01 नवंबर, 2018

मैं क्यों लिखता हूँ ?

भरत प्रसाद

भरत प्रसाद

वह न जाने कौन सी ललक, कौन सी सनक, कौन सी तड़प है- जो बार-बार हाथों को कलम की ओर खींच ले जाती है। निश्चय ही कोई अन्तःप्रेरणा, लहक, तरंग सदैव जोर मारती है, बाहर आने के लिए, वरना जबरन प्रयास करके, कलम पर जोर देकर लिखा ही नहीं जा सकता। यदि किसी कृत्रिम दबाव में लिख भी दिया गया, तो उसमें न प्राण होगा, न धड़कन और न ही जीवनरस, फिर दृष्टि की बात ही क्या कहिए। एक तरफ हमारा अन्तर्बाह्य शरीर है, दूसरी तरफ शून्य के असीम, अगम्य विस्तार में फैला हुआ विश्व और ब्रह्माण्ड। समुद्र की लहरों की तरह मनोमस्तिष्क से अनवरत टकराता, पछाड़ खाता, भिगोता दृश्य-अदृश्य भौतिक जगत विचारों, भावों, तथ्यों, निष्कर्षों और वेदनाओं के न जाने कितने पंख लगा डालता है। हम कह पाएं या नहीं, लिख पाएं या नहीं, रचनात्मक अंदाज में साध पाएं या नहीं, पर अरबों वर्षों से असंख्य रूपाकार, रंगो-अंदाज में फैली हुई अद्वितीय, असाधारण, निर्विकल्प सृष्टि मन, चित्त, चेतना और अन्तरात्मा के प्रवेशद्वार पर जीवनभर दस्तक देती है। यह विचित्र किन्तु सत्य है कि सृष्टि के प्रत्येक तथ्य, सत्य, पदार्थ, दृश्य, घटना, रूप, आकार, रंग, लय, तरंग या गंध में संवादधर्मिता की प्राकृतिक क्षमता है। हमारा मनोमस्तिष्क एक ऐसा विलक्षण ट्रांसमीटर है, जो सृष्टि के सभी सत्यों से फूटते अर्थ को पकड़ने की सफल-असफल, आधा-अधूरा कोशिश करता है। यदि मन की ग्रहणशीलता में विलक्षण चुम्बकत्व है, अर्थ की बेमिसालियत को खोज लेने की नायाब क्षमता है और लीक से हटकर सत्य की कीमत आंक लेने वाली अन्तर्दृष्टि है- तो सृजन का बीज जमीन पा गया। सृजन के इसी बीजत्व का एहसास भीतर कर लेना हमारे लिखने का मूल कारण है। इतना ही नहीं हमारा एहसास एक प्रयोग भी तो है- प्रयोग इस अर्थ में कि चलिए देखते हैं कलम उठाकर कि हमारे शब्दों में तथ्य, सत्य, घटना के प्रचलित, सर्वज्ञात अर्थों से अलग, कुछ नयापन, भिन्नता या मौलिकता है या नहीं ? यदि कही कहाई गयी बात से अलग हमारे पास कहने को कुछ नहीं, तो वह रचना और जो कुछ भी हो- सृजन नहीं है। लिखता तो इसलिए भी हूँ कि साँसों का कोई मतलब सिद्ध कर पाऊँ, सीने में कोई मांसपिण्ड नहीं- मनुष्यता धड़कती है, यकीन कर पाऊँ। मैं महज एक शरीर नहीं, प्रकृति की ओर से मिला हुआ अवसर हूँ- अनुभव कर पाऊँ इसलिए लिखता हूँ। यह लिखना कागज और कलम की जुगलबंदी नहीं, चिलकती चेतना की रागिनी में थिरकती आत्मा का एकान्तिक नृत्य है, जो शब्दों में प्रकट ही होने का मोहताज नहीं। शब्दों में बंध गया तो सुखद, नहीं बंधा तो भी रत्ती भर कम आनन्ददायक नहीं।

