27 सितंबर, 2018

कहानी:

जै हिन्द
नंद किशोर हटवाल



नंदकिशोर हटवाल 




हीरा की बकरियाँ थाली बुग्याल पहुँच गई।
‘‘हो प्पापा रे! यहाँ से आगे तो एकदम चैना लग जायेगा!!’’ हीरा बड़बड़ाया। थाली बुग्याल से छ्वोरी खर्क नहीं दिखता है। जहाँ पर उनका तम्बू है। न साथी पालसियों की ‘टोख’ सुनायी पड़ती है! एकदम्म सुन्न बुग्याल है थाली!
बकरियाँ भी आज थिर-थम नहीं। उनको दो हफ्ते से नमक नहीं खिलाया। मंगल सिंह गया है नमक लेने। नमक नहीं खाया तो स्वाद खतम। चरने में दाँत नहीं लगते..!
..अब दाँत क्या लगने...अबि तो दाँत टूटेंगे तुमारे! नमक की टपट्यास लग गयी!.. आज-कल की तो बात है..! मंगल लायेगा तब तो खिलाऊंगा..! खच्चर नयी मिल रे होंगे! कल तक खिला देंगे...। कुछ थिर-थम रखो!
पर बकरियाँ क्यों सुनती हीरा की। चरते-चरते थाली बुग्याल से आगे चली गयी।...इनके आज दिम्माक खराब हो गया... वोक्क् बाग्ग!....अब चैना में जायेंगी क्या नमक खाने?

हीरा ने बकरियाँ वापस खदेड़ी....वोक्क  वोक्क..बाग्ग। हीरा ने झुंझला कर बाघ की गाली दी बकरियों को।
हीरा का साथी मंगल सिंह जोशीमठ गया है। बकरियों को नमक, राशन-पाणी लेने। कुछ भी तो नहीं बचा था-खाणा-पीणा, बीड़ी-तम्बाकू, चाय-चीनी। परसों का गया नहीं लौटा। आया होगा कि नहीं......कैसे पता चलेगा!
हीरा ने एक जेब से चिलम निकाली। दूसरी जेब से तम्बाखू की थैली। लास्ट डोज है! थैली एक बार उसने फिर वापस रख दी। लास्ट अबि पी लूंगा तो फिर क्या पियूंगा? पर इस बार नहीं माना मन। उसने थैली झाड़ दी अपने हाथ में। एक चिलम तम्बाखू निकल गया। हीरा तम्बाखू को अपने दोनो हाथों से मसलने लगा। धीरे-धीरे, देर तक। उतनी देर तक जितनी देर तक उसका मन माने। ...कबि कबि पल काटने में जुग लगता है।
हीरा ने तम्बाखू की कश खींची। खी-खी-खी खाँसी। और फिर होऽक, हो ऽक, होऽक। खाँसी का बकरियों की ‘हाँक’ में रूपांतरण किया।

उसने कोट की जेब टटोली ..बीड़ी तो पैले ही खत्तम् थी..अब तम्बाखू खत्तम्। और दूर-दूर तक कोई नहीं। सलूड़ वाले पालसियों के बाखरे आज सैद ल्वाजिंग के पली तरफ चले गये। मंगल न जाने कब तक आयेगा! ...जब तक खच्चर नयी मिलेंगे तो कैसे आयेगा? नमक लाना है..। मंगल सिंह अपने मालिक जग्तू के यहाँ पीने बैठ गया होगा...।.... साला खाणा-पीणा दो-तीन दिन तक न भी मिले तो सैन कर सकता है वो..... मगर बीड़ी तम्बाखू के बिगर एक मिलट भी.....।

