14 अक्तूबर, 2018

परख इक्कीस

औरतें कवि होती हैं....
गणेश गनी


नीरज नीर का से कविता संग्रह ऐसे समय में आया है जब कवियों की भीड़ साहित्य के हवाई अड्डे पर बढ़ती ही जा रही है। कई लोग जैसे कैसे टिकट का बंदोबस्त करके बस एक बार उड़ना चाहते हैं। उड़ान का अपना ही आनंद है। कुछ लोग सोशल मीडिया पर अपना आभामंडल निर्मित करके वैसे ही हवा में हैं। कुछ तो हवाबाज़ी के उस्ताद हैं।

नीरज नीर

ऐसे में किसी के कहने या लिखने भर से आप साहित्य जगत में स्थापित नहीं हो सकते। मूल्यांकन तो बरसों बाद भी हो सकता है। नीरज नीर अपनी कविताओं में बारीकी से छोटी छोटी बातों को उठाते हैं, जिनमे बड़े मुद्दे छुपे होते हैं। कई स्थानों पर किसान, मजदूर, आदिवासी आदि आदि का ज़िक्र बड़ी साफ़गोई से किया गया है और प्रश्न खड़े किए गए हैं-

पेट भर रोटी के नाम पर
छीन ली गई हम से
हमारे पुरखों की ज़मीन
कहा ज़मीन बंजर है।

यहां एक बात गहरी है कि यदि ज़मीन किसान से ज़मीन समझकर खरीदी गई होती तो कुछ और बात होती, यहां तो ज़मीन को बंजर साबित किया गया और फिर इतना भर चुकाया गया कि यह लगभग छीनने जैसा ही है।
शहरीकरण को बढ़ावा यह कहकर दिया जा रहा है कि विकास हो रहा है और यह ज़रूरी है। जंगल से मूलनिवासी शहर की ओर आने पर मजबूर है और आपको यह गवारा नहीं-

आपका शहर जंगल को खा गया
आपको लगता है
सांप शहर में आ गया।

नीरज की भाषा बेशक सादा है, कोई ठोस बिम्ब नहीं हैं, परंतु स्थानीयता है कविता में जो ताकत देती है-

तुम्हें हमारे पिछड़ेपन से कोई मतलब नहीं
तुम खरगोशों के लिए जंगल साफ करना चाहते हो
अपने शिकारी कुतों के साथ।

नीरज नीर की कविताएं साबित करती हैं कि कवि का किसानी से गहरा जुड़ाव है। किसान को अपने ही खेत में मजदूर बनते कवि ने देखा है-

उसे दे दी जाती है एक अदद नौकरी
अब बुधुवा उरांव अपने ही खेत से
निकालता है कोयला।
वैज्ञानिक कहते हैं
उसकी हड्डियां और उसका सखुआ
कालांतर में बदल जाएंगे कोयले में।

कवि ने कुछ प्रश्न बड़े ही बेबाकी और निडरता से उठाए हैं जो आज के समय में उठाए नहीं जाते बल्कि चुपी साध ली जाती है-

हम बहुत सुकून में थे
अपने जंगल, जल, ज़मीन और पहाड़ों के साथ
अपने विश्वास और संस्कारों के साथ

फिर आए साहूकार......

फिर आया चर्च....

फिर आया लाल सलाम.....

और फिर इन बंदूकों के पीछे पीछे आई
बूटों की आवाज़।

झमाझम बारिश हो रही है
मैं सींच रहा हूँ
अपने लहू से
धान की फसल

मैं साइमन लड़का हूँ
मेरी मृत देह पड़ी है
धान के खेत में।

कवि नीरज कुमार नीर तो खतरनाक विचारों पर सीधा सीधा प्रश्नचिन्ह ही लगा देते हैं। जाति, धर्म, सम्प्रदाय आदि के स्वयंभू ठेकेदार अपनी अपनी सुविधानुसार विचारों को तोड़ते मरोड़ते आए हैं। यह खेल सदियों से चलता आ रहा है -

छल प्रपंच और सुविधा के अनुसार रचे गए
इन छद्म विचारों के खुरदरे पाटों के बीच
जो पिसती है
वो होती है मानवता
जो मांगती फिरती है भीख
मंदिर मस्जिद गिरिजा के चौखटों पर
और लहूलुहान नज़र आती है
लाल झंडे के नीचे।

पूंजीवादी व्यवस्था सब कुछ हड़पना चाहती है। बाज़ार की चमक दमक घर से होते हुए दिमाग तक पहुंच चुकी है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे केवल खरीद फ़रोख़्त ही दो मुख्य काम रह गए हैं। ज़मीन का असली मालिक तो बेदखल किया जा चुका है -

उसे बताया गया कि
कोई और ही है उसकी ज़मीन का मालिक
और उसे दे दी जाती है एक नौकरी
अब वह अपने ही खेत से
निकालता है कोयला।

कवि नीर ने प्रेम पर भी बड़ी संजीदगी से लिखा है। प्रेम पर लिखना सबसे मुश्किल काम है और इसे आसान समझकर हर दूसरा कवि प्रेम कविता लिख रहा है। नीरज नीर ने प्रेम की अभिव्यक्ति अपने अंदाज़ में की है-

उसने कहा
प्रेम लिखो
अच्छा लगता है पढ़ना
तुम्हारा लिखा प्रेम
और वो चली गई।

आ जाओ न
कि मैं लिख सकूँ
प्रेम फिर से...
मुझे भी अच्छा लगता है लिखना
प्रेम...।

स्त्रियों पर नए पुराने कवियों ने बहुत कुछ अनाप शनाप और अश्लील कहा है। ऊपर से आलोचकों ने भी एक कदम आगे बढ़कर ऐसे घटिया लेखन को प्रेम कहने और साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। कवि नीरज ने बड़े ही सम्मान और मासूमियत से सुंदर कविताएँ लिखी हैं-

औरत जब करती है प्रेम
तो कई रंगों वाली स्याही से
वह नीले जीवन पृष्ठ पर
दरअसल उकेरती है
एक अभिनव कविता
जिसे पढ़कर सृष्टि
बढ़ा देती है एक कदम आगे...

औरतें कवि होती हैं
वे अपनी उपस्थिति से
रचती हैं कविता।

नीर की ऐसी कविताएँ हमें आश्वस्त करती हैं कि अब भी प्रेम बचा है। वो सच्चा प्रेम जो देह के पार है, निश्छल, निष्कपट और अमर।
००
गणेश गनी


परख बीस नीचे लिंक पर पढ़िए

सच बतलाना नदी

https://bizooka2009.blogspot.com/2018/10/blog-post_7.html?m=1

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