16 अप्रैल, 2018

बलात्कार: कारण और अन्तर्विरोध 

डॉ. संजीव कुमार जैन


डॉ संजीव जैन 



आज पूरा देश एक ऐसे अपराध के प्रति विरोध दर्ज करा रहा है जो स्त्रियों के प्रति सदियों से किया जाता रहा है और जैसा की आंकड़े बताते हैं कि हर पांचवे मिनिट में एक बलात्कार होता है, फिर भी अब तक इस देश की संसद चुप क्यों थी और क्यों देश की जनता में प्रतिरोध का ऐसा स्वर दिखाई नहीं दिया था? देश की आधी आबादी को आज यह महसूस हो रहा है कि उनके प्रति हो रहे इस तरह के अपराध व्यक्तिगत घटना नहीं है। यह सामाजिक और व्यवस्थागत अपराध हैं जिसे समाज और कानून ने व्यक्तिगत घटना बना कर इसके घनत्व को कम कर दिया है। स्त्रियों के प्रति होने वाले सैकड़ों तरह के अपराधों में बलात्कार सबसे अधिक जघन्य और अमानुषिक बर्बरता पूर्ण अपराध माना जाना चाहिए। हत्या से भी अधिक बर्बर अपराध बलात्कार माना जाना चाहिए। इसके पीछे जो कारण है वह यह कि बलात्कार की शिकार स्त्री को जिन्दगी भर जिस सामाजिक उपेक्षा और दयनीय स्थिति का सामना करना पड़ता है, वह निरंतर होते रहने वाला बलात्कार है। जबकि हम सब जानते हैं कि बलात्कार में वह सिर्फ शिकार हुई है उसका कोई अपराध या गलती नहीं होती। इस सामाजिक उपेक्षा और हीन भावना के पीछे हमारी सामाजिक व्यवस्था और मानसिकता है जिसमें स्त्री की यौनिकता को नैतिकता और पवित्रता की सीमाओं से बद्धमूल कर दिया गया है।





बलात्कार जिस पितृसत्तात्मक व्यवस्था के द्वारा किया जाता है उसमें स्त्री की चेतना पर नियंत्रण और प्रभुत्व रखने का सबसे कारगर तरीका ही यह माना जाता है कि उसकी यौन नैतिकता पर किसी भी तरह कब्जा कर लिया जाए। यौन नैतिकता की विचारधारा के माध्यम से स्त्री की चेतना को अनुकूलित किया जाता रहा है सदियों से। इस अनुकूलित किए जाने का बर्बर और अमानुषिक तरीका है बलात्कार। बलात्कार करने का दुःसाहस करने वाला नरपशु दर असल अकेला नहीं होता। उसके पीछे सदियों से स्त्री को वस्तु की तरह इस्तेमाल किये जाने वाली सोच होती है जिसमें यह माना जाता है कि स्त्री सिर्फ पुरुषों के उपभोग के लिए ही बनी है। उसकी अपनी कोई मानवीय इयत्ता या अस्मिता नहीं होती। वह हमेशा ही पुरुषों के संदर्भ में देखी और परखी जाती रही है। हमारी पितृसत्तात्मक व्यवस्था में स्त्रियों को पुरुष के संदर्भ में परिभाषित किया जाता रहा है, उसका अपना कोई संसार नहीं होता कोई अपना अलग रिश्ता नहीं होता, कोई भी संबंध स्त्री की ओर से नहीं बनता सब पुरुष कीे ओर से ही बनाये जाते हैं। इस व्यवस्था ने स्त्री के प्रति पुरुष के नजरिये को वस्तुपरक निर्भरता का बना दिया। यही मानसिकता बलात्कार जैसे जघन्य अपराधों में काम करती है।

पितृसत्तात्मकता एक विचारधारा है, एक राजनीति है, एक अवधारणा है और इन सबके साथ एक व्यवस्था है जो समाज में पुरुषों द्वारा स्त्री और बच्चों पर आधिपत्य जमाने और उनकी ‘चेतना’ और ‘देह’ दोनों पर नियंत्रण करने का कार्य करती है। स्त्रियों के प्रति होने वाले अपराधों - बलात्कार, देहज हत्या, ऑनरकिलिंग, शारीरिक शोषण, मानसिक प्रताड़ना, समाज, राजनीति, प्रशासन और कार्यस्थलों पर दोयम दर्जे का स्थान देना, निर्णय और विकल्प चयन में उनकी इच्छा-अनिच्छा को महत्व न देना, उन्हें जैविक इकाई भर मानना - में पितृसत्तात्मक सोच ही वास्तविक कारण है। इस विचारधारा ने स्त्रियों को चैतन्य मानवीय इकाई नहीं माना। इसी मानसिकता के कारण यौनिक संसर्ग में उसकी इच्छा  और अनिच्छा को महत्व नहीं दिया गया। इस महत्व न दिए जाने का ही परिणाम बलात्कार जैसे अपराधों के रूप में सामने आता है। हमारी सामाजिक व्यवस्था में यदि प्रकृति की इस नैसर्गिक क्रिया यौनिकता को स्त्री और पुरुष की बराबरी की सहमती और महत्व से संचालित होने को महत्व दिया जाता तो आज छोटी-छोटी बच्चियों के साथ इस तरह के दुष्कर्म घटित नहीं होते। इसे एक व्यवस्थागत अपराध माना जाना चाहिए और इसका दंड व्यक्तिगत स्तर पर इस तरह का हो कि यह अपराध करने वाला जिंदगी भर दूसरों को उदाहरण बने कि उसने इस तरह का अपराध किया था इसलिए उसकी यह सजा वह पूरी जिंदगी भुगत रहा है।

