01 अप्रैल, 2018

पियूष की कविताएँ


पियूष 


कविताएँ


भरूच रेलवे स्टेशन पर 

उसके कपड़े
शरीर की गर्मी से लाल हैं,
उसके बाजू का पीतल
पिघल के चमक रहा है,
उसके पैर मेहनत पर टिके हैं |
दाढ़ी उसकी पसीने से सुफैद हो चली है,
गाल बेतरतीब साँसों से घिस गए
पर हँसतें हैं |

वो खड़ा है दूर स्वर्ग फेंक कर|
उसने पूरी ताकत से
कन्धों पर टिके
स्वर्ग को उठाकर
फेंक दिया है|

ईश्वर ने एटलस के दाम नहीं चुकाए
अब ईश्वर का स्वर्ग कौन उठाए?
ईश्वर अपने श्लोक भूल गया |




प्रकाश और ब्लैकहोल

जब प्रकाश
ब्लैक होल में कूदता है,
क्या उसे पता होता है
ज्योतिषशास्त्र ? खगोल-विद्या ?
( जो संस्कृत या ऐसी ही किसी भाषा
में लिखा होता है )
क्या वह नक्षत्रों को पढ़कर,
नजूमी से पूछकर,
पंचांग से दिन साध कर,
घुसता है वहाँ
जिसे संस्कृत में कहतें हैं
श्याम विवर?
नहीं
और भाग्य
भाषा विशेष में लिखा भी नहीं होता|

आयनस्टीन कहता है कि
विवर का गुरुत्व
सब खा जाता है ।
एक बार विवर में गया
प्रकाश वापस नहीं आता।
पर प्रकाश सुनता है केवल
म्यूनिसिपैलिटी के ठेकेदार की ।
वह जीवन-भौतिकी जानता है
और फ़िज़िक्स नहीं ।

प्रकाश का लघुत्व है
और पूरे ब्रम्हाण्ड के गुरुत्व
ने तोड़ दी है प्रकाश कि आन-औ-अना
और निर्वात में
नहीं सुनायी पड़ती
किसी की भी आवाज़ |

वह फाँकता आया है ब्रम्हाँड की धूल
फूँक कर तेन्दु में बंधी ज़लालत
पीकर देसी संतरा
उस ख़ाली बोतल के निर्वात में
छोड़ आता है
बस हिलते होंठ,
आख़िरी साँस |

उसे सुनायी देतीं हैं
नीचे से आती हुयी
नोटों की कड़कड़ाहट
सिक्कों की खनक
और विवर से आती दुर्गन्ध
लोगों के लिए असहनीय होती
वह उसे लगती है मीठी |
उस बदबू के
काज़्मिक क्लाउड में
तैरतें हैं सितारों से
सपने
छोटे-छोटे खेलते चंद्रमा
दिलातें है याद
घर के राशन की|
उस मीथेन से चूल्हा जले |

चाहे दुनियाँ का सारा विज्ञान उसे रोक ले,
प्रकाश ब्लैक होल में कूदता है |
.
नजूमी रख लेता हैं उसके हाथ,
ज्योतिष उसे रोटी नहीं देता
और
बतलाता है उसे
केवल
मौत का वक़्त |
प्रकाश कूदता है|








परीकथा 

वह एक ऐसे देश में रहता था
जहाँ आप सिर्फ काम कर सकते थे |
हरी ज़मीं और नीले आसमान वाले इस देश में
दिन-रात बिना सोये
केवल काम ही किया जा सकता था
और
किसी के बेहद बीमार हो जाने पर
उसे
दवा के तौर पर पिलाई जाती थी
नींद|

यह एक विकासशील देश की आम धारणा थी
और ग्लोबल साउथ में सोना
विलासिता का प्रतीक माना जाता था |
और क्यूंकि उसे सोना बेहद पसंद था,
उसने तय किया कि जाऊँगा दूसरे देश
जहाँ
नींद की राशनिंग नहीं थी
और आप बिना भौं हिलाए
या करवट बदले
महीनों सो सकते थे|

