30 अगस्त, 2018

कादम्बरी : जीवन का सच

विजय शर्मा



रवींद्रनाथ टैगोर का प्रभाव न केवल बंगाल, भारत और विश्व के साहित्य पर पड़ा वरन उनका प्रभाव साहित्य के अलावा अन्य कलाओं पर भी पड़ा। एक कला जिस पर उनका सबसे अधिक प्रभाव दृष्टिगोचार होता है वह है फ़िल्म। हालाँकि फ़िल्म कला और विज्ञान (तकनीकि) का संगम होती है। कवि के रचनाकर्म पर दुनिया भर में विभिन्न भाषाओं में करीब १०० फ़िल्में बनी हैं। पहले चूंकि फ़िल्म सेल्यूलाइड पर बनती थी अत: इनमें से अधिकाँश रील नष्ट हो चुकी हैं। बाकी बची हुई को संभालना आवश्यक है वरना आने वाली पीढ़ी इस विरासत से अनभिज्ञ रह जाएगी। वैसे अब नेशनल फ़िल्म डिवेलपमेंट कॉरपोरेशन यह काम कर रहा है। रवींद्रनाथ टैगोर के उपन्यास-कहानियों पर कई फ़िल्म निर्देशकों ने फ़िल्म बनाई हैं साथ ही रवींद्रनाथ टैगोर पर भी फ़िल्म निर्देशकों का ध्यान गया है। उनके जीवन और कर्म पर भी कई फ़िल्में हमें उपलब्ध हैं। हेमेन गुप्ता ने ‘काबुलीवाला’, सुधेंदु राय ने ‘समाप्ति’, तपन सिन्हा ने ‘अतिथि’, ज़ुल वेलानी तथा नागेश कुकुनूर ने ‘डाक घर’, अडुर्थी सुब्बा राव ने ‘मिलन’ (‘नौका डूबी’ पर आधारित), सुमन मुखर्जी ने ‘चतुरंग’, गुलजार ने ‘लेकिन’ (‘क्षुधित पाषाण’ पर आधारित), कुमार साहनी ने ‘चार अध्याय’ बनाई फ़िल्म बनाई है।

विजय शर्मा

स्वयं टैगोर ने अपने एक नाटक ‘नटिर पूजा’ पर एक मूक डॉक्यूमेंट्री बनाई थी। लेकिन उनकी ख्याति एक कवि, एक लेखक के रूप में अधिक है। रवींद्रानाथ ने जीवन में बहुत बाद में चित्रकला का अभ्यास भी किया और बहुत सारे चित्र बनाए। बड़े-बड़े दिग्गज फ़िल्म निर्देशकों ने उनके काम और उन पर फ़िल्में बनाई हैं। सत्यजित राय और ऋतुपर्ण घोष ऐसे ही दो बड़े निर्देशक हैं जिन्होंने टैगोर के काम और उनके जीवन को अपने काम का हिस्सा बनाया है। सत्यजित राय तथा ऋतुपर्ण घोष दोनों फ़िल्म निर्देशकों ने रवींद्रनाथ टैगोर के जीवन और कार्य पर अलग-अलग डॉक्यूमेंट्री बनाई। लेकिन दोनों एक-दूसरे से बहुत भिन्न डॉक्यूमेंट्री हैं। असल में दो नहीं बल्कि तीन लोगों ने रवींद्रनाथ पर डॉक्यूमेंट्री बनाई। बिजॉन घोषाल ने भी कबि के जीवन पर डॉक्यूमेंट्री बनाई है। यह निजी प्रयास से बनाई गई है और इन दोनों से बहुत अलग है। सत्यजित राय ने टैगोर पर डॉक्यूमेंट्री के अलावा उनके उपन्यास ‘तीन कन्या’ (तीन अलग-अलग कहानियों पर तीन भिन्न-भिन्ना फ़िल्में), ‘घरे बाहरे’, ‘चारूलता’ (‘नष्ट नीड़; उपन्यास पार आधारित) पर फ़िल्म बनाई।

सुमन घोष ने कई लोगों के काम का सहारा ले कर फ़िलम ‘कादम्बरी’ बनाई। फ़िल्म निर्देशक सुमन घोष के लिए फ़िल्म ‘कादम्बरी’ बनाना संतोष की बात रही है। लेकिन उससे भी बहुत ज्यादा यह फ़िल्म बनाना उनके लिए एक बड़ी चुनौती थी। क्योंकि इस फ़िल्म का कथानक एक ऐसे विषय को स्पर्ष करता है जिसे एक समय स्वयं रवींद्रनाथ टैगोर के परिवार ने छिपाने का प्रयास किया था, दूसरी ओर यह नाजुक विषय स्वयं रवींद्रनाथ और उनके एक बड़े भाई ज्योतिंद्रनाथ टैगोर की पत्नी कादम्बरी से जुड़ा हुआ है। यह टैगोर के जीवन का एक छोटा-सा परंतु बहुत नाजुक हिस्सा है। यह त्रासद कथा कवि के जीवन में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। अखा जाता है कि कवि अंत-अंत तक इसी संबंध पर रचना करते रहे। सुमन घोष ने इसके पहले कई लघु फ़िल्में बनाई हैं। यह पूरी लंबाई की उनकी पहली फ़ीचर फ़िल्म है।