बलात्कार जैसा अपराध पुरुष की मानसिक विकृति में निरंतर पलता रहता है। अनुकूल अवसर पाकर यह क्रियान्वित होता है और स्त्रियों के प्रति जघन्य हिंसात्मक तरीके अपनाता है। इस बात पर भी सोचा जाना चाहिए कि बलात्कार हमेशा पुरुष द्वारा ही क्यों किया जाता है? जबकि यौनिकता की भूख या आवश्यकता स्त्री पुरुष दोनों को बराबर होती है। यह सवाल सेक्स पर बहस करने के लिए नहीं है। यह सवाल सेक्स की विकृति से उपजे अपराधिक कर्म की मनोवैज्ञानिकता को समझने के लिए है। इसका जबाव यह कह कर नहीं दिया जा सकता है कि खरवूजा चाकू पर गिरे या चाकू खरबूजे पर कटना तो खरबूजे को ही है। यह मानसिकता कहां से पैदा होती है? कैसे पुरुष यह मानलेता है कि एक अकेली स्त्री उसकी हवस का शिकार होने के लिए ही है। इसके पीछे घर, समाज और व्यवस्था के बीच निरंतर स्त्री और पुरुषों के बीच होने वाले भेदभावपूर्ण व्यवहार और स्त्री को हमेशा दोयम दर्जे पर रखने की हमारी व्यवस्थागत सोच काम करती है। एक बलात्कारी पुरुष हमेशा यह देखता और सुनता रहता है कि स्त्री तो पुरुष के लिए ही बनी है, उसकी शारीरिक और मानसिक आवश्यकतायें स्वतंत्र रूप से नहीं होती, वे पुरुष के संदर्भ में ही होती हैं, अतः उसकी यौनिकता भी एक वस्तु है जिसे वह सहजता से नही ंतो जबर्दस्ती पा सकता है और यह उसका पैदाइशी हक है। यह निरंतर की तैयारी होती है जो कभी कभार बर्बरता के रूप में प्रकट होती है। हमारी व्यवस्थागत सोच, मानसिक अनुकूलन उसे बलात्कार करने को तैयार करता है। पुरुष के सामने हमेशा यह बात सिद्ध होती रहती है कि स्त्री कमजोर होती है उसे सहारे के आवश्यकता होती है, उसे अकेले नहीं जाना चाहिए, उसका सौन्दर्य ही उसकी कमजोरी है, उस पर नैतिकता के बंधन उसे पवित्र बनाये रखते हैं, उसका कौमार्य खंडित नहीं होना चाहिए, इस तरह की सोच पुरुष को स्त्री के प्रति एक वर्चस्वी विचारधारा को हावी होते जाने देती है। यह वर्चस्वी सोच उसे बलात्कार जैसे अपराध करने को मानसिक रूप से तैयार कर देती है।

इस तरह के अपराध के घटने के बाद समाज और व्यवस्था का रवैया भी पुरुष को उकसाता है। वह निरंतर देखता है कि इस अपराध के बाद कानून और समाज की नजरों में अपराधी शिकार स्त्री होती है। नजरें नीचे करके उपेक्षा की शिकार स्त्री होती है, वह नहीं, कानूनी प्रक्रिया और पुलिसिया व्यवहार स्त्री को हंसी का शिकार बनाते हैं पुरुष को नहीं और अधिकांश पुरुष अपराध से बरी हो जाते हैं क्योंकि कोई सबूत नहीं होता, गवाह नहीं होता और शिकार हुई स्त्री अपनी बची खुची तथाकथित इज्जत को बचाने के चक्कर में सही तरह से जबाव नहीं दे पाती, इसके अलावा केस की प्रक्रिया में सारे के सारे पुरुष प्रतिनिधी होती हैं। यदि कहीं स्त्री भी है तो वह उस व्यवस्था का बहुत छोटा हिस्सा होती है जिसमें पुरुष प्रधानता है और वह अक्सर निर्णायक स्थिति में नहीं होती अतः उसे उस व्यवस्था में एक पुरुष प्रतिनिधि की तरह ही कार्य करना होता है। वह शिकार स्त्री की कोई सहायता नहीं कर पाती है जो उसके केस को मजबूत कर सके। इस तरह की व्यवस्था में पुरुष जो कि बलात्कारी होता है वह बचकर निकल जाता है। यह बात हर पुरुष जानता है कि व्यवस्था उसकी और उसके बाप की है, इसमें किसी स्त्री की क्या औकात जो उसे सजा दिलवा सके। इस तरह हमारी पूरी व्यवस्था चाहे वह सामाजिक हो, राजनीतिक हो, कानूनी हो, या नैतिक सब पुरुष प्रधान है, पुरुष वर्चस्वी हैं, इसमें स्त्री के प्रति इस तरह के अपराधा होते रहना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। दिल्ली गैंगरेप के बाद भी निरंतर हो रहीं बलात्कार की घटनायें हमें यही बताती हैं कि यह व्यवस्था पुरुषों की है और स्त्री के प्रति बलात्कार करना हमारा अधिकार है इसे हम नहीं छोड़ेंगे।





सूचना प्रौद्योगिकी का जन्म बाजार और पूँजी के अन्तर संबंधों के कारण हुआ, क्योंकि पूँजीवाद सिर्फ वित्त और उत्पादन प्रणाली मात्र नहीं था, वह एक सूचना प्रणाली भी था और अब भी है। जैसा कि आज हम जानते हैं कि 19 वीं शताब्दी संचार का जाल साम्राज्यिक प्रणाली की उपज था। व्यापार के अन्तर राष्ट्रीय विस्तार और निरंतर मुनाफा कमाने की चाहत ने नई से नई सूचना तकनीक को विकसित होने का जरूरी माहौल और साधन उपलब्ध कराये। प्रारंभ में सूचना और संचार माध्यम व्यापार में सहयोग करते थे, अब ये स्वयं में बहुत बड़े उद्योग के रूप में विकसित हो गए और उत्पादित वस्तु की माँग पैदा करने और उसके उपभोक्ता पैदा करने तथा उन्हे माल खरीदने को विवश करने का कार्य करने लगे। संचार माध्यमों के इस नए रूप ने वैश्वीकरण की प्रक्रिया को बनने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

आज का विश्वपूँजीवाद यानि की भूमंडलीकरण की शक्तियाँ सूचना और संचारमाध्यमों के बिना खड़ी ही नहीं रह सकती हैं। सूचना और संचार माध्यम (चाहे वे दृश्य माध्यम हों या प्रिंट या श्रृव्य) बाजारवाद के सबसे सशक्त और कारगर हथियार हैं, क्योंकि ये ‘ऑडियंस’ पैदा करते हैं और उन पर बाजारवाद की नीति और उत्पादन की आवश्यकताओं को थोपते हैं। ये ऑडियंस को सम्मोहित करते हैं, उसकी सोचने विचारने की शक्ति को कुंद करते हैं, विचार शून्य भीड़ में तब्दील करके उसे उत्पादित माल को क्रय करने के लिए बाजार में धकेलते हैं, हमारी विकल्प की स्वतंत्रता और संकल्प की शक्ति को समाप्त करते जाने का श्रेय इन संचार माध्यमों को हैं। इनमें भी यह कार्य सबसे अधिक कारगर तरीके से दृश्यमाध्यम करते हैं।

