17 जून, 2018

दीपिका घिल्डियाल की कविताए





दीपिका घिल्डियाल 


मरती हुई स्त्री हमेशा याद करती है

अपने उस प्रेमी का स्पर्श
जिसकी छुवन में सम्मान की कोमलता थी.
और गिना सकती है उँगलियों पर
जितनी बार भी उसे चाहा गया था.
परखती रही हमेशा
उसी प्रेम की कसौटी पर हर प्रेम
और जानती रही
कि कौन सा प्रेम जीवन की उकताहट से उपजा है
किसमें बस एक बार पा लेने की जिद है
पहचानती रही शरीर से अभिनय की गंध
नहीं किया किसी भी वायदे का यकीन
कभी भी सीधे आँखों में देखकर नहीं पूछा
कि क्या सच में ये प्रेम है?
मरती हुई स्त्री मन ही मन करती है स्वीकार
कि हर बार जानते बूझते भी पड़ती रही प्रेम में
ये भी कि हर प्रेम उसके उसी प्रेम का विस्तार था
प्रेम में छली गयी हर स्त्री हमेशा याद करती है
उसी प्रेमी का स्पर्श
जिसने उसे केवल देह नहीं जाना था.
००






औरतों ने औरत होना सीखने से पहले

सीख लिया था छुपाना
माँ की दी हुई संदूकची में कंचे छुपाये
गुड़िया के कपड़ों के बीच सिक्के
फिर फ्रॉक से अपने घुटने छुपाये
चुप्पी से छुपाये किसी सगे के
खेल बताकर दिए जख्म
शरमा कर पहला प्यार छुपाया
और कमरे में बंद हो कर शादी की नापसंद छुपाई
दांत भींचकर दर्द छुपाया
नजरें झुकाकर नफरत छुपाई
और गुस्सा छुपाया खुद को काम में झोंक कर
आँचल बढाकर पेट छिपाया
और रुई की तहों में अजन्मा खून छिपाया
मसाले के डब्बों में सपने छुपाये
और मायके की याद की रुलाई छुपाई
मरते हुए मुक्त होने का सुकून छुपाया
००



थकी हुई औरतों की आहट 

दुनिया का सबसे बोझिल संगीत होता है.
इतना कि उसे कोई भी सुनना नहीं चाहता.
ये अलग बात है कि
औरतों को घर लौटते देखना
सब पसंद करते हैं.
थकी हुई औरतों की आँखों में जमा होता है
पूरे शहर को भिगो देने भर पानी
बस एक स्नेहिल स्पर्श पर बंधा
इसीलिए कोई नहीं चूमता उन्हें माथे पर.
थकी हुई औरतों के हाथों बने खाने में,
घुल जाता है उनकी थकन का नमक
देता है अलग ही स्वाद,
जिसे वो प्यार का नाम दे देते हैं.
और ढाल लेते हैं अपनी जीभ का स्वाद.
थकी हुई औरतों की नींदों में,
सपनों की जगह सुबहें आती हैं
इसीलिए कभी नहीं जाग पाती तारिकाओं की तरह
सूजी हुई आँखों के साथ एक और दिन
जीतने निकल पड़ती हैं.
००



शादीशुदा औरतों का प्रेम

उन्हें लौटा लाता है अपने घर की तरफ
उसी घर की तरफ जिसके बाहर
ढूंढती हैं प्रेम.
सजाती हैं थोड़े और करीने से
बैठक के कोने
टांग लेती हैं दरवाजे पर एक नयी विंड चाइम
ताकि छुपा ले पैरों से झरता संगीत.
चूमती हैं बार बार बेटे का माथा
और सुनाती हैं बेटी को परियों की कहानियां.
कहानियां जिन पर फिर से यकीन करने लगती हैं.
पति के कपड़ों पर रख देती हैं इत्र के फाहे
और मुस्कुरा कर साफ करती है शर्ट से सब्जी के दाग
शादीशुदा औरतों का प्रेम
चीनी के डब्बे में छुपाये पैसों जैसा
चुपचाप संभाल लेता है घर को.
००



