01 जुलाई, 2018

परखः- छः


मैं इंद्रधनुष होना चाहता हूँ !

गणेश गनी




एक दिन मैंने जिद्द की कि तुम मुझे आग और पानी एक साथ दिखाओ, बिल्कुल गले लगे हुए। उसने मुझे कुछ इस तरह से देखा कि थोड़ी ही देर में उसकी दोनों आंखों से अश्रुधारा बहने लगी, जब आंखें सूखीं तो सुर्ख लाल थीं। मैं उस ताप से पिघलने लगा। उसे रंग बहुत अच्छे लगते हैं। उसका हमेशा एक सवाल होता कि रंग कैसे बने होंगे। एक दिन मैंने पानी का प्रिज़्म बनाया और सूरज से रोशनी ली, हवा के कैनवास पर जब इंद्रधनुष बना तो उसे दिखाया और कहा कि रंग सूरज की आंखों में एक साथ छिपे रहते हैं, ठीक वैसे जैसे तुम्हारी आँखों में एक साथ छिपे रहते हैं आग और पानी।
सभी रंगों को मिलाने पर क्या रंग बन जाता है और अलग अलग करने पर कैसे कैसे रंग खिल उठते हैं! जब हम रंगों के बारे सोच रहे होते हैं तो चित्रकार कवि कुंवर रवींद्र इस बीच कुछ अलग ही सोच रहे होते हैं-

मैं इंद्रधनुष होना चाहता हूं
धरती के इस छोर से
उस छोर तक फैला हुआ।

रंग तो सृष्टि में पहले भी थे, ऐसा नहीं है कि रंगों की खोज दार्शनिकों और वैज्ञानिकों ने की तो पता चला। हां इतना ज़रूर है कि रंगों का व्यवस्थित अध्ययन सर्वप्रथम न्यूटन ने किया। यह ज्ञात हुआ कि सफ़ेद प्रकाश काँच के प्रिज़्म से देखने पर रंगीन दिखाई देता है। न्यूटन ने इस पर तत्कालीन वैज्ञानिक यथार्थता के साथ प्रयोग किया। एक अँधरे कमरे में छोटे से छेद द्वारा सूर्य का प्रकाश भीतर आने दिया, फिर कांच के एक प्रिज़्म में से इस प्रकाश को गुजारते हुए सफ़ेद पर्दे पर गिराया गया। पर्दे पर सफ़ेद प्रकाश के स्थान पर अब इंद्रधनुष के सात रंग दिखाई दिए। ये रंग क्रम से लाल, नारंगी, पीला, हरा, नीला, जामुनी तथा बैंगनी हैं। जब न्यूटन ने प्रकाश के मार्ग में एक और प्रिज़्म पहले वाले प्रिज़्म से उल्टा रखा, तो इन सातों रंगों का प्रकाश मिलकर पुन: सफ़ेद रंग वाला प्रकाश बन गया। कवि कुंवर रवींद्र तो यहाँ तक कहते हैं-

सृष्टि के साथ ही जन्मा था सबसे पहले
अलाप !
बाद उसके कविता
और कंदराओं में मंद होती अलाव की तपिश के साथ
गाया गया था पहला -पहला
प्रेम गीत

मनुष्य भोजन की तलाश में भटकता रहा
यहां-वहां
पेट भर जाने के बाद
गाया गया पहला विरह गीत
हाँ , पेट भर जाने के बाद

कविता सृष्टि से अब तक चल कर
आज भी
विरह और प्रेम से आगे नही बढ़ पाई
आदमी
अब भी कंदराओं में अलाव ताप रहा है।



