10 मई, 2018

परमानन्द रमन की कविताएं 


मै मूलतः दृश्यकला का छात्र रहा हूँ, वर्तमान में कला शिक्षक के तौर पर अध्यापन का कार्य कर रहा हूँ। भाषा एवं साहित्य को मैने एक निश्चित दूरी से देखा जरूर था मगर रचना के प्रति कभी इतनी गंभीरता नही थी कि कुछ रच सकूं, साहित्यिक रूचि के संदर्भ में भी काफी दिलचस्प घटनाएं घटीत हुईं, अमूमन लोग पहले किसी साहित्यकार के साहित्य से प्रभावित होते हैं और फिर उसकी साहित्यकार पर शोध एवं विमर्श करते हैं।
मेरे मामले में ये उलट हुआ, हाईस्कूल तक ऐसा वातावरण हीं नही था कि कुछ पढ़ा या लिखा जा सके बाद में दृश्यकला की शिक्षा के लिए खैरागढ़ विशवविद्यालय में दाखिल हुआ इस जगह ने काफी कुछ सिखाया। मै भाषा के व्याकरण से प्रायः अछूता रहा विश्व साहित्य में भी मेरा कोई दखल नही है, मगर खैरागढ़ ने अनजाने मुझमें जो गढ़ा वो आज तक कायम है वो थी- नाट्यकला।
हमारे काँलेज के शुरुआती दिनों में खैरागढ़ में नाट्य विभाग का खुलना और पहली प्रस्तुति के रुप में दो नाटकों का चयन। विजयदान देथा की टीडोराव एवं मोहन राकेश की लहरों के राजहंस
मै खुशकिस्मत था कि मुझे टीडोराव का किरदार मिला और यहीं से बदलाव शुरु हुआ। एक बात स्पष्ट कर दूं कि इसके पहले ना तो मै विजयदान देथा को जानता था ना मोहन राकेश को(आप मेरी साहित्यिक समझ का अनुमान लगा सकते हैं)। मगर इस नाटक के बाद मेरी रूचि साहित्य में बढ़ी और रचना के प्रति भी पहला प्रेम यहीं से उपजा, इसी बीच एक सबसे अच्छी बात और ये हो गई कि स्नातकोत्तर के लिए मै खैरागढ़ से बनारस आ गया और मूर्तिकला विभाग में दाखिला मिल गया, मेरे विभाग के ठीक बगल में कला संकाय एवं हिन्दी विभाग था, कला संकाय के प्रेक्षागृह में प्रायः दुर्लभ गोष्ठियां होती रहती थीं।
जैसा मैने शुरुआत में हीं लिखा है कि मेरे मामले में चिजें अद्भुत रुप से हो रही थीं, कला संकाय में हीं मैने साहित्य के मूर्धन्य हस्ताक्षरों से मिलना संभव हो सका। काशीनाथ सिंह सर, ज्ञानेन्द्रपति जी, नामवर जी, स्व. चंद्रकांत देवताले और भी कई महान साहित्यकार जिनसे पहले मिलना हुआ और बाद में उनकी रचनाओं से समृद्ध होता रहा।
बनारस में नाटक भी खूब खेला हिन्दी विभाग मेरा दूसरा घर था। वही से मैने सिखा कथा के नाट्य रुपांतरण की विद्या के बारे में जिसमें प्रो. चंद्रकला त्रिपाठी जी का नाम सबसे उपर है, मैने भाषा को ध्वनि रुप में जिया और संजोया है पत्थर पर छेनी द्वारा चोट की ध्वनि से अंदाजा मिल जाता है कि काटनेवाला कितना परिपक्व है, भाषा भी मानस पर छेनी की तरह चोट करती है यह समझ अबतक विकसित हो चुकी थी। मेरी रचना इसी समझ के आस पास की है। बहुत पहले भी जब मैं लिखना नही जानता था मै देखता था पाश, गोरख पाण्डेय और फैज़ की रचनाओं के पोस्टरों में बने चित्र, मै उन रचनाओं से वाकिफ नही होता था मगर मै उनके साथ बने चित्रों और उनके व्याकरण से भलीभांति परिचित था। आज जब मै रचना के परिपेक्ष्य में कला और साहित्य को देखने पर पाता हूँ, माध्यम भिन्न होने के वावजूद भी परस्पर दोनो में एक सामन्जस्य है एकरूपता है। नाट्य विद्या ने मुझे मौका दिया साहित्य संगीत और कला को परस्पर समझने का, मेरी रचनाएं समसामयिक घटनाओं से प्रभावित हैं, मै मौजूदा समय में घट रही त्रासदी का चश्मदीद मात्र बनकर नही रहना चाहता हाँ इससे सबकुछ बदल जाएगा मै इससे भी इत्तेफाक नही रखता, ना किसी सम्मान या पुरस्कार की मेरी मंशा है। मै एक साधारण कलाकार आसपास की असाधारण घटनाओं को दर्ज करने के प्रयास मात्र में हूँ, प्रयास अदना हीं सही मगर जारी है..
सधन्यवाद।
परमानन्द रमन






परमानन्द रमन


कविताएं

सबसे सरल अनुवाद

आजीवन जटिल रहे
मेरे पिता
और मां सहज रूप से
सरल रही

दोनो साथ रहे
सबसे जटिल और सबसे सरल
समय में

माँ के नहीं रहने के बाद
असहज रुप से
सरल हो गए पिता
माँ हो गए पिता

मै एक साथ
सबसे जटिल क्षणों में
सबसे सरल होना चाहता हूं

सरल है
सभ्यता के प्राचीनतम
कंदराओं में
अनमने भाव से उकेरी गई
आकृतियां

जटिल है उन ऊंघती हुई
आकृतियों का
सरलतम अनुवाद

सरल है किसी निर्जन वन का
एकाएक धूं-धूं कर जल उठना
अति-उष्णता से

एक चिंगारी को
प्राकृतिक रूप से
ईजाद करना
अत्यंत जटिल है

सरल है पिघलना
एक ग्लैशियर का
हो जाना पवित्र नदी

जटिल है बाँधना
भरी हुई
आँखों पर बँध

सरल है सारी पाण्डुलिपियों
और महाकाव्यों को
कण्ठबद्ध करना

जटिल है
अपनी मनःस्थिति का
यथार्थ चित्रण
एक कोरे कागद पर

प्रसव सरल है
सबसे सुरक्षित है देह
देह के भीतर

जन्म जटिल है
उससे भी जटिल है
समुद्र किनारे औंधा पड़ा
शिशु शव

अजन्मा विचार सरल है
सबसे सरल विचार का जन्म
अत्यंत जटिल है

सरल है वीभत्सता से लड़ा गया
इतिहास का
सबसे प्रलयंकारी युद्ध

मगर सबसे जटिल है
निर्मित ना होने देना
युद्ध की स्थिति


मोसूल सरल है
श्रीनगर जटिल है

दुर्योधन सरल है
कृष्ण जटिल है

प्रतिरोध सरल है
निर्वाह जटिल है

संगीत सरल है
स्वर जटिल है


मै चाहकर भी
अपने पिता की तरह
एकसाथ सबसे जटिल क्षणों में
सबसे सरल नहीं हो पाता

और तुम
अति सहजता से
हो जाती हो
मेरी सबसे जटिल रचनाओं का
सबसे सरल अनुवाद




 आमंत्रण

वनभोज से लौटते समय
आमंत्रित किजिए उस वनवृक्ष को
भोजन पर अपने घर

आपकी एकदिवसीय उत्पात ने
जिसके एकांत में
कई दिनों का व्यवधान उत्पन्न किया है

आपके द्वारा ज्वलित आग और धुएं ने
उसकी चेतना भ्रमित की है
अब असमर्थ हैं उसकी पत्तियाँ
संश्लेषित करने में प्रकाश
कुलबुला रही है उसकी शिराएं
माईग्रेन से कांप रहा है उसका शरीर

उसके भीतर का चौका सूना है
भूख से व्याकुल है उसकी अंतड़ियां

मात्र औपचारिकता वश
आमंत्रित करें उस वृक्ष को
अपने किसी कुलदेवता की भांति

जिसकी नाभी में कील ठोककर
टांगा अपना थैला
घायल की उसकी नाड़ियाँ
रस्सी की रगड़ से

समय निकालकर
पूछो उसका समाचार हाल
पोछो उसके छाल से बहता रक्तस्राव

वृक्ष भावुक और विनम्र होते है

भावुक इतने की
हफ्तों संजोए रहते है
अपनी सबसे वृद्ध टहनी को
उसकी मृत्यु के पश्चात भी