बकरियां अब थाली धार पर आ गयी हैं। वहां पर फुर्र फुर्र फुर्र फुर्र करती ठण्डी हवाएं हैं। सामने पंचचूली और चौखम्बा के हिंवाले पौड़। हीरा कुढ़ता उन पहाड़ों से..साला ये पौड़ भी ह्यूं (बर्फ) अपनी खोपड़ी पर अटका कर हवा चचकार (ठण्डी) बणा देते हैं...मेरे को तो नयी जमा ये...। वो बर्फ पर चिढ़ा..ये साला पिघलता भी नहीं! ठण्ड को कोशा... ठण्ड साली ठीक नयीं है ये! ...असल बात बरफ और ठण्ड नहो तो..।
हीरा ने अपनी कनबुज्या टोपी गर्दन तक खींची और नाक से बहते पानी को साफ कर हो-बाऽग कहा।..एक-आद चिलम और होता....तम्बाखू तो कुछ गर्मी लगती.......।

उसने हाथ तम्बाखू पीने के अंदाज में बाँधे और मुँह की हवा से हाथों को गर्म करने लगा।.... हटाओ! अब ताकू भी नयीं काता जाता।

वो बकरियों के पीछे-पीछे थाली धार के दूसरी तरफ आ गया। वहाँ से टिमरसैंण दिखता है। बहुत नीचे। वहाँ पर कुछ सूने बंकर थे।....उनमें सैद कुछ मलेटरी वाले आ गये हैं।....बाहर बैठे घाम ताप रहे हैं।.....नयीं....ठाठ से ताश खेल रहे हैं.......।
हीरा को फौजी जीवन अच्छा लगता है।..... बस अपने खाणे-पीणे का सारा इंतजाम फिट रहता है उनका.....। बल्कि जादा ही रहता है उनके पास....। जो सिगरेट पीता है उसके लिए सिगरेट है जो बीड़ी पीता है उसके लिए बीड़ी है...।. मीट भी है.....। वो भी डब्बा पर बंद वाला अलग और सौदा बाखरा अलग..। उनका पार्कर कोट तो इतना गरम होता है कि कैसी-कैसी ठण्ड का कोई बस नहीं पार्कर के सामने....।

हीरा को लगा कि उसके दोखे के अन्दर कहीं से ठण्डी हवा जा रही है। उसने टटोल कर देखा, पीठ की सिलायी उधड़ी है। दोखे के पल्ले खींच कर लपेट लिए थे इसलिए सिलाई उधड़ गई। उसने पागड़ा ढीला किया। पल्लों की कसावट कम की। पर अब आगे से हवा जाने लगी है।

खित्त...खित्त। उसे हँसी आ गई। ये मंगल भी कबि कबि क्या बात बोलता है....मेरे मालिक साब... जग्तू ब्वोक्ट्या....स्वेटर के बाहर ऊनी ओबर कोट पहन कर उसके बाहर से जो पश्मीना ओढ़ता है, काश कि उसकी गर्मी मुझे लगती.... हा! हा!! हा!!! अर ये ठण्ड उसको.....। ब्वोक्ट्या बोलता कि ये ठण्डा कैसा लग गया मुझको....इतना कपड़ा पैना है...। तबी पता लगता उसको कि ठण्डा कैसा होता है.....। खित्त खित्त...। मंगल के डैलोक...भेड़ बाखरों की ऊन तब गरम होती है....जब वो आदमियों ने पैनी हो....न कि भेड़ों ने। इन भेड़ों से निकाली और उस भेड़ पर पैनायी...। जग्तू ब्वोक्ट्या....खित्त खित्त खित्त...।
भूख ने हीरा पर फिर झपट्टा मारा।







