07 अक्तूबर, 2018

नरेंद्र पुण्डरीक  की कविताएँ



नरेंद्र पुण्डरीक 


एक

जहां मेरा जन्म हुआ था वह एक
खपरैल वाली कोठरी थी जिसमें
जिसमें साल के बाकी दिनों में खाना बनता था
वह परमानेन्ट रसोई घर और
टेम्परेरी जचकी हाउस था जिसमें मेरे बाद
मेरे दो भाई पैदा हुये थे
इसके बाद जचकी हाउस बदल गया  पर
वह कोठरी काफी लम्बे समय तक
हमारा रसोई घर बनी रही ,

अपने छोटे भाईयों से पांच - सात साल
बड़ा होनें के कारण लम्बे समय तक
उनकी आधी मां बना रहा
इसीलिए शायद मुझे गांव की
सबसे अधिक औरतें याद आती हैं
औरतें ही घर थी आदमी
औरतों के लिए ही घर आते थे
ताई के न रहने पर
मेरे ताउ साल के 300 दिन
घर के बाहर ही रहते थे
उनके घर आने पर
यह नहीं लगता था कि वह घर आये हैं ,
                 



दो

यह वह समय था जब औरतें
घर - बाहर के कामबूत में ही जल्दी निपट जाती थी
इसलिए औरतों के
जलानें की शुरुवात नहीं हुई थी
जो जल्दी नहीं निपट पाती थी
वे रात के अंधेरों में
कुवों की तरफ चलीं जातीं थीं
कभी कभी वे हिलक हिलक कर काम और
काम की यांत्रणा के बारें में बतलाती थी ,

जिन औरतों के बच्चे नहीं होते थे
बच्चे पालने पोसनें का सबसे अधिक सहूर
उन्ही में दिखाई देता था जबकि
पीठ पीछे वह निपूती कही जाती थी
जाने क्यों मुझे निपूती औरतें अच्छी लगती थी
लेकिन उनकी उदास आंखों से डर लगता था ,

गांव में  इन निपूती औरतों की
अच्छी खासी पांत थी
जो बुवायें कही जाती थी जो
उछाहिल और बीमार पतियों के मरनें के बाद
पिता और भाइयों के घर लौटा दी जंाती थीं ,

बुवायें गांव का ऐसा अखबार थी
जिसकी इबारत पढ़नें का साहस
अभी समय ने अर्जित नहीं किया था
अब तक जितनी दुनियां बनी थी उसमें
घर बाहर कहीं औरतों के अपनें
दुखों को रखनें की जगह नहीं बनी थी ,

इस समय नदी की छाती में बना
रेल का एक पुल था
जो समय का अकेला नया चेहरा था  जो
लोगों के चेहरों को बदलनें की कोशिश में लगा था ।










             तीन

स्कूल क्या था गायों का तबेला था
रात में मुखिया की गायें रहती थी
दिन में साफ सूफ करके हम लोगों की
बोरियों की फटिटयां विछ जाती थी
लेकिन इस पर भी
दिन भर में श्याम पट के शब्द
किताबों के पाठ कुछ नये सपनें
आंखों में बुन देते थे ,

पढ़ानें वाले मास्टर अपने हुनर और
ज्ञान के  मुंशी होते थे जो
शब्दों को हमारें भीतर
टांकें बिना नहीं छोड़ते थे ,

हम पढेरु लड़के उन घरों से थे
जिनमें हमोरा पढ़ना जरुरी
काम की तरह लिया जाता था
जब हम पढ़ते हुये  अपने पिता की
आंखों में सपने बुन रहे होते
ठीक उसी समय हमारे पिता
डन घरों क ेलउ़कों को
जो हमारी उमर के  ही होते
म्ंुांह अंधेंरे ही उठा कर
प्श्चिम की ओर मुंह करके खड़ा कर देतेे
जो घर आने के लिए दिन भर
स्ूरज के डॅूबनें का इंतजार करते ,