यह विलक्षण सत्य दिन-प्रतिदिन गहरे से गहरे पैठता जा रहा अन्तरतम में कि जो कुछ भी इस सृष्टि में दिख रहा है वह सम्पूर्ण सत्य का मात्र एक तिहाई है। शेष वास्तविकता बहुआयामी, सूक्ष्म बल्कि  रहस्यमय है। कहना चाहिए  कि स्थूल,  भौतिक और  दृश्य सत्य प्राथमिक,  आरम्भिक, ऊपरी  और  परिवर्तनशील सत्य  है- जबकि शेष सत्य  जो कि सूक्ष्म,
अदृश्य भीतरी और स्थायी है वह बाह्य इन्द्रियों की पकड़ से परे है। उस सत्य को सामान्य आँखों से, सांसारिक मनोमस्तिष्क  से और भौतिकता को अन्तिम मानकर जीने वाली आत्मा से नहीं जाना जा सकता। अपनी आन्तरिक सूक्ष्मता में यह सृष्टि, उसका एक-एक रूप एक अद्वितीय और नैसर्गिक कलात्मकता धारण किए हुए है। उसकी अकृत्रिमता, उसका अनगढ़पन, उसका आदिम रंग और गंध निर्विकल्प है, दुहराव से परे है, यहाँ तक कि अव्याख्येय भी। सृष्टि के समुद्रपन का मुकम्मल सत्य तो बुद्धि-हृदय के दायरे में नहीं समाने वाला किन्तु सघन ईमानदारीपूर्ण विकट प्रयत्न करने से वह एक हद तक सधता है, प्रकाशित होने योग्य बनता है और चित्ताकर्षक मौलिकता की धारा में चमकने लगता है। अपनी विशेष रुचि दृश्य यथार्थ के प्रकाशन में अधिक नहीं बल्कि अलहदा किन्तु व्यापक यथार्थ के बेलीक उद्घाटन में विशेष है, पर है यह मनोकांक्षा ही। इसे कलम कितना साध पाती है और सारी चाहत के बावजूद प्रतिक्षण दस्तक देता यह अनुभूत सत्य अभिव्यक्त होने से कितना शेष रह जाता है- यह अलग प्रश्न है। हर विषय, वस्तु, घटना या दृश्य की अपनी अलग भंगिमा है, निर्मिति है, रंग और ध्वनि है, गंध और स्वाद है। इसीलिए एक कलाकार के भीतर (यदि वह प्रतिक्षण चैतन्यता की शक्ति रखता है तो) ये सभी विषय, वस्तु या दृश्य अलग-अलग और अलहदा प्रभाव जमाते हैं। जैसे तालाब, नदी और समुद्र तीनों का पानी, पानी होते हुए भी अपने रूप, रंग, भंगिमा और स्वाद में अलग-अलग प्रभाव छोड़ता है। एक ही बाग में आम के अलग-अलग प्रकार अपने स्वाद के दम पर अलग-अलग छाप छोड़ते हैं। भिन्नताओं की यह अद्वितीयता सृष्टि के पोर-पोर में स्थायी सत्य बनकर समाई हुई है। गज़ब की विविधता है दृश्य की अदृश्यता में, बेमिसाल मौलिकता है- यथार्थ की परिवर्तनधर्मिता में। तो इसी अद्वितीय भिन्नता, मौलकता और प्रतिपल परिवर्तन के दरसत्य को यत्किंचित बांध लेने के लिए, गा लेने के लिए, चित्रमय कर देने के लिए कलम उठा लेता हूँ, वरना मेरे हृदय को इसकी पक्की खबर है कि ताजा-ताजा अनुभूतियों की गरिमा से लबरेज न जाने कितने कलमकार कला की तान छेड़े हुए हैं, और एक से उम्दा एक रागिनी छेड़ेंगे, पर हम उनमें बहुत पीछे हो जाएंगे, लगभग नगण्य। इसीलिए शब्दों की सत्ता के एक आम सिपाही के तौर पर मूल दायित्व बनता है कि ताजा अनुभूतियों के बहाने सृष्टि का जो वरदान, जो उपहार, विलक्षण सत्य प्यासी आत्मा की विस्तृत घाटियों में बरस रहा है, उसे बांटते, लुटाते, गाते चलें वरना क्या पता कलम कब पूर्ण विराम ले ले और अन्तर्बाह्य शरीर पर चढ़ा हुआ यह दुर्लभ ऋण उतरने से अत्यधिक शेष रह जाय।