 पहाड़ की लड़कियों को

जब शहरों में बसना पड़ता है
बसा लेती हैं अपने आस पास एक छोटा सा पहाड़
मायके से लौटते हुए भर लाती हैं
कंडाली और फ्योली की पौध
रोपती हैं ठीक दरवाजे के पास वाले गमले में
इनके किचन से उठती है हर दूसरे दिन
फांणु और चैसें की महक
जिसे सबके जाने के बाद फर्श पर बैठ खाती हैं।
इनके बटुए से ज्यादा इनके संदूक में होते हैं
देवता के नाम के सिक्के
हारी बीमारी और पति की शराब छुड़ाने के नाम पर निकाले हुए।
पहाड़ की लड़कियाँ
सावन और चैत में हो जाती हैं बेवजह उदास।
हर पहाड़ी बोलने वाले से
खोज लाती हैं नानके,दादके का कोई रिश्ता
और देती हैं घर आने का न्यौता।
माँ के भेजे घी को कंजूसी से खर्च करती हैं
और फेंकती नहीं पार्सल से बंधी हुई सुतली भी।
पहाड़ की लड़कियां
पहाड़ से दूर हों तब भी पहाड़ इनसे दूर नहीं होता।








खुरदुरे हाथों वाली पहाड़ी लड़कियां

गर्भ में सीख जाती हैं,कितनी कसकर थामनी है दरांती
किस गोलाई में समेटनी है हथेली
ताकि काटी जा सके,एक भरपूर मुठ्ठी घास.
घुटनों चलते हुए बिठा लेती हैं,
दाहिने और बाएं हाथ का ऐसा तालमेल
कि बिना कुदाल भी बारीक़ी से मिटा दें खर पतवार के निशान.
बंजर खेतों के सीने पर लिख देती हैं हरे गीत.
ताम्बें के बर्तनों पर हथेली और राख के नाच से
ले आती हैं सुबह की पहली किरण सी चमक
अपनी उँगलियों के पोरों से रिसते खून से
पालतुओं की पीठ पर ममता लिखती हुई
इन खुरदुरे हाथों वाली पहाड़ी लड़कियों के हाथों की
सारी ताकत तब हो जाती है गायब
जब प्रतिरोध करना होता है
खुद पर उठते एक मरियल से हाथ का.
शराब की गंध मिले पसीने में नहाया हुआ
वो हाथ जिसे तब थामा था,जब नहीं गहराया था
हथेलियों का खुरदुरापन.
००




 माँ कभी स्कूल नहीं गई

इसीलिए नहीं पढ़ पाई
कभी कोई किताब
बस दस तक गिन पाती है
उंगलियों में
पिता के साथ रही हमेशा गाँव में
सो शहर भी बहुत कम देखा
माँ बहुत कम लोगों से मिली
शायद ही कभी सुनी हो
किसी बहुत पढ़े लिखे की कोई बात
धीरे धीरे बूढी होती माँ
सारी उम्र अपने पालतुओं के बीच रही
इंसानों से ज्यादा
जंगलों में अकेले भटकती रही
एक एक मुठ्ठी घास के लिए
गुस्से,प्यार और दुःख के अलावा
शायद नहीं जानती कोई मानवीय भाव
नहीं समझती
शायद
नागरिक होने के अपने अधिकार
टीवी में खबरों वाले वक़्त
रसोई में सेंक रही होती है रोटियां
दुनिया का मतलब समझती है
अपना परिवार और गाँव
बहुत सरल और साहसी मेरी माँ
बस एक बात जानती है
कि जंगल,घर और कहीं भी बाहर
बिना दरांती नहीं जाना है
इंसान जानवर नहीं
कि सिर्फ भूखे पेट ही हमलावर हों
इंसान
कहीं भी घात लगाये मिल सकते हैं.
००







