15 जून, 2018

निर्बंध: दो


याचना नहीं, दुर्बल का प्रतिकार 

यादवेन्द्र



यादवेन्द्र


साहित्य के 1997 के नोबेल पुरस्कार विजेता प्रखर वामपंथी इतालवी नाटककार दारियो फो की अक्टूबर 2016 में मृत्यु हुई तो सार्वजनिक स्मृति सभा में उनके कॉमेडियन बेटे जकोपो फो ने अपने पिता का सुनाया एक किस्सा सुनाया : "सदियों पुरानी बात थी इटली का ऐतिहासिक बोलोग्ना युद्ध जहाँ निहत्थी जनता और पोप के संरक्षण वाले राजा के बीच युद्ध चला था। (दारियो फ़ो ने इस  घटना को केंद्र में रख कर एक नाटक भी लिखा था -  The Tumult of Bologna) । इस युद्ध से हो रहे विनाश से लोगबाग तंग आ गए और शासन के खिलाफ़ उन्होंने बग़ावत कर दी - शासन चलाने वाले हुक्मरान भाग कर पहाड़ी पर बने एक किले के अंदर घुस गए ..... इसकी बनावट ऐसी थी कि कोई उसके अंदर प्रवेश नहीं कर सकता था ,अभेद्य।किले में शरण लेने वाले हुक्मरान के पास महीनों तक चलने वाला अन्न पानी था जबकि विद्रोही आम जनों के पास किले पर आक्रमण करने के लिए  हथियार तक नहीं थे। यहाँ तक कहानी सुनाने के बाद पिता ने मुझसे पूछ दिया : "अब तुम बताओ , इतने मज़बूत और सुरक्षित किले के अंदर छुपे हुए हुक्मरानों  पर  निहत्थे लोगों ने आखिर कैसे काबू किया होगा ?" मेरे पास इसका कोई जवाब नहीं था ,बल्कि मुझे तो यह विश्वास ही नहीं हो रहा था कि मेरे पिता जो कह रहे हैं वास्तव में यह हुआ भी था। मुझे निरुत्तर देख उन्होंने बताया :"बगावती लोगों में से किसी एक बन्दे को एकदम मामूली और बुनियादी सा ख्याल आया - इस किले को इंसानी मल  से पूरी तरह से क्यों न ढँक दिया जाए।फिर क्या था लोगबाग अपने घरों से गाड़ियों में मल  भर कर लाते और किले के ऊपर उड़ेल जाते।घरों के अंदर निवृत्त होने के बदले लोग किले के बाहर आकर निवृत्त होने लगे - यह किले पर चढ़ाई करने की उनकी अपनी अभिनव शैली थी।धीरे धीरे मल  की दीवार ऊँची और मोटी होती गयी...हालत यहाँ तक पहुँच गयी कि अंदर छुपे हुक्मरानों का हौसला और धैर्य दोनों जवाब दे गया और उन्होंने इस अनूठे हमले का जवाब देना भी छोड़ दिया और अंततः बगावती जनता के सामने हथियार डाल दिए ।" 


यह जानना बेहद दिलचस्प होगा कि दारियो फो जिस ऐतिहासिक घटना को किस्से की तरह सुना रहे थे वह पिछले साल वेनेजुएला के सरकार विरोधी आंदोलन में बड़े व्यापक तौर पर हथियार के तौर पर इस्तेमाल की जा रही थी ।देश की आर्थिक बदहाली से त्रस्त जनता महीनों तक  आंदोलनरत थी और पुलिस की गोलीबारी में अनेक जानें इस दौरान गयी।तेल के प्रचुर भंडार के रहते हुए भी सरकार की जनविरोधी नीतियों ने लोगों की आमदनी पर कुठाराघात किया , खाद्यान्न और दवाओं  का बड़ा संकट पैदा कर दिया - वहाँ का एक प्रतिष्ठित अखबार लिखता है कि देशव्यापी सर्वेक्षण करने पर मालूम हुआ कि  कृत्रिम अभावों के चलते 64. 3 फीसदी देशवासियों का  औसतन लगभग चौबीस पौंड (11 किलो) तक वजन कम हो गया।