सुमन घोष एक ऐसा नाजुक विषय लेते हैं, जिसमें जरा-सी चूक रवींद्रनाथ की गरिमा और सम्मान को ठेस पहुँचा सकती है। उनके ऊपर बहुत बड़ी जिम्मेदारी थी ताकि टैगोर के परिवार की प्रतिष्ठा पर आँच न आए और बंगाली भद्र समाज भी उठ खड़ा न हो। कादम्बरी की भूमिका के लिए उन्होंने कंकणा सेन शर्मा को लिया है। क्योंकि रवींद्रनाथ की भाभी कादम्बरी साँवली सुंदरी थी साथ ही बुद्धिमती भी थीं। कंकणा में भी ये गुण मिलते हैं। अभिनेत्री कादम्बरी की आंतरिक भावनाओं को अभिव्यक्त करने में कंकणा सेन शर्मा सक्षम रही है। आज टैगोर के जीवन का यह पहलु सर्वविदित है। उनके भाई-भाभी में उम्र का बड़ा फ़ासला था। शादी के समय कादम्बरी मात्र नौ वर्ष की एक बालिका थी। जबकि टैगोर के भाई की आयु इक्कीस वर्ष थी। बालिका कादम्बरी चूंकि टैगोर परिवार के एकाउंटेंट की बेटी थी अत: घर में उसकी स्थिति थोड़ी भिन्न थी।  मगर उसमें बुद्धि के साथ-साथ सुरूचि भी थी।

परिवार में रवींद्रनाथ उसके समवयस थे। वे भी शांत प्रवृति के एकाकी जीव थे अत: शुरु से दोनों खेल के साथी बन गए। बचपन से युवावस्था तक दोनों साथ थे। फ़िल्म दिखाती है कि ज्योतिरेंद्रनाथ (कौशिक सेन) पत्नी को प्रेम करते थे लेकिन अपने नाटकों तथा पानी के जहाजों को ले कर अधिक व्यस्त रहते थे, पत्नी को बहुत समय और ध्यान नहीं दे पाते थे। इस दृष्टि से ‘कादम्बरी’ ‘चारुलता’ के निकट खड़ी है। वैसे दोनों के चरित्र में बहुत अंतर है। फ़िल्म में युवा रवीद्रनाथ की भूमिका के लिए निर्देशक ने परमब्रतो चैटर्जी को उनके चेहरे के साम्य से अधिक उनके आंतरिक साम्य के लिए चुना है, ऐसा उनका कहना है। अभिनेता पूरब-पश्चिम का संगम है, साथ ही टैगोर और बांग्ला साहित्य पर उसकी अच्छी पकड़ है।

रवींद्रनाथ की यह भाभी कादम्बरी नि:संतान थी और नौ वर्ष की उम्र में डोली में आने वाली ठाकुरबाड़ी से २३ साल की उम्र में अर्थी पर गई। रवींद्रनाथ की मृणालिनी से शादी के तत्काल बाद उसने आत्महत्या कर ली थी। कहा जाता है कि अपनी वृद्धावस्था तक टैगोर उसे की केंद्र में रख कर रचनाएँ करते रहे। सुमन घोष ने अपनी इस क्लासिक-ऐतिहासिक फ़िल्म की पटकथा के लिए खूब शोध किया। मुख्य रूप से उन्होंने ‘छेलेबेला’ तथा ‘जीवनस्मृति’ जैसी टैगोर की रचानओं को खंगाला। चित्रा देब की ‘ठाकुरबारीर अंतरमहल’,  सुनील गंगोपाध्याय का ‘प्रथम आलो’, मल्लिका सेनगुप्ता की ‘कबीर बौथा’ के साथ-साथ उन्होंने टैगोर के विशेषज्ञों, जैसे प्रशांत कुमार पाल, प्रभात मुखर्जी, कृष्ण कृपलानी, अरुणा चक्रवर्ती, ज्ञाननंदिनी, बिनोदिनी दासी तथा सुधीर कक्कड़ के काम का भी सहारा लिया है। फ़िल्म का संगीत बिक्रम घोष ने दिया है। संगीत में कई परम्परागत संगीत यंत्रों का प्रयोग हुआ है। खासकर विद्यापति का गीत बहुत कर्णप्रिय बन पड़ा है। इनडोर और आउटडोर दोनों लोकेशन का का फ़िल्मांकन बहुत खूबसूरती से हुआ है जिसका श्रेय बरुण मुखर्जी को दिया जाना चाहिए। कवि के जीवन के एक मार्मिक काल खंड को परदे पर लाने का ईमानदार प्रयास! इस मार्मिक-करुण-त्रासद कहानी को परदे पर देखने से दर्शक की संवेदनशीलता में अव्शय इजाफ़ा होगा। इसे देखा जाना चाहिए।
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Dr. Vijay Sharma
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