पर अफ़सोस कि उसे
वह जगह भी
हफ्ते भर में छोडनी पड़ी|
यूँ कि आप यहाँ सो तो सकते थे
पर सपने देखना
एक कानूनन जुर्म था और
देशद्रोह की श्रेणी में आता था |
हालाँकि कुछ विद्रोही और उग्रवादी संगठनों ने
अवैद्य स्वप्न-केंद्र चला रक्खे थे|
ये लोग जूतों में सपने रख कर चलते थे
पर वह पकड़ा गया था |
शब्द-शब्द मात्र के उच्चारण से उसे
देश निकाला दे दिया गया था |

अंततः वह पहुँचा उस देश
(जिसके सफ़र का किराया था बेहद महँगा
और वीसा कि लाइन बेहद लम्बी )
जहाँ आप सो तो सकते थे ही पर साथ ही
सपने देखना भी उत्सव की तरह मनाया जाता था |
यहाँ काफी देशों से लोग आते थे
और इस गतिविधि को देश ने
स्वप्न-पर्यटन की तरह प्रचारित किया था |

साल भर में ही उसे यह देश भी रास न आया|
यहाँ सपने देखकर उनपर काम करने
या किसी भी तरह के काम करने को
अप्राकृतिक समझा जाता था और
समलैंगिकता की तरह
जाहिरी तौर पर प्रतिबंधित था|

वह लौटा उस हरी ज़मीं
और नीले आसमान वाले देश में
यह सोचते हुए कि
सफ़र में ही रहना होगा उसे |

और
जाग कर लिखी उसने यह कविता
काम की तरह नहीं
सपने की तरह|









साम्य 

डाल पर कबूतर का एक जोड़ा है |
खिड़की से दीखता है |
उनकी निजता का मान रख
मैं बाँधता हूँ अपनी दृष्टी |

वो निस्पृह है |
एक गौरैया का भी
दुसरे पेड़ पर दीखता है |

इधर
क़िताब में
कुछ ढूँढने का दिखावा करता
बेहद नीरव मैं
पाता हूँ खिड़की से गिरे
दो पंख ,तीन पत्तियाँ

पीपल के हजारों दिल हैं,
अशोक की हजारों आँखें,
चिड़ियों जैसे कितने मन हैं |

ईश्वर !!
तू सदा
हवाओं को खिड़कियाँ दे|




मनु की पुत्रियाँ नहीं थीं और आदम अकेला था

अन्थ्रोपोमेट्री अथवा मानवमिति
तय करती है
घर के सभी हिस्सों के कद|
रसोई के भी |
उसके कद को अपना लेतीं हैं औरतें|
यहाँ तक कि
शहर के कद भी मानव ही तय करता है
और फिर भी
उसके कद को भी अपना लेतीं हैं
औरतें|
बाज़ार के भी |

शहर की मंडी अपनी दुआएं
भेजतीं हैं थैली में डाल
और बदल लेती हैं
अपनी खुशबुओं की
चुन्नियाँ घर की रसोई से|

मंडियाँ पकातीं हैं फल
कैल्सियम कार्बाइड से
और अपने बाल भी|

रसोईयाँ काटती हैं
सब्जियाँ
और अपनी उम्र भी|

रसोई और मंडी कि ज़रूरत
रहेगी घर-शहर से चाँद और मंगल तक
पर फिर भी
सभी आदमकद होना चाहतें हैं
कोई नहीं होना चाहता
हव्वा-कद|





तुम्हारी तरफ से मैं दुनियाँ के हँसते चेहरों से नफ़रत करता हूँ

तुम्हारे गालों पर उगनी थीं
मुस्कुराहटें
और बादलों के लम्स
और ख़िलखिलाहट
जो अंधेरे को जला कर रोशनी कर देतीं
वो ताज़गी उगनी थी
जो बताती
कि दुनिया में
हमेशा अच्छा होना बचा रहेगा
और वहाँ दुनियाँ के
सभी अच्छी चीज़ों के रूपक
उगने थे


.




ओ ओमरान! ओमरान दाक्नीश, मेरे बच्चे
अपने गाल पे खून देख कर तुम जो चौंके हो
उसका मैं क्या करूं !
जो तुम धूल से सने हो,
तुम्हारी माँ ने तुम्हें डांटा होगा !

ओ अलन ! अलन कुर्दी, मेरे प्यारे !
तुम साहिल पर चाहे सो,
पर करवट लेकर, कुछ ओढ़कर सोना!

