14 मई, 2018

सुमन कुमारी की कविताएं 



सुमन कुमारी 



आज भी एक पिता 

आज भी एक पिता के लिए उसकी बेटी
मजबूर होने का सबब बन रही है
सब कुछ में मीडियम होते हुए भी
समाज से नकारे जाने के सोच से सफर कर रही है
यह वही पिता है
जिसने बेटी पर ना कभी कोई पाबन्दी लगाई
ना ही बेटी की किसी इच्छा पर मनाही की मुहर लगाई
लेकिन आज जब बेटी बड़ी हो गई
उसके लिए वर की तलाश भी जारी हो गई तो
अब
पिता को रह रह कर यह अहसास सा हो रहा है कि
क्यों बेटी को शहरनुमा माहौल में उसने ढलने दिया
क्यों बेटी को समय के साथ चलने दिया
शायद
अगर बेटी समय से पीछे रहती
शहर को ना अपनाये होती
तो
समाज शायद उसे ना नकारता
शायद ही?
पिता इस सोच में खुद को घुलाये ही जा रहा है
पर एक पिता अपनी उम्मीद को कहां छोड़ता है?
बेटी का ब्याह ही उसकी संस्कृति में
उसे गंगा नहाने का पुण्य दिलाता है


  रिजेक्शन

 रिजेक्शन सिर्फ लड़कियां ही क्यों झेले
'ना' सिर्फ लड़कियां ही क्यों स्वीकारे
लड़के क्या सर्व गुण सम्पन्न ही पैदा होते है?
कोई खोट कोई नुक्स से क्या वो अछूते ही रहते है?
लड़कों में भी काले,नाटे,सूखे,फुले प्रजाति मिलती है
आँखों की कम रोशनी के साथ नैन नक्श भी टेढ़े-मेढ़े सामने आते है
फिर भी इतनी कमियों के साथ भी
जनाब हर लड़की को ऐश्वर्या से लेकर दीपिका पादुकोण तक आंकते -तौलते है

आंकने तौलते का दौर तीन-चार चरण में पूरा होता है
और
उसके बाद
लड़की की तरफ 'ना' बाज़ारी लागलपेटों के साथ भेज दिया जाता है
खुद की जीत और लड़की की हार में खुश हो
फिर वो आंकने के दौर में आगे बढ़ता है
जैसे
आंकने का ठेका सिर्फ उसकी जाती ने ही ले रखा है

रिजेक्शन की पीड़ा से मुक्त होना है
तो लड़कियों
आंकने और तौलने के बाजार में तुम भी बेधड़क उतरों
और इनके ठेकेदारों को उनके ही रंग में रंग रिजेक्शन का जबाब दो
तुम भी हर लड़के को आंको-तौलो शाहरुख़...सलमान से
'ना' भेजो बड़े ही साज-सज्जा से

तुम्हारी ये पहेल तुम्हे नेगेटिव से पॉजिटिव बनायेगी
तुम्हें इस दुनिया में खास बने रहने का अहसास कराएगी
तुम आसुंओं को नहीं खिलखिलाती हँसी को अपनाओगी

फिर तुम
अपने द्वारा किये गए हर रिजेक्शन का जश्न मनाओ
अपनी बेशकीमती दुनिया को रिजेक्शन मुक्त बनाओ







 खुद के पंख 

जब से होश संभाला तो हर पल यही सोच के खुश हुई कि
मुझे स्त्री जन्म मिला
ये जन्म मैं भरपूर अपनी मर्जी से जिऊंगी
हर वो काम करूँगी जिसे करके मेरा आत्मविश्वास बढ़ेगा
खुद को किसी से कम नहीं आकूँगी
खुद के लिए अपनों से भी लड़ूंगी
खुद की सीमाएं, खुद की मर्यादा भी मैं ही मापूंगी
खुद के फैसले,खुद की इच्छाएं भी मैं ही तय करूँगी

लेकिन अब जब इन सभी फ़लसफों को जीने लगी हूँ
तो हर बार मुझे हालात हराने पर आतुर रहती
मैं भी कुछ पल हालात की बातों में आ कर
दो आंसू बहा लेती हूँ
फिर
अगली सुबह खुद से खुद को पाने की जद्दोजहद में लग जाती हूँ
खुद को हारते हुए नहीं, जीतते हुए स्वीकार करना चाहती हूँ

अपनी अस्मिता को खुद के मापदंडों पर ही खरा उतारना है 
अपनी उड़ने की उडान में खुद के पंख को ही सबल बनाना है