इस तरह उन्हे पता ही नहीं चल पाता कि
हमारा पढ़ना लिखना उन्हें हमेशा
वैसा ही बनाये रखनें का तिकड़म हैं ,

ज्ञान तो आखिर ज्ञान होता है
वह तिकडमों के बांधेें कहां बधता है
सो वह गायों को चराते हुये पढ़ते रहे
जूते गांठतें हुये पढ़ते रहे
सर में मैला ढ़ोते हुये पढ़ते रहे
वे कपउ़ा बुनते और कपड़ा धोते हुये पढ़ते रहे
लोहा  कूटते  और लकडी  अहारते हुये पढ़ते रहे
वे पढ़ कर हमारे सामने हैं
हमारे शातिरपने के जवाब में
हमारे पाठ
हमारे सामनें दुहरा रहे है|

                     


चार

जैसें मैंनें पद्मावती को नहीं देखा
वैसे मैंने नहीं देखा मंझली दाई  को
मंझली दाई के पीछे वीरेां का
कोर्इ्र शाका नहीं था
न किसी आक्रमण कारी ने
देख ली थी उसकी सुघढ़ देह ,

मंझली दाई की बहुत सी सहेलियां  थी
गांव में उस जैसी ही जवान और सुन्दर
उसने किसी को नहीं  लिया था अपने साथ
न अपनी आंखों से
उनकी आंखें ही तौली थी ,

वह चुपचाप अकेली निकली थी घर से
उसने अपनी मांग भी नहीं भरी थी
न किसी से दबवाई थी
अपने पांव की बिछिया
न पहले से तय जगह पर पहुंच कर
वह आग में कूदी थी
खुद ही अपनी देह की आग से
जली ंथी मंझली दाई ,
हालांकि इस देश में ज्यादातर
औरतों की देह में आ्रग नहीं होती
न चीखों में होते हैं शब्द
आग से जलाये जानें का इंतजार करती
पद्मावती पहली औरत नहीं थी
वीरों की शाकाओं से घिरी
आखिरी औरत भी नहीं थी पद्मावती
चित्तौड़ की सारी औरतें पद्मावती थीं
यानी सारी औरतें पद्मावती होती हैं
वीरों के शाकाओं  से घिरी ,

इन पदमावतियों के अपने अंधेरे होते हैं
जिनमें वे कुंवें में कूदती हैं
नदियों और पोखर में डूबती हैं
घर के जलते हुये चूल्हों में
बटलोई की जगह खुद बैठ जाती हैं
और जिन्हें कुवें नदियां
पोखर और जलते हुये चूल्हें नसीब नहीं होते
उन्हें उनके अंधेंरों से मुक्ति दिलानें के लिए
हमेशा आते हैं अलाउद्ीन
पद्मावतीं अलाउद्ीन का इंतजार करतीं हैं
और पदमावती के वीर अपने
शाका उठानें का करते हैं इंतजार ।
       





पांच 

जब मै पैदा हुआ था
चाँद में बैठी एक बुढ़िया की चर्चा  हो रही थी
बुधिया के काम के बारे में
हर आदमी के अलग अलग विचार थे
पचास साल के आस पास गुजर रहे पिता
इन दिनों काफी हलाकान थे और
गाँव में चर्चा में थे ए

देश में इन दिनों चर्चा में थे पंच शील
जिन्हें लेकर नेहरू हर हफ्ते विदेश जाते थे
बदले में ले आते थे गेहूँ
जो इन दिनों हमारे
गाँवों के खेतों में पैदा नहीं होता था ए

हम लगातार पन्द्रह साल तक
अमेरिका का गेहूँ खाते रहे और
अपने खेतों के कांस कुश  से जूझते रहे
धीरे धीरे नेहरू बूढ़े हुए और हमारी चिंता में
घुलते हुए खत्म  हो गये
नेहरू जब खत्म हुए उस समय हम
भांखडा नांगल का पाठ अपनी कक्षा में पढ़ रहे थे और
हमारे खेतों में गेहूँ उगने की शुरूवात हो गई थी ए