ओ बच्चों, सीरिया के बच्चों!
तुम पर तानी गयी हर चीज़ पर
जो सरेंडर तुम करते हो
वो, बोलो, केवल खेल ही हैं न!
.

तुम्हारी गालों की मिट्टी में
खारे दरिया नहीं बहने थे
उसका मैं क्या करूं !
.

तुम्हारे गाल
भूगोल और संतति से परे
सभी स्थानों पर उतने ही नर्म होते
लेकिन
उनकी नरमाई को नापने के यंत्र
नहीं हैं हमारे पास, मेरे प्यारों!
जबकि हमने नाप डाली हैं
बंदूक़ की गोलियों की गतियाँ
मिर्ची का तीखापन
दुनियाँ का सबसे गुलाबी रंग
विस्फोटकों की पौरुशता
मंगल पर पानी
.

और भी जिन्हें हम नाप सकते हैं
उन तथ्यों को लेकर
हम
विचारक,
पत्रकार,
समाजशास्त्री
मानवविज्ञानी ,
धर्मग्य,
राजनीतिज्ञ
अर्थशास्त्री
आदि-इत्यादि
अपने अपने अर्थ ढूँढते हुए
पन्नो पर आंकड़े लिखेंगे,
और कृष्णार्जुन बनते हुए
सिद्ध करेंगे युद्ध की आवश्यकता

कांफेरेंसस में अपने सीने चोड़ें करते हुए
चबायेंगे डिनर की बोटियाँ
जो तुम्हारे
जलते घरों पर पकाई गयीं हैं
जो तुम्हारे
नर्म गालों पर जमा हो गए नमक से
खारी की गयीं हैं
जिस नमक ने मिट्टी के लोंदें जैसी
त्वचा को
बंजर बना डाला
.

हमें पता है, मेरे नन्हे शैतानों!
कि गाल
हर साल आने वाली ठण्ड से नहीं
पर हर हफ्ते फोड़े जाने वाले
बमों से फटे हैं
ये गाल खंडहरों की धूल से सने हैं
टमाटर जैसे लाल गाल
ख़ून से रक्ताभ हैं
ये रोतें हैं या चुप हैं
उस सदमे को कोई नहीं लिख सकता आंकड़ों में
इन शरीरों पर लड़े जाने वाले युद्ध
भविष्य में इतिहासकारों के लिये
कॉफ़ी हाउसेस में
बहस के मुद्दे होंगे
जबकि तुम्हारे तबस्सुम के
एक शिगाफ पर भी
दुनियाँ में आ जानी चाहिए थी
क़यामत
लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ
.

खैर!
अगर तुम तब तक
जिंदा और खुद को
संयत रख सके
तो तुम तुम्हारा जिया हुआ वर्तमान
तुम उन किताबों में पढोगे
इतिहास की तरह
मेरे लालों!

.



किन्तु यह एक
ज़ाहिर हो चुका राज़ भी है
और डर भी
कि इन मिटटी के लोंदे जैसे नर्म
लेकिन बंजर कर दिए गए
गालों पर
नहीं उगेगा सब्ज़ा
लेकिन
केवल बंदूकें
और नफरत
.सका मैं क्या करूं !
००

हमारा मिलना तुम्हारा नाम होगा

कब मिल रही हो?
अनामिका !
तुम मिल रही हो ना!!

भीड़ मे टकराई थी तुम शायद,
अन्यमनस्क था मैं.
रूहे बदल गयी थी हमारी,

मिलो तो वापस मत करना,
पर तुम मिल तो रही हो ना?


कल चौराहे पर जो तोता मिला,
कहता था धागे है
हथेलियों पे मेरे,

तुम इनसे बँधी हो ना,
हाँ मुझे चेतना है.
पर क्या तुम्हे भी पता है,

तुम क्रीत हो?
कुछ अर्ध्य बेचे थे मैने,
देवताओं को..

अनामिका!!
यूँ ही अंजाने मे,
पन्ने पलटते हुए
भविष्य की मेग्ज़ीन के,
तुम्हे फिर कहीं देखा

अक्षरों के साथ तुम,
अक्षरा हो गयी हो ना,
मन मे मेरे.

दोलित,
इन अनाथ विचारो की,
तुम माँ,
इन बदमाशों के लिए
छंद कब सील रही हो अनामिका?