प्रेम 

किसी पौराणिक कथा के पक्षी का अग्निपंख था.
उड़ा तो छोड़ गया झुलसी हथेलियां.
प्रेम
दीवार के सहारे बढ़ती कोई आरोही लता
समय को मात देती बढ़ी
उतरी तो छोड़ गयी बदरंग निशान
प्रेम
अधूरे पते के साथ भेजा एक खत था,
दर ब दर भटकता हुआ
सही जगह पहुंचा भी तो मिटा हुआ.
प्रेम
बेशकीमती इत्र था
सहेज कर रखा
खर्च न हो जाए कहीं
कभी खुली ही नहीं शीशी
हमेशा
बेशकीमती इत्र ही रहा प्रेम
००



जुडी हैं एक ही गर्भनाल से

दुनिया की सारी औरतें
एक ही महासागर के द्वीप हैं
उन सबकी आँखें
और कमोबेश एक ही स्याही से
लिखा गया है सबका भाग्य
श्रापित हैं सब कि
प्रेम,जिसे बनना था जीवन का ईंधन
उन्हें जलाएगा.
दुनिया की सारी औरतें
जन्म से ही बोलने लगेंगी,
आंसुओं की भाषा
और उनसे ज्यादा बोलेगा
उनका मौन.
लिखेंगी रेत पर प्रेमपत्र
और पढेंगी पेट के रास्ते दिल तक जाने के नक़्शे
दुनिया की सारी औरतें ऐसी ही होंगी.
जो नहीं होंगी,चरित्रहीन कहलाएंगी
10-जीवन के बाद मृत्यु की तरह,
एक और अटल सत्य है ये
कि प्रेम जब भी होगा
सही व्यक्ति से गलत उम्र में होगा.
तब जबकि बहना होगा
बहाव के साथ
और पाने को होगा
अनंत आसमान
प्रेम हाथ थामे छोड़ आएगा
एक अनजान टापू पर
तब जबकि बंध चुके होंगे किसी बंधन में
और समझ रहे होंगे खुद को भाग्यशाली
प्रेम किसी शरारती बच्चे सा ललचाएगा
महसूस करवाएगा पीठ पर
दो आँखों का बोझ
और पलट कर देखें तो उड़ जायेगा.
तब जबकि लगेगा
जीवन बहुत हद तक नियंत्रण में है
और भर चुका है मन
हम बंद कर चुके होंगे सपनों की खिड़कियां
हाथ भूल चुके होंगे नजरों का स्पर्श
तब अचानक दस्तक देगा प्रेम
और पलट देगा सारी बिसात
००







पहाड़ और नदी

(१)

पहाड़ ने नदी को जन्म दिया
और नदी को जन्मनी थीं सभ्यताएं
इसलिए नदी ने छोड़ दिया पहाड़
पहाड़ ऊँचा उठता गया,ताकि देख पाए नदी को .
जिदगी और मुहब्बत,अपनी राह ढूंढ ही लेते हैं.
००

पहाड़ और नदी

 (2)

नदी लौट जाना चाहती थी
अपनी ही जनी हुई सभ्यताओं से घबराकर
पहाड़ ने कुछ कहा नहीं
बस चुपचाप थोड़ी और बर्फ पिघलाई,
थोड़े और बादल भेज दिये नदी की ओर
मुहब्बत न हारने देती है, न हार मानने.
००

पहाड़ और नदी


 (३)

पहाड़ जानता था,अपनी और नदी की नियति
जन्म देने का सुख और जाने देने का दुःख
नदी समझती थी अपने होने का अर्थ
बसाने और खुद कहीं न बस पाने का प्रारब्ध
समझ,जीवन को आसान बना देती है.
००