लोहे का एक टुकड़ा जब धीरे-धीरे गरम किया जाता है तब उसमें रंग के परिवर्तन दिखाई देते हैं। पहले तो वह काला दिखाई पड़ता है, फिर उसका रंग लाल होने लगता है। यदि उसका ताप बढ़ाते जाएँ तो उसका रंग क्रमश: नारंगी, पीला इत्यादि होता हुआ सफ़ेद हो जाता है। जब लोहा कम गर्म होता है, तब उसमें से केवल लाल प्रकाश ही निकलता है। हालांकि दार्शनिक अरस्तु ने पहले ही नीले और पीले की गिनती प्रारंभिक रंगों में की थी।
हम हमेशा से देखते आए हैं कि देवी-देवताओं के चित्र में उनके मुख मंडल के पीछे एक आभामंडल बना होता है। यह आभा मंडल हर जीवित व्यक्ति, पेड़-पौधे आदि में निहित होता हैं। हमारा शरीर रंगों से भरा है। हमारे शरीर पर रंगों का प्रभाव बहुत ही सूक्ष्म प्रक्रिया से होता है। सबसे उपयोगी सूर्य का प्रकाश है। इलाज की एक पद्धति 'रंग चिक्तिसा' भी रंग पर आधारित है। अगर सूर्य की किरणों से हमें सात रंग मिलते हैं तो इन्हीं सात रंगों के मिश्रण से लाखों रंग बनाए जा सकते हैं।

कुंवर रवींद्र रंगों से खेलते रहते हैं। यह कलाकार कवि भी है। कवि की भाषा सबकी भाषा है, शैली ऐसी कि सबको समझ आ जाए, शिल्प अनगढ़ है, जैसा कि कवि ने ईमानदारी से स्वयं भी कहा है कि ये कविताएं अनगढ़ हैं। अनगढ़ कविता लिखना भी कौन सा आसान होता है। एक कुशल कवि यह काम कर सकता है। कवि रवींद्र के अपने अनुभव हैं, अपनी अलग दृष्टि है-

मैं अंधेरे से नहीं डरता
अंधेरा मुझसे डरता है
मैं उजाला अपने हाथ मे लेकर चलता हूँ।

यह बात वही कह सकता है जिसे लड़ना आता है और जीतना भी। उसकी लड़ाई जीतने के लिए होती है। यहां कवि अलग सोचता है तो पाठक भी सोचने पर मजबूर हो जाता है-

मैंने जब भी
सफेद कागज़ पर लिखा
प्रेम !
कागज़ धूसर हो गया
लिखा दुःख
कागज़ हरिया गया।

क्या बात है। ये रंग कवि ने महसूस किए हैं। कवि चित्रकार भी है तो रंगों से खेलना और उन्हें साधना लगातार चलता रहता है। कवि जब लिखता है तो शासन की चूलें हिल जाती हैं। शासन कवि को तो मार सकता है, पर कविता अमर हो जाती है-

कवि यदि तुम सच लिखोगे
कविता लिखोगे
तो निःसन्देह तुम
मारे जाओगे ।

कवि ने हर युग में साहस दिखाया है, जमकर ख़राब चीज़ों का विरोध किया है, मौत को भी गले लगाया है, जब भी समाज में कुर्बानी की जरूरत आन पड़ी-

मैं परेशान हूँ
कि दोनों हथेलियों से
आंखों को दाब रखा है
फिर भी
राजा नंगा क्यों दिख रहा है

मैं जानता हूँ
कह दूँगा कि राजा जी आप नंगे हो
तो
चुनवा दोगे दीवारों में

राजा जी !
अब मुझे मंजूर है दीवार में चुना जाना

राजा जी , तुम नंगे हो !
पर हमें शर्म आती है , तुम पर नही
उन पर
जो जानते हैं राजा नंगा है
पर कह नहीं पाते
और तुम्हारा सान्निध्य पाने के लिए
अपने कपड़े उतार

नंगे हो रहे हैं

राजा जी चुप की भी एक सीमा होती है
भले सच को सच कहना अपराध हो
फिर भी कहूँगा

राजा तू नंगा है।

परंतु यह भी हमारे समय का सच है कि दरबारी और चाटुकार केवल बच ही नही जाते, बल्कि ईनाम भी पा जाते हैं। कवि ने सच कहा है-

यदि तुम चीख नहीं सकते
तुम गलत को गलत नहीं कह सकते हो तो
या तो मर जाओ
या तुम मार दिए जाओगे।

कुँवर रवींद्र बड़ी बेबाकी और निडरता से अपनी बात रखते हैं। यही गुण कवि में होना भी चाहिए। जो कवि सत्ता के साथ हो और विरोध न कर पाए, तो वो कवि नहीं सत्ता का दास है। यहां एक कविता का अंश देखें और आश्वस्त हों कि कविता कितनी ताकतवर होती है-

बेशक! यदि तुम तब भी नही मरे
और गुनगुनाते रहे
कविता की कोई पंक्ति
तो वो हत्यारे हथियार डालकर
तुम्हारे पैरों पर लोटेंगे

हत्यारे सिर्फ कविता से डरते हैं।

यूँ लगता भी है और शायद एक कलाकार की छवि भी यही है कि वो सम्वेदनशील होता है। यहां कवि ने जिस तेवर की कविताएं लिखी हैं , वे छवि के बिल्कुल उलट हैं। यहां यह साबित हो जाता है कि एक कलाकार कितना विद्रोही हो सकता है। उसे समाज में हो रहे गलत काम कितना बेचैन किये रखते हैं। कवि कविता की ताकत जानता है-

तुम्हारे मन मे सवाल है ?
ये सवाल ही तो कविता है ,

कविता ही सवाल करती है
इसीलिए कोई भी सत्ता हो
सबसे पहले
कविता को दफ़्न करने का
आदेश देती है
और
कवि को सूली पर चढ़ाने का

क्योंकि तानाशाह सिर्फ
और सिर्फ
भय खाता है तो कविता से

मगर कविताएँ दफ्न नहीं होतीं
दफ्न हो जाते हैं तानाशाह।

पिकासो ने एक बात मन को छूने वाली और अटल सच कही है कि हर बच्चा एक कलाकार होता है जब वो पैदा होता है, परंतु जैसे जैसे वो बड़ा होना आरम्भ करता है तो उसके कला वाले इस पक्ष को बचाए रखना कठिन हो जाता है। कुँवर रवींद्र ने अपने इस पक्ष को बचाए रखा या यूं कहा जा सकता है कि इन्होंने इस पर बाहरी प्रभाव पड़ने ही नहीं दिया। कुँवर रवींद्र मूलतः चित्रकार हैं। परंतु वो कविताओं को देखकर चित्र ही नहीं बनाते बल्कि चित्रों को देखकर कविता भी लिख लेते हैं और क्या खूब लिखते हैं-

दरवाज़े, खिड़किया
खोल देने भर से
हम मुक्त नहीं हो जाते
मुक्ति के लिए
दीवारें भी गिरानी पड़ती हैं


कुंवर रवीन्द्र

कुँवर रवींद्र की कविताओं में चित्र उभरकर आंखों के सामने तैरने लगते हैं। कुँवर रवींद्र एक सम्वेदनशील चित्रकार हैं। उनके चित्रों और कविताओं को देखकर लगता है कि वो व्यवस्था में घट रही घटनाओं को बारीकी से देखते हैं। वो आम आदमी की ताकत को भी पहचानते हैं और उसके परिश्रम को भी बराबर सम्मान देते हैं-

मैं जब भी खड़ा हो जाता हूँ
वे दुबक कर बैठ जाते हैं
मैं जब भी सहज ढंग से
चुपचाप
बैठ जाता हूँ
वे मुझे हारा हुआ मानकर
खड़े हो जाते हैं

खड़े होने के बावजूद
वे थरथराते, कंपकपाते रहते है
इस भय से कि
कहीं यह चुपचाप बैठा आदमी
फिर से खड़ा तो नहीं हो जाएगा।
  00

परखः पांच नीचे लिंक पर पढ़िए


मगर वह चुप रहा तो जीते जी मर जाएगा

https://bizooka2009.blogspot.com/2018/06/blog-post_42.html?m=1


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें