27 अप्रैल, 2018


शिप्रा खरे की कविताएं




दर्द भीतर भी है दर्द बाहर भी है
दबा है ज़रा कुछ उजागर भी है....

"पहली बार कविता मैंने बारहवीं क्लास पास करने के बाद हॉस्टल जाने के बाद लिखी। खानदान की पहली लड़की घर से बाहर पढ़ने निकली थी वह भी अकेले यह बात ही माँ और दादी को परेशान करने के लिए काफी थी। बचपन में ही पापा के ना रहने के कारण माँ से जुड़ाव ज्यादा ही था।उन्हें मेरी सहेली कहा जाए तो गलत ना होगा।  मेरे दुःख सुख की इकलौती साथी वही तो रहीं सो उनसे दूर आने पर हॉस्टल पहुँचने के तीसरे दिन ही लम्बी सी दो पन्नों की कविता लिख गयी और मैं खुद आश्चर्य में पड़ गई। आज तक यह बात मुझे ना समझ आयी कि मैंने कविता ही क्यों लिखी, वह सिर्फ बातों वाली चिठ्ठी भी हो सकती थी क्योंकि चिठ्ठियाँ लिखना बहुत पसंद था मुझे और मैं खूब चिठ्ठियाँ लिखा करती थी। हाँ तो मैंने सिर्फ एक ही कविता लिखी। उसके बाद पी सी एम ग्रुप ने कविता लिखने की मति सवालों में उलझा दी और ज़िंदगी भी उलझती गई साथ साथ। जगहें बदलती रहीं और परिस्थितियाँ भी और मुझ पर दबाव बढ़ता रहा। कैरियर बनाने की जद्दोजहद में तेज़ी से उठा पटक के पंद्रह साल बीत गए। धीरे धीरे ज़िंदगी ढर्रे पर आ गई , फ़िर गिरह खुलीं और 
कविता बन गयी और बनती चली गईं। पापा लिखते थे यह माँ का कहना है तो शायद विरासत मिली थी। अब तो किसी की बातों का जवाब भी मेरी ओर से काव्यमय करके दिया जाता। पर लगता था अभी बहुत हल्की है कविता। कहीं भी उछल जाती या उछाल दी जाती। परेशान भी हुई पर वजन ना आया । जीवन सीधी डगर पर चल रहा था सो ध्यान भी आता जाता रहा। अचानक जीवन ने फ़िर पलटी मारी और दिमाग शून्य हो गया सारी कविताई खो गई। लेकिन अबकी बार जब चेतना लौटी तो अपने साथ बहुत कुछ लाई। पहले सिर्फ अपनी खुुशी और दुःख दिखते थे अब सबकी हँसी और तकलीफें दिखाई देने लगीं। दिल भारी होने लगा और कविता थोड़ी थोड़ी वजनदार और समझदार। 
"दर्द भीतर भी है दर्द बाहर भी है
दबा है ज़रा कुछ उजागर भी है...."
जीवन में कई बार साथी के चुनाव का मौका आया पर स्वाभाविमान पर प्रहार सहा ना गया मुझसे इसलिए अभिव्यक्ति के इस सुंदरतम माध्यम को ही मैंने अपना साथी बना लिया हाँलाकि माँ से जुड़ाव उतना ही गहन है आज भी। पर मन के भारीपन को हल्का करने का बस यही एक ज़रिया है मेरे पास तो इसे जतन से अपना रखा है या यूँ भी कह सकते हैं कि इसने मुझे सँभाल रखा है। 



शिप्रा खरे 


कविताएं


 यह ज़िंदगी 

यह ज़िंदगी
जहाँ नमक घुला है पसीने में
तो छुपा है आँखों की कोरों में भी
तीखापन ज़ुबान का
खटास ले आता है रिश्तों में कभी
कसैला कर देता है मन
फिर भी लफ्ज़ो की
ज़रा सी मिठास
बढा देती है उम्र खुशी की  ..!!




 दर्द अपने हैं 

बहुत अपने होते हैं दर्द
किसी कारण मिलें
अपने ही बनकर
रग रग में उतर जाते हैं
सीने में दफन हो जाते हैं
परायी तो मुस्कुराहटे हैं
कितनी ही अपनी क्यों न हों
ज़रा में मुकर जाएँ
जो चाहे छीन ले जाए
इक इक साँस भारी कर जाए




काँटा हूँ मैं 

मुझे काँटा होने से गुरेज नहीं
मुझे फक्र है अपने होने का
हो सकता ना हो कोई हरियाली मुझसे
ना ही रंग कोई
खुशबू भी ना हो
फिर भी हकीकत हूँ मैं..
अपनी चुभन के साथ बरकरार हूँ
जिसको ज़रूरत मेरी, मैं तैयार हूँ








