30 मई, 2018


रंजना मिश्र की कविताएं


रंजना मिश

कविताएँ


दुनिया में औरतें

(एक)

स्त्री विमर्श करते
तुम्हारी पुरुष आँखें
छूती रहती हैं
मेरे वक्ष और नितंब
और मेरी आँखें
तुम्हारे चौड़े ललाट
और पैरों के लगातार हिलने में
स्त्री विमर्श का खोखलापन
भाँप लेतीं हैं!
मुझे याद आता है
भीड़ भरी बस का वह अधेड़
जो अक्सर
लड़कियों के बगल बैठने की जगह ढूँढा करता था!

(दो) 

उनमें से कुछ मौन हैं
कुछ अंजान
उनका मौन और अज्ञान
उन्हें देवी बनाता है
कुछ और भी हैं
पर वे चरित्र हीन हैं
हम यहाँ उनकी बात नहीं करेंगे!
दुनिया में बस
इतनी ही औरतें हैं!


(तीन)

मेरे शब्दों में बैठी है
एक बूढ़ी औरत
जर्जर
पके झुर्रीदार चेहरे वाली
रेखाएं जिसके चेहरे पर
उसके पैरों के नीचे की
पथरीली ज़मीन बनकर जमा हैं
आँखें जिसकी सवालों से बेख़बर,
ज़िन्दगी को ढोते जाने की जिंदा तस्वीर
जिसके हाथों ने मिटटी ढोई है
उस किले की जर्जर दीवार को बचाने के लिए
जिसमें वह खुद क़ैद है

मेरे शब्दों में छिपी है
एक दूसरी औरत
दूर कहीं, भविष्य के गर्भ में
नौजवान,
ज़िन्दगी के आदिम गीत में बहती हुई,
बाहें पसारे
जिसके भीतर उगते है कई मौसम
और वसंत जिसके जूड़े में ठहरा है
कंधे मज़बूत है जिसके,
और बाहें लचीली
यथार्थ के धरातल पर खड़ी
जो सूरज की आँखों में सीधी झांकती है
जिसका मालिक़ कोई नहीं
और दुनिया की तस्वीर में
जो पैबंद की तरह नहीं लगती

मैं-
इनके बीच खड़ी अपने शब्द तौलती हूँ
और मुस्कुराकर
नौजवान औरत की हंसी
बूढी औरत की तरफ उछाल देती हूँ
जो धीरे धीरे उठ खड़ी होती है
अपनी पोपली हंसी
और झुर्रीदार हाथ
मेरी तरफ बढाते हुए.








विषकन्याएँ

उसकी चुप्पी थी
पहाड़ों सी
सहनशीलता समंदर सी
औरत नदी होना चाहती थी
उसके हाथों में था
टूटा दर्पण
टुकड़ों में था अस्तित्व उसका
वह
प्रकृति की सबसे अनूठी रचना थी
उसने आग ढूंढी
चूल्हा सुलगाया
उसकी विजय का प्रतीक बनी
औरत का कोई घर न था
वह उसके पीछे चली
उसने जंगल काटे
वनळताएँ जलाईं
पर्वतों को चीरा
उसके पीछे
चलते चलते
वह अपने अंत तक गई.
कुछ -
अपने अंत के बाद भी बची रहीं
समुद्र मंथन के फेनिल विष की धार में
डूबते उतराते किसी तरह किनारे आ लगीं वे
तलाशने लगीं अपने माथे की लकीरों के बीच
अपने घर को जाने वाली पगडंडियाँ
कोई रास्ता उनके घर को न जाता था

उन्होने खुद तक वापसी  के रास्ते ढूँढे
चलते चलते खुद तक आईं
चारे बोए
जानवरों का सानी पानी किया
तमाम खर पतवार
निकाल फेंका
अपनी पीठ को लोहे सा तपाकर
अपने संसार में जुट गईं
अपने शिशुओं को थपकी देते
वे अक्सर गुनगुना लेती हैं.
वे -
चरित्र हीन नामाकूल औरतें
विषकन्याएँ
सभ्यताके गले में फाँस की तरह अटकी!