सूचना और संचारमाध्यम सूचना देने और मनोरंजन करने का भ्रम पैदा करते हैं। वास्तव में वे सूचना और मनोरंजन के माध्यम से दर्शक, श्रोता, या पाठक की विवेक बुद्धि पर आतंक की तरह छा जाने का कार्य करते हैं और फिर विज्ञापन के माध्यम से एक पूरा विश्वबाजार हमारे सामने खड़ा कर देते हैं। हम समझते हैं कि हम स्वतंत्र हैं, कुछ भी खरीदने को और यह भ्रम भी ये संचार माध्यम ही पैदा करते हैं, परन्तु वास्तव में हम सम्मोहित होते हैं बिना आवश्यकता के उनके किसी न किसी उत्पाद को खरीदने के लिए। ये हमारी आवश्यकता अनुसार उत्पादन नहीं करते बल्कि उत्पादन के अनुसार हमारी आवश्यकताओं को निर्मित करते हैं।

इस सूचना प्रौद्योगिकी का सबसे बड़ा अन्तर्विरोध यह है कि यह स्वयं को विकास और प्रगति का प्रतिमान मानता है और मनवाता है, परन्तु हमें यह जानकर आश्चर्य होगा कि विश्वभर के माध्यम विशेषज्ञ और विश्लेषकों ने मूल्यांकन के बाद यह निष्कर्ष निकाला है कि ‘‘सूचना और संचार माध्यम प्रतिगामी मूल्यों को बढ़ावा देते हैं और मानवीय समाज को बर्बरता, नृशंसता, अमानवीयता और संवेदनशून्यता की स्थिति में ले जा रहे हैं।’’




इसका दूसरा अन्तर्विरोध यह है कि विकास और प्रगति के नाम पर यह माध्यम एक जीवित इकाई को ‘जड़’ बना रही है। सूचना और संचार माध्यमों के लिए विज्ञापन करने वाले तथाकथित विकसित मॉडल एक ‘वस्तु’ मात्र है। दुनिया के बड़े कलाकार, खिलाड़ी, संगीतज्ञ आदि रोल मॉडल सबको उनकी कला सहित वस्तुओं के विज्ञापन में चिपका देते हैं, संस्कृति, कला, संगीत सबको जीवित इकाई से जड़ प्रतीक में बदल देते हैं। इस तरह संचार माध्यम सम्पूर्ण मानवीय चेतना को एक रिसीवर की तरह उपयोग करते हैं। जब मानवीय चेतना रिसीवर बन जाये तो उसके सामने नैतिक और अनैतिक, मानवीय और अमानवीय, मूल्य और मूल्यहीनता का कोई सवाल ही नहीं रह जाता। इस तरह जीवन की वास्तविक सच्चाइयों से हमारा नाता तोड़ने में सूचना प्रौद्योगिकी का बहुत महत्वपूर्ण योगदान है।

मैंने ऊपर कहा है कि संचार माध्यमों में दृश्य संचार माध्यम मानवीय विवेक, विचार शक्ति, कल्पना और संकल्प को समाप्त करने या कुंद करने में सबसे तीव्रगामी भूमिका निभाते हैं। दृश्य संचार माध्यमों में भी टेलीविजन का योगदान सर्वाधिक है। टेलीविजन अपने केवल और उपग्रह चैनलों के माध्यम से किस प्रकार अपराधों को बढ़ने में भूमिका निभाते हैं। अब इंटरनेट ने भी विचारों और गतिविधियों को मानवीय परिवेश से काटकर एकाकी कमोडिटी में बदलने का काम तीव्रगति से प्रारंभ कर दिया है। इंटरनेट स्त्रियों के प्रति बढ़ते अपराधों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। इस पर विचार करना आवश्यक है।

दूरदर्शन, केवल टी.वी., उपग्रह चैनल और इंटरनेट आपसी प्रतिस्पर्धा के चलते जो रास्ते अपनाते हैं उनसे आर्थिक, मानसिक, सामाजिक तनाव और विसंगतियाँ पैदा हो रही हैं। कैसे? इस कुछ विचार किया जाना चाहिए, मसलन अ. भा. जनसंचार माध्यम संस्थान के अध्ययन के मुताबिक ‘‘विज्ञापनों की आक्रामकता एवं मनोरंजन की बढ़ती हुई भूख अंततः आर्थिक जीवन को पामाल करेगी। नई-नई चीजों की चाहत अंततः आर्थिक संकट एवं सामाजिक तनाव को तीव्रता प्रदान करेगीं खर्चीली जीवन पद्धति का आदर्शीकरण होगा और जो खर्च करने की स्थिति में नहीं हैं उनमें हीनता ग्रंथि का विकास होगा।’’ यह मूल सूत्र है महिलाओं के प्रति बढ़ते अपराधों में दृश्य माध्यमों के योगदान को समझने का, क्योंकि ये स्त्री को उपभोग्य वस्तु की तरह प्रस्तुत करते हैं। इनके माध्यम से स्त्री की उपभोग्यता सर्वजनसुलभ बनाकर पेश की जाती है और जब वह सहज में सुलभ नहीं होती तो बलात्कार और अन्य तरह के अपराध जन्म लेते हैं।

निरंतर पश्चिमीकरण के नाम पर अमेरिकीकरण और कामुकता की संस्कृति का संप्रेषण दृश्यमाध्यम कर रहे हैं। दृश्यमाध्यमों की अंतर्वस्तु में कामुकता सबसे प्रधान तत्व है। इस तरह के कार्यक्रम देर रात तक लगातार प्रसारित किए जाते हैं जिससे व्यक्ति की दिनचर्या में बुनियादी बदलाव आता है उसकी कार्य क्षमता घटती है, तनाव बढ़ता है, स्वास्थ्य प्रभावित होता है, स्वाभाविक काम शक्ति घटती है और इसके लिए कृत्रिम साधनों के प्रयोग में वृद्धि होती है। परिणामस्वरूप व्यक्ति स्वाभाविक विवाहित सैक्स की जगह व्यावसायिक सेक्स को अपनाने के लिए विवश होता है और जब वह इसके लिए सक्षम नहीं होता या साधन सहज में उपलब्ध नहीं होते तो वह बलात्कार और इस जैसी अन्य घटनाओं को अंजाम देने से नहीं चूकता।