विषय, सवाल, मुद्दे या घटनाएँ हैं तो असंख्य, पर उन पर अभिव्यक्ति या प्रतिक्रिया का स्तर नितांत अलग-अलग होता है। स्थिति तो यह है कि एक ही विषय सैकड़ों कलम की नोक पर मुखरित होता है किन्तु प्रत्येक कलम का अन्दाज-ए-बयां अलग, शब्दों, वाक्यों की संरचना जुदा-जुदा, अर्थों की तासीर कुछ और ही। निश्चय ही प्रतिसृष्टि खड़ी कर देना मानक कलम की पहचान है, पर यह बेमिसालियत सदियों में ही कोई साहित्यकार खड़ी कर पाता है। हमारी अन्तश्चेतना की गहराइयों में यह कसक मची रहती है कि हमारे भी युग में कोई प्रतिसृष्टि रचने वाली कलम उठ खड़ी हो, जैसे रूस में गोर्की, चेखव, टालस्टाय और शोलोखोव ने रचा। भारत में रवीन्द्रनाथ, शरत् बाबू, प्रेमचन्द और रेणु ने रचा, फ्रांस में बाल्जाक ने रचा। क्या ही आश्चर्य है, जो प्रतिसृष्टि रचते हैं- उनके कद और हद के प्रति लाखें आम पाठकों का विश्वास एक ही अंदाज में बढ़ चढ़कर बोलता है। मैं न अपनी कलम से संतुष्ट हूँ, न ही अपने समकालीनों की कलम से। चाहे वे वरिष्ठ हों या युवा, प्रसिद्ध हों या बहुपुरस्कृत। स्थापित हों या शिखर पर विराजमान। मैं वक्त की अंधकारपूर्ण हैसियत को मात देने वाली कलम और अव्वल मेधा की तलाश में भटकता राही हूँ। न जाने यह भटकाव कब खत्म हो, किसको पाकर खत्म हो।
आजकल एक बड़ा संकट भाषा, शैली और शिल्प का है। इसमें दो मत नहीं कि आज की खिलंदड़बाज युवा पीढ़ी ने अपने बृहत्तर आम पाठकों को खोकर, बेतरह जुदा होकर अपनी झलक मारती फैशनदार कला को हासिल किया है। प्रेमचन्द या रेणु जीवन की तहों से उसके भीतर से नायाब कला की तलाश पूरी करते थे, इसीलिए वह जीवंत स्वाभाविक और हृदयगाही लगती थी। अब का कथाकार जीवन पर कला का मुलम्मा चढ़ाता है, बल्कि अपनी मनमानी कलाबाजी से जीवन की नैसर्गिक विविधता, अनगढ़पन और सहजता को रंग डालता है। खुले शब्दों में कहें तो यह साहित्य के प्रति लेखक का अक्षम्य अपराध है- साहित्यिक अपराध। हमारी मंशा अपनी कलम के माध्यम से सदैव यही रही कि जीवन, प्रकृति, पदार्थ, सत्य अपनी अर्थवत्ता, महत्ता और गरिमा के साथ उद्भासित हां, मुखर हों और हमारी कलम की कला विषय के बहुमुखी अनमोल सत्य पर तनिक भी भारी न पड़ने पाए।

अपने आसपास, दूर या अलक्षित जगत के तथ्यों, सत्यें पर चिंतन, मनन करते हुए यह निरन्तर क्यों महसूस होता है कि तमाम बहुमूल्य मर्म बाकी रह गये हैं- कहे जाने से, स्थायी महत्व का बनने से। उदाहरण से यह व्यग्रता अधिक खुलेगी। विचारों की पंखुड़ियाँ मौन में सर्वाधिक क्यों खिलती हैं ? बोलना आरंभ करते ही वे सिकुड़ने क्यों लगती हैं ? अंधकार का कालापन सबकी निजी पहचान खत्म कर देता है, जबकि दिन का उजाला सबके निजपन को मुकम्मल पहचान देता है- चाहे वह सूक्ष्म हो या स्थूल, प्रकाशपूर्ण हो या अलक्षित। प्रकृति हो, विचार हों या जीवन सबकी जड़ें अदृश्य और अलक्षित क्यें होती हैं, बहिर्मुखी होकर जड़ों जैसी भूमिका क्यें नहीं निभाई जा सकती ? इसी तरह के सैकड़ों ऐसे प्रश्न हैं, जिसका उत्तर किताबों में नहीं मिलेगा, हाँ ! जो प्रकृति की असीम पाठशाला का स्वच्छन्द विद्यार्थी है, उसे ऐसे अप्रत्याशित किन्तु मूल्यवान प्रश्नों के उत्तर मिलते रहेंगे, बस हृदय से उत्तर पाने की सच्ची पुकार उठती हो, दोनें आँखें प्रतिपल सत्य का दीदार करने के लिए बिछी पड़ी हों और चेतना आग की लपटों की भांति सैकड़ों दिशाओं में लपलपाती फिरती हो।

