी में ही यह बताया गया है कि सहजन बड़ा गुणकारी होता है । उसे खाने से चेचक की बीमारी नहीं होती । इसलिए वह तभी होता है जब चेचक की बीमारियाँ होनी शुरू होती हैं । साथ ही यह गरीब परिवारों का सबसे बड़ा आधार है । घर के एक कमाऊ सदस्य की तरह सबका पेट भरता रहता है । अब जरा इसे इस रूप में देखें कि पाहुन बाहर का आदमी है । वह घर का होते हुए भी बाहर का है । वह पूँजीपतियों के लिए काम करता है । गाँव के सारे आर्थिक आधार को वह छिन लेना चाहता है । वह उन्हें घर से बाहर निकलने के लिए मजबूर कर देना चाहता है । उसे एटीएम, मॉल, और बड़ी-बड़ी मकानों की रखवाली के लिए कम दामों में गार्ड चाहिए । इसलिए वह पहला प्रहार पेड़ पर करता है । याद कीजिए पाहुन भी पेड़ का ही व्यापारी है । वह गाँव-गाँव घूमकर पेड़ खरीदता है । पेड़ के खत्म होते ही खेत की नमी जवाब देने लगती है । पानी का स्तर बहुत नीचे चला जाता है । जीव-जंतुओं का आश्रय खत्म हो जाता है । लोग हर तरह से विवश हो जाते हैं इन कंपनियों की सेवा करने के लिए । चारों ओर से वे हम पर प्रहार कर रहे हैं ।
साथ ही इस कहानी में राज्य परिवहन विभाग की बिगड़ती स्थिति के कारण को भी दिखाया गया है । बड़कू पांडे की नौकरी छूटने की मुख्य वजह राज परिवहन विभाग की खराब व्यवस्था और अवस्था थी । सरकारी विभाग में काम करते हुए भी बड़कू पांडे ईमानदारी नामक भयानक बीमारी के शिकार हो चुके थे । सभी लोग सरकार को लूट रहे थे और सब कुछ देखते हुए भी बड़कू पांडे सिर्फ मुस्कुरा रहे थे । बड़े साहब लोग डीजल और मोबिल लूट रहे थे तो छोटे कर्मचारी टायर, सीट और बैटरी आदि बेच रहे थे । इस विभाग में काम करने वाले अधिकांश कर्मचारी इसे अपनी निजी संपत्ति ही समझ रहे थे । पैसे की जरूरत पड़ते ही वे समान बेचना शुरू कर देते थे । सरकारी विभाग को बर्बाद करने में जितना सरकार का योगदान नहीं है उतना सरकारी कर्मचारियों का है । सरकारी कर्मचारियों की तनखा बंद होने की कई वजहों में से एक वजह यह भी है । बड़कू पांडे कहते हैं – “...बापे का मूड़ी खा गया सब । पैसा घटलो तो कभी सीट बेच द, कभी बैटरी । आर ऊपर वाला सब भी तो चाहता कि सोना का अंडा सब एके बार निकाल लें – मुर्गिए का मूड़ी मोचार दिया, बताओ, हमारा का गलती है ?” (पृष्ठ – 20) कुछ भ्रष्ट लोगों की करनी की सजा ईमानदार लोगों को भी गुगतानी पड़ती है ।
इस कहानी में पंकज मित्र लोक के काफी करीब दिखते हैं । लोक भाषा और लोक शैली का इसमें भरपूर प्रयोग किया गया है ।



पंकज मित्र 




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मृत्युंजय पाण्डेय,
असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, सुरेन्द्रनाथ कॉलेज, (कलकत्ता विश्वविद्यालय) 
संपर्क : 25/1/1, फकीर बगान लेन, पिलखाना, हावड़ा – 711101 
मोबाइल : 9681510596 ईमेल आईडी : pmrityunjayasha@gmail.com 
प्रकाशित पुस्तकें : (1) कवि जितेन्द्र श्रीवास्तव (2) कहानी से संवाद (3) कहानी का अलक्षित प्रदेश (सभी आलोचनात्मक पुस्तकें)

1 टिप्पणी:

  1. दूसरे की चोरी की कहानी। तोड़ मरोड़ कर जातीयता वाली गंदी कहानी। छी छी

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