23 सितंबर, 2018

भास्कर चौधुरी की कविताएँ



भास्कर चौधुरी 






कठपुतलियाँ – दो कविताएँ


1..

वे कठपुतलियाँ नहीं हैं
असल में हम जिन्हें कठपुतलियाँ कहते हैं
वे तो प्रेम करने वाली आकृतियाँ हैं
नचाने वाली उंगलियों के प्रेम में पगी

वे कठपुतलियाँ नहीं हैं
वे तो उंगलियों वाले की ज़रूरत हैं
जिसे पूरा करने का रास्ता
उंगलियों के रास्ते पेट तक जाता है

असल में हम हैं कठपुतलियाँ
और हम हमारी डोर हाथों में हैं जिनके
उन्हें पहचानते भी खूब हैं
हमारा उनका सम्बंध प्रेम का भी नहीं है
वे दरअसल हमारे आका हैं
और हम गुलाम स्वतंत्र देश के !!


2...

कठपुतलियाँ ही तो हैं –
डोर से बंधें हमारे हाथ
हमारी उंगलियाँ –
हाथों और पैरों की भी
हमारे सर कान और होंठ
आँखों की पुतलियाँ भी
समझती है उन्हीं की भाषा
जिनके हाथों में होते हैं
डोरियों के छोर
कोई अफसर सफेदपोश
नेता या
झबरे बालों वाला भगवान कोई
बाबा गेरुआ वस्त्रधारी
या रंग-बिरंगा
बलात्कारी !!





गुमनाम सैनिक

1..
वह सैनिक मर रहा था
आस-पास चंद चिनार के पेड़ थे
आदमी कोई न था
उसका शरीर गोलियों से छलनी था
पर अभी सांसे चल रही थीं
दिमाग जाग रहा था
उसने सोचा -
वह मर रहा है
शायद इसलिए कि
चलती रहे देश की सांसे
और जीता रहे देश -
पर तभी हिचकी आई
मर गया सैनिक
जीता रहा देश ।



2...

दो गुमनाम सैनिक
लड़ पड़े आपस में
तीसरे गुमनाम सैनिक ने
कोशिश की बीचबचाव की
पर वह नाकाम रहा
पहले सैनिक ने दूसरे पर बंदूक तान दी
पहले उसे मारा
फिर खुद मर गया
तीसरे गुमनाम सैनिक ने बताया
दोनों की छुट्टियां खत्म कर दी गई थी
छुट्टियाँ शुरु होने से पहले ही …



3...

गुमनाम सैनिक का नाम
अचानक पता चल गया है लोगों को
जबसे वह बाढ़ में फसें
बच्चों और बूढ़ों को बचा रहा है..



4...

गुमनाम सैनिक मारा गया
सीमा पर
कहते हैं गोली लगी पहली ही
दुश्मन देश के घुसपैठियों की
शहीद हो गया गुमनाम सैनिक
अब नामी मंत्री
फूल चढ़ा रहे हैं
ताबूत पर उसके ॥





शर्म

बिहार के भोजपुर जिले के बिहिया शहर में
भीड़ ने निर्वस्त्र किया एक महिला को
और उसके पीछे दौड़ रही थी
मैं यह सब देखता रहा
अपने घर की छत पर खड़े
धंस गए मेरे पैर
कांक्रीट की छत पर सूराख हो गया हो जैसे
मुझे शर्म आ रही थी अपने बिहारी होने पर ...

कश्मीर के कठुआ में
आठ साल की लड़की का
मंदिर का देखभाल करने वाला
पुलिस वाला और कुछ लड़के
बलात्कार कर रहे थे
बाद में बलात्कारियों में से एक जो नाबालिग था
उसने अधमरी लड़की के सर पर पत्थर मारा
और तब तक मारता रहा जब तक थम नहीं गई उसकी सांसें
नेताओं ने इसे हिंदू मुसलमान झगड़ा बताया
लोगों ने बलात्कारियों के समर्थन में जुलूस निकाला
मैं देखता रहा सब कुछ
मेरी आँखे फटी रह गई
आवाज हलक में फंस गई
हाथ पैर सुन्न पड़ गए
मुझे शर्म आ रही थी गए अपने कश्मीरी होने पर...

उत्तरप्रदेश के बिसाहड़ा गाँव में अखलाक को मार रही थी भीड़
जाने क्या था अखलाक का अपराध
अखलाक अपराधी था भी की नहीं
भीड़ में किसी को पता न था
चंद क़दमों की दूरी पर एक प्राथमिक शाला की
कक्षा चार के दरवाजे के पास खड़ा था मैं
सारा मंज़र मेरी आँखों के सामने घटा
मेरी आँखों के पोर गीले हुए
मैं अखलाक को पिटते और पानी-पानी कहते सुनता और देखता रहा
मुझे अपने उत्तरप्रदेशी होने पर शर्म आ रही थी...

मुझे शर्म आ रही थी अपने बिहारी, कश्मिरी, उत्तरप्रदेशी होने पर...
मुझे शर्म आ रही है अपने आदमी होने पर... ॥








आग

जैसे ही सरकारी सिपाहसलार ने
अलमीरा से खींचकर निकाला किताबों को
हरहराते निकल आईं बहुत सारी किताबें
हड़बड़ाकर ऐसे खींचा
सिपाहसालार ने हाथों को
मानों छू लिया हो उसने आग
और वह भागा पानी पानी करते..।
000                                                          

भास्कर चौधरी की और कविताएं नीचे लिंक पर पढ़िए
https://bizooka2009.blogspot.com/2016/10/blog-post_8.html?m=0

भास्कर चौधुरी
1/बी/83
बालको (कोरबा)
छत्तीसगढ़ 
495684
मो. 9098400682
bhaskar.pakhi009@gmail.com

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