सवाल तो यह भी मूलभूत है कि जो व्यक्त हुआ है किसी कलाकार की कलम से वह प्रामाणिक, शक्तिशाली और कालजीवी है या नहीं। सत्य की अभिव्यक्ति उतनी मूल्यवान नहीं, जितना कि उसे स्थायित्व की क्षमता प्रदान करना है, उसे प्रदीर्घ उम्र दे देना है, उसकी पहचान को अमिट बना देना है। इसके लिए चाहिए तीक्ष्ण, विलक्षण सत्यानुभूति, पारदर्शी चिंतन, पारंगत भाषा और हृदय की गहराइयों में धंस जाने वाली मार्मिक शैली। जाहिर है- ये सारी दुर्लभ क्षमताएं यूंही अचानक हासिल नहीं होतीं। खुद को आत्मश्रम की धौंकनी में बार-बार तपाने, गलाने और तराशने के बाद ही यह कठिन क्षमता हासिल होती है। हाँ ! जिसे यह कला मिल गयी, वह प्रामाणिक प्रतिसृष्टिकार बना। मैं स्वयं अपने सामने एक प्रयोग हूँ, आजमाइश हूँ। यह कहना लगभग असंभव है कि मैं जो भी रच रहा हूँ उसमें समय की कसौटी पर टिके रहने की क्षमता है या नहीं, पर आकंठ शिद्दत से भाव साधना करने के सिवाय विकल्प क्या है ? रमना है, मथना है, डूबना है, गढ़ना, काटना, निचोड़ना है- इंच-दर-इंच, कदम-दर-कदम, साँस-दर-साँस खुद को। यही अपना अन्तिम मोर्चा है और कलम के प्रति जवाबदेह रहने की शर्त भी। वैसे आजकल लेखन एक कैरियर व्यवसाय, फैशन और धन्धे का रूप अख्तियार कर चुका है, पर यह अपने आप में स्वतः स्फूर्त अन्तःप्रेरणा ही है। इसी रूप में प्रज्ज्वलित रहकर वह जेनुइन और नवोन्मेषी रह पाती है- वरना जहाँ दुनियावी मकसद उसमें घुसा बेतरह पतन और क्षरण शुरू हो जाता है। वैसे संस्कृत के आचार्यों ने भी कविता रचने के उद्देश्यों में 10 आकांक्षाएँ गिनाई हैं, जिनसे प्रेरित होकर कवि कलम संभालता है- पर इससे भी बड़ी और ऊँची दृष्टि है- आकांक्षाशून्यता, अर्थात् सृजन के बूते सांसारिक उपलब्धियों की मानसिक गुलामी से मुक्ति। याद कीजिए कबीर, सूर, तुलसी, गुरुनानक और मीराबई का क्या मकसद था ? किस निजी महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए वे दोहों, चौपाईयों में अपनी आत्मा को निचोड़ रहे थे, पदों और गीतों के पीछे अपने अश्रुमय हृदय की भावधारा प्रवाहित कर रहे थे। आज तो सभी को अमर, प्रसिद्ध और स्थापित होने की अहक है, तब उन कवियों में समाज और मनुष्य के लिए मिट जाने की सनक थी। कहाया वही स्वर्ण काल, जब साहित्य का लक्ष्य इसके सिवाय कुछ न था कि वक्त की दिशा-दिशा में प्रेममय मनुष्यता की औघड़ अलख जगाई जाए। अब मकसद न जागरण है, न मनुष्यता का निर्भीक आह्वान है और न ही समकालीन मनुष्यता को मौलिक ढांचे में ढलने का स्वप्न। आज साहित्य से जुड़ी हुई लेखक की प्रत्येक आकांक्षा निहायत आत्मग्रस्त हो चुकी है। मैंपन बेहिसाब बोल रहा है लेखक-दर-लेखक में। इसी मैं पन की महामारी से खुद को मुक्त करने और साहित्य को भी यथासंभव इसके परिणाम से आगाह करने के लिए लिखने का दायित्व लिए चल रहा हूँ। कसक तो है ही कि अपने पाँव सामान्य मनुष्य के अंदाज में ही चलकर संतुष्ट कैसे रह जा रहे ? मैं तो मुक्तिबोध के उस कठिन, परम सजगतामय एहसास को हासिल करना चाहता हूँ कि- ‘एक पैर रखता हूँ कि सौ राहें फूटतीं।’ यदि मेरी निगाहें सिर्फ दृश्य को देख पायीं तो शर्तिया अंधी हैं, यदि हमारा हृदय सिर्फ अपनों के लिए धड़कता है तो पम्प करता हुआ मात्र एक मांसपिंड है, यदि हमारा मस्तिष्क मन की गुलामी बजाता हुआ केवल स्वार्थग्रस्त कल्पनाएं करता है तो जानवर हमसे श्रेष्ठ है। दरसल खुद की दर्जनों गुलामियों से बगावत करने और कम से कम अपने स्तर पर अपने संसारबद्ध मन को परास्त करने के लिए लिखता हूँ। इसीलिए भी लिखता हूँ कि केवल लिखने से कुछ नहीं होता, कुछ कर बीतना लिखने से कई गुना ज्यादा कीमती है।