पुल पर औरत 

इस बार
प्रेम करूँगी तो डूबकर करूँगी
नहीं रखूँगी कुछ भी अपना
बस सौंप दूँगी
सब कुछ, निडर
झूल जाउंगी हवा के
हिंडोले में
घाटियों से फिसलूंगी
ऊपर और ऊपर
उड़ूँगी
अपने भीतर
लगी सारी सांकलें
खोल दूँगी

कई जन्मों से
प्रेम को रोक रखा है
मैने
अपने भीतर
कोख और कुल की चौखट में क़ैद
प्रेम की परिभाषाएं बूझती आई हूँ
उनपर अमल किया है
देखो ना
चलते चलते
पाँवों पे छाले उभर आए है
खून रिसता है इनसे
पुल तक आ पहुँची हूँ
सदियों से इसी पुल पे खड़ी
नीचे पानी की
गहराई
नापती सोच में डूबी
तुम्हारा इंतज़ार करती हूँ

नही बस और नहीं
अब जाना ही है मुझे
लहरे अपने पाँव पर महसूसनी हैं
बालों को भिगोना है
उमड़ती गरजती बारिश में

मेरा प्रेम न समझ पाओ तुम
तो लौट जाओ
अपने घर
अपने छल की ओर
वहाँ खुद को थोड़ा छोड़ आई हूँ
जानती थी
लहरें तुम्हें डराएँगी
और तुम वापस जाओगे
छोड़कर मुझे
पुल पर खड़ी
कभी पाना मुझे
सदियों बाद

मुझे स्वीकार है
इस पुल का अकेलापन
अधूरापन
अब मुझे स्वीकार नहीं






चालीस पार की औरत


जली हुई रोटी है
दूसरी तरफ कच्ची
उफन गई चाय है
बच रही थोड़ी सी
भगौने में
बची हुई मुठ्ठी भर धूप हो जैसे
उतरती गहराती शाम में
बजती है
ठुमरी की तिहाई की तरह
बार बार
पलट आती है
मुखड़े पर
पता नहीं कौन
रोज़ दरवाजे खटखटा जाता है
और आँखों से नमक झरता है
अपनी देह के बाहर
छूट जाती है कभी
और कभी
उम्र से आगे निकल जाती है
मुड़ती हुई नदी
के भीतर बहती है एक और नदी
पत्थर का ताप अपने भीतर थामे
रात होते ही
अपने पंख तहा
रख देती है सिरहाने
और निहारती है देर तक
उन पंखों को..
चालीस पार की औरत !








इनकार 

नवीं कक्षा में थी वह
जब इतिहास की किताब बगल में रखकर उसने पहली रोटी बेली
टेढ़े मेढ़े उजले अंधेरे शब्दों के भीतर
उतरने की पुरजोर कोशिश करते
उसने पृथ्वी की तरह गोल रोटी बेली
उसके हिस्से का इतिहास आधा कच्चा आधा पक्का था
तवे पर रखी रोटी की तरह
रोटी बेलते बेलते वह
कॉलेज और यूनिवर्सिटी तक हो आई
सौम्य सुसंस्कृत होकर
उसने सुंदर रोटियाँ बेली
और सोचा रोटियों के सुंदर मीठी और नरम होने से उसका इतिहास और भविष्य बदल जाएँगे
उसके मर्द के दिल का रास्ता आख़िर पेट से होकर जाता था
उन्होने उसकी पीठ थपथपाई और कहा दूधो नहाओ पूतो फलो
क्योंकि वह लगातार सुंदर रोटियाँ बेलने लगी थी
सपने देखते, चिड़ियों की बोली सुनते, बच्चे को दूध पिलाते
वह बेलती रही रोटियाँ
उसके भीतर कई फफोले उग आए
गर्म फूली हुई रोटी की भाप से
दुनिया के नक्शे पर उभर आए नए द्वीपों
की तरह
चूल्हें की आँच की बगल से उठकर
चार बर्नर वाले गैस चूल्हे के सामने खड़े होकर उसने फिर से रोटियाँ बेली
हालाँकि उसने कला, साहित्य इतिहास दर्शन और विज्ञान सब पढ़ डाले थे
भागती भागती खेल के मैदानों तक हो आई थी
और टीवी पर बहस करती भी दिख जाती थी
पर घर लौटकर उसने खुद को चूल्हे के सामने पाया
और बेलने लगी नर्म फूली रोटियाँ
कैसी अजीब बात
गोल रोटी सी गोल दुनिया के किसी कोने में ऐसी कोई रसोई न थी
जहाँ खड़ी होकर वह रोटी बेलने से इनकार कर देती !




निर्द्वन्द

ईश्वर को
हमने ठीक उसी समय
सूली पर चढ़ाया
जब उनके साथ चहलकदमी करते, बतियाते
हमें गढ़ने थे
शब्दों के नए अर्थ.
सुकरात को ज़हर का प्याला
ठीक उसी वक़्त भेंट किया
जब
ईश्वर के साथ हुई अधूरी चर्चा
हमें आगे बढ़ानी थी
इतिहास के प्याले को
भविष्य की शराब से भरकर
धरती
और अपनी स्त्रियाँ
हमने ठीक उसी वक़्त
योद्धाओं और उनकी सेनाओं के हवाले की
जब धरती वसंत के आगमन की प्रतीक्षा में थी
और स्त्री गर्भ के पाँचवे महीने में
गर्भ के शिशु ने
अभी करवट बदलना शुरू ही किया था

हमने
प्रेम और शब्दों के अर्थ
अपनी लालसा और भय की भेंट चढ़ाई
और अपनी आत्मा की
कालिख भरी सीढ़ियाँ
उतरते चले गए
ईश्वर के साथ हुए अपने सारे विमर्श भूलकर
हमने इतिहास में योद्धाओं के नाम अमर कर दिए
हमने इंसान शब्द के अर्थ को
ठीक उसी वक़्त अपशब्द में बदला
जब सूली पर चढ़े ईश्वर ने
अपनी आख़िरी सात पंक्तियों में से
पाँचवी पंक्ति में कहा
" मैं प्यासा हूँ" *
और छठी पंक्ति में ईश्वर ने विलाप किया
"यह ख़त्म हुआ" *
ईश्वर की मृत्यु को तीन दिन बीत चुके हैं
अब हम निर्द्वन्द हैं.
_
*ईसा मसीह को सूली पर चढ़ाने के बाद उनकी कही गई पंक्तियों में से पाँचवी और छठी पंक्ति.








पेड़

(एक)

कितने ही डर थे जिनसे गुज़रना था उसे
 अपनी ही जड़ें
मिट्टी होने का अहसास – सिर्फ़ एक था
 अपने ही तनों को न छू पाना भयावह
 पर बढ़ने और दफ़न होने के सिवा
ज़िंदगी थी  क्या?

(दो)

उस दिन कोई मुसाफिर
आ बैठा पेड़ की छाँव तले
रोटियाँ खाईं
थोड़ी पेड़ की जड़ों में
घर बनाती चींटी को खिलाईं
सो गया फिर
चीटियाँ घर बनाती रहीं
पेड़ ने अपनी रसोई समेटी
और पंखा झलता रहा

(तीन)

अबकी बारिश ज़रा देर से आई
मटके सूखे रहे
कहानियों वाला कौवा भी नहीं दिखा
पेड़ ने आकाश का सीना सहलाया
बादल एक दूसरे को
कुहनियाते, हँसी ठट्ठा करते आए

(चार)

दो पंछी लड़ बैठे उसकी छाँव में
थोड़ी देर बाद उड़ गए
पेड़ ने फिर से स्मृतियाँ सहेज लीं
पेड़ के सपनों में सूखा नहीं आता

(पाँच)

सपने में मैने पेड़ को पुकारा
अपनी फुनगियों में लिपटी
रंग बिरंगी पतंगों के साथ
जड़े समेटे
वह दौड़ा चला आया


(छः)

पेड़ भी सोते हैं कभी
अपनी ही टहनियों से
आँखें ढककर
अपनी जड़ें समेटकर
अंजान बन जाते हैं
नहीं पहचानते उस इंसान को
जो छाँव तले बैठा
बीड़ी फूंकता है.
जिसने बाँध रखी है कुल्हाड़ी
कमर के गमछे से
जो हाथों का छज्जा बनाकर
पेड़ की उँचाई मापता है!





हिंडन नदी को बचाने की कोशिश में लगे अपने साथियों के लिए


उनके सपनों में बहती है एक नदी
अपने तमाम किनारे समेटकर
सहमी हुई
पुकारती है स्वप्न में उन्हें
वे पहचानते हैं यह पुकार
और जगह देते हैं इसे
जैसे सूरज जगह देता है छाँव को
और चाँद बिछ जाता है ओस के लिए
उन्हें देखकर मैने जाना
कविता हर बार शब्दों की मोहताज़ नहीं होती
और सपने
कविता की हदों से दूर भी जिया करते हैं.





प्रेम कहानियाँ

प्रेम कहानियाँ पसंद हैं मुझे
इनके पात्र कई दिनों , हफ्तों और महीनो मेरे साथ बने रहते हैं
फिल्मों की तो पूछिए मत
प्रेम पर बनी फिल्में मुझे हँसाती हैं रूलाती हैं
और स्तब्ध कर जाती हैं
मैं अपनी पसंदीदा फिल्में
कई बार देख सकती हूँ और
हर बार उनमें नया अर्थ ढूँढ लाती हूँ.
ये भी एक वजह है क़ि मेरे दोस्त मुझे ताने देते हैं
और मेरे घर के बच्चे कनखियों से मुझे देख मुस्कुराते हैं
मुझे लगता है
यह दुनिया अनंत तक जी सकती है
सिर्फ़ प्रेम की उंगली थामकर
पर इन दिनों मेरा यकीन
अपने काँपते घुटनों की ओर देखता है बार बार
हम एक दूसरे की आँखों से आँखें नहीं मिला पाते
सचमुच-
अपनी उम्र और सदी के इस छोर पर खड़े होकर
प्रेम कहानियों पर यकीन करना वाकई संगीन है,
ख़ासकर तब-
जब आप पढ़ते हों रोज़ का अख़बार भी !








पन्हाला की कोई शाम

(1)
उतरते जीवन सी उतरती शाम के गहराते साए में
पहाड़ की चोटी पर बैठा
वह बूढ़ा किला
चुपचाप देखता है दूर तक फैली घाटी पर बिछी
सड़क को, जीवन की आपाधापी को हलचल को
छोटी छोटी खिड़कियाँ उगा रखी है उसने
अपने झुके कंधों वाले विशाल सीने में
बैठा है किसी विशाल देव को तरह
जटाएँ खोले
पता नहीं - ऋषि सा
या काल के शिकंजे से निकल भागे अश्वत्थामा सा
माथे पर जिसके रिसता था घाव
गवाह है घटनाओं का
सिंहासन के षडयंत्रों का,
सत्ता के गलियारों में खेली जा रही चौसर की बिसात का
जो रंग बदलती है हर पल
घोड़े की टाप, तलवारों की टंकार
और चीख पुकार लेते हैं आकार
उसके कानों में
पथरा गया है
अपने भीतर और आस पास घटते समय
को देखते देखते
वह समय-
जिसे आने वाला भविष्य इतिहास कहकर पुकारेगा



(2)

काली ऊँची पथरीली दीवारों, मीनारों मंदिरों और बुर्ज के भीतर
सेपिया रंगों में उभरते बिंब हैं
कथा कहते ,
विरुदावलियाँ गाते
कभी फुसफुसाते
और लोप हो जाते अंधेरे में
किला सब कुछ सुनता है
गुनता है
इतिहास की साँसे मृत्यु शैया पर ढह रही हैं
बस मृत्यु की तरह दर्ज़ नहीं होतीं
समय जैसे ठहर सा गया है..

(3)

किले के मुख्यद्वार के ठीक पहले
चाट पकौड़ी ठेले दुकान गाइड टैक्सी शोर शराबा
सरकार निर्धारित इतिहास दर्शन की कीमत
समय को महसूस करने की कीमत
लाल अक्षरों में
साइन बॉर्ड्स की शक्ल में और दीवारों पर अंकित है
हाथ थामे प्रेमी जोड़े, लंचबॉक्स लिए
बच्चों के पीछे चलती माएँ
और सफेद टोपियाँ लगाए बुज़ुर्गवार
गौरव गाथा और मनोरंजन के बीच
अपनी खुशियों बुनते तलाशते
इतिहास की डोर भविष्य के हवाले करते
नए बच्चों को उन नायकों से परिचित कराते
रविवारीय छुट्टी की वह शाम
बीतने से पहले जी लेना चाहते हैं
उनकी कथाएँ, गौरव की पगडंडियाँ
अतीत के उन अंधेरे कोनों से बचते बचाते चलती हैं
जहाँ इंसानी चीख और खून के धब्बे
बड़ी नफ़ासत से दफ़न हैं
उन क़ब्रों के सिरहाने सील कर दिए गए हैं
फिर भी कुछ फुसफुसाहटें, निशब्द सिसकियाँ, पुकार
निकल भागते हैं
आवारा घूमते हैं..
हवा में उड़ते अफवाहों की शक्ल में
पीछा करते हैं
यायावर कदमों का
सड़क पर घूमते भोली आँखों वाले
फटेहाल बच्चों की तरह
जो आँखों में आँख डाल चुपचाप देखते हैं
भावहीन
किसी हॉरर फिल्म की तरह