 इन बुग्यालों में इतनी भूख फैली होती है साली कि.... जिसकी कोई हद नहीं..... । हीरा ने भूख पर चिढ़ निकाली। बचपन में जब भी उसे भूख लगती थी उसकी माँ भूख को कोशती। कहती थी कि भूख राक्स्योंण (राक्षसी) होती है। इसको काबू करना पड़ता है। नहीं तो ये इंसान को खा लेती है। इसी सीख के कारण भूख आज तक उसका कुछ नहीं बिगाड़ पायी। भूख की ऐसी तैसी साली...। पर तम्बाखू....। बंकर पर जाकर ही तम्बाखू-पाणी का जुगाड़ बिठाणा पडे़गा....।
बकरियों का गोठ सीमा पार जाने को आतुर है! और कालू सो रहा है। उसने गुस्से में अपना डण्डा कालू की ओर फेंका।...साले को सुबह ठोक कर थांग्थू खिलाया है...और मजे से सो रा है! बाग फाड़े ढाड! हीरा ने मन ही मन कालू को गाली दी। धौलू भी पूंछ हिलाता खड़ा हो गया।
बकरियों के गोठ को कालू-धौलू के हवाले छोड़ थाली धार से लड़खड़ाता हुआ हीरा ट्यमरसैंण में बंकर के सामने पहुँचा।
‘‘जै हिन्द सुब्दार साब!’’ हीरा फौजियों के रैंकों को पहचानता है। ....हवलदार को सुबेदार साहब कहकर पटाया जा सकता है!
‘‘जै हिन्द! जै हिन्द!!’’ हवलदार ने ताश का पत्ता फेंकते हुए कहा।
‘‘आप याँ पर कब आये सर?’’ हीरा ने मुस्कराते हुए पूछा। वो सूरत से ही पहचानने में माहिर है कि ये गढ़वाल राइफल वाले हैं, ये गोरखा रेजीमेन्ट के हैं, ये सिख रेजीमेन्ट के हैं, ये डोगरा रेजीमेन्ट के आदि।...इनमें खिलाणे-पिलाणे के मामले में सिख रेजीमेन्ट के लोग सबसे जादा दिलदार होते हैं.....।
हवलदार का ध्यान ताश में था। उत्तर देने में देर हुई, ‘‘कली तो आये...। पालसी हो?’’
‘‘जी सर’’
हवलदार ने एक नजर हीरा को देखा, ‘‘कहाँ के हो?’’
‘‘पगनों के हैं सर।...ऊपर धार में इतनी हवा चल रही है कि बस! याँ पर ठीक आड़ है...और मेरे पास बीड़ी तम्बाखू भी खत्तम है।’’
हवलदार ने सुनकर भी नहीं सुना। कुछ देर की चुप्पी के बाद हीरा ने फिर कहा, ‘‘उधर तो पाणी का भी कयीं नाम नयीं है सर! बड़ी प्यास लग गयी। सोचा साब लोगों के पास से पाणी पीकर आता हूँ।’’ पानी ही ऐसी चीज है जिसे माँगने में संकोच नहीं होता।
‘‘वहाँ अन्दर नैक रामसिंग है, उससे माँगो।’’ हवलदार ने ताश का पत्ता फेंका।

हीरा बंकर के अंदर गया। खाने की खुशबू का एक भभका उसकी नाक से होता हुआ प्राणों तक पहुँचा। कहाँ से आ रही है ये सुगंध! दुनियाँ की सबसे अच्छी सुगंध..। वाह! बहुत सारा तैयार खाना बचा पड़ा है! हीरा के हाथ में ठण्डे पानी का गिलास है।...अब ये तो पीणा पड़ेगा। एक गिलास पानी गले के नीचे उतारा हीरा ने। अन्नदेवता! हीरा की माँ कहती थी...अन्न देवता होता है! भूख राक्स्योंण। अचानक उसके हाथ जुड़ गए...देवता! दाल-भात सब्जी-रोटी चावल। इन लोगों पे खाने की कमी नयीं होती।....आज सुबह का होगा ?..... कल का होगा तब भी चलेगा..... परसों का भी होगा तो.....अन्न देवता हैं... इस ठण्ड में खराब थोड़े ही होते हैं..।
पर ना कह दिया तो? ....अब इंसान का कोई पता थोड़े लगता..। कैसे कैसे टैप के होते हैं।...ऐसा नहीं है कि फौजी हैं तो सब अच्छे ही होंगे।...खराब भी होते हैं। अनिच्छा से अपमान पूर्वक रोटी-सब्जी मेरी तरफ फेंकी तो? ...गले के नीचे कैसे उतारूँगा......।
हीरा बंकर से बाहर आया। हवलदार के बगल पर बैठते हुए बोला, ‘‘सर हम लोग कल बकरा मार रे हैं। मीट.....’’
‘‘क्या?’’ हवलदार का ध्यान हीरा की ओर खिंच गया। पहाड़ी बकरे का मीट! बहुत समय हो गया खाए हुए। उसका टेस्ट कुछ और है।
‘‘हाँ सर! हम दो ही आदमी हैं, बकरा ‘टन्न’ है। हम तो खा नहीं पायेंगे पूरा बकरा, हमने सोचा...।
‘‘तो हमें दे देना यार, पैंसा बता देना?’’ ताश का खेल कुछ देर के लिए थम गया था।
‘‘पैंसा-वैंसा क्या सर, हो जायेगा।....और क्या...अब इतना बि क्या है! आप लोग बि तो हमारी रक्षा कर रहे हो! इतना क्या हमारा फरज नहीं होता?’’
क्या बात कह दी हीरा ने। फौजियों को अच्छा लगा। प्यार में ताकत तो होती ही है। हवलदार थोड़ा नरम हुआ।
‘‘अरे रक्षक तो आप लोग हो भाई ...जो सीमाओं की चौकसी करते हैं। असली रेकी तो तुम करते हो। तुमारा सहारा नहो तो हम भी क्या कर पायेंगे।’’