 आन्दोलनकर्मियों का कहना था कि पुलिस के पास हमें प्रताड़ित करने के लिए अत्याधुनिक हथियार हैं और हम साधनहीन निहत्थे - हार कर हमने पशु और मानव मल  को ही अपना गोला बारूद बना लिया।इस हथियार को लोगों ने "शिट बम" और "पूपूटोव" जैसे नाम दिए जो सामाजिक विमर्श का हिस्सा बना। शीशियों और डिब्बों में मल भर कर आंदोलनकारी देश की राजधानी की सड़कों पर सुरक्षा बलों से महीनों से मोर्चा लेते  रहे ।सरकार ने इन्हे "रासायनिक हथियार" का नाम दिया और दलील देनी शुरू की कि मल  के सड़कों और सुरक्षा बलों के शरीर पर बिखरने से अंतरराष्ट्रीय रासायनिक हथियार समझौते का उल्लंघन होता है...यह भी कहा  कि पहले ही आवश्यक दवाओं की कमी से जूझ रहे देश में मल  के इस तरह फेंके जाने से महामारी फैलने का संकट उत्पन्न हो सकता है।पर जब शासन जनता की मुश्किलों संबंधी किसी बात को सुनने को न तैयार हो तो आंदोलनकारियों के हाथों में यह तख्ती आ जाना  किसी अचरज की बात नहीं है : "तुम्हारे पास गैस के गोले हैं ,हमारे पास मल की शीशियाँ।" 


दुर्बल जन लंबे समय तक आंदोलन के लिए साधन जुटाने में हार जाए और सरकारी दमन के हथियारों का जवाब न दे पाए तो ऐसे अनूठे और अभिनव प्रयोग की और भी मिसालें सामने आएंगी।

मानव मल के साथ मनुष्य की गरिमा का शुरू से छत्तीस का आँकड़ा रहा है - तमाम घोषणाओं के बावजूद सिर  पर मैला ढ़ोने की प्रथा भारत के कई हिस्सों में आज भी जारी है और यह काम करने वाला कोई भी व्यक्ति समाज के ऊँचे तबके से संबंध नहीं रखता ,सबसे दलित शोषित तबका ही यह काम करता है। जैसे ही आर्थिक सामाजिक शक्ति आती है यह तबका मैला ढ़ोने जैसा मान गरिमा को शर्मसार करने वाला काम करना बंद कर देता है और दबाव डालने पर विद्रोह में खड़ा हो जाता है।


गूगल से साभार


थोड़े बड़े फलक पर देखें तो दिल्ली में महानगर के घरों से  हर रोज इकठ्ठा होने वाले दस हजार टन कचरे के स्थायी निपटान के लिए लैंडफिल साइट्स की राजनीती को देखा जा सकता है। क्षमता से जयदा कचरा भरने के कारन हुई एक दुर्घटना के बाद दिल्ली में जब गाज़ीपुर ,भलस्वा और ओखला लैंडफिल साइट्स को बंद कर दिया गया। गाज़ीपुर के बारे में सुप्रीम कोर्ट तक ने कटाक्ष किया कि वह दिन दूर नहीं जब यह क़ुतुब मीनार की ऊँचाई से होड़ लेने लगेगा। ध्यान देने की बात है कि जब इस साईट को शुरू किया गया था तब अधिकतम ऊँचाई बीस मीटर निर्धारित की गयी थी - अब यह पचास मीटर को पार कर गया है। टाइम्स ऑफ़ इंडिया कहता है कि पास के स्कूलों के बच्चों को भयंकर दुर्गंध ,धूल और कभी भी मलबा ऊपर से नीचे आ जाने के खतरों के चलते अक्सर स्कूल न आने की हिदायत देनी पड़ती है। एक स्थानीय निवासी को यह कहते हुए उद्धृत किया गया है कि अब हमारे पास यहाँ का कचरा उठा कर संसद के द्वार पर फेंकने के सिवा कोई और चारा नहीं बचा है। इसके लिए नयी वैकल्पिक जगह  रानी खेड़ा गाँव के पास की जमीन तय की गयी तो आसपास के गाँव वासियों ने प्रदूषण और स्वास्थ्य कारणों से इसका जबरदस्त विरोध किया। शासन ने पुलिस की मदद से अपना फैसला थोपने की भरपूर कोशिश की पर गाँव वासी टस से मस नहीं हुए। दूसरी  प्रस्तावित नई  साइट 