वैसे तो अनकहा ही सम्पूर्ण है और हर कहा अपूर्ण। चाहे वह वाणी से प्रकट हो या कलम से। दर्शन, कविता, उपन्यास के बहाने अभिव्यक्त हो या इतिहास, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र के बहाने। हमारी अभिव्यक्ति की प्रकृति ही ऐसी है कि उससे बहुत कुछ छूट जाता है, अतिशय मूल्यवान और जरूरी भी। जैसे दिशाएँ केवल 4, 8 या 10 नहीं, सैकड़ों होती हैं, जैसे ऋतुएं 4, 6 या 12 ही नहीं, बल्कि दर्जनाधिक होती हैं, जैसे मनुष्य केवल एक, दो, तीन नहीं बल्कि दस चेहरे का होता है, वैसे ही दर यथार्थ सदैव शब्दातीत, वाणी से परे, अभिव्यक्ति के उस पार। कहना तो यह भी चाहिए कि अस्तित्व सर्वाधिक एहसास में उपस्थित रहता है, परन्तु उसका विस्तार अनुभूति के भी उस पार है अनुभूति की साधारणता या विलक्षणता के आधार पर हमारे एहसास की ऊँचाइयाँ सुनिश्चित होती हैं। एक कवि खलील जिब्रान हुए, जिन्हें वृक्ष वे कविताएं नजर आती हैं, जिन्हें धरती आकाश पर लिखती हैं। किसी कवि के लिए वह हराभरा पूर्वज, तो किसी के लिए पृथ्वी की ममता का रहस्य। इसी तरह सृष्टि में छाए हुए लाखों, करोड़ों सूक्ष्म-स्थूल, दृश्य-अदृश्य अस्तित्व हमारे एहसासों में उतरकर न जाने कितने रंग-ढंग की अनोखी, आश्चर्यजनक परिभाषाएं रचते हैं। यथार्थ को निराला ने परखा, मुक्तिबोध, नागार्जुन और अज्ञेय ने भी, परन्तु यह अनुभूति की दिशाओं एवं स्तरों की मौलिक भिन्नता ही है, जिसके कारण एक ही विषय पर किसी की अभिव्यक्ति, किसी से तनिक भी तालमेल नहीं खाती।
यही जो अनछुआ सा शेष-विशेष है, यही जो दृश्यमय होकर भी रहस्यपूर्ण सा लगता है, यही जो पास होकर भी अपरिचित सा रोमांच भरता है, यही जो कहा जाकर भी अनकहा रह जाता है- उसे ही कह पाने के लिए अपने ही ढंग से तराश देने, खड़ा कर देने के लिए लिखना चाहता हूँ। एक मामूली, सामान्य और सीधी बात जो तनिक भी मूल्य, महत्व और तात्विक अर्थ रखती है- यदि अनकही रह गयी, यदि अलक्षित रह गयी, यदि कलम के मेले में दब-कुचल गयी, उपेक्षित हो गयी- तो बार-बार उसे ही उठाने की तड़प है- मेरा लेखन। वैसे मुझे यह भी मालूम है कि असंख्य कीमती भाव, विचार, अर्थ छूटेंगे मुझसे भी, चाहे हम उन्हें साधने का कितना भी जतन और प्रयत्न क्यों न कर लें।
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भरत प्रसाद
                                             
 एसोसिएट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग
                                           
पूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्यालय, शिलांग
                                                   
मो. 9774125265


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