11 जुलाई, 2018

विश्व भाषाओं से अनूदित कविताएँ
अनुवाद : फारूक शाह





फारूक शाह 





● निर्वासितों का गीत 

     (एंग्लो-अमेरिकी कविता)
     डब्ल्यू. एच. ऑडन

कहो कि इस शहर में जी रहे हैं एक करोड़
कुछ हवेलियों में बसते हैं, कुछ घरों में
फिर भी हमारे लिए कोई जगह नहीं
प्रिये, हमारे लिए कोई जगह नहीं !

एक बार हमारा देश था और हमें वह प्यारा लगता था
नक्शे की पुस्तक में देखो, दिख रहा है वहां पर
अब हम वहां नहीं जा सकते
प्रिये, अब हम वहां नहीं जा सकते !

गांव के गिरजे के आंगन में एक पुराना पेड़ है
हर वसंत में हरा भरा बन जाता है
पुराने पासपौर्ट से ऐसा नहीं होता कभी
प्रिये, पुराने पासपोर्ट से ऐसा नहीं होता कभी !

दूत ने टेबल पर हाथ ठोक कर कहा :
‘तुम्हारे पास पासपोर्ट नहीं है तो तुम मरे हुए हो’
पर हम तो अभी जिन्दा हैं
प्रिये, हम तो अभी जिन्दा हैं !

एक समिति में गया था, उन्होंने एक कुर्शी बैठने को दी
और कहा विनम्रता से मुझे : ‘आना अब अगले बरस’
लेकिन आज हम कहां जाएंगे
प्रिये, आज हम कहां जाएंगे ?

सभा में आया हुआ वक्ता खड़ा होकर कहने लगा :
‘उनको हम आने देंगे तो हमारी रोज की रोटी छीन लेंगे’
वे मेरी और तुम्हारी बात करते थे
प्रिये मेरी और तुम्हारी बात करते थे

लगता है कि आसमान में वज्र गर्जना सुनी
वह तो था हिटलर यूरोप पर चिल्लाता : ‘उन लोगों को आखिर मरना ही पड़ेगा !’
हम थे उसके दिमाग में
प्रिये, हम थे उसके दिमाग में

एक कुत्ते का बच्चा देखा, पिन वाला जाकिट पहेने हुआ
एक दरवाजा खुलता देखा, उसमें बिल्ली को आने दिया गया
पर वे कोई जर्मन यहूदी न थे
प्रिये, वे कोई जर्मन यहूदी न थे

खाड़ी तक गया और बंदरगाह पर खड़ा हो गया
मछलियों को तैरती देखी, मानों कि वे आजाद हों
सिर्फ दस फीट दूर
प्रिये, सिर्फ दस फीट दूर

गुजरे घने जंगलों के दरमियान से, पेड़ों पर देखें पंछी
उनके यहाँ कोई राजनीतिक न था, और सुख-चैन से वे गाते थे
वे इस मनुष्य जाति के न थे
प्रिये, वे इस मनुष्य जाति के न थे

सपना आया कि मैंने मकान देखा हजारों मंजिलों वाला
हजारों खिड़कियों वाला, हजारों दरवाजे वाला
उनमें से एक भी हमारा न था
प्रिये, उनमें से एक भी हमारा न था

खडा हूँ एक बड़े मैदान में बरसती बर्फ में
दस हजार सैनिक यहाँ से वहां कर रहे थे कूच
तलाशते मुझे और तुझे
प्रिये तलाशते मुझे और तुझे !





● विस्मय

   (आफ्रो-अमेरिकन कविता)
     माया एन्जेलू

एक दिन
पीया था मैंने
'अभी'पन का मद

वह गुजरता है बरसों के तानों- बानों से
अपना रस्ता तय करता हुआ
देखता है खुद को
रात के खंडहरों में
सो जाने के लिए
और फिर कभी भी
न दिखने के लिए

मैंने यह कविता लिखी
इसलिए
मैं होऊंगी कम मरी हुई
और तुम होगे ज्यादा मरे हुए
क्योंकि तुम इसे पढ़ोगे
बरसों के बाद




पिकासो 



● शायद इसलिए वे ज्यादा जीते हैं 

     (तुर्की कविता)
       शुकरुल्ला

मैं अभी तक
मेरे पिता की उम्र तक नहीं पहुंचा
फिर भी मुझे हैरानी है कि
कितना बीमार लग रहा हूँ
मेरे पिता मेरी उम्र में जानते नहीं थे कि
ये सब क्या है ?

इतना विषम मौसम मुझे बिलकुल पसंद नहीं
प्राण निचोड़ लेती हेमन्त की यह हवा
मेरी रगों को जमा देती है
केवल कौवों को ही ऐसे मौसम में मजा आता है
एकदूसरे के पीछे दौड़ते हैं
पर अखरोट हाथ आता नहीं

मेरे बचपन की स्मृतियाँ अभी तक ताजा हैं
कौवे शोर करते जोर से अखरोट
छतों पर फेंकते थे
शायद ये वही कौवें हैं !
कौवे इंसान से ज्यादा जीते हैं

मैं उनको इकट्ठा होकर कोहराम मचाते, खेलते
एकदूसरे के पीछे दौड़ते देखता हूँ
फिर भी कौवे कभी भी
दूसरे कौवों की आँखें नोचते नहीं
शायद इसलिए ज्यादा जीते हैं
शायद इसलिए उनका जीवन इतना लंबा है




● पाठ 

     (चेक कविता)
       मीरोस्लाफ़ होलुब

एक पेड़ आता है
और झुककर कहता है:
‘मैं पेड़ हूँ.'
एक काला आंसू
आकाश से गिरता है
और कहता है: ‘मैं पंछी हूँ.'