घोंडा गुजरान और सोनिया विहार में  है जिसको लेकर 
बड़े विरोध सामने आने लगे हैं - ध्यान रहे यह सारा मामला शहरी कूड़े के  ढ़ेर को दुर्बल जनता के माथे पर लाद देने का है और इनका भरपूर विरोध होना लाजिमी है। 
अपने आसपास देखें तो उत्तरी पाकिस्तान के पेशावर शहर के आसपास कचरे इकठ्ठा करने के खिलाफ स्थानीय नागरिकों का विरोध इतना बढ़ गया कि वहां के सांसद की शिकायत पर मुख्यमंत्री को सामने आना पड़ा। ऐसे विरोधों का पैटर्न एक सा ही है - शहरों का कचरा गाँवों में इकठ्ठा करना जिससे गाँववासियों को एतराज है - बढ़ती बीमारियाँ,दुर्गन्ध और प्रदूषण के दुष्प्रभाव ऐसे स्थलों पर साफ दिखाई देते हैं और स्थानीय आबादी इनके साथ रहना अपनी गरिमा का अपमान मानती है। 

छोटे स्केल पर देखने में यह हमारे देश की समस्या दिखती है पर कचरे और मल के निपटान की समस्या विश्वव्यापी है और अपने अपने ढंग से इनका विरोध करने का इतिहास भी बहुत पुराना  है। करीब देस सौ साल पहले अमेरिका के राष्ट्रपति निवास व्हाइट हाउस के पिछवाड़े मानव मल को इकठ्ठा करने वाला बड़ा गड्ढा हुआ करता था और 1841 में तत्कालीन राष्ट्रपति हैरिसन की असामयिक मृत्यु का संभावित कारण इस मल के गड्ढे के चलते भूमिगत जल के प्रदूषित होना माना गया था। 1849 में फैले हैजे की महामारी से सिर्फ न्यूयॉर्क में पाँच हजार लोग असमय काल के गाल में समा थे , इसके पीछे भी मल प्रबंधन की दुर्दशा मानी गयी थी। एटलस ऑब्स्क्यूरा वेबसाइट पर प्रकाशित  लेख में यह बताया गया है कि उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में गाड़ियों में ढोये जाने वाले मॉल का अमेरिकी सड़कों पर बिखर जाना आम बात हुआ करती थी। यह लेख उल्लेख करता है कि तब मल इकठ्ठा करना और यहाँ वहाँ ले जाना लगभग पूरा पूरा अश्वेत अमेरिकियों और दूसरे देशों से आये प्रवासियों के हाथ में था। 



अभी पिछले दिनों न्यूयॉर्क और न्यूजर्सी से इकठ्ठा किया हुआ लगभग दस मिलियन पौंड मानव मल अपेक्षाकृत पिछड़े अलबामा प्रान्त के पारिश शहर में रेलवे स्टेशन पर महीनों तक रेल के डिब्बों में खड़ा रहा - जहाँ ले जा कर इस मल को बड़े गड्ढों में ठिकाने लगाना था वहाँ के नागरिकों के विरोध के चलते ऐसा करना संभव नहीं हो पा रहा था। पारिश के अतिरिक्त वेस्ट जेफरसन शहर के नागरिक प्रशासन ने भी मल से भरी दुर्गन्धयुक्त गाडी के अपने इलाके से गुजरने पर कड़ा एतराज जताया। अंततः समझौता यह हुआ कि पहले मल का रासायनिक ट्रीटमेंट कर के उसे दुर्गंधरहित और अपेक्षाकृत कम हानिकारक बनाया जाए फिर गड्ढों में भरा जाए। भारत ही नहीं अमेरिका  संपन्न तबके की गंदगी दुर्बल तबके के मत्थे मढ़ने की कोशिश की जा रही है पर कमजोर वर्ग भी अपने हितों और कल्याण के लिए सजग है और नए नए ढंग से प्रतिकार करता है। 
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निर्बंध: एक को नीचे लिंक पर पढ़िए

कौन तार से बीनी चदरिया

http://bizooka2009.blogspot.com/2018/06/bizooka2009gmail.html?m=1



2 टिप्‍पणियां:

  1. कमजोर वर्ग के प्रतिरोध के सारे तरीके नाकाम हो जाने पर कोई न कोई अस्वीकार्य तरीका उन्हें अपनाना ही पड़ता है । शहरी मलबे और कचरों के निष्पादन को लेकर वैश्विक परिस्थितियां कितनी भयावह हैं इस आलेख को पढ़कर उसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है ।

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