इन पन्द्रह सालों के बीच में
मुझे जहांतक याद है
गाँव का एक  भी आदमी
अपने खेतों में फांसी लगा कर नहीं मरा था ए

भूख थी लेकिन भूख की चिंता
आँखों में नही दिखाई देती थी
आँखों में भूख से लडनें के सपनें थे
भूख भी हमारी थी और
सपनें भी हमारे थे ए

भूख और सपनों से मिला जुला मन
हमें फांसी लटकने  से बचाता रहा
हम सब कुछ को सहते हुए
अपने सपनों को बचाए रहे ए

धीरे धीरे हमारी आँखों के सपनें
खेतों  में न उग कर
बाजार में उगने लगे
तो किस बूते अपनी धरती में टिकते हमारे पैर
जब आँखों के सपनें चुक जाते हैं तो
आँखें बंद हो जाती हैं
इसे हत्या कहे तो ठीक और
आत्महत्या कहे तो आपकी मर्जी  द्य




छ:

मैं लिखनें में लगा रहता हूं
पत्नी आकर धीरे से
चाय रख जाती है,

मैं पढंनें में लगा रहता हूॅ
पत्नी आती है ।
स्टूल खिसका कर धीरे से
रख देती है नाश्ते की प्लेट ,

मेरे नाश्ता खत्म करते करते
पत्नी आती है लेकर
पानी का गिलास
धीरे से कहती है
खानें में क्या लेंगें ,

मैं कहता हूं
जो मन कहे बना लेना
लेकिन थेाडा़ सा खाउंगा
पत्नी बिना कुछ कहे चली जाती है ,

मैं लिखे पन्नों को उठाता हूॅ
लिखे को पढ़ता हूं
पढे़ को लिखता हूॅ
मेरे पढे़ लिखे में
कहीं नहीं दिखती
आती जाती
नाश्ता पानी लाती पत्नी ।

   


सात 

वह अपना एक समय था
जब हम हिन्दू मुसलमान नहीं होते थे
होते तो अब भी नहीं हैं
लेकिन आज की तरह हर शहर में
हिन्दू मुसलमान बनानें के
कारखानें नहीं खुले थे ,

हर आदमी अपनी तई आदमी लगता था
अपनी तई महंकता था
नाक से नाक भिड़ा देने पर  भी
आदमी से हिन्दू मुसलमान की बूं नहीं आती थी
मस्जिदें नहीं थी इतनी
तो मन्दिर भी नहीं थे इतने कि
आदमी को आदमी की  तरह
रहनें की जगह ही न दें ,

मन्दिर थे और मस्जिदें भी थी
पर उनकी चिन्ता में आदमी थे
इश्वर और खुदा नहीं
जो था वह आदमी की मर्जी में था
यानी इश्वर आदमी की मर्जी से इश्वर था और
आदमी अपनी मर्जी से आदमी था ,
यह वह समय था जब आदमी के पास
आदमी होनें की अपनी ताकत थी
न हिन्दू होनें की ताकत थी न मुसलमान होनें की
न ईसाई न यहूदी होनें की
यह सारी ताकतें
आदमी के आदमी होनें की थंी
यह आदमी को पता था ,

आदमी को पता था कॉवरिया होनें  और
पाजी से  हाजी होनें का अर्थ
आदमी को पता था
ढोल  -नगाडे़
देवी जागरण के जयकारों में
किसकी आवाजें हैं और
कौन इस समय चैंन की नींद सो रहा है
देवी जागरण के पिछवाडे़ ।

                   


आठ 

सबसे पहले दिखाई थी मां ने
एक नन्हीं सी चिडि़या
जिसे छूनें पकड़नें को
लपके थे मेरे हाथ
वह फुर्र फुर्र कर के
इधर से उधर हो र्गइं थी ,

