25 मई, 2018

कहानी पर चर्चा:

बक्खड़

अनिमेष जोशी


हर शहर की अपनी बानगी होती है....उसको शक्ल देने में स्थानीय मुहावरों का बहुत बड़ा योगदान रहता है...जिनकी शाब्दिक अर्थ किसी डिक्शनरी में हमें ढूंढने से भी नहीं मिलेगे! लेकिन वो वहां के माहौल में इस तरह से रच-बस गए हैं कि उनको शहर की केन्द्रीय पहचान में एक महत्वपूर्ण इकाई के रूप में देखा जाने लगता है...कल्चरल विभाजन के साथ-साथ इस तरह के लिंगो भाषा को अलग पायदान पर ले जाते है...जिसके चलते उस स्थान की एक निर्मित हमारे दिमाग में कैद होती जाती है. और हमारी यात्रा में जब हम किसी व्यक्ति से टकराते है तो उसके परिचय दिए बिना भी हम उस स्थान के नजदीक पहुँच जाते है...जहां से अमुक व्यक्ति का संबंध है...!
‘पथिक’ की कहानी पर बात करते हुए हमें बार-बार उन आंचलिक मुहावरों से दो-चार होना पड़ता है...जो गवई संस्कृति को हम तक लाने में एक उपयोगी टूल की तरह से कथानक में प्रयोग किए गए है...वो राजस्थान के जिस स्थान से आते है, वहां की समस्यों को हाईलाइट करने के लिए देशज शब्दों की इस्तेमाल करते है. जो कथानक में थोपा हुआ न लगकर उस कहानी को आगे ले जाता हुआ प्रतीत होता है...नहीँ तो कई बार बहुत से कथाकार अपनी कहानियों में आंचलिक शब्दों की इतनी भरमार कर डालते है कि आप पाठक के लिए कहानी की मर्म को पकड़ना बहुत दूभर हो जाता है! और इसका सीधा-सीधा प्रभाव कहानी की पठनीयता पर पड़ता है. ग्रामीण परिवेश की कहानी लिखते समय इस बात पर विशेष फोकस रखना चाहिए....




गतगत रविवार (20,मई,२०१८) जोधपुर शहर के नेहरू पार्क में हमारी मासिक कहानी चर्चा में इस बार चरण सिंह पथिक की कहानी – ‘बक्खड़’ रही. जो मोटे तौर पर उत्तर पूर्वी राजस्थान के गाँवों में पटेलों के आधिपत्य पर फोकस है. सामंती परिवेश और आरक्षण के रेशे भी कथानक में मौजूद है....कहानी का केंद्रीय पात्र ‘मूला’ है. जिसकी कहानी ‘संतों’ (मूला की माँ) द्वारा बतलाई गई है...साथ ही मूला की पत्नी ‘सुगरो’ भी महत्वपूर्ण धुरी है इस कथानक में. और कहानी का आर्क ‘संतों’ से शुरू होकर ‘सुगरो’ तक जाता है. ‘बेटी बैचवा’ और ‘नाजायज’ औलाद की समस्या को इंगित करती कहानी हमें ‘पथिक’ के अपने गाँव-देहात तक ले जाती हैं...करौली में रहने वाले चरणसिंह आस-पास की माहौल को अपनी कहानियों में पिरोते है...इस अंचल में ‘गैबी’ और ‘बक्खड़’ गालियों के रूप में प्रयुक्त होते है. जिनके शाब्दिक अर्थ अलग-अलग है...जहां ‘गैबी’ का थोड़ा सभ्य माना जा सकता है...जो आप बोलचाल में वहां दी जाती है...लेकिन, ‘बक्खड़’ का प्रयोग सोच समझकर किया जाता है...इसका शाब्दिक अर्थ है-‘नाजायज’....! पिछड़ी जातियों में लडकियों की खरीद-फ़रोख्त होना आम बात है...जिसके कारण रिश्तों का समीकरण इन तबकों में बहुत ही पैचिदा मिलेगा! स्त्री-पुरुष में मनमुटाव होना आम बात है...साथ ही साक्षरता की अभाव के चलते वैवाहिक संबंधो में निरंतर टूटन देखा जाता है...जिसको कई पिछड़ी जातियों में साधरण-सी घटना माना जाता है....’मूला’ की माँ भी इसी दंश का शिकार है. जो सांस और पति को कभी पसंद ही नहीं आई...हालांकि लेखक ने इस चीज को ठंग से उबारा नहीं है. और हम कायस लगा सकते है अपने विवेक के आधार पर. इसी कारण ‘संतों’ का चरित्र में हमें कुछ अधूरापन नजर आ रहा है...वो किस आधार पर इतनी प्रताड़ित की जा रही है? मुझे और विकास कपूर को लगा कि दहेज एक प्रभुख कारण हो सकता है. लेकिन सिर्फ़ वो ही कारण हो ये कहानी में थोडा स्पष्ट नहीं है...विकास कपूर आगे कहते है कि ननिहाल का रुख भी ‘मूला’ के प्रति ठीक नहीं है. जो उसकी व्यथा को अलग तरह से प्रोजेक्ट करने की लेखक की चेष्ठा पर थोडा सवाल खड़ा करता है...माना कि अपनी बेटी के प्रति रवैया थोड़ा अलग हो सकता है...लोक-लाज का भय हो सकता है...जो वहां के डायनामिक्स की बात कह रहा हो! फिर भी समाज की टेक इन हालत को लेकर इतना साफ़-साफ़ दिखाई नहीं पड़ रहा है...कुछ और बातों से वस्तुगत चीजों को थोडा और उभारने की आवश्यकता थीं...तो कहानी में स्पष्टता और आती. फिर भी कुछ शार्प इंडिकेशन तो लेखक ने कुछ-कुछ जगह रखें ही है...जो राजस्थान के ग्रामीण एंगल को समझने में मददगार तो है ही...नवनीत नीरव- अपनी बात रखते हुए कहते हैं कि कुछ जगह लेखक बचते है या जान कर ऐसा कर रहे है. क्योंकि लेखक का कद वैसा नहीं है. और वो राजस्थान की कहानी परिद्रश्य से अलग कुछ बुनने का प्रयास कर रहे है. इसलिए इनकी कहानियाँ ज्यादा हाईलाइट भी नहीं हुई है अब तक! उपासना कहती हैं कि लेखक बहुत ही लो-प्रोफाइल व्यक्ति है. किसी तिकड़म में इन्वोलव नहीं है...जो उनकी काम में नजर आ भी रहा है...इसी बात को विस्तार देते हुए विकास कपूर को ‘रामकुमार सिंह’ की कहानियाँ याद आती है...जो आज के राजस्थान की एक अगल पिक्चर रखते है...जो गावों में उपजे समीकरण को साफ-साफ़ बहुत जगह कह रहे है....यहाँ मैंने उन्हें ‘गिलहरी’ कहानी की याद दिलाई. इस कहानी के शेड्स कुछ-कुछ ‘प्रियंवद’ की ‘खरगोश’ से मिलती है....ये बात उपासना ने जोड़ी. दोनों ही ‘कमिंग ऑफ़ ऐज’ की बात को ध्यान में रखते हुए बुनी गई है...अपने-अपने परिवेश को दिमाग में रखते हुए...! नवनीत-आगे कहते हैं कि पांच साल का राजस्थान में मेरा अलग-अलग जगह काम करने का अनुभव है...’बीइंग अ आउटसाइडर’, मैंने ये पाया हैं कि स्थानीय समस्यों को यहाँ के लेखक हाईलाइट करने से बचते है....और सब कुछ उपर-उपर से ही बात करके छोड़ देते है. उस हिसाब से ‘पथिक’ प्रभावित करते है....कुछ गैप्स गर कहानी में भरते तो बात और बनती. फिर भी इनकी कहानियों में मुद्दे आ रहे है. इसी कारण से फ़िल्म निर्देशकों का ध्यान इनकी ओर गया है....’कसाई’ और ‘दो बहने’ कहानियों पर फ़िल्म बन रही हैं...जिससे इनके पाठकों की रीच बढ़ेगी. क्योंकि इनकी किताबें किसी बड़े प्रकाशन से आई नहीं है. जिसको जो हाथ लगा वो उसी रूप में ‘पथिक’ को जानता है. समग्रता से कोई बात नहीं हुई है अब तक. यहाँ विकास कपूर को ‘एफ्रो-एशियन’ कहानियाँ याद हो आई. नारी की चीत्कार का वर्णन और वहां की समाज की सिचुएशन को बहुत मुखर हो कर कई लेखकों ने लिखा हैं...ये कहानी पढ़ते हुए बार-बार दिमाग में उन राइटर्स की कहानियाँ कौंधी! एक बात सब लोगों ने मानी कि ‘बक्खड़’ शब्द को स्थापित करने के लिए ही मानों ये कहानी गढ़ी गई हो! लेकिन वहां के समाज पर इसका या जिस अंचल में इसका प्रयोग होता है...उसको हिंदी भाषी पाठकों को समझाने पर थोड़ा काम होना चाहिए था. तो इस कहानी का लेवल और बढ़ जाता....कहानी में एक जगह आता है कि-‘ गूजर-मीणों की अपनी परम्पराओं में पली बढ़ी मजबूर नानी आखिर कहती भी क्या? इस बात को और विस्तार से समझाना चाहिए था...राजस्थान में दौसा,भतरपुर, करौली व अलवर में कम-अज-कम फॉर्म में इन दोनों समुदायों का प्रभाव दिखाई पड़ता हैं...और चुनाव में ये दोनों ही महत्ती भूमिका अदा करते हैं! हालांकि एक जगह थोड़ा-सा उल्लेख है. जहां मूला आरक्षण के चलते अपनी माँ के दुसरे विवाह से उत्पन्न दोनों भाइयों के लिए आस्वस्त है...कि वो कोटा सिस्टम के जरिए अच्छी नौकरी पा जाएगे. आज भी बहुत सी निचली जातियों का बुनियादी सुविधाओ के लिए संघर्ष बदस्तूर जारी है...! उन्हीं में से एक ‘रब्बारी’ समुदाय पर गणेश देवासी ने प्रकाश डाला...जो खुद भी इससे संबंध रखते है. आज बहुत सी घुमंतू प्रजातियों का अस्तित्व खतरे में है. जो अपनी आवाज़ उठाने के लिए समर्थ भी नहीं है...कहानी में जिस तरह से ‘बक्खड़’ शब्द को अंत में बहुत बड़ी भयावह चीज के रूप में दर्शया है. वहां ऐसा लगता है मानों किरदार से ज्यादा गाली को बड़ा कर दिया गया है! ये बात अरुण राजपुरोहित ने भी अपनी तरह से नोटिस की. और चर्चा के बाद भी इस पर कुछ देर तक अलग से मुझसे बात करते रहे...