संघर्ष

सफलता से पहले
और असफलता के बाद
एक सिरे पर खड़े
हम करते हैं संघर्ष
बड़े बड़े आत्म विमर्श
करते हैं हर पहलू पर गौर
बनाते हैं रूपरेखा
फूँक फूँक कर तब कहीं
बढ़ाते हैं कदम आगे
करते हैं कड़ी मेहनत
जूझते हैं हर वक्त
खपा तक देते हैं खुद को...
तब ऐसे में ज़रूरी होता है
अहम् को छोड़ना
सिरों को भी जोड़ना
ताकि रक्त के साथ
बहते रहें एहसास और जज़्बात
होती रहे अपनों से बात
बना रहे विश्वास
बढ़े आत्मविश्वास
करते रहें परवाह
मिले रहें एक दूजे से दिल
वजहें भले ही कितनी हों मुश्किल....




कीमत 

सब मुहैया है तुम्हें
ठोकर पर रखो कुछ भी
या लात मार कर
परे कर सकते हो किसी को...
पर तुम नहीं समझ सकते
निवालों की कीमत
ना ही पुआल पर
लेटने का सुख

ढेरों किताबें पढ़ीं तुमने
पास करीं खूब जमातें
फलसफे लिख डाले
मगर पढ़ ना सके
माँ के मन की बात
ना ही समझ पाए
पिता की बेबस हँसी
उनके जज़्बात




इश्क

कितनी अनोखी है
प्रीत जमीं की
जो फैलाये आँचल
करती है सजदा
माँगती है दुआ
अपने नबी की...
कितना अलग है
अंदाज़ आसमां का
तड़पता खुद है
पर बरसा के बूँद बूँद
भर देता है झोली
प्यासी ज़मीन की...








एहसास

ना डाले कोई
जलती तीखी नज़रें
इन पर
कहीं पल में ही
होम न हो जायें
बिन खिले ही
खूबसूरत जज़्बात..
कली से कोमल यह प्रीत के एहसास ..




जीवन संगीत 

इस कोलाहल में भी
ज़रा सी ऊष्मा पाकर
सृजित हो जाता है
जीवन का वह गीत
वह मधुर संगीत
जिसका हाथ थाम
कुंलाचे भरता आरोही मन
कहीं दूर निकल जाता है
ख्यालों की सवारी कर
उम्मीदों की दस्तक दे
पंख लगा जाता है...
कि हौसलों को आसमान मिल ही जाता है ....




 शाहकार

देखो...
बुन रही हूँ मैं कुछ शब्द
तैयार हो जाये तो बताना
जामा पहन कर
लगा तुमको कैसा
उसमें ढल कर...
पिरोयी जिसमें मैने
एक एक याद
उल्टे फंदे सीधे किये
नये नये रंग दिये ..
हर धागे के साथ
इक इक पल
आबाद किया
पहली याद का
प्यारा सा मोती
उसमें टाँक दिया
सुंदर आकार दिया..
.



 स्नेह के बंध

जड़ों से जुड़ी कोपलें
स्नेह के खुले रंध्र
कच्चे धागों से बँधे
पक्के रेशमी बंध
जोड़े रखते हैं
ज़मी से रिश्ता अपना
साँस लेते हैं
और पनपते हैं
सुंदर खुले वातावरण में
बना लेते हैं खुद ही
रक्षात्मक आवरण
ताकि किसी विपत्ति की
ज़रा ना छाया पड़े
हर मुसीबत से पार पा
खुद ही आगे बढ़े



 पहचान 
वो मुझे सँवार लेगा
कुम्हार की तरह
ढाल के साँचे में
देगा मुझे
सादा सा सौम्य रूप
फिर दिखायेगा धूप मुझे
अपनी निगरानी में
बचाकर हर प्रहार

मार मौसम की
लेकिन तपायेगा भी
बनायेगा कुंदन
निर्मल हो निकलूँगी मैं
निखरी खरी
और खिल उठेगा जीवन
तब भरेगा जिंदगी के रंग
देगा पहचान
बढ़ायेगा मान

मेरे अस्तित्व की
वही होगी खूबसूरत पहचान...








 श्रमजीवी 

कहीं रास्ते ऑफिस, टॉवर, दुकान
कहीं महल आलीशान
वोह ईंट ईंट जोड़
पसीने से कहीं
बनाते हैं मकान
बारिश में भीग कर
जमती सी ठण्ड में कभी
खुद को धूप में सुखा कर
कभी खाकर लू के थपेड़े
खुद पत्थर के बन जाते हैं...
कहीं साफ करते जूठन
कहीं परसते
थालियों में रोटी
प्सास बुझाते औरों की
खुद भूखे प्यासे रह
भूख से पार पाने को
उसी को साध कर
तप तप कर
होम कर देते हैं शरीर
और नींद का उपहार पाते हैं
कि पाई-पाई जोड़ने के लिये दिन-दिन खर्च हो जाते हैं .... !!