दृश्य संचार माध्यम अपने कार्यक्रमों में और विज्ञापनों में सामान्यतया उत्पादक कार्यों में व्यस्त और स्वभाविक महिला को प्रस्तुत नहीं करते हैं। वे एक सुंदर, सडौल, सेक्स अपील वाली महिलाओं को निरंतर उनके उत्तेजक और कामुकता से युक्त गतिविधियों के साथ प्रस्तुत करते हैं। वे जिस उत्पाद को बेच रहीं होती हैं, वास्तव में वे स्वयं की कामुक उत्तेजना और अपील को भी बेच रही होती हैं। दर्शक जब माल खरीदता है तो वह माल की संवेदना और मॉडल की उत्तेजना को भी खरीदता है। यह क्रय उसे कभी न कभी उस उत्तेजना को अपने जीवन में पूरी करने की आकांक्षा भी देता है। यही आकांक्षा महिलाओं के प्रति बढ़ते अपराधों में सहयोगी होती है।

रॉबिन मॉर्गन के शब्दों में ‘‘पोर्नोग्राफी सिद्धांत है और बलात्कार अभ्यास है।’’ 1 इससे जो निष्कर्ष निकलता है वह यह कि कामुकता की आंधी ने महिलाओं के प्रति हिंसा को बढ़ाया है। इससे हिंसा को दिलोदिमाग में उतारने की प्ररेणा मिलती है। कामुकता से युक्त प्रसारणों का लगातार जेहन में उतरते जाने से जीवन में महिलाओं के प्रति आक्रामकता को बढ़ावा मिला है।

जॉर्ज स्टिनर के शब्दों में, ‘‘कामुकता ने नए किस्म के दासत्व और स्वतंत्रता को जन्म दिया है।’’ 2 इसकी व्याख्या करते हुए श्री जगदीश्वर चतुर्वेदी लिखते हैं कि ‘‘यह हमारे निजी जीवन की कामुकता के अधिकार का क्षय है। यह स्वतंत्र कल्पनाशीलता के लिए चुनौती है, यह जनोपयोग की वर्तमान सभ्यता के लिए चुनौती है। यह व्यक्तिगत शैली के लिए गंभीर समस्या है। नग्नता के रूप में गुमनाम व्यक्ति का प्रदर्शन सर्वसत्तावादी राज्य की अवस्था का द्योतक है। यह सर्वसत्तावादी राज्य के यंत्रणा शिविरों का तार्किक विकास है।’’3

दृश्यमाध्यम महिलाओं की जो छवि समाज के सामने पेश करते हैं, उससे भी उनके प्रति आपराध बढ़ते हैं। मसलन दृश्यमाध्यम हमें बताते हैं कि औरत का मूल चरित्र है शादी करना, समपर्ण करना, प्रत्येक परिस्थिति में सहनशील बने रहना, अन्याय को अन्तिम समय तक सहन करना, सुंदर और आकर्षक दिखना ताकि पुरुष वर्ग उसकी ओर आकर्षित होता रहे। हर संभव कानून और पुलिस के चक्कर से बचना ताकि उसकी बदनामी न हो, उसके चरित्र पर दाग लगा भी दिया जाये तो भी समाज में बदनामी के भय से चुप रहना इत्यादि। इस तरह के चरित्र बार-बार पेश किए जाते हैं। इससे पुरुष वर्ग को उसके प्रति हिंसा और शोषण करने की प्रवृत्ति में इजाफा होता है, क्योंकि वह इनके माध्यम से यह सीखता है कि अधिकांश लड़कियाँ अपने प्रति हुए यौन अपराधों को छिपा लेती हैं। इस संबंध में श्री जगदीश्वर चतुर्वेदी लिखते हैं ‘‘औरत की समपर्णकारी इमेज के कारण ही वह पुरुष द्वारा की गई शारीरिक हिंसा और अत्याचारों को स्वीकार कर लेती है।’’ 4





दृश्य माध्यम विज्ञापन में औरतों की जो छवि समाज के सामने पेश करते हैं उसमें वे औरत को वास्तविक परिस्थितियों और संदर्भों से काटकर मात्र सेक्स या कामुकता के संदर्भ में उपभोग वस्तु के रूप में प्रस्तुत करते हैं। इससे उनके प्रति जो मानवीय संवेदना होती है वह समाप्त हो जाती है और एक उपभोग वस्तु की तरह हमारे दिलो-दिमाग पर छाई रहती है, वह छवि। यह एक जीती जागती व्यक्तिगत मानवीय इकाई को एक गर्म गोश्त के रूप में परोसने की प्रवृत्ति उनके प्रति हिंसा को बढ़ाती है। गर्म गोश्त खाना है तो बकरे को हलाल तो करना ही होगा और हलाल करते समय उसकी करूण पुकार और चेतना की चीत्कार उत्तेजना को और आनंदानुभूति को बढ़ाने का ही कार्य करती है। श्री जगदीश्वर चतुर्वेदी लिखते हैं कि ‘‘ध्यान रहे, उपभोक्ता संस्कृति जब कामुकता को प्रेरक की तरह इस्तेमाल करती है तब सेक्स की सौंदर्यात्मक भूमिका खत्म हो जाती है। अब वह सिर्फ एक खेल हो जाता है। वह उसके कष्टप्रद अनुभवों को छिपाता है। वह एक तरह से आमोद-प्रमोद का हिस्सा हो जाता है। साथ ही आमोद-प्रमोद की अनंत एवं अशांत भूख को जन्म देता है।’’5

तमाम दृश्य माध्यमों पर औरत की एक व्यक्ति के रूप में छवि पूरी तरह से गायब है। आज कोई भी धारावाहिक कामगार और उत्पादक कार्यों में व्यस्त नारी के जीवन को चित्रित नहीं करता, क्योंकि पूँजीवाद उनके उत्पादक रूप को महिमामंडित नहीं करने देना चाहता। ऐसा नहीं है कि वह उनसे उत्पादक कार्य नहीं करवाता है, परन्तु दृश्यमाध्यमों पर वह उन उत्पादों को बेचने वाली कालगर्ल के रूप में ही पेश करना चाहता है। इसके पीछे एक और कारण है कि उत्पादन कार्य में व्यस्त नारी ऐश्वर्या राय, प्रीति जिंटा, रानी मुखर्जी, विपाशा वासु आदि तो हो नहीं सकती, वहाँ तो मोटी, काली, बदसूरत(सौन्दर्य मिथक के आधुनिक मानकों के अनुसार, वैसे कोई स्त्री बदसूरत नहीं होती, श्रम ही उसका सौन्दर्य यदि माना जाये तो) आदि सभी प्रकार की नारियाँ होती हैं, उन्हें देखकर उनके उत्पाद को कौन खरीदेगा? जीवन में बहुत सारी नारियाँ ऐसी हैं जो निरंतर संघर्षरत है और अपने अस्तित्व और चेतना की प्रतिष्ठा की लड़ाई लड़ रहीं हैं, परन्तु वे दृश्य माध्यमों पर कभी भी स्थान नहीं पाती।

दूरदर्शन और अन्य केवल तथा उपग्रह चैनल महिलाओं के प्रति हिंसा को बढ़ाने में एक और तरह से योगदान देते हैं। वह है उनके द्वारा हिंसात्मक धारावाहिकों का लगातार प्रक्षेपण। इस तरह के कार्यक्रम मनुष्य के अन्दर हिंसा के प्रति सरलीकृत दृष्टिकोण का विकास करते हैं। इस तरह सैकड़ों धारावाहिक और उनमें अनंन्त धटनाएँ निरंतर हमारे जेहन में हिंसात्मक प्रवृत्ति को सहज और उदात्त बनाती जाती हैं।

स्त्री के प्रति सर्वाधिक अपराध उसकी सौन्दर्य छवि के कारण होते रहे हैं, सदियों से। पितृत्तात्मक व्यवस्था ने सदियों से स्त्री को ‘सुन्दरता’ के मिथक में कैद करके रखा है और ऐसी सुन्दरता जिसका उपभोग पुरुष कर सकता है और यह उसका अधिकार है। इसके साथ ही सुन्दरता को उसकी यौनिकता से संबद्ध कर दिया गया। यौनिकता को इज्जत और आबरू से। इस तरह सौन्दर्य मिथक ने स्त्री को उसकी मानवीय गरिमा से अपदस्थ कर दिया। अब वह एक सुन्दर वस्तु में तब्दील हो गई, उसकी सुन्दरता की उपमायें भी तमाम प्रकृति की तरह सुन्दर मानी जाने वाली वस्तुओं से दी जाती रही हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि स्त्री प्रकति की अन्य सुन्दर लगने वाली वस्तुओं की तरह एक वस्तु है और पुरुष इसकी सुन्दरता का उपभोग कर्ता। इसका गहन विश्लेषण इस निष्कर्ष पर पहुँचाता है कि सुन्दरता के मिथक ने स्त्री के प्रति अपराधों का बढावा दिया। आज पूँजीवादी युग में सुन्दरता का नया मिथक पैदा किया गया। इस मिथक ने स्त्री के प्रति यौन अपराधों की लंबी शृंखला पैदा कर दी है। इस मिथक को समझना आवश्यक है।

‘‘कोमलता वह बुनियादी विशेषण है जिससे स्त्री को कैद किया गया है। यहीं से मर्दों का स्त्रीत्ववाद अब भी जगह बनाता है। यहीं से हमदर्दी शुरू होती है। हमदर्दी एक संदिग्ध विचार है। स्त्रीत्ववाद का एक बड़ा विमर्श ऐसा मानता है।’’6

‘‘नारी और मुक्ति! यह एक त्रासद यथार्थ है कि हजारों वर्षों से पुरुष निर्मित इस समाज में नारी और मुक्ति नदी के दो किनारों की भाँति ही रहे हैं। समय की धारा में किसी-किसी मोड़ पर यह अहसास जरूर हुआ कि वह सामाजिक बंधनों एवं मिथकों को तोड़कर मुक्त हो जाएगी, लेकिन यह अहसास बिखर गए। हाँ पुरुषों के बनाए मिथक खत्म नहीें हुए। इतना अवश्य हुआ कि पितृसत्तात्मक व्यवस्था ने समय की माँग के अनुसार पुराने मिथकों की जगह नए मिथक गढ़े।’’7

भूमंडलीकरण ने औरत का यह इस्तेमाल अपने फायदे के लिए किया और नर-नारी विषमता और नारी जीवन के अन्तर्विरोधों, शोषण की और कोई ध्यान जानबूझकर नहीं दिया, क्योंकि उसका फायदा तो औरतों की परंपरागत और परिवार के ढांचे में बंधी छवि के रूप में रहने से था, परिवार और पितृसत्ता से जकड़ी और अपने को मुक्त समझती औरत के होने में ही उसका अकूत मुनाफा था। यह आजादी ‘आजाद’ होने का भ्रम है जिसमें बेड़ियाँ तो यथावत हैं बल्कि और मजबूत हो गईं हैं, परन्तु वे लोहे की जगह सोने और जेल की जगह आजादी के भ्रम की हो गईं हैं, साथ ही आजादी के नाम पर वस्तुओं की खपत का सिलसिला चलाये रखने की गुंजाइश बनाये रखना।

औरत को देह के बंधनों से निकालकर सचेत बनाने में भी भूमंडलीकरण की कोई दिलचस्पी नहीं है। इसलिए उसने सुन्दर औरत को विदुषी और विदुषी औरत को सुन्दर मानने से इनकार किया।




इस दौर में औरत एक परिवार की गुलाम नही है, वह पूरे अर्थतंत्र और राष्ट्र राज्यों की गुलाम है और उसकी देह हजारों पुरुषों के उपभोग की वस्तु है किसी एक (पति) पुरुष की नहीं। इस तथाकथित आजादी का यह रूप मीडिया कभी सामने नहीं लाता। औरतों के निर्यात का असली कारण गरीबी का स्त्रीकरण और गरीबी का कारण भूमंडलीय पूँजी का प्रसार, अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक के कर्जों का होना है। यह सिर्फ कानून और प्रशासनिक असफलता के कारण नहीं है।

‘‘समूचा इतिहास स्त्री पर आरोपित मिथकों एवं इनके जाल में फँसी स्त्री के विद्रोह, कभी मूक तो कभी मुखर की दास्तान है। उसके शोषण और दमन का चित्रण है -उसे भोगने का यथार्थ है।’’8

 ‘मिथकों की इस शृंखला में एक नया मिथक है ‘सौन्दर्य मिथक’। इस मिथक की गिरफ्त का अंदाजा हजारों बिलियन डालर की ‘डाइटिंग इंडस्ट्री’, कास्मेटिक इंडस्टीª’, एवं कास्मेटिक सर्जरी इंडस्ट्री’ से लगाया जा सकता है। ये उद्योग इस मिथक के साथ दिन-ब-दिन बढ़ते जा रहे हैं। इनकी गिरफ्त में अधिकाधिक स्त्रियाँ आती जा रहीं हैं। इसकी बजह से पढ़ी-लिखी स्त्रियाँ, जो कि स्त्री मुक्ति का झंडा बुलंद कर सकती थी, आज सड़कों, चौराहों और पर्दों पर अपने बदन की नुमाइश से किसी उत्पाद को बेचती या फिर इन्हीं उत्पादों को खरीदती नजर आती हैं। बहुत कम स्त्रियों को इस बात का अहसास है कि स्त्री मुक्ति एवं स्त्री सौन्दर्य के बीच एक गहरा विरोधी रिश्ता है। रिश्ता जिससे स्त्री मुक्ति के लिए वर्षों का आन्दोलन कमजोर पड़ गया है।’’9

 ‘आज स्त्री अपनी देह मात्र में सिमट गयी है। उसे लगता है कि उसका शरीर सामाजिक एवं धार्मिक बंधनों से मुक्त हो गया है और वह अपने देह की मलिका स्वयं है। लेकिन शरीर का मालिक तो वह होता है जिसका मस्तिष्क पर नियंत्रण हो। इस लिहाज से सौंदर्य मिथक में घिरी स्त्री को ऐसा भले ही लगता हो कि वह अपने शरीर की मलिका है, पर वस्तुतः वह और उसकी देह, दोनों इस व्यवस्था की पकड़ में ठीक उसी तरह हैं जिस तरह एक मध्ययुगीन स्त्री। मध्ययुगीन स्त्री पर पुरुषों का शासन धर्म एवं मर्यादा के नाम पर होता था और आज यह सौंदर्य के नए धर्म के नाम पर।’’10       

औरत के सौन्दर्य के नियंत्रक पहले भी पुरुष और धार्मिक सत्ता थी आज भी उसके सौन्दर्य के नियंत्रक पुरुष और आर्थिक सत्ता है। वह नियंत्रण के अधिकार से बाहर ही है।

भूमंडलीकरण ने औरत की पारंपरिक अधीनस्थ छवि को कायम रखते हुए उसकी सुन्दरता के संस्थागत इस्तेमाल को वैश्विक आयाम प्रदान कर दिया। पर्यटन और मनोरंजन उद्योग के नाम पर औरतों के निर्यात के लिए प्रोत्साहन किया गया। औरत के इस निर्यात में भूमंडलीकृत राष्ट्रों की छिपी और खुली सहमति शामिल है।

भूमंडलीकरण ने औरतों को अतीत की किसी भी कालावधि के मुकाबले अधिक निर्ममता और सम्पूर्णता से एक बिकाऊ जिंस में बदल दिया है। तमाम आजादी को बताने वाले भूमंडलीय विकास के पैमाने इसी जिंस में बदलने की कहानी है। भूमंडलीकरण के पिछले 20-30 वर्षों में औरतों का सर्वाधिक निर्यात किया गया और जितनी रकम अपराधी गिरोहों और सरकारों ने इस उद्योग से कमाई है वह अब तक तमाम कमाई गई रकम से कई गुना अधिक है। यौन व्यापार कई देशों की विदेशी मुद्रा कमाने का प्रमुख माध्यम है। यह कार्य उन्होंने अपने कर्ज चुकाने के लिए किया और निरंतर बढ़ाया। यह कर्ज उदारीकरण के नाम पर विश्वव्यापार संगठन और विश्वबैंक जैसी संस्थाओं ने मजबूर करके उन्हें लेने को विवश किया था। यह तथ्य ध्यान रखने का है कि विदेशी कर्ज से पैदा होने वाली परेशानियों का सबसे बड़ा दुष्प्रभाव महिलाओं और बच्चों को झेलना पड़ा है और निरंतर झेल रहे हैं।

‘‘इस नए धर्म के कानून में मोटापा, साँवलापन, रूखी त्वचा, बेजान बाल, अपराध हैं, विकृतियाँ हैं। इन विकृतियों को दूर करने के लिए नियमों एवं कार्यों की सूची बाजार जैसे नए धार्मिक स्थलों के मठों-ब्यूटीशियनों के पास मौजूद है। सभी वर्गों की स्त्रियों ने इसे सामर्थ्य एवं सीमा के अनुरूप स्वेच्छा से अपनाया, क्योंकि लंबी गुलामी के उपरांत उन्हें गुलामी की आदत सी हो गई थी। ऐसी स्थिति में धार्मिक, आध्यात्मिक एवं पारंपरिक अवरोधों के टूटने से एक रिक्तता उत्पन्न हुई। इसे भरने के लिए उन्होंने नए धर्म की रीतियों का अनुसरण शुरू किया।’’11 

स्त्री शोषण के तरीके चाहे वे सामंतीय हों या पूँजीवादी हमेशा ही स्त्री को मानसिक रूप से अनुकूलित करके चलते हैं। वे स्त्री को शोषित होने के लिए स्वयं स्वेच्छिक रूप से तैयार कर लेते हैं। स्त्री स्वयं प्रस्तुत होती है और उसे यह नहीं महसूस होता कि यह जो वह स्वेच्छा से करने को प्रस्तुत है दरअसल वह उसकी अस्मिता और व्यक्तित्व को नकार कर चलते हैं। सौन्दर्य मिथ के माध्यम से स्त्री की चेतना को पूँजीवाद के अनुकूल अनुकूलित किया जा रहा है जिससे वह स्वयं शोषित होने के लिए तैयार हो जाती है।