विनम्र इतने की तुम्हारे एक ढेले से
झर जाते है फुल बनकर
कुरेदने देते है अपनी मिठास
गिलहरी और सुग्गों को

ईश्वर, बुद्ध, दस्यु और गड़रिये
सबको एक समान विश्राम है इसके तले

हाथ पकड़कर तबतक आग्रह करो
जबतक वो हांमी नही भरता
संभवतः वह स्वीकारे तुम्हारा निमंत्रण
त्याग कर अपना संकोची स्वभाव

बिठाओ अपने उसी आंगन में
जहां से निर्वासित किया था तुमने उसे
पांव धुलो उसके
गमछे से पोंछकर देखो उसकी धुंधली आँखें

मगर ऐसा करते ही
तुम पुनः खो बैठोगे उसे

वो लौट जायेगा वापस उसी बीहड़ में

क्योंकि वो सहजता से पहचान लेगा
तुम्हारी असहजता
और तुम्हारे घर की सजावट में
अपने पुरखों की अस्थिया







 मैं लौटूंगा कस्तूरी बनकर

काम से घर लौटते समय
नहीं लौटना चाहता मै घर

मेरे लौटने से पहले
घर वापस लौट चुका होता है
अपनी नींव की ओर

ठीक उसी समय एक ओर
जब समय लौट रहा है
अपनी रंगीन केंचुली में

प्रवासी पंक्षियों का झुंड
प्रवास के पश्चात बजाय अपने देश के
लौट रहा है सुदूर धधकते ज्वालामुखी की ओर

सारा पटसन अनाज के बोरों से निकलकर
एक लम्बी रस्सी में लौट रहा है

और कपास के सारे फूल
चाँद की जमीन से धरती पर लौट रहें हैं
काला पड़ता जा रहा है चाँद

रात झुलसती हुई गलियों से होकर
मशालों में लौट रही है

इन्सान अदनवाटिका से निकलकर
लौट रहा है बस्तियों में

बस्तियां जहाँ से सदियो पहले
लौट चुके हैं देवता

भूख अंतडियों के पड़ोस वाली कोठर में
और प्यास हलक से होती हुई
आँखो के मरुस्थल में लौट रही है

मृत्यु टकटकी लगाए प्रसव पर
जन्म की ओर लौट रही है

द्रौपदी किसी रेशमी वस्त्र के बदले
लौट रही है अपने रक्त रंजित केश में

एक ईरानी लड़की
लौट रही है रक्त सने गुलाबी मफलर के
छोर पर काढ़े नाम के अक्षरों में

बर्फ पिघलने के बाद भी
झील में शिकारे नहीं लौटे

और निराश कृष्ण लौट रहे है हस्तिनापुर से
खाली हाथ

इससे पहले की तुम
अपने खोंईछे की हल्दी मलकर अपनी काया में
लौट जाओ एक स्वर्ण मृग में

मै वापस लौटना चाहता हूं
तुम्हारी नाभि में
कस्तूरी बनकर







अदहन

वो चिंहुक कर उठती है भिनसारे
जब पृथ्वी पर कहीं भी बजता है अलार्म

अपनी टिकुली साटकर कृष्ण-विवर पर
पैदल शुरु करती है अपनी यात्रा

रास्ते में हर बार अपनी ही हत्या से ऊबकर
और तेज चाल चलती है

अनेकों बार मारी जाती है असमय
हत्या के घरेलू नुस्खों से

हर बार जनती है खुद को
अपनी ही कोख से

खाट के पाये से दबकर बनती है विश्राम
उनींदी आँखों का

नमक चटाया गया जब
अचार का मर्तबान बनकर खपरैल पर
अगोरती रही आँगन

जलाया गया चरित्र-प्रमाण को
और जिलाया गया पैर की ठोकर से

जब तक होती है प्रेम में
बिसार देती है अपनी हत्या का शोक

पीठ के सारे चुम्बन उबालकर
खारे पानी में
धागा पिरो टांग देती है
जेठ की भर दुपहरिया