इसके पिता ने
दिखाई थी दरवाजे में बंधी
उजली धौरी कुछ ललछौही सी गाय
जिसे बहुत धीरे से छुआ था
मेरी उंगलियों ने
छूनें से थर थर्रायी थी उसके देह
सहम कर ठिठुक गयाथा मैं
गाय की वह थर थर्राहट अब भी
मेरे भीतर ठहरी हुई है
जो गाय को देख कर फिर
थर थरानें लगती है ,
जब कुछ बड़ा हुआ और आंखें
कुछ और देखना चाह रही थी
तो मुझसे कुछेक साल बडे़ भाई ने दिखाई
घर के बाहर सहन में खड़ी निबिया
जिसकी छर्राकों से बहुत दिन तक
करता रहा दातून और
दूर करता रहा अपनें दिनों की तापिश ,

यह निबिया ही थी जिसनें मुझे
उंचाई में चढ़ना
और उचाई से उतरना सिखाया
और जाना धरती में
पेड़ होनें का मतलब
और जीनें का सही अर्थ ,

कुछ और बडे़ होनें पर जाना कि
चिडि़या से पेड़ और
दरवाजे पर बंधी गाय से घर और
पेड़ के होनें से धरती अच्छी लगने लगती है
सोंच रहा हूं यदि यह तीनों न होते
तो यह दुनियां कैसी बनती ।

           







नौ 

यह उनमें नहीं थी
गांव के बाकी लड़कों की तरह
मेरे पास भी एक खाली मन था
जिसमें अटाय सटाय सब कुछ
डालते रहने पर भी बना रहता था
खाली खुक्क भांय भांय करता
घूमता रहता था गरमी की दुपहरियों में ,

इस खाली खुक्क मन में ऐसा कुछ
डालनें का जुगाड़ नहीं था किसी के पास
कि मन भरा भरा लगे
यदि किसी के पास था  तो भनक नहीं थी ,

सन साठ के आस पास किताबें नहीं थी इतनीं
भावों के मुताबिक शब्दों से परिचय नहीं था
जितना ज्ञान आैंर शब्द थे उससे
इतना ही कुछ हो सकता था जो रहा था ,

ले देकर कितने दिन बोलते उनके डायलाग
गर्मी के लम्बे दिन थे और
नदी थी और कुछ पेड़ थे सघन छाया वाले
कुछ लड़कियां थी जिनके सपने
आना अभी शुरु नहीं हुये थे
छोटी और कम ठंडी हवादार रातें थी
जो हमारी नींद के लिए अक्सर कम पड़ती थी ,

यह वह समय था जब खूब खिले फूल ़जैसी
औरतों के अच्छे लगनें की शुरुवात हो गई थी
उनके सरोकारों के लिए दौड़ लगाना
अच्छा लगनें लगा था
शायद यह लड़कियों से प्रेम करनें का या
होने का पूर्वाभ्यास था
औरतों के कपड़ों से आती भींनीं गंध से
अजीब सा कुछ महंसूस होनें लगा था ,

तब इतनी चीजें कहां  थी
एकाध कभी  किसी के घर आती थी
वह भी धरउवल की तरह हो लेती थी
शहर से कभी कभार एक  आइसक्रीम वाला जरुर आ जाता था
जिसके पीछे हम लड़कों की लम्बी कतार होती थी
इस कतार में शायद ही किसी के पास
खरीदने के लिए पैसे होते थे
सो आंखों के देखनें के लिए
सपनें कहां से लाते ,

लपलपाती दुपहरियों मे हमारे साथ
नीम और पीपल की घनी छायायें होती
ज्वार के डटेर के पुंगू होते
जिनसे कभी मुंह फूंकू बाजा बजाते
कभी पुंगू रगड़ कर पैदा कर देते आग
इन हाथों में सूखे पुंगूओं से आग
पैदा करनें की ताकत आगई थी
लेकिन यह समझ नहीं आयी थी कि
आग कहां लगानी है सो
आग पैदा करने का दम दिखा कर रह जाते ,

यह हमारे आग और पानी के दिनों की शुरुवात थी
सो हम उसके लिए हर कहंी खडे़ दिखाई दे जाते
इससे  अधिक कुछ करनें का हुनर नहीं था मालूम
जब तक कुछ देखनें से जानते कुछ सुनागुन से समझते
गाड़ी स्टेशन से आगे बढ़ जाती
हाथ हिला कर उन्हें विदा भी नहीं कर पाते
सो एक एक करके सब चली गई ,

इस संबंध में शहर के पूर्वज कवि
जो देखने सुननें में अच्छे खासे
गौरांग महाप्रभु दिखते और लगते थे
अक्सर कहते थे कि
भला हो हमारे उन पुरखों का
जिन्होंनें शादी के लिए अरेंज मैरिज चला रखी थी
वरना मैं अन व्याहा ही रह जाता मुझको कौन पूछता
मुझसे कौन प्रेम करता और
प्रेम कैसे किया जाता है मुझे मालूम था नहीं
जीवन का तो  उन्होंने नहीं खोला
लेकिन अपनी कविता में बंशी बजाई थी
बंशी राधा की थी या रुकमनी की
यह मुझे नहीं मालूम लंेकिन
प्रेम में वे अच्छा डोले थे
जिसे कविता में अब भी याद किया जाता है ,

यह प्रेम की करामात थी कि
एक दूसरे कवि ने जहंा कभी
उसकी आंखें फंस कर रह गई थी
वहां नाव बांधनें तक से मना कर दिया था
डोलने और मना करने की
वर्जनाओं के बीच फंसा हमारा प्रेम
कुछ न कुछ कर गुजरनें की फिराक की बजाय
वहीं का वहीं ठाव ठक्क करता रहा ,

अचानक एक रात जिसे कभी नहीं देखा था
उसे दिखा कर कहा गया हमसे
यह तुम्
हमारे  दाल भात में
   




दस 

यह सन् 1960 के आस पास का समय था
देश से अंग्रेज जा चुके थें
किन्तु हमारे आस -पास
उनकी छायायें ठहरी हुई थीं
जो जरा सा दिन उठते ही
लम्बी होनें लगती थीं और
रात में हमारी आंखों में
सपनें बन कर झूलती थीं ,

इनका छोड़ा हुआ निकरायल
छटैल तांबें का िछदहा सिक्का दन्नसे
बनिये की दूकान से
नून धनियां मिर्च
गुड़ तेल घी लेकर आ जाता था और
कभी ठसके से
हमारी कमर में बंध जाता था ,

इतना दमदार और सुखरु राजकुमार
दूसरा नहीं पैदा हुआ
चवन्नी की कभी चांदी हुई थी
जो गांधी जी के जाते ही
अस्त हो गई
पाई चवन्नी चांदी की
जय बोल महात्मा गांधी की
आज चवन्नी गांधी की तरह
चलन से बाहर होकर
टाट पटोरे में पड़ी रहती है
ल्ेकिन कभी  कभी चवन्नी के
वापस लौटनें का सपना
हमारी आंखों में अब भी आता रहता है ,

इस समय तक हमनें
हजारियें देखें नहीं सुने थे
जिन्होंनें हजारिये देखें थे
उनको हम आंखें फैला कर देखते थे ,

कुछ भी हो तब भी
सौ का ही राज चलता था
दस सौ का सबसे बड़ा
रुतबेदार मनसबदार था ,

इस समय तक अरबपति ,करोड़पति
हमारे किस्सों में भी नहीं आये थें
सैतुक की कौन कहे और
और लखपति इतने नये थे कि
जो रामलला की तरह
मौके पर ही मुॅह से लगाये जाते थे ,

इतनी जल्दी किस काले जादूगर ने
पनपा दिये देश में इतने
करोड़पति -अरबपति
जो कंकड़ की तरह हमारे
दाल भात में तक करकराते रहते हैें ।

           


ग्यारह 


जितना कर सकती थी मां
उससे अधिक करती रही
पूजा-पाठ
बरतती रही ब्रत उपवास
बरजती रही
घर में आने से छूत छैया
और हर किसी से
बरक बरक चलती रही ,