‘‘मैं लेके आऊँगा सर...एक पोलीथीन...थैला.. कुछ देदो..’’ भोजन की खुशबू से हीरा अधीर हो गया था।
‘‘रामसिंग इनको एक थैला दे दे...। ले आणा जितना भी होगा!..ठीक है।’’ हवलदार गड्डी फेंटते लगा।
‘‘चिंता नी करो सर जी...। वो तो आजी था पुरगराम हमारा..बकरे का...। पर साथी सामान लेणे गया कल का...। अबि तक नयी लौटा...। हद है! आज तो सुबह से ही खाणा नी खाया सर...कल साम को बि दो आलू बचे थे सिरप.। पता नी काँ टप गया साला....।’’ हीरा ने मंगल पर नकली गुस्सा दिखाया।
‘‘अरे! तो बताया क्यों नहीं....’’ हवलदार ने कहा। ‘‘अन्दर नैक रामसिंग से बोलो, खाणा बचा है, खालो।’’
हीरा फिर बंकर में घुसा। जै!हो!! सही मन से देवता को चाहो तो मिलता है! भूख राक्स्योंण से अन्न देवता ही हमारी रक्षा करते हैं, माँ ठीक बोल्ती थी।
हीरा ने धीरज के साथ, मान के साथ खाना खाया।

तृप्ति..! अन्नमै प्राण...। छक्क खा लिया हीरा ने। आलस छाने लगा अब। लेटना चाहता था हीरा पर...बकरियाँ! अब...बकरियों की चिंता आलस पर भारी पड़ गई।
आते समय उसने हवलदार से एक सिगरेट माँगी। एक फौजी ने पूरा पैकेट दे दिया हीरा को। हीरा ने पैकेट जेब में डाला और ‘जै हिन्द!’ कहकर भरड़ की तरह पहाड़ी पर कुलाँचे भरता बकरियों की तरफ दौड़ पड़ा।....और तो कुछ नयीं पर कहीं चैना बौडर पार न चले जाँय बकरियाँ।

वो हाँफता वहाँ पहुँचा। ऐई श्याब्बास! मेरे पौर्यो..! उसने कुत्तों को शाबासी दी। बकरियाँ उनकी पहरेदारी में चर रही थीं। बकरियों को रोकने के लिए चाइना की तरफ खड़े थे कालू-धौलू। स्वी.. स्वी..। उसने प्यार से एक पतली सीटी कालू-धौलू के लिए बजाई। वोक वोक वोक...ओक हा! बकरियों के लिए मोहब्बत की हाँक मारी।
साम घिरने लगी थी। ..खर्क लौटने की बगत हो गई। वोक वोक वोक...ओक हा! बकरियों का गोठ इकट्ठे हो कर खर्क के रास्ते लग गया।...क्या कहा हवलदार ने.... रक्षक तो आप लोग हो भाई ...जो सीमाओं की चौकसी करते हैं। असली रेकी तो तुम करते हो। ...सही कहा हवलदार ने। वो जानता है...। बहुत समझदार लगा मुझे..। अच्छा पढ़ा-लिखा होगा...अच्छे घर का इंसान...!