उस रात,चाँद बहुत नजदीक था

इतना कि मैंने उसे काले अक्षरों का टीका लगा दिया
वो जो परछाइयां सी दिखती हैं न चाँद पर?
सब मेरी अधूरी कवितायेँ हैं.
मुझे बादलों से प्यार है,
इतना कि मैं सपने देखती थी,बादलों को छूने के
जानते हो,कुछ बादल कभी नहीं बरसेंगे,
क्योँकि मैंने अपने कुछ अधूरे सपने उनमे छुपा रखे हैं,
मैं यूँ ही नहीं सींचती,नीम अँधेरे गेंदें की क्यारियां
सुना हैं थोड़ा सा नमक खाद का काम करता है,
सो कुछ महीने बाद,खिलेंगे मेरे आंसू,
गेंदे बनकर
मैं अक्सर उकेर देती हूँ,जमीन या कागज़ पर,एक सतरंगी चिड़िया,
किसी दिन छोड़ दूंगी उसे
उसी आसमान में,जिसमें मैंने भी उड़ना चाहा था.
मैंने खुद को ढाल लिया है,हर उस रूप में,जो मुझे जिन्दा रखे.
मैं थोड़ा बहुत हर चीज में खुद को सहेज रही हूँ,
जब तुम्हे लगेगा कि मैं नहीं हूँ,
मैं जी उठूंगी,टुकड़ों में ही सही,पर जी रही हूँगी.
००



जिंदगी आसान नहीं थी.

होनी भी नहीं चाहिए
जैसा कि सबने कहा,जीवन संघर्ष का नाम है.
संघर्ष था,इसलिए सबने हथियार भी अपने चुने.
किसी ने तलवार तो किसी ने किताब.
किसी ने जुबान.
मैंने कविता चुनी.
हारने या जीतने के लिए नहीं,लड़ते रहने के लिए
कविता रुकने नहीं देती,बहा ले जाती है वो सब जिसका बहना जरुरी हो
और रोक लेती है वहां,जहाँ से बहना मुनासिब न हो.
कविता नर्म फाहा है ,उन जख्मों पर जिनके निशान नहीं दिखते
इसलिए जिनके इलाज नहीं होते.
कविता बहाना है ,बहाने से अपनी बात कहने का.
और चुप रहने का भी
जिंदगी आसान नहीं थी ,जैसे कविता आसान नहीं होती.







फिर एक दिन,

जब हाथ में थोड़े से पैसे और पैरों में थोड़ी सी ताकत बची होगी,
मैं गांव लौट जाउंगी.
तुम भी साथ चलना.
देवदार और चीड़ की लकड़ी से घर बनाएंगे
घर, जिसकी छत पटालों की होगी और फर्श मिटटी का
आँगन में फ्योली रोपेंगे.
बंजर खेतों में कुछ उगाएंगे,उम्मीद जैसा कुछ.
ताँबे की छोटी सी गागर में तुम पानी लाना,बाँझ की जड़ों से निकला,ठंडा पानी
मैं मंडुवे की रोटी बनाकर रखूंगी,
हिस्से तुम करना,बछिया,चिड़िया और बिल्ली के लिए .
हर शाम हम नई पगडंडियां तलाशेंगे
और लौटते हुए झोला भर के घिंघारू,किनगोडे,काफल ले आएंगे
मैं तुम्हे वो सब जगहें दिखाउंगी,जहाँ मेरी हँसी,मेरे गीत गिरे थे,
तुम बस मेरा बचपन उठा लेना,और वो रुमाल भी,जो बीस गते के मेले में कहीं गिर गया था
या मैंने ही गिराया था.
फिर एक दिन,
जब चैत के महीने में,मेरे आँगन की फ्योली खिलेगी
मैं सो जाउंगी,और तुम सोचोगे,मैं मुस्करा रही हूँ.




