07 जून, 2018

रमेश शर्मा की कविताएं




रमेश शर्मा 

कविताएँ

बच्चे बड़े हो रहे हैं 

त्रिभुज
चतुर्भुज
पंचभुज
षट्भुज
न जाने और भी क्या कुछ नहीं है
गणित और विज्ञान की किताबों में
जहां छपी आकृतियों से खेलते हुए
बच्चे बड़े हो रहे हैं !

यह नयी सदी का खेल है
जो खेला जा रहा घर-घर
और इस खेल में
अचिन्हित होने लगी हैं
जीवन की सारी आकृतियां !

होती तो पढ़ी भी जाती
खेला भी जाता
वहां छपी आकृतियों से
पर जीवन की कोई किताब घरों में नहीं बची
धीरे धीरे दीमकों ने चर लिया उन्हें
उसे नए सिरे से लिखने वाला भी तो चाहिए !

इसलिए बच्चे
जीवन की किताब पढ़े बिना ही
अब बड़े हो रहे हैं घरों में

उनके बड़े होने के
तमाम रास्ते
गणित और विज्ञान की
किताबों से होकर ही गुजरने लगे हैं !

इस खेल में
रिश्तों की धरातल से
बहुत ऊपर उठते हुए
सचमुच वे बड़े हो रहे हैं !

इस खेल ने
कद और ओहदे से ही
बड़ा होना
जब से सिखाया है उन्हें
अपने ही धरातल को रौंदते हुए वे बड़े हो रहे हैं !





वे मानवता का मर्सिया पढ़ रहे हैं 

बेटी के घर बस जाने में ही
खोज लेता है एक पिता
अपनी मुक्ति का रास्ता !

चिड़िया अपनी उड़ान में ही
ढूंढ लेती है अपनी मुक्ति का रास्ता !

हवा की मुक्ति का रास्ता
पेड़ों से टकराकर
अपनी शीतलता को बचा लेने में है !

जैसे कोई श्रमिक ढूंढ लेता है
रोज के अपने रोजगार को
बचा लेने में अपनी मुक्ति का रास्ता !

मुक्ति के ये तमाम रास्ते
कितने मानवतागामी हैं !

पर शासक का रास्ता
इन रास्तों से कितना अलग है
अपनी मुक्ति
सत्ता को हर कीमत पर
पा लेने में देखता है वह
और गुजरता है
हर दिन गंदले कीचड़ भरे रास्तों से !

शासको की मुक्ति में
कितना नरकगामी होने लगा है यह देश
मानों हर सुबह उठकर
मानवता का मर्सिया पढ़ना
उनके लिए मुंह धोने जैसी घटना हो गई है !










हँसी 

जब खुलकर माँ हँसी
तो यह धरती पर मौजूद उपहारों में
सबसे बड़ा उपहार था !

जब बहना हँसी परदेश
तो घर जैसे चिंताओं से मुक्त हो लिया

जब पत्नी और बेटियां हँसने लगीं
तो घर एकाएक चांद पर पहुंच गया !

हँसी छुपी होती है अपने ठिकानों में
बिकती नहीं कहीं
इसलिए दुनियाँ के सारे धनकुबेर
हारे हुए खड़े हैं !

इसका न बिकना एक सत्य है जबकि
फिर भी जिसे
सदियों से झुठलाने की कोशिशों में
वे खड़े हैं !

दुनियाँ के
रंग-बिरंगे इश्तहारों की सूची में
यह कहीं नहीं है
आंखें थक गईं हैं खोजते
और वे खड़े हैं !

हँसी अनमोल है
वह अपनी जगह खुद ढूंढती है
अरसा हुआ देखे उसे
पड़ोस की रामखिलावन चाची के चेहरे पर
देखा गया था उसे
जब वह एक अनाथ मटमैले बच्चे को
साबुन से रगड़ रगड़ कर नहला रही थी
और धरती ने हँसते हुए
राग मल्हार छेड़ दिया था !




केरो बाई का हाट बाजार  

केरो बाई बस्तर के सुदूर गाँव में रहती है
सौदा सुलूफ़ की बारीकियां नहीं जानती
सस्ते में बेच आती है अपना सामान
और घर में गारी सुनती है रोज
"ते बेचे नई जानस दाई
घर ला बोर देबे तैंहर" !

केरो बाई का बाजार वह नहीं
जिसका चित्र तुम्हारे भीतर बनता है
और जहां तुम स्वप्न में भी
विचर आते हो अपनी नींद में  !

जिस हाट में बैठती है वह
वहां नाप-तौल से नहीं बिकती चीजें
की सही-सही तय हो कीमतें
ढेरी पर होता है मोल
एक तरफ केरो बाई
तो दूसरी तरफ बाबू लोग
मानो विक्रेता और क्रेता नहीं
डर और आतंक आमने-सामने खड़े हों 
इस मोल में केरो बाई से ज्यादा बाबूओं की चलती है
"इतने में नहीं दोगी तो भूखे मरोगी"

लोकतंत्र से बहुत दूर है केरो बाई का यह हाट बाजार
वहां तानाशाही है
वहां डर है
वहां सदियों से चली आ रही चालाकियां हैं
वहां शोषण है
अपने घर-बाड़ी में उगाई हुई चीजों की कीमत
तय करने का हक भी नहीं दिया अभी इस हाट ने उसे !

कई बार सोचती है केरो
कि अपनी चीजों की कीमत वह खुद तय करे
जैसे फेयर एंड लवली की कीमत हिन्दुस्तान लीवर तय करता है
और बाबू लोग खुशी खुशी खरीदते हैं
अपनी अपनी पत्नियों के मलिन होते चेहरों को
गोरा करने के लिए
पर यह सोचते-सोचते
अचानक सिहर उठती है उसकी आत्मा
कुछ कहेगी तो बाबू नाराज हो जाएंगे
नहीं बिकेगा सामान
और अंततः उनकी ही तय कीमत पर
अपनी ढेरी सौंपते
संध्या होने से पहले
अपने डर के साथ
दस कोस दूर घर को पैदल लौट जाती है केरो बाई !





कुछ दिनों में ही 

कुछ दिनों में ही
बीतकर घुल गए बहुत से लम्बे दिन
जिन्हें सुनहरा और उजला होना था
और जो मटमैले हो गए !

कुछ दिनों में ही
प्रलाप हो गईं तुम्हारी मन की बातें
जिन्हें पानी थीं लम्बी उम्र
और वे असमय चल बसीं !

कुछ दिनों में ही
लौट गया वह
प्रेम की नाटकियता से विदा होकर
अपनी घृणा के साथ
जबकि करूंगा प्रेम
कहकर आया था लोगों के जीवन में !

प्रेम का जीवन काल
तुमने बहुत छोटा कर दिया
क्या उसे तुम्हारी सत्ता ने चर लिया ?

कुछ दिनों में ही सवाल इतने बड़े होते गए
कि जवाबों के कद खुदबखुद बौने होने लगे

कुछ दिनों में ही
बहुत कुछ घट जाने की कहानियों से
इस तरह बजबजा उठेगा यह समय
किसने सोचा था ?

प्रेम की उम्र इतनी छोटी हो जाए
कि असमय वह विदा लेने लगे हमसे
मैंने तो सोचा नहीं था
क्या तुमने सोचा था ?








अब कोई जगह शेष न थी 

एक चित्र था आखों के सामने
एक कहानी बुनी जा रही थी वहां
उस कहानी में
एक पथरीली सड़क की आवाज थी
उस आवाज में एक प्रश्न था
उस पर चलने वाले राहगीर के लिए
कि क्या मुझसे समझौते करोगे ?

मुसाफिर चुप था

उसके अबोले में एक छटपटाहट की गूँज थी
एक पीड़ा थी
जो जन्म दे रही थी किसी मरती हुई आवाज को !

उस दृश्य में समझौते इतने थे
कि उनसे एक थकी हुई जिन्दगी का चित्र
साफ़ साफ़ उभर रहा था

उस चित्र में
किसी और समझौते के लिए
अब कोई जगह शेष न थी |





खबर 

उस रात कई जरूरी खबरें रोक दी गईं
कुछ खबरें जिनके लिए
अभी अभी सम्पादक ने
खबरनवीश की पीठ थपथपाई थी
उसे अब खबर ही नहीं माना गया
कुछ खबरें
जिनमें दबंगों द्वारा
रामकली की झोपड़ी पर बलात कब्जे का जिक्र था
वे गन्तव्य से निकल चुकी थीं
अखबार पर तय हो चुकी थी उनकी जगह
वे जगहें भी छीन गईं अचानक अभी अभी  !

ऐसा इसलिए नहीं हुआ था
कि अखबार के पन्ने कम हो गए थे

ऐसा इसलिए भी नहीं हुआ था
कि उस रात देश की पूरी बिजली चली गयी थी
और अख़बारों के छपने का संकट खड़ा हो गया था

साधारण घटनाओं के लिए नहीं हुआ करते ऐसे उलटफेर
उस रात क्या हुआ था पता नहीं तुम्हें ?
उस रात विराट और अनुष्का की शादी हुई थी !
यह खबर इतनी जरूरी खबर थी
यह खबर इतनी बड़ी खबर थी
कि खबरों की साँसें थम गईं
कि इस खबर ने
देश के सारे अखबारों की जगहों को घेर लिया था
निगल लिया था
जीवन की बाक़ी जरूरी खबरों को !





घेरा 

मन्दिर जाकर लौटना होगा
मस्जिद गुरुद्वारे या गिरिजाघरों से भी
लौटना ही है अपने-अपने घरों को !

घर जो आस-पड़ोस से घिरे हैं
आस-पड़ोस जो घिरे हैं अपने-अपने धर्मों से
और धर्म जो घिरा हुआ है राजनीति से !

हर जगह बस एक घेरा है
उठाई गई दीवारों से घिरी हुई है दुनियाँ !