 बरसात 

बरसने लगीं बूँदें
टप-टप लगातार
फ़िर लगी झड़ी खारे पानी की

इक धार बही
आँखें आबशार हुयी....
ना खेत सिंचे
ना भरीं दरारें
खलिहान सूने
सूखा सूखा मन भारी
ज़मीं बेज़ार हुयीं....
दिन दिन सूरज
तपता सा मन
बन पतंग ढूँढे बादल
आशा की डोर
लम्बी हर बार हुयी...




रुकी सी ज़िंदगी 

कभी एेसा भी होता है
जब शाम नहीं होती
ढल जाता है सूरज
समेटकर ब्योरा दिन भर का
पंछी भी लौट जाते हैं
अपनी अपनी नीड़
जल उठती है संझा बाती भी
पर शाम नहीं होती...
कभी एेसा भी होता है
जब रात नहीं होती
टिमटिमाने लगते हैं तारे फलक पर
चाँद भी निकल लेता है सैर पर
चाँदनी बिछा देती है चादर
सितारे टँक जाते हैं
दिखाने लगते हैं दिशा
पर रात नहीं होती...
कभी एेसा भी होता है
जब दसियों बातें होती हैं ज़ुबां पर
दिन होने के एहसास
और रात के दरम्यां

ढेरों ख्याल खड़े रहते हैं
अपनी ख्वाहिश लिये
पलकों के पीछे कहीं
मुस्कान के इंतज़ार में
पर कोई बात नहीं होती



परिचय

नाम: शिप्रा खरे
पिता-स्व०कपिल देव खरे
माता - श्रीमती लक्ष्मी खरे 
शिक्षा - एम एस सी, एम ए, बी एड, एम बी ए
विशेष- संगीत गायन में प्रभाकर, आई जी डी बाम्बे
सम्प्रति-अध्यापन, स्वतंत्र लेखन, सामाजिक कार्य
रुचि- लेखन,पठन-पाठन और संगीत

साहित्यिक परिचय
लेखन विधा- कविता, गज़ल, कहानी, बाल साहित्य, आलेख
प्रकाशन - 12  साझा काव्य संग्रह(hindi aur english dono mein )
दो काव्य संग्रहों का सहसम्पादन
महासचिव - आगमन साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समूह 
प्रबंध सम्पादक - आगमन पत्रिका 
अंतर्राष्ट्रीय दिल्ली फिल्म महोत्सव 2016 एवं 2017  में पोएट्री सेक्शन में कविता चयनित व प्रकाशित


सम्मान/पुरुस्कार

1-किशोर अवार्ड(गायन)  2007( बी एस एल -लखीमपुर)

लेखन-
2-शब्द निष्ठा सम्मान 2016 (सारवाड़- राजस्थान )
3-युवा प्रतिभा सम्मान 2016(आगमन सांस्कृतिक एवं साहित्यक समूह) 
4-डॉ०महाराज कृष्ण जैन स्मृति सम्मान-2017(पूर्वोत्तर हिंदी अकाडमी -शीलांग)
5-आगमन गौरव सम्मान-2017(आगमन साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समूह-हापुड़)
6-साहित्य गौरव सम्मान 2017(साहित्य समीर दस्तक - भोपाल) 
7-शब्द गाथा सम्मान - 2018(हिंदुस्तानी भाषा अकादमी - दिल्ली) 
8-आगमन तेजस्विनी सम्मान 2018 

 सामााजिक सरोकार

अध्यक्ष - कपिलश सामाजिक एवं सांस्कृतिक संस्था (गोला-खीरी) 
सक्रिय सदस्या - बंधन वेल्फेयर सोसाइटी, गोला-(खीरी-उ०प्र)) 

निवास
पश्चिमी दीक्षिताना 
गोला गोकरण नाथ 
जिला - खीरी 

उ०प्र -262802

6 टिप्‍पणियां:

  1. बढ़िया कविताएं. रुकी-सी जिंदगी सर्वश्रेष्ठ. असीम संभावनाएं हैं.बधाई.

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    1. आपने कविताओं को अपना बहुमूल्य समय ही नहीं दिया उनपर अपनी प्रतिक्रिया भी दी
      हार्दिक आभार भगवान वैद्य जी। ��

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  2. सुंदर भावपूर्ण कविताएं शिप्रा 😊
    स्नेह।

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    उत्तर
    1. हार्दिक आभार भइयू.... आपने ही सबसे पहले मुझ पर भरोसा दिखाया था 🙂

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  3. बेनामी17 मई, 2018 13:11

    शानदार कवितायें बहन।

    वल्लभ

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    1. हार्दिक आभार दादा.... आपका स्नेह और आशीर्वाद, इसी तरह विश्वास के साथ बना रहे मुझ पर ☺️🙏

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