अनुकूलित करने का तरीका है ‘‘बचपन से ही एक लड़की को बार-बार बताया जाता है कि विश्व की सभी कहानियाँ सुंदर स्त्रियों को समर्पित हैं। दूसरे शब्दों में कहानियाँ या इतिहास रचने का अधिकार सिर्फ संुदर स्त्रियों के हिस्से है। सीता, पार्वती, लक्ष्मी, अहल्या, द्रोपदी, राधा, मेनका, रंभा, शकुंतला की भीड़ में मंथरा, शबरी, व काली अपवाद स्वरूप खड़ी हैं और इन अपवादों का कोई पुरुष साथी नहीं। सुंदर स्त्रियों की कहानियों के अतिरिक्त यदि कुछ कथायें शेष रह जाती हैं तो वह सती-सावित्री जैसी आदर्श एवं पतिव्रता स्त्रियों के हिस्से हैं। इस माहौल में पढ़ी बढ़ी लड़की को सुंदरता का चमत्कार आतंकित करता रहता है।’’12   

मानसिक रूप से अनुकूलित या (विक्षिप्त) स्त्री ही कास्मेटिक सर्जरी करवा सकती है। कॉस्मेटिक सर्जरी दरअसल स्वयं के प्रति किया गया मानवीय अत्याचार है, क्रूरता है। ‘‘यह अत्याचार मध्ययुगीन समाज के उन सभी रूढिवादी मान्यताओं द्वारा किए गए अत्याचारों की ही तरह है, जहाँ दर्द और स्त्री एक दूसरे के पर्याय बन गए थे।’’13

स्वयं के प्रति किए जा रहे अत्याचारों के अन्य सौन्दर्य मानक वाले रूप हैं - डाइटिंग और त्वचा की रंग और चमक के लिए किए गए कार्य। पुरुषों के लिए मोटापा संपन्नता की निशानी है स्त्रियों के लिए बदसूरती और विकृति। पुरुष के लिए सांवलापन भगवान (कृष्ण) का रूप है, मगर स्त्रियों के लिए अपराध है।

‘‘रंग को लेकर इस कुंठा की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि है। वस्तुतः संसार में गोरापन शासकों का रंग रहा है। आधुनिक विश्व में गोरों (यूरोपियनों) ने कालों पर शासन किया। इसलिए गोरापन उत्कृष्टता का द्योतक है। और कौन उत्कृष्ट होना नहीं चाहेगा। इसलिए साँवली और काली स्त्रियों में यह हीन भावना रहती है जिसको और उभारकर ये कास्मेटिक उद्योग वाले अपना मुनाफा कमाते हैं।’’14

सौन्दर्य प्रतियोगिताओं का राजनीतिक पहलू यह है कि स्त्री की स्वतंत्रता को देह मात्र तक सीमित कर उन्हें उसी में उलझाए रखना एवं आर्थिक रूप से उनके माध्यम से एक बड़े बाजार के माध्यम से मुनाफा कमाना।

‘‘विश्व सौंदर्य प्रतियोगिताओं में खिताब भारतीय सुंदरियों की सुंदरता के लिए नहीं वरन् बाजार के लिए दिया जा रहा है, जिससे यहाँ की स्त्रियों में सुंदर बनने की चाह और तीव्र हो। वह उनके मकड़जाल में और गहरे फँसती जाएँ। चेतना विकसित करने की जगह शरीर को सजाने का कार्य करें।’’15

‘‘सौन्दर्य प्रतियोगिता का एक अन्य घृणित पक्ष यह है कि वह ‘ब्यूटी बिद ब्रेन’ का प्रचार करती है। जैसे सौन्दर्य और दिमाग का समावेश कोई दुर्लभ बात हो और लाखों करोड़ों स्त्रियों की तदाद में एक ही स्त्री, जिसमें दिमाग और सौंदर्य संतुलित रूप से है। यहाँ उस सौंदर्य का प्रयोग उत्पाद बेचने एवं दिमाग का प्रयोग उसके शरीर को नियंत्रित रखने में किया जाता है। कुल मिलाकर यह गुलाम मानसिकता को जन्म देने और पुष्ट करने की ऐसी साजिश है, जिसमें स्त्री का हर स्तर पर शोषण होता है।’’16

सौन्दर्य मिथक ‘‘स्त्री की स्वतंत्रता को बाधित करने और पुरुषों के हितों की पूर्ति के लिए आविष्कृत किया गया।’’17

सौन्दर्य मिथक को स्त्री के आसपास बुनने और उसे सफल बनाने के लिए ‘‘स्त्री संबंधी पत्र-पत्रिकायें औजार के रूप में इस्तेमाल की गईं, जिनके माध्यम से स्त्री आंदोलनों को सफलता मिली थी। इस्तेमाल किए जाने के पीछे इन पत्रिकाओं का अर्थशास्त्र भी काम करता है। इन्हें प्रकाशित करने के लिए धन की आवश्यकता होती है। यह धन विज्ञापनों के माध्यम से आता है। उत्पादों को विज्ञापित करने वाले उद्योग धंधों पर पुरुषों का कब्जा है और इनकी बात मानना पत्रिकाओं की बड़ी मजबूरी होती है। ऐसी स्थिति में स्त्री के हित में काम करने वाली पत्रिकाएँ नए मिथक के विरुद्ध लिखने में असमर्थ थीं। इतना ही नहीं इन पत्रिकाओं के अलावा धीरे-धीरे मिथक के विस्तार के लिए अनेक अन्य पत्रिकायें भी बाजार में आयीं। इनमें से कुछ का यह दावा था कि वे स्त्री की ‘सेक्सुअल लिबरेशन’ के संघर्ष में मदद करेंगी। कुल मिलाकर अधिकांश पत्रिकाओं ने मुनाफे के लिए व्यवस्था की माँग के अनुरूप स्त्री के व्यवहार में परिवर्तन लाने का कार्य किया। मुनाफा मुख्य ध्येय रहा है न कि नारी मुक्ति का अभियान। इस तरह आदर्श, स्त्रीत्व एवं देवीत्व तो चला गया, लेकिन स्त्री का शरीर रह गया और इस पर नियंत्रण के लिए मस्तिष्क पर नियंत्रण का अभियान जारी रहा। इस अभियान के फलस्वरूप स्त्रियों में सौंदर्य प्रसाधनों की माँग और चाह बढ़ने लगी। एक विकृत फैंटेसी, जिसने लंबे संघर्ष से अर्जित स्वतंत्रता शनैः शनैः क्षीण होने लगी।’’18