चरण सिंह पथिक


ये कहानी उनके पहले कहानी संग्रह में शामिल है. जिसका नाम है-‘बात ये नहीं है’. इस कहानी को आए २० साल का लम्बा समय हो गया है, फिर भी जो मुद्दे हाईलाइट कर रही है वो जस के तस है...उनकी इस किताब के ब्लर्प पर ‘स्वयंप्रकाश’ ने एक लाइन कही है, जो पथिक के स्वभाव पर बिलकुल सटीक बैठती है-“अच्छा है कि चरणसिंह के हाथ में कोई परचम नहीं है. एक इंसानियत से भरा दिल और मासूमियत से लबरेज निगाह है जिससे वह चीजों को गहरे तक देख पाते है.” 
                                                       
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1 टिप्पणी:

  1. गांव की मिट्टी से सरोबार पथिक जी का सम्पूर्ण कथा साहित्य हमें गांव की उन ऊबड खाबड पंगडंडियों , खेत खलिहानों और कच्चे पक्के घरों की पीडा, घुटन , खुशी , उल्लास , तीज त्यौहार . इनकी मान्यताएं और इन सबमें छिपा गांव का जीवन दर्शन से रुबरु कराता है । पथिक जी मेरे पुराने मित्र है और करीब इनका सारी कहानियों के आर पार हुआ हूं मै...दुख तब होता है जब धरती के ऐसे सच्चे कथाकार को समीक्षकों, संपादकों और साहित्य के कथित पुराधाओ ने अब तक नजर अन्दाज ्किया है । कथा साहित्य में इन्हे जो मुकाम मिलना चाहिए था या जिसके ये हकदार है उनसे भाई पथिक जो अभी बहुत दूर है जिसे एक तरह से साहित्यिक अनदेखी भी कह सकते है । धन्यवाद अनिमेष भाई कि आपने उनकी कहानियों की गहराई से पडताल की ।

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