और जब उमड़ता है सावन
चुम्बनो को अदहन पर चढ़ा
दहकते देह पर पसाती है
सीझें चुम्बन

गर्म भात के तसले की तरह
भाप से भरी उसकी छाती
तुमने हाथ डालकर जलायी
सिर्फ अपनी ऊंगलियां

कलेजा छू ना पाये
कैसे छूते भी

वो आजीवन परोसती रही भात
कलेजे को टांगकर चुम्बनों के संग








रक्तपात

दृश्य-१
मृत मछली का रक्त
इस तरह निचोड़ा गया
दूसरी मृत मछली पर

जिससे वो मरी मछली
कुछ कम मरी/ कुछ पल पहले की मरी
प्रतीत हो

दृश्य-२
एक क़ौम का लहू
निचोड़ा गया कुछ इस तरह
दूसरी क़ौम के माथे पर

प्रतीत होता है
की यह महान सभ्यता
पूरी तरह/बहुत पहले ही
मर चुकी है

(मृत सभ्यताएं जीवित नही होतीं
किसी भी रक्तपात से)






बचाकर रखना पृथ्वी

बचाकर रखना पृथ्वी
सुरक्षित

उस दिन के लिये
जब देवता तुम्हें धकेलकर
निकाल देंगे
अदनवाटिका से

कल्पतरु से फल
चुराने के आरोप में
छीन लिये जायेंगे
तुम्हारे सकल दैविक-अधिकार

तुम निकृष्ट मानव होकर
विवशता से काटोगे
अपना शेष जीवन

तब तक के लिये
बचाकर रखना

खेत भर जमीन
छत भर आसमान
प्यास भर नदी
छांव भर वृक्ष
बारिश भर बादल
पीठ भर पहाड़
ऊजाले भर दिन
नींद भर रात
और घर भर पृथ्वी

और याद से
चेता देना
अपनी भावी संतानों को

कि कैसे
एक कुटिल देव ने
योजनाबद्ध तरीकें से
याचक बनकर

हथिया ली थी
तुमसे
तुम्हारी पृथ्वी





समय कभी समाप्त नहीं होगा

समाप्त नही होता समय
बस बीत जाता है
सरक जाता है आगे
अपनी अंतहीन यात्रा पर
यायावर समय
पीछे छोड़कर
अपनी रंगीन केंचुली
हम वापस भरना चाहते है
बीता हुआ समय
उसी रंगीन केंचुली में
मगर निरंतर बढ़ता जाता है
समय का आयतन
बदलता जाता है
उसका स्वरूप
एक निश्चित अंतराल पर
अनवरत उग आते है
कमल के फूल
प्रगाढ़ कीचड़ में
दुर्गंध से भरे
गोबर के टीलों में
फूटने लगते हैं
सुकोमल मशरूम
कितना आश्चर्यजनक है
कहीं भी कुछ भी
सड़ने या गलने पर
कुछ आकर्षक रुप
आकार लेने लगते हैं
सीलन भरी दिवारें
लाईकेन से सज जाती है
निर्जन उपेक्षित
अंधकार से लिप्त कमरे
नितांत एकांत को जन्म देते हैं
अंकुर फूट ही जाता है
खंडहर की दिवारों से
उदासीन मलबों पर
वन-लताओं का आलिंगन
खिलने लगता है
अति प्रलाप से जागते है
आँखो के ग्लेशियर
टूट जाते हैं
रूंधे गले के बँध
क्रमवार विस्फोटों से
उत्तेजित होने लगते हैं
कान के पर्दे
और नाड़ियों का रक्तचाप
ऐसे ही किसी धमाके मे
जन्मी होगी पृथ्वी
असंख्य तारे
और ब्रह्मांड का निर्माण भी
किसी हादसे से हुआ होगा
जले हुये खेत
पट रहे हैं जंगली फूलों की
मादक गंध से
बैठने लगीं हैं तितलियां
पीड़ा से थरथराते देहों पर
और मै निशाना साधे
वर्षों से खड़ा हूँ
आखेटक की तरह
केंचुली उतार रहे
समय पर
और मेरे तरकश में
पनप रहा है प्रेम









 हीरो नही होता है पिता

हीरो नही होता है हर पिता
कभी खाँसते या कराहते
नही सुना किसी हीरो को
ना होता है पेड़, पहाड़
या आसमान
पिता वहन करता है
आजीवन भरण करता है
उठाता है, ढोता है
पार लगाता है
खुद अपने पर ही झुझलाता है
अनवरत काम करते
उनके फेंफड़े
जब सिकुड़ने लग जाते हैं
हवा के अभाव में
तब खाँसते हैं पिता
रात-रात भर अनवरत
छाती के भीतर
एक कल-पुर्जा
घरघराने लगता है
गर्दन की नसो से गुजरता ईंधन
आँखों की भट्टी को
लाल कर देता है
एक कारखाने में
बदल जाते हैं पिता
कुछ बोलना चाहते हैं
मगर शब्दों को चबाकर
निगल जाते हैं
पुरे कमरे का मुआयना कर
चुप-चाप ताकने लगते है दीवार
कामगार चीटीयों का एक दस्ता
दीवार पर चढ़ा जा रहा है
पिता चीटीयों को रोककर
पूछना चाहते हैं कुछ
मगर चुप रह जाते है
इन्हीं चीटीयों के दस्ते से भटके
मेरे पिता आजीवन वहन करते
जैविक यंत्रणा की ऊब से
स्वयं एक यंत्र मे तब्दील होकर
अपने जीवन की नदी लाँघ रहे है
मुझे कंधे पर उठाये
००


परिचय
.................
नाम- परमानन्द
जन्मतिथि : 20/12/1983
जन्म-स्थान : जमशेदपुर(तात्कालीन बिहार, वर्तमान झारखण्ड)
ग्राम: करहसी, जिला- रोहतास (बिहार)
आरंभिक शिक्षा बारहवीं तक जमशेदपुर में ही, तत्पश्चात कला शिक्षा में स्नातक के लिये
इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय के दृश्य कला संकाय के मूर्तिकला विभाग में दाखिला।
स्नातकोत्तर की शिक्षा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के दृश्य कला संकाय के मूर्तिकला विभाग से।
यूजीसी नेट(NET) एवं बीएचयू क्रेट(CRET) पात्रता परीक्षा उत्तीर्ण।
साल 2011 से केन्द्रीय विद्यालय संगठन में कला शिक्षक के पद पर कार्यरत
वर्तमान में गृहनगर के.वि., टाटानगर, जमशेदपुर में ही कार्यरत।
बचपन से ही साहित्य एवं कला में रूची, स्कूल एवं विश्वविद्यालय स्तर पर कविता लेखन
एवं वाद-विवाद में पुरस्कार।
कविताएं हिन्दी समाचार पत्र एवं संभावना(बीएचयू, हिन्दी विभाग, कला संकाय से प्रकाशित)
स्त्रीकाल, लिटरेचर प्वाइंट, काव्यसागर, सौतुक, दैनिक भास्कर(पटना सिटी), अमर ऊजाला पत्रिका एवं अहा! जिंदगी (साप्ताहिक) में प्रकाशित।
अगर मेरे लिखने का प्रभाव किसी आम जन पर पड़ता है, यही मेरी उपलब्धि है।
सधन्यवाद।

6 टिप्‍पणियां:

  1. निशब्द हो जाना पढ़ने के बाद ऐसा जादू है तुम्हारी लेखनी में। सोचा टिप्पड़ी भेजना तो जरुरी बनता है
    बहुत सुंदर रचनाये हैं ��������

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    1. परमानन्द रमन19 मई, 2018 08:36

      आपकी प्रतिक्रिया निश्चित रूप से मुझे सकारात्मक करेगी, सादर आभार आपका..��

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  2. उत्तर
    1. परमानन्द रमन19 मई, 2018 08:39

      प्रतिक्रिया हेतु सादर आभार आपका सर..��

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  3. इतनी अच्छी रचनायें!!!पुस्तक विमोचन की प्रतीक्षा में ... शुभेच्छुका -सुनीता झा

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    1. परमानन्द रमन19 मई, 2018 08:41

      हार्दिक आभार आपका उत्साह वर्धन के लिए
      ��

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