हीरा ने देखा खर्क में धुआँ उठ रहा है। मंगल सिंह आ गया सैद!
मंगल ने आग जला कर चावल चढ़ा लिए थे। कालू-धौलू के लिए थांग्थू बन चुका था। हरड़ की दाल तैयार थी, हीरा की खास पसंद। मंगल का खट्टा पेट होता है हरड़ खा के...। अक्सर वो मना करता हरड़ बनाने को। पर आज उसने खुद बना दी। ...भूख के कारण दूसरे पर च्योंग आती है हीरा को!

पर हीरा आग तापते हुए सिध्वाली गुनगुनाने लगा-
द्वी भाई रमोला, छोमा छोमा।
घांघू का पुत्तर, छोमा छोमा।
मैंणा का लाड़ला, छोमा छोमा।
तनि रैका रम्वोला, छोमा छोमा।
सिधुवा-बिधुवा की गाथा।..वो भी तो पालसी थे..हमारी तरह! द्वी भाई रमोला।


भादो खत्म होने को था। दो-चार दिन से मौसम साफ चल रहा था। दिन में चटक धूप लगती। पर धूप छुपते ही सरसराती हवा चलने लगती। छ्वोरी खर्क के आगे से बलखाती धौली हवा की ठण्ड बढ़ा देती। हीरा ने धौली की तरफ देखा आह! गंगे तरंगे!
‘‘बैठ भायी मंगल। क्या लगा है तू काम पर..। अरे हो जायेगा सब!’’ हीरा ने लकड़ियों को चूल्हे में ठेलते हुए कहा।
मंगल हैरान है। आज कुछ बात तो है जो हीरा इतना खुश है। हीरा ने जोर की डकार ली। डकार का मतलब? न बीड़ी न तम्बाखू, न खाना न पीना....। डकार आने का क्या मतलब होता है?
हीरा ने जेब से सिगरेट का पैकेट निकाला। ठक-ठक उंगली से पैकेट को दो बार ठकठकाया। ठीक अपने गांव के .रिटा0 कैप्टैन दारवीर सिंह रौतेला.. उर्फ दानीका....मतलब दानी काका की तरह। उसी सलीके के साथ एक सिगरेट मंगल की ओर बढ़ाई।
‘‘ये सिगरेट?’’ मंगल समझ गया कि कोई फौजी टकरा है। पर उससे पूरा पैकेट कैसे निकल गया! अब कोई फिरी का तो मिलता नयीं फौज में पैले की तरह। पैले तो तारगेट, खुंखरी, नं. 10, गोल्डफलैक सिकरेट, मिलेटरी को फिरी होती थी...नौट फार सेल। ...उसने बि भौत सिकरेट फूंकी है फौजियों की पैले...पर अब..।
‘‘टिम्बरसैंण में जो बंकर हैं उनमें कुछ फौजी ठहरे हैं।’’ हीरा ने सिगरेट सुलगाते हुए कहा।
‘‘तुमको पता कैसे चला?’’
सीमाओं पर चौकसी के लिए बने खाली बंकरों में यदा कदा फौजियों का आना पालसियों के लिए उत्सव हो जाता है। नए चेहरे दिखते हैं। पर कई बार पता नहीं चलता।
‘‘बकरियाँ आज थाली धार की तरफ लगी, वहाँ से दिखता तो है टिम्बरसैंण।’’
‘‘हाँ हाँ दिखता है।’’
और फिर हीरा पूरा किस्सा सुनाने लगा। धीरे-धीरे। किसी सफल अभियान के नायक की तरह। बीच-बीच में सिगरेट पिलाता गया मंगल को, खुद भी पीता गया। और अंत में ‘‘दुन्याँ में ठाठ हैं लोगों के’’ कहकर हीरा दुनियाँ के बारे में सोचने लगा।

हीरा की दुनियाँ। माने अपना गाँव, जोशीमठ का बाजार, टिम्बरसैंण का बंकर, थाली, लफ्तिल, रिमखिम के बुग्याल और भाबर के जंगल। इस दुनियाँ के बाहर भी एक दुनिया है। वो बहुत बड़ी है। हीरा के खयालों में नहीं समा सकती। बहुत बाहर है। हीरा को नहीं छू सकती। और ठाठ करने वाले लोग हैं फौजी ...आर्मी परसन..।
ऐशो आराम और बिलासिता के संसार में फौजी नं0 1 हैं। उससे ऊपर हीरा की दुनिया में दिखा नहीं कुछ। वो दुःखी रहता है कि उससे गया-बीता कोई नहीं और खुश भी कि उसके अपने संसार में उससे बेहतर सिर्फ आर्मी परसन हैं। वो सिरप एक सीढ़ी नीचे!

हीरा ने बचपन से फौजियों के ठाठ-बाट देखे। छुट्टी पर घर आना। उनका नाम-नम्बर लिखा काला बक्सा, कई बार तो उसने पहुँचाया है गाँव तक.....। लैंची चने के लालच में। फट्ट-फट्ट करती नयी चप्पलें, उनका सिगरेट पीना। देश विदेश के किस्से हिन्दी में सुनाना। .....फिट्ट हिसाब किताब रहता आर्मी परसन का...। फौजियों के घर पर सजी बैठकें, पीने-पिलाने का दौर...। दुन्या-समाज में इसीलिए उनका मान है!
....हर कोई पूछता है कितनी छुट्टी आये हैं... कब जाना है... कहां पोस्टिंग है... ये किस तरफ हुआ... कितने दिन का रास्ता है...। कितनी पूछ है उनकी!
...पढ़ लेता तो भर्ती हो जाणा था। साला फिट बौडी थी...। ...लैन में खड़ा हो गया था लैंसीडोन...में..। तब पता चला कि आठ पास चाहिए। हत्त तेरा भला! सीधे घर आ गया।..पढ़ने के टैम पे बाप मर गया था।
हीरा का बाप भी नन्दन मुच्छड़ का पालसी था। वो एक पहाड़ी से बकरियों को पार करने के चक्कर में नीचे लुड़क गया था। तो नंदन मुच्छड़ ने हीरा को ‘नौकरी’ पर लगा दिया।
आर्मी में न जा पाने का उसे आज भी अफसोस है।






यू आर जस्ट लैक आर्मी परसन। भौत टफ लैफ है।  ..रिटा0 कैप्टैन दान सिंह रौतेला उर्फ दानीका खुद मेरे को बोला था।
‘‘....पर सुण यार...बकरा बकरा..’’ हीरा चौंका। मंगल उसको हिला हिला कर कुछ कह रहा है। ....हवलदार को बकरा देने वाली बात...। ...दो मैना हो गया...हमने बि मीट नयीं चाखी।...मंगल के मुँह में पानी भर आया।
सौदा घाटे का है पर जुबान निकल गई! जुबान भी कोई चीज होती है। बिस देना बिस्वास नहीं। एक बाप की एक जुबान, सौ बाप की सौ जुबान। जो बोल दिया सो बोल दिया। मरद की जुबान...।
‘‘ये बात तो ठीक है!कि जुबान निकल गई तो निभानी है।’’ मंगल ने कहा।
‘‘अब देख मंगल, बाग बोल्ता मी खाता, च्यांकू बोल्ता मि खाता, थरबाग बोल्ता मि खाता, मसाण बोल्ता मि खाता अर द्येबी-द्यब्ता बोल्ते हम खाते..। जो सबकी रक्षा करते हैं वे बि बकरी खाते....तो..तो...ये आरमी वाले बि तो हमारी रक्षा करते..।’’
‘‘ये बिल्कुल सयी बात है!’’
‘‘इधर बौडर पे इन लोगों को हमारा भौत सारा रैता है..बिना हमारे ये कुछ नयी कर पाते।’’
‘‘ये तो सयी बात है भाय! क्या कर पायेंगे?’’
‘‘दानीका इसलिए तो जस्ट लैक आर्मी परसन बोल्ता है हमको!’’
‘‘दानीका जो बोल्ता एकदम फिट बात बोल्ता है। आल्तु-फाल्तु की बात नयी बोल्ता।’’
‘‘आर्मी में कोयी कैप्टैन बण के दिखाये!..ऐसेयी थोड़ी हो जाता कोयी।’’

सुबह उठते ही मंगल थमाली पल्याने लगा। हीरा ने गोठ से ‘टन्न’ लगोठा छाँटा। जैसा कि जुबान दी थी। चालीस-पैंतालीस किलो मीट निकल गई उस पर। एक सिरी-दो फट्टी खुद रखी और बाकी पैक कर ट्यमर सैंण की तरफ चल दिया।
वहाँ पहुँचा तो बंकर खाली। अरे ये कहाँ निकल गए। जाने के रास्ते जहाँ तक नजर पहुँच सकती थी वहाँ तक नजर दौड़ाई। कहीं नहीं दिख रहे थे। हाँ, उस रास्ते ऊपर आता कोई दिख रहा था।...बिणै का जितसिंग।
’’वो तो चले गये वापस। अब तक तो र्योलू बगड़ पहुँच गए होंगे।’’ जितसिंग ने कहा।
धोखा!! हीरा की छाती पर जैसे किसीने बहुत बड़ा पत्थर बाँध दिया!
‘‘पर हुआ क्या?’’
हीरा कुछ नहीं बोला। कैसे बोलेगा जितसिंग से। बदनामी होगी। और वो बेतहाशा र्योलू बगड़ की तरफ भागने लगा।...कोई उसने जानबूझ के थोडे़ ही किया...। हीरा खुद को समझा रहा था?
सुब्दार साब! उसने बाम्पा धार से आवाज दी। नीचे घाटी में वापस जाता हुआ उनका ट्रूप दिख गया था। आवाज पहाड़ियों से टकराती हुई वापस आ रही थी। सैद सुब्दार नयीं सुन रा..। वे लगातार आगे बढ़ रहे थे। हीरा ने अपनी अनामिका मोड़कर कर मुँह में डाली और लम्बी पट्टासुड़ी मारी। स्वी स्वी स्वी स्वी। आवाज पहाड़ियों से टकराती, सन्नाटे को चीरती हवलदार के कानो तक पहुँची। शायद कोई कुछ बोल रहा है। वे रूक गए। रास्ते की लकीर से हवलदार अपनी नजरों को वापस दौड़ाने लगा तो ऊपर उन्हें हीरा आता दिख गया। वो हाथ हिला रहा था।
पता नहीं क्या बात है! वे बैठ कर इंतजार करने लगे। काफी देर बाद पीठ में पिट्ठू लगाये हीरा उनके सामने उपस्थित था। वो हाँफ रहा था।
‘‘क्या बात हो गई?’’ हवलदार ने पूछा।
‘‘हद हो गयी सर जी! अरे सर कल बता तो देते कि...। ये तो धोखा हो गया था सर जी।’’ हीरा ने  पिट्ठू से मीट का थैला निकालते हुए कहा।
थैला देख कर हबलदार सर पकड़ कर हँसने लगा, ’’ओहो! यार...वो तो कल यूँही....। अरे यार..तुमने सचमुच...। साम को वायरलैस आया...कि र्योलू कैम्प पहुँचो..। अबे यार तुम इतना भाग कर....। बताओ दस किमी होगा...। ये पिट्ठू लाद के लाए...इतना भारी!’’ हवलदार को बड़ा अफसोस था, कल की बात पर। ‘‘सचमुच! वो तो यूंही...अब...ये तो गलत हो गया...गलत हो गया..।’’
‘‘तुमने मेरी छाती का पत्थर हटा दिया सर जी!’’
‘‘पर .....!’’
‘‘जै हिन्द सुब्दार साब!’’ इससे पहले कि हवलदार कुछ सोचे हीरा ने खाली पिट्ठू संभाला और कुलांचे भरता वापस चला आया।

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सम्पर्क : एच 323, नेहरू कॉलोनी, देहरादून, उत्तराखण्ड, 248001
फोन : 9412119112


1 टिप्पणी:

  1. वहीं की भाषा में लिखी कहानी अचछी लगी वहां की जिंदगी की झलक भी

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