चूल्हे में आग देनें से पहले
लकडि़यों में छिड़कती थी गंगा जल
नहीं मालूम कि मरनें के बाद
क्ंया हुआ होगा मां का
देवदूत आयें होगें लेनें
या यमदूत
विमान में बैठी होगी मां
या गर्इ्र होगी भैसा की पीठ में बैठकर
बैतरणी में कौन सी गाय मिली होगी
काली मिली होगी या सफेद ,

मां उमंग में होती थी तो
पढ़ती थी सुखसागर और ब्रजविलास
और कुछ उदास होती थी तो
पढ़ती थी गीता
शायद उदासी का ही दूसरा नाम है मोक्ष
हर नई चीज को
बरतने  बरतानें से पहले
त्वदीयम् वस्तु गोविन्दम्  कहती मां को
लड़कों की की अच्छी खासी
कतार होते हुये भी
एक बिटिया न होनें का दुख सालता रहा ,

एक बिटिया होती तो
कैसी लगती बिटिया से लिपटी मां
ठीक अपनी ही जैसी प्रतिकृति
जो मां के न रहने पर
मां की सूरत और सीरत में
मां की याद दिलाती हुई रहती
और कुछ दिन हमारे बीच ,

मां अक्सर झॅूठ नहीं बोलती थी
पर कभी कभी वह युधिष्ठिर की तरह
सत्य बोल कर मर्माहत कर देतीथी
सो हम नही तय कर पाये कि
कोैन सा झूठ हमें बोलना चाहिए
इस तरह हमारी यह झूठ की दुनियां
युधिष्ठिर के सत्य से बनती रही ।

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नरेन्द्र पुण्डरीक 
              
जन्म - 06 जनवरी 1954  ,बांदा , ग्राम - कनवारा केन किनारे बसे गांव में 
समकालीन हिन्दी कविता के महत्वपूर्ण कवियों में से , कविता के महत्वपूर्ण आयोजनों में भागीदारी 
कविता संकलन - ‘ नंगे पांव का रास्ता  1992, सातों आकाशों की लाड़ली , 2000, इन्हे देखनें दो इतनी
ही दुनिया’ ,2014, ‘ इस पृथ्वी की विराटता में ’, 2015, केरल राज्य सरकार की केरलपाठावली में हाईस्कूल के पाठयक्रम कविता संग्रहीत वर्ष 2016 । 
आलोचना - ‘ साहित्य: सर्वण या दलित ’ 2010, मेरा बल जनता का बल है ,2015 केदार नाथ अग्रवाल
के कृतित्व पर केन्द्रित । 
संपादन- छोटे हाथ, 2007 , मेरे साक्षात्कार ,2009, चुनी हुई कवितायें -केदारनाथ अग्रवाल2011,केदारःशेष
अशेष ,2011,कविता की बात ,2011, उन्मादिनी ,2011, कहानी संग्रह केदारनाथ अग्रवाल , प्रिये -प्रियमन
2011, केदार नाथ अग्रवाल और उनकी पत्नी के पत्र ,आराधक,योध्दा और श्रमिकजन-,कविता का लोक आलोक -2011 केदार:शेष -अशेष भाग -2 2014, ओ धरा रुको जरा ,पाब्लो नेरुदा की कविताओं
का अनुवाद ,केदार नाथ अग्रवाल  । केदार नाथ अग्रवाल की विविध बिम्ब धर्मी कविताओं का चयन
कर 6 काव्यपुस्तिकाओं का  संपादन  
वर्तमान में -केदार स्मृति शोध संस्थान बांदा  के सचिव , ‘माटी’ पत्रिका के प्रधान संपादक  एवं 
     केदारसम्मान , कृष्ण प्रताप कथा सम्मान , व डा0 रामविलास शर्मा आलोचना सम्मान के संयोजक 
     एवं जन संन्देश टाइम्स  राष्टीय दैनिक के सांस्कृतिक रिर्पोटर  । 
पता - डी0 एम0 कालोनी , सिविल लाइन , बांदा - 210001 
        मो0 9450169568/8948647444

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