मकड़ी के जाल से सरकता हुआ
स्नेह जैसा कुछ
करीब आता है
और कहता है: ‘मैं मौन हूँ.‘

पर काले बोर्ड पर
शिथिल फैलता है
एक जनतांत्रिक घोड़ा, कोट पहने हुए
और एक ही बात
दोहराता रहता है
चारों ओर से कान धरकर
एक ही बात,
वही वही एक ही बात:

‘मैं इतिहास का इंजिन हूँ
और हम सब चाहते हैं
प्रगति
और हिम्मत
और यौद्धाओं का प्रकोप’

क्लास रूम के दरवाजे के नीचे
जम रहा है
रक्त का पतला सा झरना

क्योंकि
यहाँ से शुरू होता है
हत्याकांड निर्दोषों का





● पर्वतों का कूच

     (अमेरिकी कविता)
        हार्ट क्रेन

सारे शिखर क्षितिज पर
इकट्ठा हो गए
और मैं अभी देख ही रहा था
इतने में
पर्वतों ने कूच शुरू कर दिया
कूच करते करते
वे गा रहे थे :
'हाँ, हम आ रहे हैं !
हम आ रहे हैं !'





● नया युग 

     (चेक कविता)
       व्लाज़िमीर होलाना

चीजों के आकार के चलते
अभी तक हम बंधे हुए हैं
समय के साथ

पर आज
बोने वाला एक कदम आगे बढाए
इससे पहले ही
कटाई करने वाला
अपना ठेका लगाकर बैठ गया है वहां

लगता है
वहां न कोई मुरदा बचेगा
न कोई ज़िंदा...


पिकासो 




● दर्द की चौकसी और खुशी की धुंधलाहट के बारे में  

     (हिब्रू कविता)
       येहूदा अमिचाई

दर्द की चौकसी
और खुशी की धुंधलाहट के बारे में
सोचता हूँ

लोग डाक्टर के अस्पताल में
अपने दर्दों का बयान करते हैं, तब कितने चौकस होते हैं
जिन लोगों को पढ़ना-लिखना नहीं आता
वे भी चौकस होते हैं :
यहाँ लपलपाता दर्द हो रहा है, और यहाँ इतना दर्द कि
दुहरे हो जाए
यहाँ भयंकर दर्द होता है और यहाँ पर हलका सा दर्द
ठीक यहाँ पर... बराबर यहीं... हाँ, हाँ...

खुशी सब कुछ धुंधला बना देती है
प्रेम और उत्सव की रातों के बाद भी
मैंने लोगों को कहते सुना है : बहुत मज़ा आया
मैं सातवें आसमान में था
और बाहर के अवकाश में
अवकाशयान के साथ तैरता अवकाशयात्री भी
इतना ही कह पाया : अदभुत ! अपार अचरज !
मेरे पास शब्द नहीं हैं
खुशी की धुंधलाहट और दर्द की चौकसी के बारे में
मैं तेज दर्द की चौकसी से
धुंधली खुशी को बयान करना चाहता हूँ
क्योंकि मैं दर्दों के बीच बोलना सीखा हूँ





● खिड़कियाँ 

     (ग्रीक कविता)
       कोंस्तेन्तिनोस कवाफी

इस अँधेरे कमरों में
त्रासद दिन गुजार रहा हूँ
यहाँ-वहां, चारों ओर घूम रहा हूँ
खिड़कियों को ढूंढ़ता

एक खिड़की भी अगर खुले
तो कितनी राहत मिल जाए
पर खिड़कियाँ मिलती नहीं है
या तो फिर
उन्हें ढूंढ नहीं पा रहा हूँ

शायद,
यही बेहतर है कि
मैं उन्हें न ढूँढू
हो सकता है कि उजाला
किसी नये त्रास को ले आए
और न जाने कैसी कैसी चीजें दिखाए ?







● अस्तित्व

     (अफ़्रीकी कविता)
       डेनस ब्रीटस

मैं पेड़ हूँ
आंधियों में किचकिचाता
रात में अंधाधुंध
उच्छवास फेंकते तने वाला

मैं चद्दर हूँ
कांपती झोंपड़ी की
फौलाद सी चद्दर
यातना के उग्र प्रतिरोध में
हवाई खिड़की

मैं आवाज़ हूँ
चीत्कार करती रात की
शांत नहीं होगा
अनंत चीत्कार







● पंछी 

     (हंगरी कविता)
       आग्नेश नेमेश नोझ

एक पंछी उतर आया है
मेरे कंधे पर
जुड़वा पंछी,
पंछी मेरे साथ ही पैदा हुआ था
वह बढ़कर हो गया है
इतना बड़ा
इतना बोझिल
कि मेरा हर एक कदम
बन गया है असहनीय यातना

निष्क्रिय बोझ, निरा जड़ बोझ,
निरा जड़ बोझ मुझ पर
मैं उसे दूर धकेल दूंगी
वह तो ऐसे ही चिपक पड़ा है
उसने अपने नाखून
गाड़ रखे हैं मेरे कंधे पर
ओक वृक्ष के मूल की तरह

कानों से दो ही उंगल दूर : आवाज़
उसके दारूण पंछी-हृदय की धड़कन की
जब किसी दिन वह उड़ जाएगा
तब मैं तो फिसल पडूँगी जमीन पर !

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सम्पर्क: farook_shah@mail.com

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