चेतना की स्वाभाविक प्रक्रिया को मानसिक अनुकूलन के माध्यम से बदलने में दृश्य शृव्य माध्यमों के विकास ने क्रांतिकारी कार्य किया। ‘‘समाजवाद की नींव में दरार डालने के साथ ही इसने पूँजीवाद की जड़ें मजबूत कीं और मानवीय संवेदनाओं को नष्ट किया। यह मानवीय संवेदनाओं का हृास नहीं तो और क्या है कि युद्धों को स्क्रीन पर देखकर अधिकांश विश्व रोमांचित हो उठता है, देश के एक हिस्से में आयी प्राकृतिक तबाही के उपरांत भी समूचा देश त्यौहार और जश्न मनाता है, भूख और नंगई से उद्वेलित होने की बजाए उदारीकरण और खुली अर्थव्यवस्था का राग अलापा जाता है और पर्दे पर बलात्कार के दृश्यों को देख लोगों में घृणा और आक्रोश की जगह ‘सेक्सुअल सिहरन’ उत्पन्न होती है।’’19

‘‘जिस समय भारतीय फलक पर टेलीविजन और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का विस्तार हो रहा था उसी समय समाचार पत्र जगत् में भी तेजी से बदलाव आ रहे थे। आठवें दशक के उत्तरार्ध में एवं नवें दशक के पूर्वार्द्ध में एक-एक करके सभी पत्र-पत्रिकायें बंद हो गयीं, जिनके कुछ सामाजिक सरोकार थे। दिनमान, धर्मयुग, रविवार, साप्ताहिक हिंदुस्तान, जैसी पत्रिकाओं को संबद्ध उद्योग-घरानों ने बंद कर दिया। यह प्रोफेशनल इथिक्स को त्याग, धंधाकरण की प्रक्रिया थी। अब पत्रिकारिता जगत् में खबरों का चयन उसकी सामाजिक उपयोगिता के कारण नहीं आर्थिक उपयोगिता के कारण किया जाने लगा। उस खबर की कीमत सर्वाधिक आँकी गई जो अधिकाधिक लोगों को अपनी और आकर्षित करे। ऐसे माहौल में स्त्री के अर्धनग्न, उत्तेजक, माँसल, शरीर की तस्वीरों एवं उनसे संबंधित सनसनीखेज खबरों को समाचार पत्रों में व्यापक स्पेस दिया जाने लगा।’’20





पूँजीवाद के भूमंडलीय संस्करण ने ‘स्त्री’ छवि को बदला है। स्त्री देह का निर्माण किया है। अब हर बो चीज जो छिपाने की थी प्रत्यक्ष होने लगी। वक्ष समक्ष होने लगे, सिर्फ इसलिए की अच्छी तरह से बनाई गई देह ही बाजार में बिक सकती है, उसकी छवि को लगातार बेचा जा सकता है और अकूत मुनाफा कमाया जा सकता है।

आज मीडिया ने जिस स्त्री की छवि बनाई है, वह समाज और देश की आम स्त्री की नहीं है, वह विशिष्ट वर्ग की विशिष्ट स्त्री की छवि है, जो उच्चवर्गीय स्त्री की प्रतिनिधित्व करती है।

‘‘पूरे के पूरे नए मीडिया संजाल ने इस वास्तविक स्त्री को, इसके जीवन और इसके संघर्षों को समाज की नजरों से, खुद स्त्री समुदाय की नजरों तक से ओझल कर दिया है। यहाँ तक कि इसने आम मध्यवर्ग की पढ़ी लिखी स्त्री और गृहणी से लेकर आम कामकाजी औरतों तक से उसकी अपनी स्वाभाविक उम्मीदों, स्वप्नों, कल्पनाओं, फन्तासियों और बिम्बों को छीन लिया है और उसे नशे की खुराक की तरह नई कल्पनाओं और फन्तासियों और स्वप्नों की उड़ान दे दी है। मीडिया आज नए धर्मशास्त्र की भूमिका में है। जीवन के वास्तविक दुखों से फौरी तौर पर राहत और आराम देने वाली अफीम की पुरानी खुराक के साथ-साथ नए प्रकार का सांस्कृतिक नशा भी आज दूरदर्शन के चैनलों से लेकर प्रिंट मीडिया द्वारा मुहैया करा रहा है, मुक्ति का, मुक्त स्त्री का नया मिथक रचा जा रहा है, एक नया धर्मशास्त्र रचा जा रहा है।’’21


 परिचय और  संपर्क

डॉ. संजीव कुमार जैन
सह प्राध्यापक हिन्दी
शासकीय महाविद्यालय,
गुलाबगंज

 522-आधारशिला, ईस्ट ब्लॉक एक्सटेंशन
 बरखेड़ा, भोपाल म.प्र. 462021

 मो. 09826458553



संदर्भ -

(1) माध्यम साम्राज्यवाद: श्री जगदीश्वर चतुर्वेदी,  पृश्ठ 87

(2) वही ..............................................  पृष्ठ 86

(3) वही ..............................................  पृष्ठ 86

(4) वही................................................ पृश्ठ 92

(5) वही ................................................पृश्ठ 93

(6) अतीत होती सदी और स्त्री का भविष्य, सं. राजेन्द्र यादव, वर्मा, पृष्ठ 208

(7) वही पृष्ठ पृष्ठ 216

(8) वही पृष्ठ पृष्ठ 216

(9) वही पृष्ठ 217

(10) वही पृष्ठ पृष्ठ 217

(11) वही पृष्ठ पृष्ठ 217

(12) वही पृष्ठ पृष्ठ 218

(13) वही पृष्ठ पृष्ठ 219

(14) वही पृष्ठ पृष्ठ 220

(15) वही पृष्ठ पृष्ठ 220

(16) वही पृष्ठ पृष्ठ 221

(17) वही पृष्ठ पृष्ठ 221

(18) वही पृष्ठ पृष्ठ 222

(19) वही पृष्ठ पृष्ठ 222

(20) वही पृष्ठ पृष्ठ 223

(21) कुछ जीवन्त कुछ ज्वलंत, कात्यायनी, पृ. 151

4 टिप्‍पणियां:

  1. जय मां हाटेशवरी...
    अनेक रचनाएं पढ़ी...
    पर आप की रचना पसंद आयी...
    हम चाहते हैं इसे अधिक से अधिक लोग पढ़ें...
    इस लिये आप की रचना...
    दिनांक 17/04/2018 को
    पांच लिंकों का आनंद
    पर लिंक की गयी है...
    इस प्रस्तुति में आप भी सादर आमंत्रित है।

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