माँ,

इस बार जब घर आऊं,
तो मत थमाना चुपके से कुछ पैसे,
मत बांधना पोटलियां,दालों,मंडवे,चावल और चूड़े की
मत देना अपनी नातिन के लिए हँसुली और धागुली.
मत जाना नदी पार के गांव,मेरे लिए कुछ अखरोट लाने.
माँ,हो सके हो दे देना
मेरे बचपन की वो पाजेब जिसे पहन मैं नापती थी धरती और आकाश,
सुनना चाहती हूँ
उन आज़ाद क़दमों और उस पाजेब का संगीत.
मैं जानती हूँ तुमने संभाल रखें होंगे ,
मेले ना जाने देने पर टपके हुए आंसू,
और लुका छिपी के खेल में,दबायी हुई मेरी हंसी,
दोनों देना,
दोनों को मिलाकर भर दूंगी अपनी बेरंग शामें.
इस बार देना ही चाहो तो देना,
बाँझ की कुछ पौध और आँगन की थोड़ी सी मिटटी,
मैं रोप दूंगी उन्हें हर उस जगह जहाँ खुद होना चाहती हूँ.
अपनी दरांती और अपनी हिम्मत भी देना,
मैं अक्सर डरती हूँ शाम को घर लौटते हुए.
माँ,मत विदा करना इस बार नम आँखों से,
बस मेरा छूटा हुआ सब साथ कर देना
और थोड़ी सी खुद भी चली आना मेरे साथ.
००


Deepika Ghildiyal
Admission Department
Himgiri Zee University
Dehradun,Uttarakhand
Contact no-9412998374

7 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ताकतवर कविताएं हैं। जीवन का नया मुहावरा गढ़ती महसूस हो रहीं हैं। नदी और पहाड़ के रिश्ते को मानवीय संदर्भ में महसूस करना मेरी अपनी अभिरुचियों में शामिल हैं। स्त्री पर अलग ढंग से बात की गई है।
    बधाई कवियित्री को।

    जवाब देंहटाएं
  2. आदरणीय / आदरणीया आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद मंच पर 'सोमवार' १८ जून २०१८ को साप्ताहिक 'सोमवारीय' अंक में लिंक की गई है। आमंत्रण में आपको 'लोकतंत्र' संवाद मंच की ओर से शुभकामनाएं और टिप्पणी दोनों समाहित हैं। अतः आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/



    टीपें : अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'सोमवार, सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।



    आवश्यक सूचना : रचनाएं लिंक करने का उद्देश्य रचनाकार की मौलिकता का हनन करना कदापि नहीं हैं बल्कि उसके ब्लॉग तक साहित्य प्रेमियों को निर्बाध पहुँचाना है ताकि उक्त लेखक और उसकी रचनाधर्मिता से पाठक स्वयं परिचित हो सके, यही हमारा प्रयास है। यह कोई व्यवसायिक कार्य नहीं है बल्कि साहित्य के प्रति मेरा समर्पण है। सादर 'एकलव्य'

    निमंत्रण

    विशेष : 'सोमवार' १८ जून २०१८ को 'लोकतंत्र' संवाद मंच अपने साप्ताहिक सोमवारीय अंक के लेखक परिचय श्रृंखला में आपका परिचय आदरणीया 'शशि' पुरवार जी से करवाने जा रहा है। अतः 'लोकतंत्र' संवाद मंच आप सभी का स्वागत करता है। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत-बहुत सुन्दर कविताएँ, दिल को छू लेने वाली, कुछ कसक छोड़ जाने वाली, कुछ टीस छोड़ जाने वाली. दीपिका घिल्डियाल की कविताओं ने तो पहाड़ के सीधे-सादे जीवन को महानगरीय सभ्यता के इस कंक्रीट के जंगल में जीवंत कर दिया है. पर्वत-बाला का मासूम बचपन और ममता लुटाती हुई माँ ! इन दोनों शब्द-चित्रों की प्रशंसा के लिए तो मेरे पास पर्याप्त शब्द नहीं हैं.

    जवाब देंहटाएं
  4. आपकी कविताएं स्त्री,विशेषकर पहाड़ की स्त्री का दर्द समेटे हैं।कितना कुछ दर्द छिपाती है स्त्री।कोमल व भावुक कविताएं।

    जवाब देंहटाएं
  5. आपकी कविताएं बेचैन करती हैं...थोड़ा सा रुलाती हैं..पढ़ते पढ़ते कहीं ठिठक कर सोचने पर मजबूर करती हैं.....बहुत खूब लिखती हैं आप.

    जवाब देंहटाएं