ये चंद्र-वामा यामा,
हँसती है नीरवता पर मेरी.
तुम अनामा
मेरा उत्तर बन,
अक्षितिज, दिग्-रूपा  आभा सी
कब खिल रही हो?

बोलो तो कैसे हो यह
कि मेरा होकर भी,
मैं चूम नही पाता उसे?

सीने का मेरे तुम
"तिल" रही हो ना?

सुनो!!
तुम निमिष भर हो,
तो मैं भी खड़ा हूँ अनिमिष यहाँ,
कभी तो पा जाऊँगा तुम्हे..

जब कभी भी मिलोगी तुम,
मैं तुम्हे नाम दे दूँगा
अनामिका.

  • ००




परिचय 

पियूष एक प्रशिक्षित वास्तुविद् एवं नगर-नियोजक हैं. उनके अनुभव मध्यप्रदेश के विभिन्न कस्बों और शहरों से आते हैं. अधिकतर समय होशंगाबाद एवं भोपाल में व्यतीत करते हुए उन्होंने अपनी उच्चतर माध्यमिक एवं विश्वविद्यालयीन शिक्षा प्राप्त की. उनकी मातृसंस्थाएं मौलाना आजाद राष्ट्रीय प्रोद्योगिकी विश्विद्यालय, भोपाल एवं सेप्ट विश्वविद्यालय, अहमदाबाद हैं. २०१५ में लघु फिल्म ’गोटा’ हेतु कलानिर्देशन किया गया. उनके द्वारा लिखित कुछ नाटक इंदौर और भोपाल में मंचित हुयें हैं, कवितायें प्रकशित हुयी हैं तथा उन्होंने अनुवाद के क्षेत्र में महात्मा गाँधी द्वारा स्थापित नवजीवन न्यास के साथ भी कार्य किया है. २०१७ में हेरिटेज मैनेजमेंट एवं शिक्षा पर आयोजित अंतर्राष्ट्रीय सम्मलेन में “आधुनिक हिंदी कविता में सांस्कृतिक विरासत” पर उन्होंने शोधपत्र प्रस्तुत किया. हाल ही में अहमदाबाद के मासपर्यंत चलने वाले ‘अभिव्यक्ति सिटी आर्ट्स प्रोजेक्ट’ में श्रुत फोटोग्राफर मितुल कजरिया के साथ उन्होंने कविताओं और तस्वीरों के साथ आर्ट-इंस्टालेशन प्रस्तुत किया. 
उनका लेखन अंतर्वैशेयिक कला माध्यमों, वैयक्तिक अन्योन्य अनुभवों एवं समसामयिक मानव व्यवहारों पर केन्द्रित है. 
वर्तमान में उनका निवास अहमदाबाद में है. 

4 टिप्‍पणियां:

  1. पीयूष की कविताओं से पहली बार परिचित हुआ । कविताओं में जिस तरह की गम्भीरता होनी चाहिए उस गम्भीरता के संवाहक के रूप में ये कविताएँ कुछ हद तक अपनी जगह बना पाने में कामयाब हुई लगती हैं । विज्ञान और आध्यात्म के दुरभिसंधि का बैषयिक प्रतिनिधित्व करती हुईं इन कविताओं का केनवास भी बड़ा है । बहरहाल पीयूष की कविताएं संभावना जगाती हैं ।

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  2. विनीता ए कुमार01 अप्रैल, 2018 16:11

    पियूष की तीन कविताएं पहले सुनी हुई हैं बाकी सब पढ़ी। मन को भेदतीं संवेदनाएं बसी हैं एक-एक कविता में। इन कविताओं में जो बात मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित करती हैं वो हैं पियूष का वैश्विक दृष्टिकोण। रचनाकार अवश्य बधाई के पात्र हैं। शुभकामनाएं पियूष��

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  3. वाह!पीयूष! ऐसा लग रहा है जैसे तुम्हारी कविताओं को झरने में, अभी अभी नहाकर निकला हूँ। कुछ बूँदें अभी तक मेरे मन को भिगोए हुए है।
    मैं मिला हूँ तुमसे, शायद जबलपुर में। तुम्हें याद नहीं होगा और अच्छी तरह से मुझे भी नहीं।
    इसी प्रकार जीवन में साहित्यिक तरक्की करते रहो।
    बहुत बहुत शुभकामनाएं !

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