(4)

गाइड भी नही ले जाते इतिहास की उन
फुसफुसाती अंधेरी गलियों में
जहाँ कोई दूधमुँहा रोता है
चीखती है उसकी माँ
जो कभी न घटनेवाले भविष्य में
उसे खेती के गुर सिखलाएगी
या तिल और मूँगफली से तेल निकालना
जवान माँ किसी सपने की कर्ज़दार है
राजमाता को सपने आते हैं
जो इंगित करते हैं किसी जवान सौभाग्यवती
और उसके नन्हे की ओर
जिनके जीवन का मूल्य
राजमाता के सपने से अधिक नहीं
किले की नींव का पत्थर
उनकी चीख माँस मज़्ज़ा रक्त और सपनों पर खड़ा
होगा और किला फिर कभी नहीं ढहेगा

(5)

फर्माबदारी की कीमत है
राजमाता कीमत अदा करेंगी
उसके नाम से मंदिर बनेंगे
और वह समय के पन्नों में देवी की तरह प्रतिष्ठित होगी
चढ़ावे चढ़ेंगे शीश झुकेंगे
इतिहास की मीनारें
उन ज़िंदा शरीरों पर खड़ी हैं,
जिनके पन्नों में भोज न्यायप्रिय कहलाए और
गंगू तेली किंवदंतियों में अमर हो गया
काल और इतिहास उसके कर्ज़दार हैं
बस किले के कान पथरा गए हैं
उस बच्चे की चीख सुनकर
जो अपनी पूरी ताक़त से
अजेय सत्ता को चुनौती दे रहा था
जब सैनिक उन्हें लिए जा रहे थे
उस दुधमुंहें को नहीं पता
व्यक्ति के अधिकार
सत्ता के अधिकारों से
कमतर ही रहते आए हैं

(6)

किले ने बच्चे की चीख भी
उसी तटस्थता से सुनी
फिर भी
पथरा गया
उग आया एक घाव उसके माथे पर
और उस जर्जर किले के सीने
ने अपनी सारी खिड़कियाँ खोल दीं
किला अब चुप ही रहता है
कोई कोलाहल उसे नहीं छूता
इतिहास ज़िंदा चीखों की एक गठरी है
जिसे किले ने लाद रखी है
अपनी थकी शापग्रस्त पीठ पर
झुके कंधों और बुझती आँखों के साथ
सीने में कई खिड़कियाँ और
माथे पर खुला घाव लिए
घाटी की ओर देखता है
चुपचाप…..



इंदौर के नाम

उस शहर में
महानगर होने की पूरी संभावनाएँ थीं
चौड़ी सड़कें, हरे भरे बाग़, तेज़ी से दौड़ती कारें
ऊँची इमारतें और व्यस्त लोग
पब्स और कॉर्पोरेट ऑफीस थे
एक फ्लाइ ओवर भी बन रहा था
और मुख्य सड़क के ठीक पीछे वाली सड़क पर
झुग्गियाँ भी अपनी जगह मुस्तैद थीं
कुछ खिड़कियाँ बंद थी
लोग बिना एक दूसरे को देखे
बगल से गुज़र रहे थे
बस एक ही कमी रह गई
लोग अब भी रुक कर पते बता दिया करते थे
और एक दूसरे को पिछली पीढ़ियों से पहचानते थे
वे अब भी आगंतुकों को गौर से देखते थे
कोई अपना भूला वापस तो नहीं आया?
बस इस तरह वह शहर
महानगर होते होते रह गया!



शून्य

इन शामों में,
सूनी और अंधियारी
बढती हुई रात की तरफ
शामों में ,
जब कोई नहीं होता
अपने आस पास   
खालीपन -
दूर दूर तक पसरा होता है
तुम्हें -
पुकारना चाहती है
मेरी आवाज़ ,
ऐसी पुकार
जो तुम्हें विवश कर दे
अपने चारो ओर उठाई हुई
दीवार को तोड़कर
इस पर आने के लिए,
उसकी गूँज -
तुम्हारे अंतरतम में
बहुत देर तक
प्रतिध्वनित होती रहे
तुम्हें बोध कराए
अपने और मेरे बीच ठहरे
उस शून्य का
जो मेरे भीतर
उतरता जाता है
पानी की बूंद की तरह
टप टप  टपकता,
मेरे अस्तित्व को छेदता !


प्रतिध्वनियाँ

कौन हो तुम
मेरे अंदर
सदियों से
चेतना की तरह जीते हो
या शायद
मुझे जिलाते हो

मेरी प्रतिध्वनियाँ
जो कहीं नहीं पहुँचती
क्योंकि उन्हें पहुँचना होता है तुम तक
कभी कभी तुम्हारा मौन खलता भी है
लगता है
सबकुछ सो गया है
मेरे भीतर
और जागता है
दुख
पीड़ा होती है
सब कुछ छिन्न भिन्न कर देती है
टूटन के उस अंतहीन क्षण में
मुझे अहसास होता है
तुम्हारे होने का
मैं फिर जी जाती हूँ
तुम्हारी तलाश में.


00



परिचय 
परिचय देना कठिन काम है, हर नए दिन के साथ कुछ नई समझ आती है खुद के बारे. यात्रा है, अनवरत.
नाम रंजना मिश्रा,
 १९७० के दशक में जन्म, 
शिक्षा वाणिज्य और शास्त्रीय संगीत में.
फिलहाल आकाशवाणी, पुणे से संबद्ध.
कथादेश में यात्रा संस्मरण,
 इंडिया मैग, बिंदी बॉटम (अँग्रेज़ी) में निबंध/रचनाएँ प्रकाशित, प्रतिलिपि कविता सम्मान
(समीक्षकों की पसंद) २०१७.
पर्यटन में विशेष रूचि.

7 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर कविताएँ

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  2. रंजना जी को पहली बार पढ़ रहा हूं. अलग मिजाज की कविताएं हैं. पाठक को तृप्त करती हैं. जगाती हैं, उकसाती हैं, सहलाती हैं, रुलाती हैं... बहुत शुभकामना.

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  3. 'मेरे शब्दों में बैठी है एक बूढ़ी औरत'
    'उसके हिस्से का इतिहास आधा कच्चा आधा पक्का था'
    रंजना जी ने उसके उस हिस्से को न सिर्फ बखूबी समझा है बल्कि उसे हमारी समझ के समानांतर बुलंदी से रखा है.. बधाई स्वीकार करें।

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  4. बहुत सुन्दर ! हे नारी अस्मिता की अलख जगाने वाली ! तुम्हें नमन करूं कि तुमको मुबारकबाद दूं? रंजना जी, तुम कविताएँ कलम से लिखती हो पर उसमें स्याही की जगह आग क्यों इस्तेमाल करती हो? हम सब पुरुष उतने बुरे नहीं हैं जितना कि तुम उन्हें चित्रित करती हो. वैसे लड़कियों को छेड़ने के मौक़ों की तलाश में बुज़ुर्गवार मैंने भी बहुत देखे हैं. एक सलाह है अगर निराला को पढ़ना है तो - 'वह तोड़ती पत्थर, इलाहाबाद के पथ पर' ही नहीं उनकी 'जूही की कली' भी पढ़ो. खैर मज़ाक की बात ख़त्म. बहुत दिनों बाद थोक में इतनी सुन्दर कवितायेँ पढ़ीं. गुलज़ार की 'बागवान' पढ़कर आनंद आया था और तुम्हारी कविताएँ पढ़कर झूम उठा हूँ.

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  5. शुद्धतम, ख़ालिस !

    कवियत्री नहीं
    एक स्त्री
    अपनी कलम से
    अँधेरे से
    उजाले की और
    यात्रा करती हुई
    एक कदम --> एक शब्द



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