इन तंग रास्तों से गुजरते हुए
सांसे कम हुईं सबकी
घृणा की परत जम चुकी
प्रेम की उस धरती पर
जो कभी हरा था
अब धूसर है

यह घेरा
घेरे जा रहा जीवन को दिनोंदिन
इसका टूटना इस सदी में जीवन को बचाने की शुरूवात है ।








डर 

जाड़े की एक सुबह
जब तुम कांपते हुए चुप दीख रहे हो
लोग तुम्हें डरा हुआ समझ रहे हैं !

सूरज का लाल गोला
जब आ रहा है अपनी तपिश देने
धूप की किरणें
धरती पर बिछने की तैयारी कर रही हैं जब
तुम्हारे डर के चर्चे भी
इस धरती पर जगह पा रहे हैं !

तुम इस डर से कितना दूर हो
कितना पास हो इस डर के
धरती की कंपकंपाहट से जाना जा रहा है उसे !

इनदिनों ये जो धरती की कंपकंपाहट
अचानक बढ़ गयी है
रक्ताभ मुंह वाले भेड़ियों के
कदमों की आहट सुनायी देने लगी है अचानक
तुम्हारी कंपकंपाहट कहीं उसी की उपज तो नहीं  ?
सवाल नहीं
एक भयानक दुः स्वप्न है ये
शून्य डिग्री वाले जानलेवा ठंड से भी
भयानक दुः स्वप्न

ओढ़कर दुनियाँ की सारी रजाईयां
लेकर सूरज की सारी तपिश
क्यों नहीं मिल रही
इस दुः स्वप्न की कंपकंपाहट से मुक्ति तुम्हें ?

कुछ तो कहो कि चुप्पी टूटे
कुछ तो कहो कि लोग तुम्हें डरा हुआ न समझें !

चुप्पियों का टूटना भी
कई बार मुक्ति की तरफ ले जाता है हमें
ठहरकर सोचो
और इस धरती को कंपकंपाहट से मुक्त करो ।






सन्नाटा

एक सन्नाटा
दूर किसी पहाड़ी पर गूँज रहा है

एक सन्नाटा
बह रहा नदी की धार के साथ

एक सन्नाटा
इस शहर की लहू में जम गया है

एक सन्नाटा
इस शहर के लोगों को लील रहा है

सन्नाटे कहीं कितने शुकून भरे हैं
तो कहीं कितने डरावने

यह समय सन्नाटों को सही जगह पहुंचाने है
इन कोशिशों से बचेगा यह शहर
बचेगी धरती !

हर चीज की एक सही  जगह क्यों होती है  ?

इस सवाल से विस्थापित हुए समय में
इस सवाल को स्थापित करने का समय है यह !
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रमेश शर्मा की और रचना नीचे लिंक पर पढ़िए

मैं क्यों लिखता हूं

https://bizooka2009.blogspot.com/2018/05/blog-post_92.html?m=1


परिचय 
नाम: रमेश शर्मा 
जन्म: छः जून छियासठ , रायगढ़ छत्तीसगढ़ में .
शिक्षा: एम.एस.सी. (गणित) , बी.एड. 
सम्प्रति: व्याख्याता 
सृजन: एक कहानी संग्रह मुक्ति 2013 में बोधि प्रकाशन जयपुर से प्रकाशित 
छह खण्डों में प्रकाशित कथा मध्यप्रदेश के छठवें खंड में कहानी सम्मिलित .
कहानियां: समकालीन भारतीय साहित्य , परिकथा, समावर्तन , हंस ,पाठ ,परस्पर , अक्षर पर्व,कथा समवेत , साहित्य अमृत, माटी इत्यादि पत्रिकाओं में प्रकाशित . 
कवितायेँ: इन्द्रप्रस्थ भारती, कथन , परिकथा , समावर्तन ,सूत्र, सर्वनाम, अक्षर पर्व, माध्यम, लोकायत, आकंठ, वर्तमान सन्दर्भ इत्यादि पत्रिकाओं में प्रकाशित !
गांव के लोग सहित अन्य पत्र पत्रिकाओं में आलेख प्रकाशित .  
संपर्क : 92 श्रीकुंज , बीज निगम के सामने , बोईरदादर , रायगढ़ (छत्तीसगढ़), मोबाइल 9644946902, 9752685148

5 टिप्‍पणियां:

  1. बेहतरीन कविताएँ रमेश भाई। बधाई।

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  2. बेहतरीन कविताएँ रमेश भाई। बधाई।

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  3. बहुत ही शानदार कविताएं और दिल को छू लेनेवाली भी रमेश जी।खासकर वे मानवता का मर्सिया पढ़ रहे हैं, डर, बच्चे बड़े हो रहे है अद्भुत है

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  4. शुक्रिया डॉ मुन्नी गुप्ता जी । आपकी बहुमूल्य प्रतिक्रिया से कविता लिखने की गति को ऊर्जा मिलेगी ।

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