 जिंदगी की किताब 

कोरे पन्नों के साथ मिलती है जिंदगी की किताब
जिसमें रंगीन रंग भरते है वक़्त के साथ
मेरी जिंदगी की किताब का खूबसूरत पन्ना हो
जिसे जितनी बार खोलूं
उतनी बार जी लेती हूं
और
जितनी बार बंद करूं
उतनी ही बार खुद को खो देती हूं
पूरी किताब ना तुम्हारी खूबसूरत हुई , ना मेरी
फिर भी
हम बीत रहे पलों को खूबसूरत बनाने की कोशिश करते रहें
किताब का हर पन्ना नया फलसफ़ा लिखता है
हर पन्ने की शुरुआत नया सबब सिखाता है
जाने-अनजाने इस सबब में कई चोटें लगती है
इस किताब को पूरा खूबसूरत बनाने में एक जिंदगी भी कम पड़ती है




अक्स

ढलती शाम का अक्स मुझे खूब भाता है
ना
अंधेरी रात का पहरा होता है
ना
सुबह का उजाला गहराता है
बस सब कुछ धुंधला धुंधला में छिपा रहता है
ये छिपना ही मुझे अपनी ओर खींचता है
इस छिपने में कोई भी अक्स साफ नहीं होता है
चाहे वो अक्स इंसान का हो या भविष्य का









मिश्रण

अक्सर दूध और पानी के मिश्रण की प्रकिया
मुझे बेहद सुकून देती है
जैसे ही दूध में पानी या पानी में दूध मिलता है
दोनों ही अपनी-अपनी छवि को कहीं दूर छोड़ एक-दूजे में मिल जाते है





 मेरे जिनि

जब जिंदगी,  जीने का सोचा
तब तुमने जिंदगी को ही मुझमे घोल दिया
जब जब जिंदगी को बाहों में भरना चाहा
तब तब तुमने जिंदगी को ही रंगीन रंगों में बदल दिया

पग पग पर मेरा साथ निभाते हो
बिन कहे मेरी हर छोटी बड़ी सहूलियतों का ख्याल रखते हो
जाने अनजाने मेरे चेहरे की हर रुमानियत को पढ़ लेते हो
अपनी भीनी भीनी खुशबू को मेरे अहसासों में भर देते हो

जहां मेरी नादानियां बढ़ती है
वहां तुम सख्त होने से भी परहेज नही करते
लोक-लाज की भी परवाह नहीँ की तुमने
जब भी कोई तकलीफ मुझे छूए
तुमने उस पल ही मुझे बाहों में भर लिया
कठिन रास्तों पर कभी तुम्हारे खुद के पैर भी लड़खड़ाए
उस पल भी तुम, खुद को भूल, मेरे कदम संभालें है

तुम्हारे अहसासों का चक्रव्यूह मेरे चारों ओर हर पहर रहता है
जब भी तुम्हारी दरकार हुई, तुम्हारा हाथ मेरे हाथ को थामे रखता है

मान मनोवर , दुलार में भी कोई कसर नहीं छोड़ते हो
हर बदलते मौसम में छोटे बड़े उपहारों से मेरी मुस्कान बरकरार रखते हो

क्या क्या कहु अपने इस जिनि के लिए
जो फ़रिश्ता है और
मुझे फ़रिश्ते की तरह नवाज़ता है





एक कोशिश 

जब कोई ना रहे तुम्हारे पास
तब
मैं रहना चाहती हूं तुम्हारे आसपास
मैं ही रखना चाहती हूं ख्याल तुम्हारी जरूरतों का
जिंदगी के कुछ से थोड़ा बढ़कर वाला लम्हा सिर्फ और सिर्फ तुम्हारे लिए ही खर्च करना चाहती हूं
तुम्हारी असहमति से नहीं
तुम्हारी सहमति से ये लम्हा चाहती हूं रिश्ते में, नाम से नहीं , बिन नाम के ही रहने का इकरार करती हूं

जानती हूं ऐसा करना बिल्कुल भी आसान नहीं
फिर भी
एक कोशिश जरूर करना चाहती हूं
००



--

परिचय ;


नाम = सुमन कुमारी 
जन्मतिथि = 08-01-1986
शिक्षा = बीएड , एम.ए , हिंदी जर्नलिज्म (डिप्लोमा ), एम.फिल  

प्रकाशित कृतियाँ = विभिन्न कवितायेँ  'इन्द्रप्रस्थ भारती', 'माटी','परिकथा','लोकसत्य अखबार' 'नई दुनिया अख़बार,'युध्दरत आम आदमी पत्रिका' , 'शब्दांकन', 'संघर्ष संवाद पत्रिका'  'परिंदे', 'संवदिया' में प्रकाशित । विभिन्न कविता , कहानी और लेख ;आजकल;लोकसत्य अखबार,'परिकथा','युध्दरत आम आदमी पत्रिका में प्रकाशित । कई सामाजिक मुद्दों पर लेख निर्भीक.कॉम पर प्रकाशित . 

संपर्क = मकान नंबर -246, गली   नंबर-9, ब्लाक -एफ , मोरलबन्द , बदरपुर , नई दिल्ली -110044

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें